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कलियुग की महिमा ( कविता )

26 मई 2015

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हे कलियुग तेरी महिमा बड़ी अपार मानव ह्रदय कर दिया तूने तार-तार अब तो भाई , भाई से लड़ते हैं बाप भी माई से लड़ते हैं बेटी , 

जमाई से लड़ती है सब रिश्तों में डाली तूने ऐसी दरार उजड़ गए न जाने कितने घर-परिवार हे कलियुग तेरी महिमा बड़ी अपार | 

अच्छाई को बुराई के सामने तूने घुटने टेकने पर मजबूर किया अपने , सपनों से कितनों को दूर किया फिर भी नहीं आया तुम्हें करार तो - कैसे -कैसे लोगों की बनवा दी सरकार हे कलियुग तेरी महिमा बड़ी अपार | 

दागी , जालसाजों को बनाया तूने मंत्री अच्छे लोग बने हैं अब उसका संतरी विद्वत - जनों के अब क्या कहने वे तो घूम रहे हैं यूँ ही बेरोजगार सारी मेहनत हो रही उनकी बेकार हे कलियुग तेरी महिमा बड़ी अपार |

चारों तरफ से आती है आतंक की ख़बरें जी करता है तोड़ दें आतंकियों के जबड़े मगर आदमी अब कुछ कर ही नहीं पाता कर दिया है तूने उसे, तन -मन से इतना बीमार न जाने कौन करेगा अब इस भ्रष्ट - तंत्र का उपचार हे कलियुग तेरी महिमा बड़ी अपार |

मनोज कुमार - मण्डल - की अन्य किताबें

मनोज कुमार - मण्डल -

मनोज कुमार - मण्डल -

बहुत - बहुत शुक्रिया , माननीय - आराधना जी , अनामिका जी एवं शब्दनगरी संगठन आप सबों को |

27 मई 2015

aradhana

aradhana

बेहतरीन कहीं ये उम्दा बात।

26 मई 2015

anamika

anamika

निष्पक्ष प्रस्तुती।

26 मई 2015

शब्दनगरी संगठन

शब्दनगरी संगठन

मनोज जी, सुंदर रचना हेतु बधाई !

26 मई 2015

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हिन्दुस्तां ज़िंदाबाद

28 जनवरी 2015
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करो कुछ ऐसा कि ये गुलशन आबाद हो गुलों को चूसते भँवरें सभी बर्बाद हो | खुशियाँ हीं खुशियाँ हों इस चमन में अब नाता हो भाईचारा का खत्म आतंकवाद हो | अमन-चैन की महक बिखरे फिजाओं में फासले मिटे , न किसी से कोई विवाद हो | भारत का नाम रौशन हो सारी दुनियाँ में हर शख़्श के जुबां पर हिन्दुस्तां

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सिलसिलेवार मौसम बदलते रहे ... ( ग़ज़ल )

19 मार्च 2015
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सिलसिलेवार मौसम बदलते रहे और हम बेपरवाह चलते रहे | हमें फूल का इक तिनका भी हासिल नहीं और वो समूचे गुलशन को मसलते रहे | न कोई उसूल , न कोई बंदिश हीं था न जाने कौन से साँचे में वो ढलते रहे | कैसे चलता उनके मक्कारियों का पता हर दफा नए भेष में वो मिलते रहे | उसे पकड़ने की कोश

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छुप गया घर मेरा दीवारों में ( ग़ज़ल )

19 मार्च 2015
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क्या लिक्खूँ मैं उन अखबारों में ​जो बिकता ही नहीं बाज़ारों में | थक गया ढूंढ के जिसे लाखों में वो मिला आखिर हजारों में | खो गई हैं चांदनी न जाने कहाँ ​ढूंढता फिर रहा चाँद , तारों में | मुझे देख उसे अठखेलियाँ सूझी छुप गया घर मेरा,दीवारों में | ​​ख़ाक आएगा दुश्मनी का मजा

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ये बर्बादी का मंजर ,ये तोहफे में खंजर ,किसने दिया .... ( ग़ज़ल )

19 मार्च 2015
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मुस्कुराते हुए लबों पे कितना दर्द छुपा बैठा है उन फरिश्तों के बीच कोई बेदर्द छुपा बैठा है | हुए पसीने से तर-ब-तर तो काँपने लगे थर थर इन गर्मियों में भी मौसम-ए-सर्द छुपा बैठा है | बीच भँवर से किसने बचा लाया मेरी कश्ती को ऐसा लगता है पतवार पे कोई हमदर्द छुपा बैठा है | लगता है किसी बोझ तले

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तुम कहो अगर तो .... ( कविता )

31 जनवरी 2015
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तुम कहो अगर तो तुम्हारे यौवन के उपवन में , मैं भँवरा बनकर आ जाऊँ रसीले अधर का रसपान करूँ और चुपके से उड़ जाऊँ | तुम कहो अगर तो तुम्हारे नेह की सरिता में , मैं समर्पित होकर कूद जाऊँ मन भावन स्नान करूँ और खुद को पावन कर जाऊँ | तुम कहो अगर तो तुम्हारे गेसुओं के शीतल छाँव में मैं सो

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तुमसे क्या याराने हुए ..... ( ग़ज़ल )

19 मार्च 2015
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तुमसे क्या याराने हुए ख़ुद से हम अनजाने हुए | तेरी इस मुस्कान पे ही हम तेरे दीवाने हुए | होंठ तेरे मय के प्याले नैंन तेरे मयखाने हुए | तुम संग हो तो दिवाली तुम बिन जग वीराने हुए | अभी अभी तो मिले ही थे लगता है कि ज़माने हुए | जितने लोग उतनी बातें उतने

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साल बदल गये लेकिन हाल वही है ... ( ग़ज़ल )

19 मार्च 2015
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साल बदल गये लेकिन हाल वही है सौदे बदल गये मगर दलाल वही है | मछलियाँ बदल गई जाल वही है स्टाईल बदल गये लेकिन बाल वही है | झूठ फरेबी मक्कारी में माहिर है जो कलियुग में तो मालामाल वही है | कुछ आदमी के अंदर जाग उठा है भेड़िया फँसते ही रहते हैं लोग,क्योंकि खाल वही है | तराने नये पुराने

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संसद में रोज रोज ड्रामा होता है ( ग़ज़ल )

19 मार्च 2015
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शोर होता है हंगामा होता है संसद में रोज रोज ड्रामा होता है | सभी एक्टरों के हैं भेष निराले पहने टोपी कुर्ताऔर पैजामा होता है | सत्ता में ये रावण कुम्भकरण के जैसे लेकिन चुनावों में कृष्ण-सुदामा होता है | सबकी अपनी डफ़ली अपना राग है कहने को राजधर्म का सारेगामा होता है | रंग बदलन

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तो हर सुबह इक शहर जला करेगा ( ग़ज़ल )

6 फरवरी 2015
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ना इंसाफी अगर खुदा करेगा सजदा फिर कौन इसका करेगा | किस्मत में अगर है साथ तेरा कौन तुमसे हमें फिर जुदा करेगा | कुदरत की अगर है हमपे नजर आदमी फिर क्या हमारा करेगा | डर ख़ुदा का अगर न हो इंसान को तो हर सुबह इक शहर जला करेगा | गिरतों से अगर वो नजर फेर ले कैसे उठने का कोई हौसला कर

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तबियत बदल जायेगा दवाई खरीद कर देख लो ( ग़ज़ल )

9 फरवरी 2015
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सन्नाटा खरीदने वालो शहनाई खरीद कर देख लो तबियत बदल जायेगा , दवाई खरीद कर देख लो | वफ़ा के तलाश में भटकते रहोगे आखिर कब तक वफ़ा नहीं तो नहीं सही ,बेवफाई खरीद कर देख लो | दहेज़ की आग में कब तक जलती रहेगी दुल्हन खरीदना हीं है तो , घर-जमाई खरीद कर देख लो | क्या होता है बिछुड़ने का

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खुद को कर बुलन्द इतना कि खुदा तुमसे आकर पूछे कि बता तेरी रज़ा क्या है

10 फरवरी 2015
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दिल्ली विधान सभा चुनाव में ऐतिहासिक जीत दर्ज कर ,अरविन्द केजरीवाल जी ने यह साबित कर दिया है कि - खुद को अगर इतना बुलन्द कर लिया जाय , तो खुदा को भी पूछने आना पड़ेगा कि बता तेरी रज़ा क्या है |बहुत- बहुत बधाई अरविन्द केजरीवाल जी को, ' आम आदमी पार्टी ' को ,सभी कार्यकर्ता को और समस्त दिल्ली वासियों को | अ

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प्रशासन पर शासन ( कविता )

12 फरवरी 2015
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चुनावों में ये देते हैं विज्ञापन मुझे अपना वोट देना भाइयों मिलेगा सबको बिजली ,पानी ,राशन | मिला इन्हें जब राज सिंहासन तो बैठ गये लगा कर भ्रष्ट राजनीती का आसन | कह गये थे देंगे सबको बिजली, पानी, राशन, पर दे रहे हैं दिल्ली -पटना में लम्बी -चौड़ी भाषण | सिखाये इन्हें कौन अनुशासन करते खुद ये

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आजादी का फायदा ( कविता )

12 फरवरी 2015
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उठाते हैं यही आजादी का फायदा न कोई कानून , न कोई कायदा रक्षक के भेष में भक्षक बने घूमते हैं लालच की गंध को कुत्ते की तरह सूंघते हैं गुनाहों के दुर्गन्ध में खड़े होकर उंघते हैं हर मामले में ये करते हैं सौदा न कोई कानून , न कोई कायदा उठाते हैं यही आजादी का फायदा | गरीबों के हिस्से का राशन ज

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किसको कहाँ कब क्या मिल जाये ( ग़ज़ल )

12 फरवरी 2015
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किस्सा है ये मेरा बड़ा अजीब दिल न रहा मेरा मेरे करीब | ढूँढू कैसे मैं अपने दिल को जाऊँ कहाँ किस-किस के करीब | सुना है वो है महलों की रानी क्या करूँ हाय अब मैं गरीब | अगर वो कहीं मुझे मिल जाये मुझ सा हो फिर कौन खुशनसीब | किसको कहाँ कब क्या मिल जाये होता सबका अपना -अपना नसीब |

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दुविधा ( कविता )

13 फरवरी 2015
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जब दुविधा में फँस जाते हैं लोग क्या करें और क्या नहीं करें कुछ समझ नहीं पाते हैं लोग जब दुविधा में फँस जाते हैं लोग | ये माना की यह नहीं हैं कोई रोग बहुत परेशान फिर भी हो जाते हैं लोग मिला नहीं पाते समय और कार्य का योग जब दुविधा में फँस जाते हैं लोग | मष्तिष्क में होती हैं विचारों

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ये चेहरा खिले गुलाब सा लगता है ( ग़ज़ल )

14 फरवरी 2015
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तेरा प्यार हमें इक ख़्वाब सा लगता है और ये चेहरा खिले गुलाब सा लगता है | बस गई हो इस कदर मेरी निगाहों में जिसे देखूं वो पहने तेरा नकाब सा लगता है | तुम्हें पाने की ख़्वाहिश भला किसे न हो तेरा हुस्न जो ला-जवाब सा लगता है | खो न जाना कहीं चाहने वालों की भीड़ में आज की भीड़ भी तो बे-हिसाब

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सब कुछ आँखें ही कह जाती है ( कविता )

14 फरवरी 2015
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दिल की बातें अक्सर दिल में ही धरी रह जाती है दिल कहता कुछ और जुबां कुछ और ही कह जाती है | सोच समझ के चाहे जितना भी रक्खो दिल की बातें सामना होते ही सनम से होठों पे जैसे ताले पड़ जाती है | ना भी कहो अगर दिल की बातें दिल में कसक और भी बढ़ जाती है दिल को थामे कौन भला जब दिल की

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तुम ही तुम नजर आते हो

14 फरवरी 2015
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कभी टिमटिमाते तारों के बीच कभी चमकते सितारों के बीच कभी हसीन बहारों के बीच सिर्फ तुम ही तुम नजर आते हो |

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गर हमें पता होता ( कविता )

15 फरवरी 2015
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गर हमें पता होता तुम मुझे चाहती हो तो मैं भी तुम्हें चाहता दूर इतना तुमसे शायद कभी न रहता गर हमें पता होता | कभी तेरी धड़कन में कभी तेरी सांसों में कभी तेरे ख़्वाबों में कभी तेरे ख्यालों में कभी तेरे नयनों की गहराइयों में डूब जाता गर हमें पता होता | तेरी पायल की रुनझुन को मैं सुन ल

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हमें कुछ तो करने दो ( ग़ज़ल )

17 फरवरी 2015
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मत रोको हमें अनजाना सा भय दिखाकर अपने स्वर्णिम भविष्य की ओर बढ़ने दो | लाखों संकटें भी आएँगी राहों में तो क्या सफलता के शिखर पर हमें चढ़ने दो | जब संघर्ष ही जीवन है हर इन्सां का तो उन हालातों से भी हमें लड़ने दो | जरुरी नहीं कि हमें नौकरियाँ ही मिले समाज को सभ्य बनान

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मुसाफिर ( बाल-कविता )

18 फरवरी 2015
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बढ़ते कदम मत रोक मुसाफिर थककर भी तुम बढ़ते जाओ अनन्त मुसीबतों से जा टकराओ अपने मंजिल को पाने की खातिर बढ़ते कदम मत रोक मुसाफिर | सूरज को भी नित मुसीबत आता है फिर कहाँ वह थककर रुक जाता है अँधेरे से संघर्ष करते रहता है एक नई सुबह को पाने की खातिर बढ़ते कदम मत रोक मुसाफिर | थककर अगर तुम रुक

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सपनों को खोकर ( कविता )

19 फरवरी 2015
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होता हूँ जब कभी मैं अकेले में खो जाता हूँ सपनों के मेले में फिर याद कहाँ कि हम क्या हैं कैसे हैं, कहाँ हैं, धँसता सा चला - जाता हूँ ,सपनों की गहराई में हक़ीक़त चाहे मेरी जो कुछ भी हो पर कितनी ख़ुशी मिलती है सपने में थोड़ी देर के लिए सब कुछ पाकर , शायद उतना खुश तो वह भी नहीं जिसने सब कुछ पाया,'स

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क़त्ल के डर से जा छुपा कातिल के घर ..... ( ग़ज़ल )

20 फरवरी 2015
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रहकर अपने अपने दायरों में देखो शायरों का जलवा मुशायरों में देखो | दरख़्त परिन्दे मुर्दे- जिन्दे सब दहशत में है खौफ है कितना दहशतगर्दों के फ़ायरों में देखो | जख़्म खाए हैं ट्यूबों के हिफाजत में जाने कितने ये चिथड़े -चिथड़े हुए उन टायरों में देखो | क़त्ल के डर से जा छुपा कातिल के घर हौसला है क

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जरुरत क्या थी ( ग़ज़ल )

21 फरवरी 2015
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किसी अन्धे को उजाले में टहलाने की जरुरत क्या थी जब शेर बनता ही नहीं तो शायर कहलाने की जरुरत क्या थी | जब तुम्हें मालूम था कि रहना है ताउम्र कोयले के खान में फिर गोरी सी दुल्हन को यहाँ लाने की जरुरत क्या थी | बात जब मालूम हो ही गई थी कानों- कान समूचे शहर को तो फिर

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सच्चाई

22 फरवरी 2015
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डूबते तिनके को देख कर खिल -खिला पड़ी कश्तियाँ | शहर में जशन मनाये गए जब जल रही थी बस्तियाँ | लोग भूख से तड़प रहे थे वहाँ जहाँ थीं बड़ी - बड़ी हस्तियाँ |

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आदमी

23 फरवरी 2015
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चाहे लाख ठोकरें लगाये ज़माने वाले आदमी फिर भी उठकर चल सकता है | अपनों के लगाये एक ठोकर से ही आदमी जल्द कहाँ सम्भल सकता है ||

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तेरे शहर से तो कहीं अच्छा है मेरा गाँव ( कविता )

26 फरवरी 2015
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तेरे शहर से तो कहीं अच्छा है मेरा गाँव नंगे पाँवों में भी यहाँ कंकड़ चुभते नहीं पुष्प की पंखुड़ियों सी लगती कोमल जब रक्खूं राह के धूल में अपना पाँव तेरे शहर से तो कहीं अच्छा है मेरा गाँव | अनगिनत लोगों की है भीड़ शहर में कोई किसी का नहीं हमदर्द शहर में तन्हाई में काटती हर कोई अपनी ज़िंदगी उबक

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अनेकों रिश्ते तेरे-मेरे दरम्यां सा है ( ग़ज़ल )

1 मार्च 2015
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वो दिल का खुला नीले आसमां सा है हर किसी पे वो शख़्स मेहरबां सा है | क्या हुआ जो चेहरे की चमक खो गई अभी तो खुश था और अब परेशां सा है | समंदर की लहरें क्यों आज खामोश हैं शायद आने वाला कोई तूफां सा है | चंद लम्हों में सुबह अब हो जाएगी ये अँधेरा पल दो पल का मेहमां सा है |

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डूबा पूरा शहर शराबों में था ( ग़ज़ल )

2 मार्च 2015
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जिसे देखा मैंने ख़्वाबों में था वो तस्वीर छपा किताबों में था | काँटों से उलझकर क्या हासिल कीड़े खुबसूरत गुलाबों में था | उम्र गुजरी जिनके ख्यालों में बेरुखी उनके जवाबों में था | पूछता किससे मयखाने का पता डूबा पूरा शहर शराबों में था | समंदर में जाकर न इतराओ 'मंडल' तू भी तो

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जवानी में गधे भी हसीन दिखते हैं ( ग़ज़ल )

2 मार्च 2015
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बड़े अजीबों-गरीब सीन दिखते हैं पापी परमात्मा में लीन दिखते हैं | कुत्ते की बात , क्या करते हो यार जवानी में गधे भी हसीन दिखते हैं | आईना किसने लगा रखा है आसमां में सितारों के जगह ये जमीन दिखते हैं | ये बँटवारे का मंजर है या कुछ और जमीन कम, ज्यादा अमीन दिखते हैं | ये बालों में

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मत सजा दिल की तश्तरी में मुझे कोई ... ( ग़ज़ल )

3 मार्च 2015
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अनेकों बार बिगड़कर अब संभला हूँ मैं अमीरों की बस्ती में सबसे कंगला हूँ मैं | मेरे दिल में इस कदर बैठा है कोई मानो किसी रईस का बंगला हूँ मैं | क्या करूँ जुल्फ रंगने का दवाई लेकर कहतें है लोग कि खानदानी टकला हूँ मैं | धूम मचाई मेरे गंजे सर ने ऐसे , जैसे - उस्ताद-जाकिर हुस

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होली का त्योहार

6 मार्च 2015
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इतराती , इठलाती , बलखाती मदमस्त,झूमती,नाचती-गाती अपने प्रियतम को पास बुलाती दिल की सारी दूरियाँ मिटाती जाने कैसे - कैसे स्वांग रचाती फागुन की बसंती बयार आई होली का त्योहार | जहाँ देखिये , जिधर देखिये उधर सतरंगी रंगों की फुहार बड़ों का प्यार , बच्चों का दुलार साजन-

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इश्क़ से ही रौशन ये फ़िजा भी तो है ( ग़ज़ल )

7 मार्च 2015
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इश्क़ में गर मज़ा है ,सजा भी तो है दर्दे दिल की यही इक दवा भी तो है | इश्क़ जीने की चाह,इश्क़ कँटीली सी राह इश्क़ से ही रौशन ,ये फ़िजा भी तो है | इश्क़ काँटों के फूल,इश्क़ अल्लाह-रसूल इश्क़ ख़ुदा का अज़ीम तोहफ़ा भी तो है | इश्क़ में कत्ले-आम,इश्क़ अमन का भी नाम इश्क़ ज़न्नत का पाक रास्

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राजधर्म ( कविता )

11 मार्च 2015
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देश में दंगे का तूफान आया जनता-जनार्दन बहुत घबड़ाया रोया,गिड़गिड़ायाऔर चिल्लाया मगर उसे बचाने कोई न आया | सुनकर नेता जी मंद-मंद मुस्कुराया उसने मन ही मन एक प्लान बनाया शीघ्र राहतकोष अभियान चलाया जगह - जगह से चंदा उघाया | फिर सब कारिंदों के साथ मिलकर खूब खाया - पि

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अखण्ड-ब्रह्मचारी ( ग़ज़ल )

12 मार्च 2015
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शहर में जो घूमता भिखारी है उसने होटल में रात गुजारी है | रात के डाके में इमाम भी था थाने में बन्द पड़ा पुजारी है | नित कुँवारी कन्याओं का भोग लगाते बाबा फिर भी अखण्ड-ब्रह्मचारी है | रातों -रात नसीब बदल गया जिनको भी मिला ठेकेदारी है | राज्य में सूखा है , किसान भूखा है पगा

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पैसा ( कविता )

13 मार्च 2015
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बड़े गज़ब की चीज होती है पैसा पैसे का गुण कुछ होता है ऐसा |कभी घोटाला तो कभी हवाला भी करवाता है ये पैसा |कभी गले में माला तो कभी मुँह काला भी करवाता पैसा |झूठ को सच और सच को झूठ बनाने में भी देर नहीं लगाता पैसा |अपनों से ही अपनों का भी गला दबाने से बाज़ नहीं आता पैसा |दोस्तों को दुश्मन ,दुश्मनों को दोस

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मेरे दिल के दरिया में ... ( कविता )

13 मार्च 2015
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मेरे दिल के दरिया में जब तेरे यादों की बाढ़ आती है ग़मों का बादल मेरे चेहरे पर छा जाती है आँखें सावन-भादो की तरह रह -रह कर बरस जाती है मेरे दिल के दरिया में जब तेरे यादों की बाढ़ आती है | मानष -पटल पर अतीत की

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इंसानों के लहू से अब दीप जलाये जाते हैं .... (ग़ज़ल )

19 मार्च 2015
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इंसानों के लहू से अब दीप जलाये जाते हैं घर जलाकर एक दूसरे का जश्न मनाये जाते हैं | इंसानों की लाश पड़ी है कई दिनों से सड़क पर लावारिश समझकर उसे नहीं दफनाए जाते हैं | लाश की ईज्जत भी पड़ गई है खतरे में तब से जब से इंसानों को जिन्दा जलाये जाते हैं | कहकहे लगाये घूमते हैं सरे-राह जुर्

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रेत के महल ( कविता )

20 मार्च 2015
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किये जो तुमने प्यार में पहल मन-उपवन में हुई चहल-पहल मेरे चेहरे के भी गये रंग बदल खिली मैं ऐसे मानो जैसे - खिला हो कोई मुरझाया कमल किये जो तुमने प्यार में पहल | न सुनी थी प्यार के गीत कभी पर सुनाये तुमने मि

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यह जीवन तो एक जंग है .... ( कविता )

22 मार्च 2015
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यह जीवन तो एक जंग है पर इनके अनेकों रंग हैं लड़कर ही जीते हैं सब शायद यही जीने का ढंग है यह जीवन तो एक जंग है | यह जीवन है रिश्तों के मेले जीना है फिर भी सबको अकेले मरना भी है हर किसी को अकेले सिर्फ कहने को एक -दूज

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बच्चों की किलकारियों में .... ( कविता )

23 मार्च 2015
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वीर जवानो तेरी कुर्बानियाँ यूँ बेकार नहीं जाएगी | बच्चों की किलकारियों में तेरी ही सूरत नजर आएगी | सो रहे होंगे जब हम चैन से सपनों में तेरी ही याद आएगी | किया जो तूने है माँ के लिए वो माँ क्या कभी भ

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सितारों की बस्ती आज अँधेरी पड़ी है ..... ( ग़ज़ल )

24 मार्च 2015
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सितारों की बस्ती आज अँधेरी पड़ी है खुदा - या आ गई कैसी ये घड़ी है | उम्मीदें हों रोशनी की अब किससे भला सितारों को ही जब अंधेरों की आदत पड़ी है | छा गया है इस कदर आतंक का आलम यहाँ इन्सां को देख इन्सां आज सहमी - डरी है |

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आवारा-पवन ( कविता )

25 मार्च 2015
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आवारा पवन का झोंका मेरे जुल्फों को बिखरा गई | छू कर गई जो तन को मन में मस्तियाँ जगा गई | लब जो कभी खामोश थे मेरे एक मीठी मुस्कान सजा गई | अहसास जो कभी पहले न था खुमा

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उदासी का बादल ( कविता )

25 मार्च 2015
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हँस न मुझपर ऐ सितम ढाने वाले अब हम हैं तेरे शहर से जाने वाले मुझे ढूंढता हुआ तू कहाँ तक जायेगा लौट कर फिर अपने शहर को आएगा गम है मुझे तब तू किसपे सितम ढायेगा ढूंढेगा तू फिर मुझे , मगर अफ़सोस !! मेरी परछाईं को भी नहीं पायेगा

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सिर्फ यादें हैं वो मुलाकात कहाँ गई ( ग़ज़ल )

26 मार्च 2015
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वो दिन कहाँ गए वो रात कहाँ गई सिर्फ यादें हैं वो मुलाकात कहाँ गई | सुनने को बेचैन हैं कब से कान मेरे तेरे लबों से निकली वो बात कहाँ गई | जी चाहता है उसी तरह भीगूँ मगर वो तुम,वो घटा,वो बरसात कहाँ गई |

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जीवन की कश्ती को फिर भी बचाये चलता हूँ |

31 मार्च 2015
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दिल के समन्दर में उठ रहा ग़म का तूफान जीवन की कश्ती को फिर भी बचाये चलता हूँ | परख ले न कोई मुझ ग़म के मारे को अपने ज़ख्मों को छिपाए,मुस्कुराये चलता हूँ | गर कह दिया किसी ने कुछ कहने को तो दास्ताँ अपने जीवन

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हे कलियुग तुम्हें शत्-शत् प्रणाम ( कविता )

1 अप्रैल 2015
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चौक -चौराहा स्टेशन दफ़्तर या दुकान सब जगह लागू हो गया अब नया विज्ञान नहीं था किसी को यह अनुमान , कि - सड़क के किनारे कभी भटकेगा भगवान हे कलियुग ! तुम्हें शत्-शत् प्रणाम | ढोंगी समझ बैठे हैं खुद को भगवान उनकी भक्ति में लीन नाच रहा इंसा

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बात-बात में अब हाथ में ख़ंजर क्यूँ है ( ग़ज़ल )

4 अप्रैल 2015
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बदला-बदला हुआ अब मंज़र क्यूँ है बात - बात में हाथ में ख़ंजर क्यूँ है | भार सौंपा जिन्हें मुल्क़ के हिफाजत का बन बैठा वही अब सितमगर क्यूँ है | है हमसफ़र वैशाखी का जो आदमी समझते खुद को वे सिकन्दर क्यूँ है |

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इस देश में ....( कविता )

4 अप्रैल 2015
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इस देश में गरीब जुल्म का शिकार है अशिक्षित है, बेरोजगार है शोषण है , बलात्कार है दहशत है,चीख है,पुकार है फिर भी आपस में बड़ा प्यार है | इस देश में नफरत की आँधी है न नेहरू है , न गाँधी है मानवता को बेच डाला सिर्फ चाँदी ही चाँदी है | इस देश में साधु हैं , संत हैं मौलवी हैं, महंत हैं

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ग़म-ए-जिंदगी ( ग़ज़ल )

15 मई 2015
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कई दिनों से घर में अन्न का एक भी दाना नहीं है कल का क्या , आज का भी कोई ठिकाना नहीं है | वक़त और हालात ने इस कदर बदला है रंग,कि घर में पड़ोसियों का क्या , चूहों का भी आना - जाना नहीं है | एक मुझे छोड़ दावतें उड़ाई पुरे मोहल्ले ने जहाँ वे सब के

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कितनी मुद्दत से हम-तुम मिले भी नहीं हैं..... ( गीत )

4 अप्रैल 2015
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शिकवे भी नहीं हैं ,गिले भी नहीं हैं कितनी मुद्दत से हम -तुम , मिले भी नहीं हैं रब जाने कैसी मजबूरियाँ हैं दूर -दूर हैं मगर , फ़ासले भी नहीं हैं शिकवे भी नहीं हैं गिले भी नहीं हैं ... बहुत याद आता है , वो साथ रहना कभी रूठ जाना , कभी कुछ न कहना चोरी से - चुपके से, सबको डराना वो लड़ना - झग

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गुनाह ( कविता )

5 अप्रैल 2015
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आदमी अपने जीवन में कुछ ऐसा भी गुनाह कर जाता है दूसरों के नजर में वह ठीक मगर अपनी हीं नजर में गिर जाता है | अन्तरात्मा तो हमेशा सच कहती है पर जुबां सच कहने से मुकर जाता है आदमी अपने जीवन में कुछ ऐसा भी गुनाह कर जाता है ...... ऐसे गुनाहों की टीस होती है ऐसी आदमी सह नहीं पाता है न चैन

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हम ऐसे चमन के वासी हैं ..... ( व्यंग्य - गीत )

5 अप्रैल 2015
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हम ऐसे चमन के वासी हैं जहाँ हरिद्वार-मथुरा-काशी है उनके भी नसीब में शांति नहीं जो हो चुके स्वर्गवासी हैं हम ऐसे चमन के वासी हैं | भारतीय संस्कृति की लाज बचाते पुराना से पुराना भी रश्म निभाते लोक -परलोक के समृद्धि की खातिर क्या-क्या नहीं, कर गुजर जो हैं जाते, वो पागल है वो मूरख है , जो क

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बदलती रुतों में सब बदल सा गया .... ( ग़ज़ल )

12 अप्रैल 2015
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दिलवाले हमें अक्सर मिलते हैं कहाँ दिल में किसी के घर मिलते हैं | जख़्म दे जाते हैं हर दफा वो नया हम उनसे कभी, अगर मिलते हैं | प्रेम का रोग होता है सबसे जुदा नहीं इसके कहीं डॉक्टर मिलते हैं | बदलती रुतों में सब बदल सा गया

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आदमी की जरुरत है आदमी .....( ग़ज़ल )

12 अप्रैल 2015
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आदमी, आदमी से डरता है आदमी, आदमी पे मरता है | जाने कैसे - कैसे हैं आदमी, आदमी, आदमी से लड़ता है | भुलकर ख़ुदा को ये आदमी आदमी पे भरोसे करता है | आदमी का कोई ठिकाना नहीं आदमी कुछ भी कर गुजरता है |

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चलो घोंसला बनायें कहीं दूर पहाड़ों में .... ( गीत )

19 अप्रैल 2015
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चलो घोंसला बनायें कहीं दूर पहाड़ों में जहाँ हम जी सकें चैन से चार दिन उन्मुक्त्त बहारों में | हो वो ऐसी जगह कि जहाँ पर कोई बहेलिया न हो , निर्भय हम उड़ सकें नीले अम्बर के पार अद्भुत संसारों में | मिले मन को सुकून जहाँ ख़्वाबों के खून कोई करने नहीं पाये , सपनों के गाँव

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वो गीत जैसी है वो ग़ज़ल जैसी है .... ( ग़ज़ल )

19 अप्रैल 2015
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वो गीत जैसी है , वो ग़ज़ल जैसी है मेरी सोनी सी दिलवर ताजमहल जैसी है | उन्हें देखकर मिलता है सितारों को सुकून मेरी सोनी सी दिलवर नीलकमल जैसी है | वो चाँदनी सी है , वो रागिनी सी है मेरी सोनी सी दिलवर मखमल जैसी है | वो ज़ि

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फरिश्तों के भी हाथों में खंजर दिखाई देता है ( ग़ज़ल )

20 अप्रैल 2015
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क्या बताऊँ कैसा मंजर दिखाई देता है रेगिस्तां में लहू का समंदर दिखाई देता है | ये कौन सा मुल्क है , यह कौन सी बस्ती है गली - गली में कुत्ता और बन्दर दिखाई देता है | ये ख़ुदा की मेहरबानी है या वक़्त का तकाज़ा है लंगड़ा -लुल्हा अब य

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वक़त का मिज़ाज ( ग़ज़ल )

22 अप्रैल 2015
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बदलते वक़्त का मिज़ाज देखिये गुंडों के सिर पे सजा ताज देखिये | राम सभा में चुप - चाप खड़ा है रावण का बुलन्द आवाज देखिये | हर कूंचे में हैं खून के छींटे भय से काँपता समाज देखिये | कौवे ने तय किय

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अंदाज़ बदल गया है (ग़ज़ल )

22 अप्रैल 2015
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हवाओं का अंदाज़ बदल गया है फिज़ाओं का अंदाज़ बदल गया है | फैशन के इस नये दौर में हर इक अदाओं का अंदाज़ बदल गया है | किसी भटके हुए मुसाफिर ने कहा दिशाओं का अंदाज़ बदल गया है | रिश्वतखोरी के इस युग मे

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ये रास्ते हैं राजदार मेरे ..... ( ग़ज़ल )

22 अप्रैल 2015
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ये रास्ता बहुत पुराना है लगता है जाना-पहचाना है | यक़ीनन ये रास्ते हैं वही इससे रिश्ता मेरा दोस्ताना है | चले हैं खूब इसपे हम कभी गुजरा हुआ वो इक जमाना है | ये रास्ते हैं राजदार मेरे

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बेचारा ( ग़ज़ल )

22 अप्रैल 2015
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बेचारा बे-मौत मारा गया पुरे घर का सहारा गया | जिस्म छलनी इतनी लगी गोलियाँ पानी जैसा खून का फव्वारा गया | किसी के जिगर का टुकड़ा था किसी की आँखों का तारा गया | लाचार, बेबस , इन्सान था वो

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खाकी , खादी और अपराधी यमदूतों सा टहल रहे हैं ( गीत )

23 अप्रैल 2015
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रंग - बिरंगे अजगर हमारे देश के कोने - कोने में पल रहे हैं और इस चमन के चैन -ओ -अमन को बिना डकारे निगल रहे हैं | कहीं पे रैली , कहीं पे रैला , कोई है नहला , तो कोई दहला जाति - धरम के नाम पर ये , जहर विषैले उगल रहे हैं | संसद - भवन के अंदर देखो , खेल ये क

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" कवि "

11 मई 2015
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कवि आज़ाद परिन्दे होते हैं कल्पना लोक में भरते उड़ान जन - जन में लाते क्रांति का तूफान मुर्दों में भी ला देते नई जान ये सभ्य समाज के साजिन्दे होते हैं कवि आज़ाद परिन्दे होते हैं |

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लोग

13 मई 2015
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लोग फ़क़त फूलों की इबादत किया करते हैं कभी उन काँटों से भी दिल लगाकर देखिये जो जख्म तो देते हैं , मगर हिफाजत भी किया करते हैं |

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मेरे हमदर्द

13 मई 2015
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मेरे हमदर्द तुम क्या जानो मुझ कलियों का दर्द आज खिली हूँ कल तोड़ लोगे हसरतें पूरी करके अपनी हमें बिखरने को छोड़ दोगे |

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जी मेरा चाहे तुम्हें यूँ ही देखता रहूँ ...... ( ग़ज़ल )

14 मई 2015
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मेरे मेहबूब मेरे सनम जान - ए - मन जान कुर्बान तुम पर मेरा गुलबदन | जी मेरा चाहे तुम्हें यूँ ही देखता रहूँ दूर नजरों से मेरे न जाना सजन | शहर की हर गली में है चर्चा तेरा नाम की तेरे सब गा रहे हैं भजन | सुन के चर्चा तेरा वो भी जिन्दा हुआ कब्र में था जो आ

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नफरतों के शहर में प्यार बांटते .... ( ग़ज़ल )

15 मई 2015
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प्रेमियों के यही पहचान होते हैं दो जिस्म मगर इक जान होते हैं | राज की बात आहिस्ता करो दीवारों के भी कान होते हैं | कौन सी बात किसे चुभ गई कहने वाले अनजान होते हैं | दिल का मुआमला दिल ही जाने

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" सिंदूर मेरा तो बाद में हो तुम " ( कविता )

15 मई 2015
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सिंदूर मेरा तो बाद में हो तुम पहले माँ के बेटे हो तुम | जाओ माँ की लाज बचाओ घर में क्या लेटे हो तुम | कहलाउंगी मैं शहीद की बीवी बोलो फिर क्यों डरते हो तुम | होगी गर्व से सिर मेरी ऊँची ये एहसान क्यूँ न करते हो तुम | अगर नहीं है तुझमे वो हिम्मत जाऊँ मैं ? ब

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आपको भी ये खुशनसीबी मिले ( ग़ज़ल )

17 मई 2015
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एक सुन्दर सी बीवी मिले साथ रंगीन टीवी मिले | बस यही आरजू है मेरी ससुराल बुद्धिजीवी मिले | भूल जाएँ सभी रिश्ते हम साली इतनी करीबी मिले | ससुर हो मक्खीचूस कंजूस सास लेकिन खर्चीली मिले |

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इक ग़म ही तो सच्चा हमदर्द सा लगे ( ग़ज़ल )

17 मई 2015
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कता - हर ख़ुशी में छुपा हुआ गम है गौर से देखिये मुस्कुराहटें भी नम है मगर उसे पहचानने वाला बहुत कम है | ------------------------------------------------------------ तेरी हँसी में छुपा लाखों दर्द सा लगे तेरी गर्म सांसें बहुत सर्द सा लगे |

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तल्ख़ नजरों से हमको न देखिये ज़नाब .... ( ग़ज़ल )

19 मई 2015
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लोग कहते हैं के हम ऱम पीते हैं ये न कहते हैं के हम ग़म पीते हैं | तल्ख़ नजरों से हमको न देखिये ज़नाब हम ज़माने का जुल्म -ओ -सितम पीते हैं | ग़म के मारों का है बस दवा इक यही ज्यादा है खुश वही जो हरदम पीते हैं | दिए जख़्

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" एक पाठक " ( कविता )

21 मई 2015
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मैं कभी आपके रचनाओं को पढ़ती तो कभी रचनाओं के साथ छपी आपके तस्वीर को गौर से देखती दिल में न जाने कितनी वेदनाएं लिए शब्दों को अंकित करते होंगे आप मुख पर जरा भी दुःख के भाव नहीं दिल में दर्द लिए , मुस्कुराते होंगे आप

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" पीड़ा "

21 मई 2015
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पता नहीं क्यूँ मुझसे देखा नहीं गया समन्दर की लहरों का बार - बार उन पत्थर दिल, पत्थरों से टकराना और चोटिल होकर पुनः लौट जाना शायद इसलिए की मेरी पीड़ा भी उन्ही लहरों के जैसी थी |

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मैं वो फूल कहाँ ..... ( कविता )

24 मई 2015
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मैं वो फूल कहाँ जो किसी माला में गूँथा जाऊँ मैं वो फूल कहाँ जो हरि-चरणों में चढ़ाया जाऊँ मैं वो फूल कहाँ जो किसी को भेंट दिया जाऊँ मैं वो फूल कहाँ जो किसी प्रेमी के दिल बहलाऊँ मैं वो फूल कहाँ जो किसी बगिया को महकाऊँ मैं वो फूल कहाँ जो दुल्हन की सेज पर सज जाऊँ मैं वो फूल कहाँ जो किसी जुड़

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" नई सुबह "

24 मई 2015
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ये काली रात भी ढल जाएगी एक नई - सुबह फिर आएगी पतझड़ को जाने तो दो गुलशन फिर से मुस्कुराएगी |

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" बारिश की बूँदें "

24 मई 2015
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खिले पुष्प की पंखुड़ियों पर ज्यों ओस की बूँदें लगती है तेरे लबों पर बिलकुल वैसी " बारिश की बूँदें " लगती है |

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कलियुग की महिमा ( कविता )

26 मई 2015
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हे कलियुग तेरी महिमा बड़ी अपारमानव ह्रदय कर दिया तूने तार-तारअब तो भाई , भाई से लड़ते हैंबाप भी माई से लड़ते हैंबेटी , जमाई से लड़ती हैसब रिश्तों में डाली तूने ऐसी दरारउजड़ गए न जाने कितने घर-परिवारहे कलियुग तेरी महिमा बड़ी अपार | अच्छाई को बुराई के सामने तूनेघुटने टेकने पर मजबूर कियाअपने , सपनों से कित

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" सूरज पूरब में हो ढला " ( कविता )

27 मई 2015
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तुमने किया नहीं किसी का भला भला क्या होगा कभी तेरा भला करता रहा तू हमेशा सबका बुरा तुम सा बुरा और क्या होगा भला | उजाले में हम कभी चले नहीं आग पे चल के हम जले नहीं बर्फ के बीच भी हम गले नहीं इससे ताज्जुब क्या होगा भला | शोलों के बीच भी ठिठुरते रहे सुखी नदी में हम तैरते रहे यकीं

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" क्या खाक ढूंढते हैं " ( कविता )

27 मई 2015
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बेरोजगारों की बस्ती में रोजगार ढूंढते हैं और शहर में आकर बाजार ढूंढते हैं | मौत की नगरी में जीने का सामान ढूंढते हैं जनाब मुर्दे के शरीर में प्राण ढूंढते हैं | चिता जलने के पूर्व ही उसका राख ढूंढते हैं जहाँ कुछ है ही नहीं वहाँ " क्या खाक ढूंढते हैं " |

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" चाँद "

28 मई 2015
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घटाओं से कह दो जरा वो चाँद को छुपाये नहीं हम उसी को देख रहे हैं ये बात उसे बताये नहीं |

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" पागल " ( कविता )

29 मई 2015
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हाँ - हाँ मैं पागल हूँ / मुझे पागल ही कहो / मुझे कोई दुःख नहीं होता तुम्हारे पागल कहने से / मैं बहुत खुश हूँ / कम से कम मुझे पागल तो कहते हो / लेकिन , लेकिन मुझे दुःख भी है और वो दुःख इस बात का है / कि - तुमलोग भी मेरे जैसा पागल क्यों नहीं हो | मैं जानता हूँ तुमलोगों के नजर में , मैं पागल क्

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" प्रश्न - चिन्ह " ( कविता )

31 मई 2015
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मैं पूछना चाहता हूँ / मारे दहशत के अँधेरे में बैठे लोगों से / किस दीप के रोशनी की आस लगाये बैठे हो ? वो ! जो कभी हमारे महापुरुषों ने जलाई थी ? शायद तुम्हें ये नहीं मालूम , वो दीप भी तो इस भ्रष्टाचार की आँधी में कब की बुझ चुकी है / आखिर ! कब तक माला जपते रहोगे ? रोशनी की एक किरण के लिए / क

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सोचते होंगे जरूर .......

1 जून 2015
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सोचते होंगे जरूर किसी के जनाजे को कांधा देने वाले ठीक इसी तरह किसी दिन मुझे भी उठायेंगे ज़माने वाले | जिसको जना मैंने एक दिन वही हमें कब्र में दफ़्नायेगा अलविदा कहने को मेरे साथ अपने लोग अनेकों आयेगा | साथ जीने मरने की जो वादा किये बैठी है , मैं जानता हूँ कल मेरी तस्वीर पर से वह धूल

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" नशा "

1 जून 2015
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आदमी नशे से घूट - घूट कर जिए जाता है बीड़ी सिगरेट गांजा दारू फिर भी पिए जाता है | इन्हें जरा भी शर्म नहीं आती औरों को भी सिखाये जाता है नशा नाम की इस जहर को जन - जन में फैलाये जाता है | टीवी दम्मा खांसी कैंसर जैसी बिमारियों को बुलाये जाता है नित - दिन नशे से जाने कितने मौत की सैय

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" शुक्रिया "

3 जून 2015
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दिल तोड़ कर जाने वाले मुझे पल - पल रुलाने वाले मेरे हाल पर मुस्कुराने का बहुत - बहुत " शुक्रिया " |

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भूल गए तुम वो लम्हें वो पल ..... ( ग़ज़ल )

3 जून 2015
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भूल गए तुम , वो लम्हें , वो पल वो कसमें , वो वादे किये थे जो कल | कल तुम क्या थे और आज क्या हो मीत मेरे तुम कितने गए हो बदल | चाहे हमें तुम दिल से भुला दो पर याद रखूँगी तुम्हें मैं हर पल | उल्फतों का त

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लेखक - मित्र

8 जून 2015
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हरियाणा में हिसार या उसके १०-२० किलोमीटर आस - पास के कोई लेखक - मित्र , यदि शब्दनगरी से जुड़े हुए हैं तो , श्री मान जी ,या श्रीमति जी , हम आपसे वैचारिक सहयोग की आशा करते हैं | हमें आपके सहयोग की जरुरत है | प्रतीक्षा में --- मनोज कुमार मंडल मोबाईल नम्बर - 09122011883 email - mandaljee420@gmail.

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ना इश्क़ में दिल को जला...... ( गीत )

22 जून 2015
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ऐ वतन के वीर ऐ नौजवां ना इश्क़ में दिल को जला तुम ऐसा कोई दीप जला जिससे रौशन हो अपना ये वतन | ऐ वतन के वीर ऐ नौजवां ना इश्क़ में खुद को मिटा मिटना ही है तुम्हें अगर तो वतन के वास्ते मिट जा करते रहेंगे अर्पण तुम्हें श्रद्धा के सुमन | ऐ वतन के वीर ऐ नौजवां ना इश्क़ के गीतों को गा

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नव वर्ष मंगलमय हो

1 जनवरी 2016
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शब्दनगरी संगठन और इनसे जुड़े सभी लेखकों  पाठकों और मित्रजनों को नव वर्ष की हार्दिक शुभ कामनाएं  |    

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" होली की शुभकामनाएं "

23 मार्च 2016
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शब्दनगरी संगठन और इनसे जुड़े सभी लेखकों , पाठकों  को होली की हार्दिक शुभकामनाएं  |

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अब मैं वह दिल की धड़कन कहाँ से लाऊंगा

10 दिसम्बर 2020
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जब-जब भी मैं तेरे पास आयातू अक्सर मिली मुझे छत के एक कोने मेंचटाई या फिर कुर्सी में बैठीबडे़ आराम से हुक्का गुड़गुड़ाते हुएतेरे हुक्के की गुड़गुड़ाहट सुन मैं दबे पांव सीढ़ियां चढ़कर तुझे चौंकाने तेरे पास पहुंचना चाहताउससे पहले ही तू उल्टा मुझे छक्का देती मेरे कहने पर

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