shabd-logo

नारा नहीं संस्कृति बने स्वच्छता अभियान...

2 अक्टूबर 2016

230 बार देखा गया 230

अमितेश कुमार ओझा

पिछले साल देश के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने जब महात्मा गांधी की जयंती पर स्वच्छ भारत अभियान का नारा बुलंद किया तो बेशक समूचे देश में साफ – सफाई को लेकर एक माहौल बनता नजर आया। जगह – जगह लोग झाड़ू लेकर निकल पड़े। स्वयंसेवी संगठनों से लेकर आत्मकेंद्रित हाई प्रोफाइल संस्थानों में भी लोगों ने सार्वजनिक रूप से स्वच्छता को लेकर अभियान शुरू किया। इसमें वे अधिकारी भी शामिल हुए जिनसे ऐसे अभियान में अग्रणी भूमिका निभाने की साधारणतः उम्मीद नहीं की जाती है। हालांकि शुरू में विरोधी दलों ने स्वच्छता अभियान का यह कह कह कर मजाक उड़ाना शुरू किया कि क्या एक दिन हाथ में झाड़ू लेकर निकल पड़ने से देश स्वच्छ हो जाएगा। चैनलों पर बहस तो मीडिया में भी इसकी चर्चा लंबे समय तक होती रही। लेकिन जल्द ही जनता का मूड भांप कर विरोधी दलों के लोग भी स्वच्छता अभियान में जुट गए। भले ही इसका नाम उन्होंने कुछ अलग किस्म का रख दिया। लेकिन यह बात सर्वस्वीकार्य होती गई कि हमें अपने परिवेश को हर समय साफ – सुथरा रखना चाहिए। निश्चय ही कुछ समय बाद परिस्थिति जस की तस हो गई । जगह – जगह गंदगी और कूड़ा – करकट का अंबार पूर्ववत नजर आने लगा। लेकिन इससे हम स्वच्छता की जरूरत को छोटा करके नहीं देख सकते। दरअसल हमारे देश व समाज में स्वच्छता को नारे से बदल कर संस्कृति में रुपांतरित करने की जरूरत है। एक ऐसा समाज जहां लोगों को यह बताने की आवश्यकता न पड़े कि स्वच्छता कितनी जरूरी है। बल्कि यह संस्कृति के तौर पर सहज स्वीकार्य हो जाए। अतिथि देवो भवः की संस्कृति भी ऐसी ही है। अतिथि को भगवान मान कर उनकी खातिरदारी करने का रिवाज हमारी भारतीय संस्कृति का हिस्सा है। इसे किसी ने प्रयास करके स्थापित नहीं किया। बल्कि यह हमारी संस्कृति में रची – बसी है। इसी तरह दुश्मन के भी शोक में शामिल होने और उसकी मदद करने की संस्कृति में भी हमारी रगों में बसी है। इसे किसी भी नारे या प्रयास से संभव नहीं किया जा सका। बल्कि जनमानस ने इसे सहज रूप से स्वीकार्य किया। यही वजह है कि स्वार्थपरता और आधुनिकता के दौर में भी ये अच्छी बातें समाज में थोड़ी – बहुत बची हुई है। आज हम किसी की उपलब्धि पर भले खुश न होते हों। लेकिन किसी के दुख में सहमर्मिता जताने की हमारी संस्कृति आज भी जिंदा है। विशेषकर ग्रामीण परिवेश में यह देखा जाता है कि जिस व्यक्ति या परिवार के साथ लंबी मुकदमेबाजी चल रही है। थानों में अनेक मामले दर्ज हैं। लेकिन किसी के शोक हुआ तो सभी के साथ दौड़ पड़े , संवेदना जताने। भले ही स्थिति सामान्य हो जाने के बाद फिर रंजिश वापस लौट आती हो। लेकिन यह भलमनसाहत भी क्या कम है कि हमारी संस्कृति शोक में भी किसी के बगल खड़े होने का प्रेरित करती है। इसी तरह स्वच्छता को भी हमारी संस्कृति में शामिल करने की जरूरत है। निरंतर प्रयास और अभियान से यह सहज संभव है। वैसे भी स्वच्छता की जरूरत को काफी हद तक लोगों ने स्वीकार कर लिया है। शौचालय कि उपयोगिता या सार्वजनिक शौचालयों व स्नानागारों को साफ – सुथरा रखने पर लोग मंच से भी जोर देते हैं। इन बातों पर बात करने से लोग अब पहले की तरह कतराते नहीं। कहीं गंदगी या कूड़ा – करकट बन जाने पर यह बड़ा मुद्दा बन जाता है। प्रचार माध्यम में भी इस पर विशेष फोकस करता है। पहले वाली बात नहीं रह गई है कि गंदगी और कूड़ा – करकट के अंबार को कोई समाचार या चर्चा का विषय न माने। यह बहुत बड़ा शुभ लक्षण है। संकेत है बदलाव का। बस जरूरत है तो अभियान में निरंतरता का। नारे को बुलंद स्वर देते हुए इसे संस्कृति में बदलने की अनवरत कोशिश का।

अमितेश कुमार ओझा की अन्य किताबें

1

समय का मोल ...

9 जुलाई 2016
0
4
0

कहानी------------समय का मोल...!!अमितेश कुमार ओझाकड़ाके की ठंड में झोपड़ी के पास रिक्शे की खड़खड़ाहट से भोला की पत्नी और बेटा चौंक उठे। अनायास ही उन्हें कुछ  प्रतिकूलता का भान हुआ। क्योंकि भोला को और देर से घर पहुंचना था। लेकिन अपेक्षा से काफी पहले ही वह घर लौट आया था। जरूर कुछ गड़बड़ हुई.... भोला की

2

सपना ...!!

10 जुलाई 2016
0
1
1

जय जगन्नाथ... बोलो जय जगन्नाथ...रथ महोत्सव पर निकली यात्रा में उत्साहित बच्चों के मुंह से निकलने वालेइस जयकारे ने नुक्कड़ से मोहल्ले की ओर जाने वाली पगडंडी पर चल रही उदासमाला की तंद्रा मानो भंग कर दी।जीवन के गुजरे पल खास कर उसका अतीत किसी फिल्म के फ्लैश बैक की तरह उसकीआंखों के सामने नाचने लगा।क्योंक

3

घर वापसी...!!

11 जुलाई 2016
0
1
0

अरे महाराज... कहां चल दिए। रुकिए तो ... गाड़ी कभी भी चल पड़ेगी। उस युवा साधु को छोटे से स्टेशन से आगे बढ़ता देख दूसरे साधु चिल्ला उठे। लेकिन उस  पर तो जैसे अलग ही धुन सवार थी। वह आगे बढ़ता ही जा रहा था। दूसरे साधु पीछे - पीछे चिल्लाते हुए लगभग दौड़ने लगे। महाराज , आपको कुछ भ्रम हो गया है क्या। आप कह

4

जनाब, जरा हमारे स्कूल पर भी हो नजरें - इनायत ....

12 जुलाई 2016
0
0
1

अपने देश में भेदभाव मिटाने औऱ समानता कायम करने पर काफी बातें होती है। लेकिन वास्तव में होता इसके बिल्कुल विपरीत है। क्योंकि दरअसल असमानता , गरीबी व बेरोजगारी की जड़ हमारी शिक्षा नीति में है, लेकिन इस ओर देश के कर्णधारों का ध्यान ही नहीं जाता। यह तो सर्वविदित तथ्य है कि देश की भीषणतम समस्या गरीबी और

5

खुशी...!!

15 जुलाई 2016
0
1
0

वृद्धाश्रम में संदूक रखते ही राजाराम ने चैन की सांस ली। अरसे बाद उनके चेहरे पर एेसी रौनक लौटी थी। हालांकि उनका यह व्यवहार दूसरे साथियों की तरह संचालकों व स्वयंसेवकों के लिए भी खासा रहस्यमय था। क्योंकि इस वृद्धाश्रम में खुशी - खुशी अब तक कोई नहीं आया था। सब मुसीबत के मारे होते। देखने वाला कोई न होता,

6

ऊंची डिग्रियों के फीके नतीजे

21 जुलाई 2016
0
0
0

 तो कहना मुश्किल था कि इसकी कितनी भयंकरपरिणति उसके परिवार को झेलनी पड़ती। अब सवाल उठता है कि यदि पेशेवरव्यावसायिक डिग्रियों का यह हाल होगा तो साधारण विद्यार्थियों के लिए देश– समाज में कौन सा स्थान बचेगा। क्या साधारण युवा अपने को दौर के लिहाजसे बचा पाने में सफल हो पाएंगे। आज स्किल इंडिया की बात हो रह

7

ऊंची डिग्रियों के फीके नतीजे

21 जुलाई 2016
0
4
0

अमितेश कुमार ओझाव्हाट्स योर क्वालिफिकेशन ...। पहले छात्रों से जब यह सवाल पूछा जाता था,तो जवाब साधारणतः एमबीए और इंजीनियरिंग के मिलते थे। लेकिन समय के साथऐसे जवाब मिलने दिनोंदिन कम होते जा रहे हैं। क्योंकि उपभोक्तावाद केमौजूदा दौर में इन डिग्रियों का महत्व काफी कम हो गया है। यदि कहें कि इनडिग्रियों क

8

धोखा....!!

22 जुलाई 2016
0
1
0

अमितेश कुमार ओझाकस्बे के नगर सेठ गोविंद दास अपने नौकर राजाराम को बेटे से कम नहीं मानता था। कदाचित इसका कारण गोविंद दास का नंबर एक औऱ दो दोनों प्रकार का धंधा था।राजाराम उसका हर राज जानता था। इसलिए गोविंद दास उसे हर प्रकार से संतुष्ट रखने की भरपूर कोशिश करते। परिवार के भरण - पोषण की मजबूरी में राजाराम

9

आरक्षण और युवा पीढ़ी

23 जुलाई 2016
0
1
0

अमितेश कुमार ओझा जब मैं छोटा था तब मेरेलिए आरक्षण का मतलब ट्रेन का रिजर्वेशन था। लेकिन कॉलेज पहुंचने पर मुझे इसके सहीमायने समझ में आए। इस मुद्दे पर मैने अनेक वाद – विवाद देखे और सुने। जिससे मैंसोच में पड़ गया। बेशक समाज के उस वर्ग को जिसे सदियों तक पीछे धकेला गया, पिछड़ेबने रहने पर मजबूर किया गया, क

10

भयंकर होता दहेज का दानव ...

25 जुलाई 2016
0
1
0

अमितेश कुमार ओझामेरी एक परिचित महिला ऐसी है जो जवानी में ही विधवा होने को अभिशप्त रही। बच्चे बड़े होने पर उसे उनकी शादी की चिंता हुई। उसके एक बेटा और एक बेटी थी। बेटी की शादी के लिए महिला दर – दर की ठोकरें खाती रही। कहीं से मदद की आस होते ही वह उनके दरवाजे पहुंच जाती और अपने से कम उम्र के लोगों के भ

11

बलि प्रथा पर रोक जरूरी...!!

27 जुलाई 2016
0
0
1

अपने देश  में धर्मांधता पर बनने वाली फिल्में काफी पसंद तो की जाती है। लेकिन इन फिल्मों का लेशमात्र भी सकारात्मक असर समाज पर पड़ता हो, एेसा नहीं कहा जा सकता। इसका जीता - जागता उदाहरण सदियों बाद भी समाज में बलि प्रथा का कायम रहना है। साधारणतः हर धर्म में यह किसी न किसी रूप में मौजूद है। जिसे रोक पाने

12

कमाओ भैया कमाओ... लेकिन पब्लिक को यूं मूर्ख तो न बनाओ

28 जुलाई 2016
0
3
0

अमितेश कुमार ओझाहमारे देश मेंअच्छे – खासे पढ़े लिखे डिग्रीधारी नौजवानों को चंद हजार की नौकरी भले न मिलती हो,लेकिन फिल्मी स्टार और क्रिकेट खिलाड़ियों की करोड़ों की कमाई की चर्चा यूं कीजाती है मानो दस – बीस रुपए की बात हो रही हो। कोई फिल्म रिलीज हुई नहीं कि उसेकरोड़ों में खेलने वाला करार दे दिया जाता

13

जरूर दो जनाब वीआइपी को सिक्यूरिटी , लेकिन जनता का भी तो ख्याल रखो ...!!

3 अगस्त 2016
0
1
0

अमितेश कुमार ओझा कुछ दिन पहले मैं अपनेशहर में किसी जरूरी कार्य से जा रहा था, कि अचानक एक बड़े पुल पर पुलिस ही पुलिसदेख घबरा गया। पुल  के नीचे से रेलवे लाइनगुजरती है। मैने सोचा क्या कहीं कोई अनहोनी हो गई है। पुल पर इतनी पुलिस क्यों है।चौंकने वालों में मैं अकेला नहीं था। जिसकी भी नजर इतनी अधिक संख्या

14

युवाओं के लिए आजादी का मतलब...

9 अगस्त 2016
0
2
1

अमितेश कुमार ओझासमाज की यह बड़ी विडंबना है कि हर दौर में पुरानी पीढ़ी को नई पीढ़ी अधिकस्वतंत्र व गैर  - जिम्मेदार लगती है। हम अक्सर बुजुर्गों से सुनतेहैं... भैया ... आजकल के ये लड़के...। इनकी तो न ही पूछो तो ठीक....लेकिन सवाल उठता है कि क्या पुरानी पीढ़ी की नई पीढ़ी के प्रति यह सोचउचित है। बेशक आज क

15

कैसे मजबूत हो बैंकों की बुनियाद

26 अगस्त 2016
0
1
0

अमितेश कुमार ओझा कुछ साल पहले मेरे शहर में दिन – दहाड़े बैंक की 20 लाख रुपए की रकम लूट ली गई। वाकया दिन को हुआ था, लिहाजा पुलिस ने आनन – फानन कुछ लोगों को गिरफ्तार कर लिया। लेकिन असली समस्या तब आई जब लूट का शिकार बने बैंक के कर्मचारियों ने शिनाख्त परेड के दौरान अपराधियों को पहचानने से साफ इन्कार कर

16

नारा नहीं संस्कृति बने स्वच्छता अभियान...

2 अक्टूबर 2016
0
0
0

अमितेश कुमार ओझा पिछले साल देश केप्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने जब महात्मा गांधी की जयंती पर स्वच्छ भारत अभियानका नारा बुलंद किया तो बेशक समूचे देश में साफ – सफाई को लेकर एक माहौल बनता नजरआया। जगह – जगह लोग झाड़ू लेकर निकल पड़े।स्वयंसेवी संगठनों से लेकर आत्मकेंद्रित हाई प्रोफाइल संस्थानों में भी लोग

17

नारा नहीं संस्कृति बने स्वच्छता अभियान...

2 अक्टूबर 2016
0
2
0

अमितेश कुमार ओझा पिछले साल देश केप्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने जब महात्मा गांधी की जयंती पर स्वच्छ भारत अभियानका नारा बुलंद किया तो बेशक समूचे देश में साफ – सफाई को लेकर एक माहौल बनता नजरआया। जगह – जगह लोग झाड़ू लेकर निकल पड़े।स्वयंसेवी संगठनों से लेकर आत्मकेंद्रित हाई प्रोफाइल संस्थानों में भी लोग

---

किताब पढ़िए