मनीष एक पढ़ा-लिखा, जोशीला, युवा किसान है और वह अपने गांव और गांव के अन्य युवाओं को भी नई तकनीक से जोड़ कर अपने गांव के युवाओं को पलायन करने से रोकना चाहता है।
इसीलिए वह हमेशा नई-नई तकनीकों के बारे में पता करता रहता है जो की खेती - किसानी और गांव के विकास के लिए उपयुक्त होती हैं । फिर अपने गांव में उसका प्रयोग करता है और बाकी लोगों को भी उसे उपयोग करने के लिए प्रेरित करता है जिससे उसकी गांव की तस्वीर काफी हद तक बदल चुकी है ।
वह हर रविवार को गांव की चौपाल में प्रेरणादाई व्यक्तियों के बारे में सबको बताता है जिससे सभी लोग प्रेरित हो सके । आज रविवार है और सभी बड़ी बेसब्री से मनीष की प्रतीक्षा कर रहे हैं । सबके मन में यही सवाल कि कौन है कि आज की कहानी का नायक ? मनीष किसकी कहानी सुनाने वाला है ?
चौपाल मे बच्चे ,बूढ़े ,जवान के साथ-साथ लड़कियां और महिलाएं भी उपस्थित रहती हैं । शाम के 4:00 बज चुके हैं चौपाल सज चुकी है । मनीष भी पहुंच चुका है अपना काम शुरू कर दिया ।
प्रोजेक्टर के माध्यम से वह अपनी आज की कहानी कहने के लिए तैयार था । वह प्रोजेक्टर के पास आकर बोला- आज के कार्यक्रम में सब का स्वागत है ! आज के हमारे प्रेरणा स्रोत हैं झाबुआ जिले के पद्म श्री विजेता श्री महेश शर्मा...... और इसी के साथ महेश शर्मा की एक बड़ी सी मुस्कुराती तस्वीर पर्दे पर आई । सब उन्हें देखने लगे ।
कैला काकी बोली - हाय दैया ! ई तौ हमार गांधी बाबा जैसन लागत हैं .. उनकी इस बात पर चौपाल पर उपस्थित सभी लोग हंस पड़े ।
तब मनीष ने कहा - हां काकी ! यह हमारे गांधी बाबा जैसे ही लगते ही नहीं बल्कि काम भी उन्हीं के जैसे करते हैं ।
तभी दूर खड़ी सोलह वर्षीय कृष्णा बोली - भैया इनके बारे में हमें पूरी बात बताओ ...
मनीष बोला - हां क्यों नहीं . .चलो मैं शुरू करता हूं ध्यान से सब देखना और सुनना ।
"दोस्तों गांधी जी जैसे दिखने वाले यह है पद्मश्री विजेता महेश शर्मा जी ....इन्होंने अपनी जीवटता और सतत प्रयास से झाबुआ की तस्वीर बदल दी ।
झाबुआ मध्य प्रदेश के दतिया जिले का एक गांव है और आदिवासी बहुल क्षेत्र है।
महेश शर्मा का रहन सहन और पहनावा कुछ-कुछ महात्मा गांधी जी जैसा है ..एक धोती और तन ढकने के लिए एक कपड़ा और यही उनकी पहचान भी है ।
हलमा अभियान से इन्होंने झाबुआ मे विकास और बदलाव की गंगा बहा दी ।
महेश शर्मा का जन्म मध्य प्रदेश के दतिया जिले के घूघसी गांव में 14 मार्च 1957 को हुआ था । महेश शर्मा कुल 9 भाई बहनों में तीसरे नंबर पर थे। इनका बचपन बेहद कठिनाई भरा एवं संघर्षपूर्ण था ।
प्राइमरी के बाद आगे की पढ़ाई के लिए गांव में कोई स्कूल नहीं था तो यह गांव छोड़ दतिया शहर आ गए । हालांकि उस समय इनके पास शहर में रहने व मकान का किराया देने के लिए भी पैसे नहीं थे फिर भी आ गए ।
कृष्णा मनीष से बोली -भैया फिर वह शहर में कैसे रहे और पढ़ाई कैसे की?
मनीष बोला - बताता हूं बताता हूं ! ध्यान से सुनना !...
मनीष ने बताया कि दतिया शहर के राजगढ़ चौराहे के पास सत्यनारायण मंदिर था । महेश शर्मा वहां गए और मंदिर के महंत अमर दास से मिले और अपनी समस्या बताई । पढ़ने की इस लग्न के मंदिर के महंत बहुत प्रभावित हुए और इस शर्त पर उन्हें रहने की अनुमति दी कि सुबह शाम उन्हें मंदिर की पूजा करनी होगी ।
महेश शर्मा मान गए और वहीं मंदिर में रहने लगे । वो लगन से पढ़ाई करते और सुबह शाम मंदिर में पूजा करते । इसी दौरान 1974 में विद्यार्थी परिषद से जुड़ गए और बाकी की पढ़ाई करने के बाद ग्रेजुएशन के लिए ग्वालियर आ गए पर उसी समय इमरजेंसी भी लग गई ।
इस बीच उनके बड़े भाई डॉक्टर ओपी शर्मा की नौकरी लग गई जिससे परिवार की हालात काफी सुधर गई इसलिए ₹7 प्रतिमाह पर किराए का कमरा लेकर दोनों भाई परिवार सहित वहीं रहने लगे ।
महेश शर्मा के पिता शिव प्रसाद दुबे चाहते थे कि वह सरकारी नौकरी करें लेकिन वह नहीं माने और नौकरी करने के बजाय उन्होंने सेवा भाव का रास्ता चुना इस बात से उनके पिता बहुत नाराज हुए और सार्वजनिक रूप से उन्हें बहुत खरी-खोटी सुनाई और कहा कि वह अपना भविष्य बर्बाद करने पर तुले हैं लेकिन महेश शर्मा अपना रास्ता चुन चुके थे और उस पर वह अडिग थे ।
1978 में पहली बार वह एक प्रचारक के रूप में शिवपुरी पहुंचे फिर ग्वालियर में काम किया इस बीच में संघ से जुड़ चुके थे ।
1998 में पहली बार प्रचारक के रूप में ये झाबुआ आए और वनवासी कल्याण परिषद में काम करना शुरू किया । झाबुआ में आने के बाद वो वही के होकर रह गये ।
यहां आकर उन्हें पता चला कि यहां के लोगों के बारे में बाहर नकारात्मक एवं गलत बातें प्रचारित की गई हैं । वहां के लोग बेहद सीधे, सरल एवं स्वाभिमानी और मेहनती थे । वह अच्छे के लिए अच्छे ,और बुरे के लिए बुरे थे भी थे । वह सब पुरानी एवं पारंपरिक पद्धतियों के साथ जीवन निर्वाह करते थे लेकिन नई तकनीक से वह सामांजस्य नहीं बैठा पा रहे थे जिससे वह समाज के मुख्यधारा मे पिछड़ गए ।
उन्होंने देखा कि गांव में जल का अभाव यहां की प्रमुख समस्या है फल स्वरुप खेती नहीं हो पाती है । किसान साल में एक ही फसल लेते हैं जिससे बेरोजगारी, भुखमरी और विकास का अभाव है । गांव के युवा इसी कारण अन्य राज्यों में मजदूरी करने चले जाते हैं।
मनीष की बातें सुन किशन लाल चाचा बोले - बेटा मनीष वैसे तो सब ठीक है पर यह पानी की समस्या सच में बड़ी समस्या है इसका समाधान कैसे महैश जी ने ?
मनीष बोला - चाचा आप एक बार पूरी कहानी सुनो सब समझ आ जाएगा ....सब ने कहा- हां हां! हमें पहले पूरी कहानी सुननी चाहिए ।
मनीष ने आगे कहना शुरू किया - महेश शर्मा सबको साथ लेकर सबके सहयोग से इस कार्य को करने में यकीन रखते थे और इसीलिए उन्होंने इस कार्य को जनभागीदारी से करने की ठानी ।
उन्होंने जन हितेषी और जन जागरूकता अभियान चलाकर पहले तो जल संरक्षण के लिए लोगों को जागरूक किया पर वो इतने से इससे संतुष्ट नहीं थे क्योंकि वह संपूर्ण क्षेत्र को आत्मनिर्भर शिक्षित और समृद्ध बनाना चाहते थे । यह एक बहुत बड़ा और कठिन लक्ष्य था सरकारी सहायता उन्हें अपर्याप्त लग रही थी इसलिए उन्होंने आदिवासियों की पारंपरिक पद्धति 'हलमा' का सहारा लिया और पहले हलमे में ही 800 लोग जुड़ गए ।
उसके बाद तो फिर लोग शामिल होते गए और इस अभियान के द्वारा 1 लाख 11 हजार जल संरचना एवं 70 हजार से भी अधिक वृक्ष, जनभागीदारी के द्वारा लगाए गए । जिसका नतीजा यह हुआ कि करोड़ो लीटर पानी जमीन में उतरा और जलस्तर बढ़ गया ।
कुछ ही समय मे झाबुआ जहां खेती भी नहीं हो पाती थी वहां किसान 1 साल में 2 फसले उगा कर अपना जीवन संवारने लगे और गांव का कायाकल्प ही हो गया ।
संघ से कुछ मतभेदों के चलते उन्होंने संघ का पदभार त्याग कर स्वतंत्र रूप से शिवगंगा की स्थापना कर लोगों को सिखाया की बंजर जमीन पर खेती कैसे की जाती है ।
हलमा अभियान से लेकर शिवगंगा की स्थापना और उस को जन जन तक पहुंचाने के बीच में उन्हें बेहद मुसीबतों और अवरोधों का सामना करना पड़ा ।
बहुत से लोग उनका विरोध करते पर वो जानते थे कि वह सही रास्ते पर है इसीलिए उन्होंने कभी अपने मार्ग नहीं छोड़ा और ना ही वह कभी किसी से डरे और सतत कार्य करते रहे ।
वो स्वयं आदिवासियों के उत्थान के लिए स्वरोजगार , उन्नत कृषि तकनीक ,जैविक खेती और बांस प्रशिक्षण पर जोर दे रहे हैं । आज महेश शर्मा झाबुआ की पहचान है ।
झाबुआ में हलमा और शिव गंगा अभियान से बहुत से लोग और अनेकों प्रतिष्ठित संस्थान बेहद प्रभावित हुए हैं । इंफोसिस ,टाटा इंस्टीट्यूट, आईआईटी रुड़की, आईआईटी मुंबई अथवा अन्य कई महत्वपूर्ण संस्थान झाबुआ जाकर महेश शर्मा के शिवगंगा मॉडल को देखते समझते हैं।
जब महेश शर्मा को पद्मश्री पुरस्कार के लिए नामांकित किया गया तब वह बोले कि - "सभी का काम सार्थक हुआ, मैं तो निमित्त मात्र बना हूं ।"
यह बात उनके जीवन के उच्च विचार और उनकी सादगी को दर्शाती है । मनीष ने कहा - आज की यह प्रेरणादाई व्यक्तित्व की कहानी यहीं समाप्त होती है ।आप सब इनके विचारों को अपने जीवन मे उतारे । चौपाल में बैठे सभी लोगों ने जोरदार तालियां बजाई और सभी इस बात पर सहमत हुए कि वह भी सामूहिक प्रयास करेंगे अपने गांव को संवारने के लिए ।
तभी काकी बोली - पर मनीष बिटिवा एक बात समझ में नाय आई ..ई हलमा का चीज है?
मनीष बोला- अच्छा सवाल किया चाची ! दरअसल हलवा आदिवासियों की एक परंपरा है जिसमें जब किसी भी व्यक्ति या परिवार पर समस्या आती है तो दूसरे सभी समूह के लोग मिलकर उनकी सहायता करते हैं और समस्या का हल करते हैं । जैसे यदि आग या बारिश में किसी का घर जल जाए या टूट जाए तो समूह के अन्य लोग बिना उससे कोई आर्थिक मदद लिए, मिलकर उसका घर ठीक कर देते हैं और इसी तरह जब किसी अन्य को कोई समस्या होती है तो वो और बाकी समूह के लोग भी मिलकर उसकी समस्या का हल करते हैं ...इसी को हलमा कहा जाता है ।
महेश शर्मा में इस परंपरा की ताकत को समझा और इसी का उपयोग किया । उन्होंने जल-संरक्षण व पेड़ लगाने के लिए समुदाय को प्रेरित किया । उन्होंने बताया कि यह समाज सबका है और उन सबको मिलकर कार्य करना होगा जिसे ग्रामीणों ने समझा ।
हलमा दुनिया को संदेश देती है कि सामाजिक समस्याएं मिलकर प्रयास करने से ही दूर हो जाती हैं ना कि कमरों में बैठकर कागज पर कानून बनाने से ।
इसके बाद प्रोजेक्टर बंद हो गया पर मनीष के इस प्रयास की सभी ने बहुत ही सराहना की । वह सब अपने गांव में भी हलमा के द्वारा स्वयं की मदद करने का संकल्प लेकर अपने-अपने घर गए ।
विद्या शर्मा
फरीदाबाद हरियाणा