गुमनाम ज़िंदगी
इक इत्तेफ़ाक है तुम्हारी आंखें,
जिसमें मेरी ज़िंदगी की, पूरी गज़ल धरी है,
जब,जब देखते हो एकटक मुझे,
नज़्मों की साज - सज्जा संभालती, जुगली करती तुम्हारी आंखें,
विरह वेदना के तान छेड़ती है,
तुम इसे नहीं समझोगे, प्रिय सांझ,बसंत मेरे,
तुम्हारे नयनों की पुरवैया, जिया में उल्फत के शोर मचाती है,
मद्धम सिंदूरी सुबःह झांकती है जब झरोखों से,
नवजीवन का विहान, जागती है मेरी आंखों से,
तुम्हारी पलकें,उठती,गिरती है,
सुदूर वादियों में,घना अंधेरा छा जाता है,
थोड़ी अधढकी,थोड़ी खुली पलकें,
ये रात गुलाबी हो जाने की आहट देती है,
फिर जागती है आंखें तुम्हारी,मुझमें
और रात सदियों में भी नहीं गुजरती है,
फिर वही इत्तेफ़ाक से,कई रातों से जागी मैं
इक अधूरी गज़ल लिखती हूं,
पूरा जी लेने के चक्कर में
फिर वही अधूरी मुहब्बत लिखती हूं
जिसमें नाम तुम्हारा सांझ रहे
और जीवन की बसंत मैं बनूं
ख़ामोशी पसरी,इस किराए के किरदार में
इस सफ़र को हम गुमनाम जिंदगी कहते हैं।
प्राची सिंह "मुंगेरी"