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समय का मोल ...

9 जुलाई 2016

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कहानी

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समय का मोल...!!

अमितेश कुमार ओझा

कड़ाके की ठंड में झोपड़ी के पास रिक्शे की खड़खड़ाहट से भोला की पत्नी और बेटा चौंक उठे। 

अनायास ही उन्हें कुछ  प्रतिकूलता का भान हुआ। क्योंकि भोला को और देर से घर पहुंचना था। लेकिन अपेक्षा से काफी पहले ही वह घर लौट आया था। 

जरूर कुछ गड़बड़ हुई.... भोला की पत्नी जानकी बड़बड़ाई। 

उनका दस साल का बेटा चंदन भी मायूस होकर दरवाजे की ओऱ निहारने लगा। 

आशंका के अनुरूप ही भोला दरवाजे से भीतर झोपड़ी में दाखिल हो गया। 

यह क्या... आप आलोक बाबू को छोड़ने स्टेशन नहीं गए.... जानकी ने पूछा। नहीं जानकी... मुझसे एक बड़ी भूल हो गई। सवारी भी मारी गई... और गांठ के कुछ पैसे भी चले गए। 

लेकिन क्यों । आप तो समय से बहुत पहले ही घर से चले गए थे। जानकी ने चौंक कर पूछा। 

दरअसल आलोक बाबू के निर्देशानुसार मैं रात 11 बजे से पहले ही उनके घर पहुंच गया। तब आलोक बाबू भोजन कर रहे थे। उन्होंने मुझसे इंतजार करने को कहा। 

लेकिन इतनी रात कड़ाके की ठंड के चलते अचानक ही मुझे चाय की तलब हो आई। मैने सोचा आलोक बाबू को भोजन करने में कुछ तो वक्त लगेगा ही। सो मैं रिक्शा खड़ी करके पास की दुकान पर चाय पीने चला गया। वापस लौटा तो आलोक बाबू अपना सामान एक कार में रखवा रहे थे। मुझे देखते ही फट पड़े। 

... इसीलिए तो रिक्शा खींचते उम्र बीती जा रही है....  समय का कुछ मोल समझते भी हो... मैने तुमसे क्या कहा था... कि इंतजार करो और तुम पता नहीं कहां चल दिए। एक नंबर के कामचोर हो... एक तो दया करके तुम्हेें बुलाया था। सोचा चार पैसे मिल जाएंगे, लेकिन तुम लोग...। इतना कहते हुए आलोक बाबू अपनी कार में बैठ कर स्टेशन चले गए। 

भोला की आप- बीती सुन कर जानकी और बेटा चंदन भौंचक रह गए। जानकी को पता था कि दो पैसे कमाने गए उसके पति की  इसमें कोई गलती नहीं थी। फिर भी चूक तो हो ही गई। बेटा चंदन भी आने वाले कल के बारे में सोच कर परेशान हो रहा था। 

कुछ देर की खामोशी के बाद भोला फिर बड़बड़ाने लगा.... सोचा था कि देर रात आलोक बाबू को स्टेशन छोड़ने के बाबत मिलने वाले पैसे और कल की दिन भर की कमाई से चंदन के फीस भर दूंगा। जिससे वह फिर स्कूल जाने लगे। क्योंकि फीस न भरने की वजह से उसे स्कूल से भगा दिया गया था। लेकिन यहां तो चाय पर गांठ के दो रुपए भी खर्च हो गए। कड़ाके की ठंड में फजीहत झेली सो अलग...। इतना कह कर भोला शून्य में निहारने लगा। 

टिमटिमाते दिए की लौ में भोला समेत तीनों प्राणी एक एेसे अपरोध बोझ में झुलसने लगे  जिसमें उनकी कोई गलती ही नहीं थी। 

फिर स्वाभाविक मिजाज के अनुरूप जानकी भोला को ताना देने लगी... पर आपको भी उसी समय चाय पीने क्यों जाना, जब आलोक बाबू भोजन कर रहे थे... थोड़ा इंतजार नहीं कर सकते थे, आखिर  नुकसान किसका हुआ आपका या आलोक बाबू का...। 

इस पर पश्चाताप भरे स्वर में भोला ने कहा... ठीक कहती हो जानकी...। गलती मेरी ही है, मेरी ही मति मारी गई थी। मैं समझने में भूल कर बैठा कि समय का मोल बड़े लोगों के लिए है ... हम जैसे गरीबों के लिए नहीं। कड़ाके की ठंड में इतनी रात गए मैं देर तक आलोक बाबू के घर के सामने देर तक खड़ा रहा। इस बीच चंद मिनट के लिए चाय पीने क्या गया कि आलोक बाबू को देर होने लगी... उन्होंने मुझे झिड़कते हुए कार बुलवा ली...। धीमे स्वर में बुदबुदाते हुए भोला शून्य में निहारने लगा। 

उसकी पत्नी जानकी से कुछ कहते नहीं बना। लेकिन उसके चेहरे पर तनाव के चिन्ह बराबर बनते- उभरते रहे। 

टिमटिमाते दिए की लौ मेें अबोध  चंदन भी  जीवन की पेचीदिगियों को समझने - बूझने की चेष्टा करता रहा। 

अब सवाल - सफाई का शोर थम चुका था। झोपड़े में डरावनी खामोशी छाई हुई थी। 

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लेखक बी.काम प्रथम वर्ष के छात्र  हैं।


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