सम्पूर्ण ब्रह्मांड में गुरु के समान कोई कृपालु और दयालु नहीं है।गुरु का दर्जा भगवान के समकक्ष है,गुरु ही जीवन की नैया पार करा सकते हैं।गुरु का बखान करना संभव ही नहीं है,गुरु सर्वोपरि है।उनकी कृपा हो जाये तो शिष्य के लिए असंभव भी सम्भव हो जाता है।गुरु के आशीर्वाद से ही ब्रम्हज्ञान की प्राप्ति हो जाती है,शिष्य निर्गुण,निराकार ब्रह्म को सगुण-साकार रूप में प्राप्त कर लेता है।जिस प्रकार नदियां सागर से मिलकर सागर हो जाती हैं,उसी प्रकार शिष्य भी गुरु के सानिध्य में ब्रम्हरूप को पाकर समुद्ररूप हो जाता है।संत कबीर ने कहा भी है "गुरु गोविंद दोनों खड़े,काके लागूँ पाँय"अर्थात अगर गुरु और गोविंद एक साथ खड़े हो तो किसे प्रणाम करना चाहिए? ऐसी स्थिति में गुरु के चरणों में शीश झुकाना उत्तम है।पारसमणि के बारे में कहावत है कि पारस के संपर्क में आने से पत्थर पारस बन जाता है,वैसे ही गुरु के आशीर्वाद से शिष्य गुरु के समान महान अर्थात पारस बन जाता है।सचमुच बड़े ही सौभाग्य शाली होते हैं वे जिन्हें ऐसे महान गुरु के शरण में आने का अवसर मिलता है।ऐसे ही एक शिष्य एकनाथ हुए जो गुरु को ही माता,गुरु को ही पिता और कुलदेवता मानते थे।