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kachchisadak4

प्रवीण यायावर

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पुस्तक के भाग

1

मन कहे कहे आवारा बन जा ...

24 मई 2015
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मनवा कहे आवारा बन जा...

2 जून 2015
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कभी-कभी लगता है आवारा बन जाएं | मन करता है कि उठाएं एक छोटा बैग और निकल जाएं कहीं दूर बिना किसी उद्देश्य के| बस ट्रेन के पास वाली खिड़की मिल जाए और हरे भरे खेतों अपलक निहारते हुए चलते जाएं | किसी भी स्टेशन पर उतर जाएं फिर आगे का सफर किसी ट्रक के पीछे बैठ कर पूरा करें | किसी ढ़ाबे पर अपनी क्षुधा शान्

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नहीं मंजूर तुम्हारा ऐसा लोकतंत्र

26 फरवरी 2016
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जहां भूख से मरते बच्चे कर्ज के बोझ से दबे किसान कासड़कों पर उतरना खतरा बन जाए, बिना जमीर जिंदा होना एक शर्त बन जाए,जहां सवाल पूछनादेशद्रोह कहा जाए,हक मांगना विकास का रोड़ा बन जाए मैं थूकता हूं ऐसे लोकतंत्र परजहां संविधान और विज्ञान नहीं धर्म रटने पर पुरस्कार दिया जाए सिर कटाना ही देशभक्ति बन जाएमैं

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राष्ट्रवाद

26 फरवरी 2016
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डार्विन अच्छा किया तुमने बता दिया कि हम बंदर थे अब कह सकूंगा खुदा सेइंसानों को फिर से बंदर कर देना देना दोबारा ऐसा दिमाग इसकी बुद्घि को भी बंजर कर देताकि ना पनप सके फिर राष्ट्रवाद इस कमजर्फ नें धरती को लाल कर दियासिर्फ दो सौ सालों में लाशों से पाट दियादेखते ही देखते इसनें दुनिया को कंटीली बाड़ों में

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