अमितेश कुमार ओझा
व्हाट्स योर क्वालिफिकेशन ...। पहले छात्रों से जब यह सवाल पूछा जाता था,
तो जवाब साधारणतः एमबीए और इंजीनियरिंग के मिलते थे। लेकिन समय के साथ
ऐसे जवाब मिलने दिनोंदिन कम होते जा रहे हैं। क्योंकि उपभोक्तावाद के
मौजूदा दौर में इन डिग्रियों का महत्व काफी कम हो गया है। यदि कहें कि इन
डिग्रियों को लेकर घूमने वाले युवा वर्ग के सपने टूट रहे हैं तो गलत नहीं
होगा। क्योंकि इन डिग्रियों को हासिल करने में जहां छात्र और उनके
परिजनों को साधारतः 8 से 18 लाख रुपए तक खर्च करने पड़ते हैं । सबसे बड़ी
समस्या यह है कि इन डिग्रियों को हासिल करने के लिए सरकारी शिक्षण
संस्थान बहुत ही कम है। निजी संस्थानों से डिग्री हासिल करने में छात्रों
को भारी रकम खर्च करनी पड़ती है। कमर तोड़ मेहनत के बावजूद इस निवेश की
वापसी की उम्मीद दिनोंदिन क्षीण होती जा रही है। क्योंकि इसके एवज में
नौकरियों के अवसर दिनोंदिन सीमित होते जा रहे हैं। कहना मुश्किल है कि इन
व्यावसायिक डिग्रियों का पतन कहां जा कर रुकेगा। मैं एक ऐसे मेधावी
विद्यार्थी को जानता हूं जिसनें देश के नामी वाणिज्यिक संस्थान से डिग्री
हासिल की। लेकिन नौकरी के मामले में तीन साल के भीतर उसके सपन कुछ यूं
टूटे कि वह ही नहीं बल्कि उसका समूचा परिवार गहरे अवसाद में डूब गया।
गनीमत रही कि वह छात्र संपन्न परिवार से था। यही त्रासदी यदि किसी गरीब
परिवार के बच्चे के साथ हुआ होता तो कहना मुश्किल था कि इसकी कितनी भयंकर
परिणति उसके परिवार को झेलनी पड़ती। अब सवाल उठता है कि यदि पेशेवर
व्यावसायिक डिग्रियों का यह हाल होगा तो साधारण विद्यार्थियों के लिए देश
– समाज में कौन सा स्थान बचेगा। क्या साधारण युवा अपने को दौर के लिहाज
से बचा पाने में सफल हो पाएंगे। आज स्किल इंडिया की बात हो रही है ,
लेकिन जिनके पास स्किल यानी दक्षता है उन हाथों में काम नहीं है। सरकारी
नौकरियां बेहद सीमित है। ऐसे में शिक्षित युवा निजी क्षेत्रों में
समायोजित होने के लिए मजबूर हैं। जहां उनका हर तरह से शोषण होता है ।
टार्गेट ओरियेंटेड कार्य करते हुए ऐसे शिक्षित युवा जल्द ही जीवन से
निराश – हताश हो जाते हैं। अनेक गलत राहों पर भी निकल पड़ते हैं। सोचने
की बात है कि यदि यह सिलसिला लंबा चला तो इसका कितना भयंकर परिणाम समाज
को भोगना पड़ेगा। इस बात की कल्पना भी नहीं की जा सकती। क्या गारंटी है
कि कड़ी मेहनत और भारी खर्च से इन डिग्रियों को हासिल करने वाले थके –
हारे युवाओं का गलत इस्तेमाल आइएस और माओवाद जैसे संगठन नहीं करेंगे।
इसलिए सरकार और समाज को इस अद्यःपतन के बारे में गहराई से सोचना होगा।
शिक्षित युवाओं के सुनहरे भविष्य की आधारशिला रखनी ही पड़ेगी। तभी देश –
समाज और यह दुनिया खुशहाल हो सकेगी। क्योंकि यह बात गांठ बांध लेनी चाहिए
कि हारे – टूटे युवा किसी भी परिवेश के लिए बड़े भयंकर साबित होते हैं।
आज के दौर में सुरक्षित डिग्री केवल मेडिकल की मानी जा रही है। लेकिन
विचारणीय प्रश्न है कि कितने प्रतिशत युवा इस डिग्री को हासिल कर पाने
में सक्षम हैं। डाक्टर बनने के बाद जो युवा शहरों में ही रहना चाहते हैं
और गांवों में सेवा देने से कतराते हैं तो इसका खामियाजा भी आखिरकार देश
और समाज को ही तो भुगतना पड़ता है। क्या सरकार को इस ओर प्राथमिकता और
गंभीरता के साथ ध्यान नहीं देना चाहिए।
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लेखक बी.काम प्रथम वर्ष के छात्र हैं।