राजनीति एक ऐसा शब्द है जिससे सभी वाक़िफ हैं | एलेक्शन , वोट , नेता, उनके पैंतरे , लुभावने एजेंडे सभी कुछ राजनिति का ही हिस्सा तो है | आम आदमी को अपनी सरकार से क्या चाहिए और उसे क्या मिलता है , यह जानने की ज़हमत कोई नहीं उठाना चाहता है | इसी केन्द्रीय भाव के साथ मेरे एक साथी ने कविता लिखी है ' आह नाजिर , वाह नाजिर ' , जिसकी चंद पंक्तियाँ हैं -
जहाँ राजनीति का कीड़ा है , / बस वहीं भयंकर पीड़ा है |
जनता खुश , खड़ी कतारों में / मायूसी मरघट - सी, मक्कारों में |
कोई जरूरी नहीं कि आज भी हमारे नेता उसी सोच के साथ काम करें | आगे हम साहित्य जगत से नए जज्बातों को पैदा कर सकने की उम्मीद तो कर ही सकते हैं | जैसे इस लघुकथा के माध्यम से नेताओं के जज्बातों को ऊँचा उठाया गया है |