इतने दिनों बाद फिर से मैं यहाँ आ पाई हूँ | परिवार और जीवन की कई उलझनें होती हैं जिससे भाग पाना मुश्किल होता है | इस यात्रा के यही उतार - चढ़ाव हमारे नाम और अस्तित्व की पहचान बन जाते हैं | जीवन के दूसरे पहर में अपने अनुभव बाँटने का सुअवसर शब्द डॉट इन पर मिला। अपनी पहचान हमारे साथ पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलनी चाहिए। कहने का तात्पर्य है कि प्रतिभा एक बार अपने निखार पर आती है तो उसके जलवे से परिवार का हर सदस्य प्रभावित होता है। इसलिए युवा पीढ़ी को मार्गदर्शन देना हमारा कर्तव्य बन जाता है| इसके अंतर्गत मेरी रचना , जिसका शीर्षक है 'सजा ' -
रोज-रोज की नई फरमाइशें, न पूरा करने पर धमकी देना,सुन-सुन कर माँ तंग आ चुकी थी | आज उसने दृढ़ता से कहा,
" जा, चला जा | जहाँ जाना है |"
बेटे को एक झटका लगा | उसने पलट कर माँ को देखा | वह सपाट चेहरा लिए अपने काम में मग्न थी | बेटे ने भावनात्मक ठेस द्वारा अपना उल्लू सीधा करना चाहा,
" सोच ले! जाने लगूँगा तो ( माँ की आवाज की नक़ल करते हुए ) बीटा रुक जा, मैं किसके सहारे जीऊँगी... कहते हुए मेरे पीछे दौड़ेगी । "
" अब पीछे नहीं आऊँगी। जब ही औरत माँ बनती है, उसमें हर पीड़ा सहने की ताकत आ जाती है| " माँ ने गहरी नजर बेटे पर डाली |
बेटा सकपकाया, परन्तु प्रयास जारी रखा,
" फिर किसका सर गोद में रख कर सुलायेगी, किसके लिए खाना बनाएगी, किससे बाजार का काम करवाएगी ?"
" ईश्वर सबका सहारा है | उसने मेरे लिए भी कुछ सोचा होगा | " माँ का स्वर भावहीन था |
" तुम्हें मुझसे जरा भी स्नेह नहीं है ?" बेटे ने अंतिम प्रहार किया |
माँ अब सीधा मुखातिब हुई, " जब संतान सुख देती है, तब ममता उस गर्मी से पिघलती जाती है | लेकिन वही संतान जब दुःख देती है, तब ममता कैंसर बन जाती है | "
बेटा धराशायी हो चूका था |