अमितेश कुमार ओझा
हमारे देश में
अच्छे – खासे पढ़े लिखे डिग्रीधारी नौजवानों को चंद हजार की नौकरी भले न मिलती हो,
लेकिन फिल्मी स्टार और क्रिकेट खिलाड़ियों की करोड़ों की कमाई की चर्चा यूं की
जाती है मानो दस – बीस रुपए की बात हो रही हो। कोई फिल्म रिलीज हुई नहीं कि उसे
करोड़ों में खेलने वाला करार दे दिया जाता है। वहीं क्रिकेट खिलाड़ियों की कमाई का
शेयर मार्केट लगातार उठता – गिरता रहता है। हमें समय – समय पर बताया जाता है कि इस
साल कमाई के मामले में अमुक खिलाड़ी फलां से आगे निकल गया और फलां पीछे रह गया। एक
खास वर्ग की कमाई का आम जनता के सुख – दुख से क्या नाता है, यह मैं कभी समझ नहीं
पाया। लेकिन गुस्सा इस बात पर आता है कि अपने मतलब के लिए हमारे समाज का अभिजात्य
वर्ग व्यर्थ का विवाद खड़ा करता रहता है। जनता को न चाहते हुए भी इसमें शामिल किया
जाता है और अंत में बेवकूफ बनती है जनता और फायदा लूटने वाले आगे बढ़ लेते हैं।
पहले फिल्म का विवादित बनाने के लिए उसमें खुलेपन का तड़का लगाया जाता था। अब
दूसरे फंडे अपनाए जा रहे हैं। बचपन से ही किसी फिल्म को हिट कराने के लिए चाहे –
अनचाहे विवादों का फंदा देखता आ रहा हूं। तब मैं बहुत छोटा था जब एक फिल्म आई
थी... नाम था गंगाजल। इस फिल्म में खलनायक का नाम साधु यादव था। जो बिहार के तब के
मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव के साले थे। तब इस कुनबे की बिहार ही नहीं बल्कि
पूरे देश में अच्छी – खासी धमक थी। लिहाजा फिल्म को लेकर खासा बवाल हुआ। लेकिन
फिल्म रिलीज होने से चंद रोज पहले खुद लालू और साधु यादव ने कह दिया कि इसमें
आपत्तिजनक कुछ भी न हीं है। फिल्म रिलीज हो तो इसमें उन्हें कोई ऐतराज नहीं है।
फिल्म रिलीज हुई भी, लेकिन इस विवाद से फिल्म को अच्छी – खासी पब्लिसिटी मिल गई।
खैर मुझे खुशी है कि फिल्म भी बहुत ही अच्छी थी। जिसमें हिंदी पट्टी के ग्रामीण
पृष्ठभूमि में फैले आतंक व गुंडागर्दी पर फोकस किया गया था। इससे जूझते हुए एक
पुलिस अधिकारी को देखना भी खासा प्रेरणास्पद अनुभव रहा। लेकिन सारे फिल्मों के
बारे में ऐसा नहीं कहा जा सकता। क्योंकि विवाद से प्रभावित होकर फिल्म देखने जाने
पर अक्सर मूर्ख बनने का अहसास होता है।
यह सिलसिला अब भी अनवरत जारी है। पहले फिल्म में कुछ यूं दृश्य डाले जाते थे, जिस पर फिल्म प्रदर्शित
होने से पहले ही विवाद खड़ा हो। इससे लोगों की दिलचस्पी फिल्म में हो जाती थी और न
चाहते हुए भी लोग फिल्म देखने चले जाते थे। लेकिन फिल्म देखने के बाद अक्सर
दर्शकों को अहसास होता था कि भैया इसमें विवाद जैसा तो कुछ है नहीं। सीधी सी बात
है कि प्रचार पाने के लिए जनता को बेवकूफ बनाया गया। मेरे खिलाफ से यह एक तरह का
अपराध है। यह जल्द से जल्द बंद होना चाहिए। क्योंकि सीधे तौर पर यह जनता के साथ ठगी
है। करोड़ों – अरबों लगा कर फिल्म बनाने वाले यदि कमाई चाहते हैं तो उन्हें अपनी
फिल्म की गुणवत्ता पर ध्यान देना चाहिए। न कि कंट्रोवर्सी का फंडा अपनाना चाहिए।
सरकार को भी ऐसे मामलों में सख्ती से पेश आना चाहिए। अभी हाल में हमने दो चर्चित
फिल्मों का हाल देखा। जिसके प्रदर्शन से पहले बेमतलब का विवाद खड़ा कर दिया गया। उड़ता
पंजाब और सुल्तान के मसले को ही लें। यदि उड़ता पंजाब में कुछ आपत्तिनजक होता तो
फिल्म रिलीज होने के बाद भी उस पर जरूर विवाद कायम रहता। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। वहीं
सुल्तान फिल्म के रिलीज होने से पहले सलमान खान ने रेप पीड़ित महिला जैसा अनुभव
होने का जो बयान दिया। उस पर उन्होंने माफी भी नहीं मांगी। आखिर इससे फायदा किसका
हुआ। मेरे ख्याल से उनके बयान को मीडिया को महत्व ही नहीं देना चाहिए था।