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ढह रही इमारत

8 नवम्बर 2021

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ढह रही है इमारत ख्वाबों की,
 दूर  खड़े  हम  देख  रहें  हैं।

 ख्वाब बुनते बुनते
 कहाँ आ पहुँचे थे,
 मगर ख्वाब ढहते ढहते
 ज़रा  भी  देर  न  लगी।
 ख्वाबों को टूटते टूटते,
दूर खडे़ हम देख रहे हैं।

कारवाँ में चलते चलते,
 दूर  आ  गए  हैं।
मगर दीवार ज़र ज़र होने का मंज़र
 दिखने  में  देर  न  लगी।
कारवाँ में चलते चलते, 
खुद को ज़र ज़र होते देख रहे हैं।

नहीं मालूम कहाँ तक सफर है
नहीं मालूम कहाँ पे मंज़िल है
मगर  ख्वाबों  के  कारवाँ  को
रुकने में ज़रा भी  देर न लगी।
फासला तय करते करते
टूटते आशियाने को देख रहे हैै।

                             - जूही ग्रोवर      

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