अमितेश कुमार ओझा
पिछले साल देश के
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने जब महात्मा गांधी की जयंती पर स्वच्छ भारत अभियान
का नारा बुलंद किया तो बेशक समूचे देश में साफ – सफाई को लेकर एक माहौल बनता नजर
आया। जगह – जगह लोग झाड़ू लेकर निकल पड़े।
स्वयंसेवी संगठनों से लेकर आत्मकेंद्रित हाई प्रोफाइल संस्थानों में भी लोगों ने
सार्वजनिक रूप से स्वच्छता को लेकर अभियान शुरू किया। इसमें वे अधिकारी भी शामिल
हुए जिनसे ऐसे अभियान में अग्रणी भूमिका निभाने की साधारणतः उम्मीद नहीं की जाती
है। हालांकि शुरू में विरोधी दलों ने स्वच्छता अभियान का यह कह कह कर मजाक उड़ाना
शुरू किया कि क्या एक दिन हाथ में झाड़ू लेकर निकल पड़ने से देश स्वच्छ हो जाएगा।
चैनलों पर बहस तो मीडिया में भी इसकी चर्चा लंबे समय तक होती रही। लेकिन जल्द ही
जनता का मूड भांप कर विरोधी दलों के लोग भी स्वच्छता अभियान में जुट गए। भले ही
इसका नाम उन्होंने कुछ अलग किस्म का रख दिया। लेकिन यह बात सर्वस्वीकार्य होती गई
कि हमें अपने परिवेश को हर समय साफ – सुथरा रखना चाहिए। निश्चय ही कुछ समय बाद
परिस्थिति जस की तस हो गई । जगह – जगह गंदगी और कूड़ा – करकट का अंबार पूर्ववत नजर
आने लगा। लेकिन इससे हम स्वच्छता की जरूरत को छोटा करके नहीं देख सकते। दरअसल
हमारे देश व समाज में स्वच्छता को नारे से बदल कर संस्कृति में रुपांतरित करने की
जरूरत है। एक ऐसा समाज जहां लोगों को यह बताने की आवश्यकता न पड़े कि स्वच्छता
कितनी जरूरी है। बल्कि यह संस्कृति के तौर पर सहज स्वीकार्य हो जाए। अतिथि देवो
भवः की संस्कृति भी ऐसी ही है। अतिथि को भगवान मान कर उनकी खातिरदारी करने का
रिवाज हमारी भारतीय संस्कृति का हिस्सा है। इसे किसी ने प्रयास करके स्थापित नहीं
किया। बल्कि यह हमारी संस्कृति में रची – बसी है। इसी तरह दुश्मन के भी शोक में
शामिल होने और उसकी मदद करने की संस्कृति में भी हमारी रगों में बसी है। इसे किसी
भी नारे या प्रयास से संभव नहीं किया जा सका। बल्कि जनमानस ने इसे सहज रूप से
स्वीकार्य किया। यही वजह है कि स्वार्थपरता और आधुनिकता के दौर में भी ये अच्छी
बातें समाज में थोड़ी – बहुत बची हुई है। आज हम किसी की उपलब्धि पर भले खुश न होते
हों। लेकिन किसी के दुख में सहमर्मिता जताने की हमारी संस्कृति आज भी जिंदा है।
विशेषकर ग्रामीण परिवेश में यह देखा जाता है कि जिस व्यक्ति या परिवार के साथ लंबी
मुकदमेबाजी चल रही है। थानों में अनेक मामले दर्ज हैं। लेकिन किसी के शोक हुआ तो
सभी के साथ दौड़ पड़े , संवेदना जताने। भले ही स्थिति सामान्य हो जाने के बाद फिर
रंजिश वापस लौट आती हो। लेकिन यह भलमनसाहत भी क्या कम है कि हमारी संस्कृति शोक
में भी किसी के बगल खड़े होने का प्रेरित करती है। इसी तरह स्वच्छता को भी हमारी
संस्कृति में शामिल करने की जरूरत है। निरंतर प्रयास और अभियान से यह सहज संभव है।
वैसे भी स्वच्छता की जरूरत को काफी हद तक लोगों ने स्वीकार कर लिया है। शौचालय कि
उपयोगिता या सार्वजनिक शौचालयों व स्नानागारों को साफ – सुथरा रखने पर लोग मंच से
भी जोर देते हैं। इन बातों पर बात करने से लोग अब पहले की तरह कतराते नहीं। कहीं
गंदगी या कूड़ा – करकट बन जाने पर यह बड़ा मुद्दा बन जाता है। प्रचार माध्यम में
भी इस पर विशेष फोकस करता है। पहले वाली बात नहीं रह गई है कि गंदगी और कूड़ा –
करकट के अंबार को कोई समाचार या चर्चा का विषय न माने। यह बहुत बड़ा शुभ लक्षण है।
संकेत है बदलाव का। बस जरूरत है तो अभियान में निरंतरता का। नारे को बुलंद स्वर
देते हुए इसे संस्कृति में बदलने की अनवरत कोशिश का।