न समझकर भावार्थ को बैसी दरिंदे बन सामने आते हैं।
न रखकर इज्ज़त बेटी कि सूली पर मर्यादा को चढ़ाते हैं।।
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कपड़ो से पहचान करते व्यवहार को नीचा दिखाते हैं।
बताकर खुदको सभ्य कलंकित नारी जात को करते जाते हैं।।
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मासूम को न समझकर बच्ची उस पर दरिंदगी का एसिड फिकवाते हैं।
नाम गंगाजल रखकर उस माँ कि ममता पर कालिक पूतवाते हैं।।
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बन कठोर बातों से इंसान होना ही भूल जाते हैं।
कैसी रीत ज़माने कि जहाँ रिश्ते तास में बंटे नज़र आते हैं।।
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मार काट के गला अपनों कि लाश पर ही जायदाद का नोटिस छपवाते हैं।
एक साइन लेने के खातिर माँ बाप को घर से वृद्धाश्रम छोड़ आते हैं।।
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बंद खिड़की से हवा कि तरह रिश्ते कि दहलीज पर कब्र का आशियां बनाते हैं।
घोलकर ज़हर व्यक्तित्व में पाषाण का जीवन बिताते हैं।।
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बनाई उस मूरत को भेडियों कि तरह शिकार करते जाते हैं।
लुटकर प्रकृति का आँचल उस पर शामियाने बनाते जाते हैं।।
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उड़ते हुए पंछी के परो को काटकर ज़मीन पर फिकवाते हैं।
ये कैसा खुमार चढ़ा इंसान में जो अपने आप सभी को कीड़े मकोड़ों कि तरह समझते जाते हैं।।
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अहम कि कस्ती में सवार खुद को ही लहरों में डूबोना चाहते हैं।
मारकर जमीर को अपने मुर्दों का संसार बसाना चाहते हैं।।
धन्यवाद.......✍️✍️👑👑
❤️Written by Madhuri Raghuwanshi❤️