अपने ज्ञान पर गर्व करना अज्ञानता की निशानी है, जिन्हे गर्व है अपने ज्ञान पर वो भगवान् कृष्ण की दृष्टि में सबसे बड़े अज्ञानी है. ज्ञान से गर्व पैदा नहीं होता, गीता में भगवान् कृष्ण ने कहा है कि कर्मयोग में ज्ञानीजनों की बुद्धि तो एक होती है; किन्तु अस्थिर विचार वाले विवेकहीन सकाम मनुष्यों की बुद्धियाँ निश्चय ही बहुत भेदों वाली और अनंत होती है. सत्य सिर्फ सत्य ही है परन्तु अज्ञानी उस सत्य में भी भेद कर उसको अपने ढंग से परिभाषित करते है. जिसने कृष्ण को अव्यक्त , ज्ञान रूप को जान लिया , वही सच्चा ज्ञानी है. सत्य को परिभाषा की आवश्यकता नहीं है, वो अटल है. गुरु का सम्मान करना हमारा धर्म है, परन्तु गुरु का अपने ज्ञान पर गर्व, अधर्म है. ऐसे अधर्मी गुरु का सम्मान करना भी अधर्म ही है. गुरु गोबिंद दोनों खड़े, का के लागू पाए, बलिहारी गुरु आप की गोबिंद दियो मिलाये. गुरु गोबिंद यानी सत्य से मिलाने का साधन है परन्तु जो गुरु स्वयं को गोबिंद मान ले और अपने पूजन के लिए कहे वो गुरु कहलाने के काबिल नहीं है, अज्ञानी है. आज ऐसे गुरुओं की संख्या कम नहीं है, यहाँ तक की वो अपने को भगवान् बताने लगे. गुरु से ज्ञान की प्राप्ति होती है जो सत्य के दर्शन कराता है, गुरु आदरणीय है, पूजनीय नहीं, पूजनीय सिर्फ सत्य है, जो ईश्वर है, गोबिंद है. जो शिष्य गुरु को ईश्वर मान उसकी भक्ति करे , उसे ज्ञान की प्राप्ति नहीं होती. गुरु से तर्क - वितर्क करके ही ज्ञान की प्राप्ति होती है. किसीका भी, मनुष्य ही नहीं जीव और जंतु सभी का प्रथम गुरु तो स्वयं माँ होती है. जीवन यात्रा में हम किसी ना किसी से कुछ सीखते है वो सब भी हमारे गुरु है, जिसमे जीव और जंतु भी आते है . महाभारत में अर्जुन गुरु भक्त हो गए थे तब भी भगवान कृष्ण को अर्जुन को समझाना पड़ा था कि सत्य के सामने कोई महान नहीं है चाहे सगे संबंधी हो या गुरु हो. यदि गुरु ईश्वर होते तो कृष्ण उनकी हत्या के लिए पांडवो से ना कहते. जो सत्य के साथ ना हो वो धर्म का शत्रु है मेरा शत्रु है, कृष्ण को ये सब कहने की ज़रूरत ना पड़ती. महाभारत युद्ध ने और कृष्ण के गीता के उपदेश ने यह सिद्ध कर दिया था कि ईश्वर भक्ति के अतिरिक्त कोई भी भक्ति सही नहीं है. गुरु भक्ति, पितृभक्ति, देशभक्ति, सभी में कोई ना कोई दोष है. भक्ति और मोह दोनों ही मनुष्य को पाप के रास्ते पर ले जा सकते है. भीष्मपितामह पितृभक्त थे तो धृतराष्ट्र पुत्र मोह के रोगी. गुरु द्रोणाचार्य राजा या राज्य जिसे आज देश कहा जा सकता है उसके भक्त थे. जो राज्य या देश भक्ति के नाम पर स्त्री का चीरहरण भी देखते रहे उसके विरोध में खड़े होने की हिम्मत ना जुटा सके? एक ही व्यक्ति था जिसने देशभक्ति और गुरु भक्ति से निकल कर सत्य की बात की थी और वो व्यक्ति आज के समाज में कहे तो दलित था " महात्मा विदुर " , क्योकि वो दासी पुत्र थे. राज दरबार में उनका अपमान होता रहा, इसलिए क्योकि वो सत्य के साथ खड़े थे. उनके लिए बुरे शब्दों का प्रयोग किया गया, यहाँ तक कि उनको बता दिया गया कि भले ही आप मंत्री हो या महाराजा के सौतेले भाई पर यहाँ तुम सिर्फ नौकर हो नौकर हो. कृष्ण ने तो कर्ण को भी सलाह दी थी कि सत्य के लिए दोस्ती और उसके एहसानों को भी ध्यान में नहीं रखना चाहिए. या तो कृष्ण गलत थे या आज का समाज जो कृष्ण की गीता को समझने की जगह पूजने लगा. गीता पूजा करने की कोई वस्तु नहीं है एक ज्ञान का भण्डार है, पढ़ने और समझ कर उसके बताये मार्ग का अनुसरण करने की पुस्तक है. जब हमें मोह वश , भक्ति वश उनको मानाने या समझने की ज़रूरत नहीं होती तो हम उसे पूजनीय बना देते है. पूजनीय माता जी या पूजनीय पिता जी तो सब कहते है पर उनकी बाते कितने लोग मानते है? किसी को पूजनीय मत बनाइये उनके बताये आदर्शो पर चल लीजिये यही उनका सम्मान है. गुरु द्रोणाचार्य की हत्या के लिए अर्जुन ने अर्धसत्य कहने के लिए भी मना कर दिया तब युधिष्टर ने वो अर्ध सत्य बोला, मेरे विचार से तो वो अर्ध सत्य था ही नहीं सत्य था. क्योकि उसमे यह नहीं कहा गया था कि द्रोणपुत्र, फिर भी युधिष्टर ने कृष्ण के कहने पर यह बोल दिया. अर्जुन ने गीता के उपदेश के बाद कृष्ण भक्ति की, इसलिए कृष्ण के इस कथन को नहीं माना .यही महाभारत में उल्लेख है कि युधिष्टर धर्मराज के पुत्र थे और विदुर स्वयं धर्मराज के अवतार , यही कारण है कि उन्होंने कभी भी धरम का साथ नहीं छोड़ा. देश संकट में था युद्ध में लिप्त था और विदुर ने त्यागपत्र दे दिया, क्योकि वो देश भक्त नहीं सत्य भक्त थे सत्य के साथ थे. आज के समाज में शायद ही कोई बिरला होगा जो इतनी हिम्मत दिखा सके. विदुर पर भी दोषारोपण किया गया था कि वो देश द्रोही है.
अब बात करते है रामायण काल की. क्या राम पितृभक्त थे या देश भक्त? जो स्वयं पूरी सृष्टि का रचियेता हो वो पृथ्वी के एक छोटे से हिस्से का भक्त कैसे हो सकता है? राम भक्तो ने भगवान् राम को राजा राम बना दिया, और उनके नाम पर अपनी राजनीति शुरू कर दी. पितृ भक्त होते तो वो वनवास पर नहीं जाते क्योकि पिता ने उन्हें आज्ञा नहीं दी थी, लेकिन सत्य यही था कि उनके पिता ने वचन दिया था और उन्होंने उस सत्य के लिए पिता की आज्ञा के बिना वनवास जाने का फैसला किया, पिता की मृत्यु पर भी उनके आखिरी संस्कार के लिए भी नहीं गए. जहाँ रामायण में इस बात का ज़िक्र किया जाता है कि लंका जितने के बाद भी वो लंका देखने नहीं गए और कहा कि जननी जन्म भूमि स्वर्ग के सामान है, जिसे कुछ लोगो ने सामान को महान कर दिया. जननी का मतलब यहाँ माँ से है और जन्मभूमि ज़रूरी नहीं कि तुम्हारा देश ही हो. इसमें अंतर करना पडेगा कि जन्म भूमि और देश दो अलग अलग चीज़े है. उनके पुत्रो ने ही उनके विरोध शस्त्र उठा लिए थे तो क्या उनके पुत्र देशद्रोही नहीं थे? क्या भगवान् राम ने उनके ऊपर देशद्रोही का आरोप लगाया? नहीं, क्योकि वो जानते थे कि उनके पुत्र सत्य के साथ है, और यही कारण था कि सभी योद्धा उन बच्चो से हार गए थे.
राम के मित्र विभीषण पर भी देशद्रोही के आरोप लगे लेकिन फिर भी भगवान् राम उनके साथ इसलिए थे कि विभीषण सत्य के साथ थे. रावण के सभी योद्धा जानते थे कि रावण सत्य के रास्ते पर नहीं है लेकिन देशभक्ति और मोह, इन दो कारणों से उन्होंने राम से युद्ध किया और मृत्यु को प्राप्त हुए. तब क्या राम ने उन लोगो से है कहा था कि राजा भक्ति जिसे आज देशभक्ति कह सकते है , सही है? उन्होंने क्या सत्य का साथ देने को नहीं कहा था? गुरु परशुराम के अभिमान को भी भगवान् राम ने तोड़ा था. इसलिए भक्ति सिर्फ एक की ही की जा सकती है और वो है परम सत्य यानि ईश्वर. सम्मान किसी का भी किया जा सकता है , अपने विरोधियों का भी पर भक्ति किसी की भी नहीं. (आलिम २०१८-९-५)