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खुशी...!!

15 जुलाई 2016

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वृद्धाश्रम में संदूक रखते ही राजाराम ने चैन की सांस ली। अरसे बाद उनके चेहरे पर एेसी रौनक लौटी थी। 

हालांकि उनका यह व्यवहार दूसरे साथियों की तरह संचालकों व स्वयंसेवकों के लिए भी खासा रहस्यमय था। क्योंकि इस वृद्धाश्रम में खुशी - खुशी अब तक कोई नहीं आया था। सब मुसीबत के मारे होते। 

देखने वाला कोई न होता, तब ही यहां कोई आता। वह भी भारी अफसोस के साथ। केंद्र में काफी दिन बिताने के बावजूद विरले ही वृद्ध यहां के माहौल के साथ तारतम्य बिठा पाते। सभी गम में डूबे रह कर उन तथाकथित अपनों को याद कर तड़पते रहते, जिन्होंने उन्हें इस हाल में छोड़ दिया। केंद्र में रहने वाले हर वृद्ध के मुंह से बार - बार एक ही बात निकलती... हे भगवान.... अब मुझे उठा ले... अब नहीं सहा जाता, रहम कर भगवान....। 

लेकिन राजाराम अपवाद थे। यहां आने के बाद उनके चेहरे पर प्रसन्नता साफ नजर आ रही थी। जिसे देख कर हर कोई हैरान था। 

उनकी यह रहस्यमय खुशी  देखकर आश्रम के सेवादारों से रहा न गया। आखिरकार उनमें से एक ने साहस कर  पूछ ही लिया... चचा , यहां आकर हर किसी का मुंह लटक जाता है। लेकिन आप काफी खुश दिख रहे हो। आखिर इस खुशी का राज क्या है...। 

कौतूहल को उचित बताते हुए राजाराम ने अपनी जो आपबीती सुनाई, उसे सुन कर सभी हैरान रह गए। 

दरअसल राजाराम का बचपन घोर संघर्ष में बीता था। वे पढ़ने में काफी तेज थे। लिहाजा कालेज जीवन में ही उन्हें अच्छी नौकरी मिल गई। 

लेकिन शहर आने के कुछ दिन बाद ही उन्हें पता चला कि उनका भतीजा किसी बात से नाराज होकर घर से भाग गया है। किसी तरह ढूंढ कर उसे पकड़ा  जा सका। 

बड़े भैया ने उसे उनके हवाले करते हुए कहा ... राजाराम इसे तू अपने पास रख ले। तेरे साथ रहेगा, तो इसका भी भविष्य बन जाएगा। खर्चे की तू बिल्कुल चिंता मत करना, मैं हर महीने भेज दिया करूंगा...। 

इसके बाद भतीजा उनके पास ही रहने लगा। कुछ महीनों के दौरान  दो  अन्य रिश्तेदार भी अपने - अपने बिगड़ैल बच्चों के साथ उसके यहां आए, और उन्हें अपने पास रख लेने की गुजारिश करने लगे। 

राजाराम किसी को मना नहीं कर सके। तीनों बच्चों को उन्होंने अपनी संतान की तरह पाला - पोसा। अच्छे मार्गदर्शन की वजह से तीनों अच्छा पढ़ने भी लगे। हालांकि राजाराम ने कभी किसी से एक भी पैसा खर्चे के तौर पर नहीं लिया। तीनों को लायक बनाने की धुन में उन्होंने अपना घर बसाने का ख्याल ही छो़ड़ दिया। 

गांव वालों के पूछने पर वे कहते... मेरा बचपन खुद ही दुख में बीता है, अब दूसरों का भविष्य संवारना ही मेरे जीवन का लक्ष्य है। हालांकि कईयों ने उन्हें सचेत किया। लेकिन राजाराम नहीं माने। 

तीनों बच्चे भी उन पर जान छिड़कते। वे अक्सर कहा करते... जिस तरह आपने हमारा ख्याल रखा, बुढ़ापे में हम भी आपको इतना ही अपनत्व देंगे। आपको कभी किसी बात का गम नहीं रहेगा। 

लेकिन बड़े होने पर सभी अच्छी - अच्छी नौकरी से जुड़ते हुए राजाराम को एकबारगी भुला ही बैठे। 

जिन्हें राजाराम ने इस काबिल बनाया, उनका उनसे वास्ता सिर्फ मोबाइल भर से था। कभी - कभार फोन कर वे हाल - चाल ले लेते। 

बहुत हुआ तो जरूरत की बात पूछ ली जाती। पैसों की बात से राजाराम के आत्मसम्मान को गहरा धक्का लगता। एेसी बातों पर वे देर तक बड़बड़ाते रहते। 

समय के साथ अकेलेपन ने राजाराम को तोड़ कर रख दिया। रिटायर्ड जीवन वह भी बिल्कुल अकेले काटना उनके लिए दुष्कर साबित होने लगा। क्योंकि नजदीकी रिश्तेदारों ने भी उनसे दूरी बना ली थी। 

इस बीच घरों में अकेले रहने वाले बुजुर्गों के साथ होने वाली आपराधिक वारदातों ने उनमें असामान्य खौफ पैदा कर दिया था। वे अकेले बड़बड़ाते रहते.... एेसी जिंदगी से तो जेल भली, कम से कम वहां हर समय काफी लोग तो रहते हैं... मेरी तरह उन्हें हर समय दीवार तो नहीं देखना पड़ता.... । एेसा अकेलापन तो कैदियों को नहीं झेलना पड़ता होगा...। उनके मुंह से एेसी बातें सुन कर कईयों को लगा कि राजाराम का मानसिक संतुलन गड़बड़ा रहा है। इस बीच कुछ ने उन्हें वृद्धाश्रम जाने का सुझाव दिया। 

काफी कश्मकश के बाद उन्होंने वृद्धाश्रम में  रहने का फैसला कर लिया। पदाधिकारियों को सौंपे गए आवेदन के स्वीकृत होते ही राजाराम खुशी से झूम उठे। तभी से वे इतने प्रसन्न नजर आने लगे थे। 

उत्सुकता से उनकी आपबीती सुन रहे सेवादारों को बारी - बारी से छूते हुए राजाराम बोले ... अब मुझे वह मारक अकेलापन नहीं झेलना पड़ेगा... अब मुझे किसी बात की चिंता नहीं... अब मैं जिंदगी से कभी कोई शिकायत नहीं करूंगा...। 

राजाराम की इस अप्रत्याशित प्रसन्नता से वहां मौजूद हर कोई हतप्रभ था। 

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लेखक बी.काम प्रथम वर्ष के छात्र  हैं।

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