shabd-logo

भयंकर होता दहेज का दानव ...

25 जुलाई 2016

433 बार देखा गया 433
featured image

अमितेश कुमार ओझा

मेरी एक परिचित महिला ऐसी है जो जवानी में ही विधवा होने को अभिशप्त रही। बच्चे बड़े होने पर उसे उनकी शादी की चिंता हुई। उसके एक बेटा और एक बेटी थी। बेटी की शादी के लिए महिला दर – दर की ठोकरें खाती रही। कहीं से मदद की आस होते ही वह उनके दरवाजे पहुंच जाती और अपने से कम उम्र के लोगों के भी पैरों पर गिर पड़ती। अपनी असहायता जाहिर करते हुए वह कहती कि लोगों की मदद के बगैर वह अपनी बेटी के हाथ पीले नहीं कर सकती। लेकिन क्या आश्चर्य कि बेटी की जगह बेटे की शादी की चर्चा छिड़ते ही उसके तेवर बिल्कुल बदल जाते। स्वभाव में आमूल परिवर्तन लाते हुए वह कहती ... भैया बेटे की शादी के लिए तो मैं इससे कम दहेज नहीं लूंगी। आखिर उसकी पढ़ाई – लिखाई पर इतना खर्च जो किया है। क्या बेटे को ऐसे ही किसी को सौंप दूं। उस महिला का यह दोहरा बर्ताव देख मैं सोच में पड़ जाता। मुझे लगता कि यह रवैया किसी व्यक्ति विशेष का नहीं बल्कि अपने पूरे समाज का है। बेशक अपवाद हर जगह होते हैं। लेकिन ज्यादातर का यही रवैया रहता है। बेटी की शादी की बात आएगी तो अलग तरह से पेश आएंगे लेकिन बेटे की शादी की चर्चा मात्र उनमें अकड़ ले आती है। दुल्हा बिकता है... फिल्म 70 के दशक में बना था। इसका गाना अब भी यदा – कदा  कानों में सुनाई दे जाता है। यानी दहेज की बुराई तब भी थी जब समाज इतना विकसित नहीं हुआ था। लोगों पर भौतिकता वाद इस कदर हावी नहीं हुई थी। इतनी गला काट प्रतिस्पर्धा नहीं थी। लड़कियां घास – फूस की तरह बड़ी होकर ससुराल पहुंच जाती थी। वहीं लड़के थोड़ा – बहुत पढ़ – लिख कर जीवन संघर्ष में जुट जाते थे। आज तो स्थिति बड़ी विकट है। अच्छी से अच्छी शिक्षा हासिल करने के बावजूद न तो .आज के युवाओं के लिए बेहतर रोजगार की गारंटी है और न ही आर्थिक – सामाजिक सुरक्षा की। ऐसे में स्वाभाविक रूप से  दहेज का दानव और और भी भयंकर रूप धारण कर रहा है। किसी जमाने में एक सरकारी नौकरी वाले सदस्य का पूरा परिवार उस पर आश्रित रहता था। लेकिन आज सरकारी नौकरी बची ही नहीं  है। निजी क्षेत्रों में भयंकर असुरक्षा और प्रतिस्पर्धा की स्थिति है। लड़का हो या लड़की दोनों का शिक्षित होना जरूरी है तिस पर दहेज की मार , इस स्थिति में हम अंजाने ही कैसी समाज की रचना कर रहे हैं। नौजवानों के साथ ही उनके अभिभावक भी भारी खर्च की दोहरी मार झेलने को अभिशप्त हैं। यानी पहले बच्चों को शिक्षित बनाने पर लाखों खर्च करें फिर बच्चों की शादी पर। इस मामले में हिंदी पट्टी की हालत तो और भी चिंतनीय है। क्योंकि यहां भारी दहेज लेने या देने दोनों पर गर्व किया जाता है। मैं अक्सर अपने हमउम्र शिक्षित दोस्तों के मुंह से सुनता हूं ... अरे यार मेरी दीदी की शादी थी... जिसका बजट इतना लाख का था... आखिर हो भी क्यों नहीं ... जीजाजी अफसर जो हैं। बेशक ऐसी बातें हजारों नौजवानों को टीस पहुंचाती होंगी। सोचना पड़ता है कि किसी अभिभावक के लिए शादी पर इतनी मोटी रकम खर्च कर पाना आखिर किस कदर संभव हो पाता होगा।  या फिर समाज में आखिर इस पर सवाल क्यों नहीं उठता। लेकिन विडंबना के आगे हर कोई लाचार है। क्योंकि दहेज को अपराध या सामाजिक बुराई बताने या साबित करने की बातें महज किताबी साबित हो रही है। मेरे परिचय में कई परिवार ऐसे हैं जिनके बच्चे पढ़ाई – लिखाई से लेकर हर मामले में औसत हैं। लिहाजा वे भयंकर रूप से अवसादग्रस्त होते जा रहे हैं। क्योंकि उनके बच्चे किसी भी मामले में एडजस्ट नहीं हो पा रहे हैं। इस परिस्थिति में बच्चों के साथ उनके अभिभावक भी गहरी मानसिक हताशा झेलने को अभिशप्त हैं। बेशक हमेशा की तरह आज की इन विसंगतियों को दूर करने के लिए भी नौजवान पीढ़ी को ही आगे आना होगा। तभी हम भविष्य को बचा पाएंगे। लेकिन इस तरह  अंजाने में हम नौजवानों के लिए एक ऐसी दुनिया की रचना कर रहे हैं जहां औसत या सामान्य के लिए कोई जगह नहीं। जंगल राज की तरह जहां ताकतवर ही लड़ और बच सकता है।


---------------- ---

लेखक बी.काम प्रथम वर्ष के छात्र  हैं।

अमितेश कुमार ओझा की अन्य किताबें

1

समय का मोल ...

9 जुलाई 2016
0
4
0

कहानी------------समय का मोल...!!अमितेश कुमार ओझाकड़ाके की ठंड में झोपड़ी के पास रिक्शे की खड़खड़ाहट से भोला की पत्नी और बेटा चौंक उठे। अनायास ही उन्हें कुछ  प्रतिकूलता का भान हुआ। क्योंकि भोला को और देर से घर पहुंचना था। लेकिन अपेक्षा से काफी पहले ही वह घर लौट आया था। जरूर कुछ गड़बड़ हुई.... भोला की

2

सपना ...!!

10 जुलाई 2016
0
1
1

जय जगन्नाथ... बोलो जय जगन्नाथ...रथ महोत्सव पर निकली यात्रा में उत्साहित बच्चों के मुंह से निकलने वालेइस जयकारे ने नुक्कड़ से मोहल्ले की ओर जाने वाली पगडंडी पर चल रही उदासमाला की तंद्रा मानो भंग कर दी।जीवन के गुजरे पल खास कर उसका अतीत किसी फिल्म के फ्लैश बैक की तरह उसकीआंखों के सामने नाचने लगा।क्योंक

3

घर वापसी...!!

11 जुलाई 2016
0
1
0

अरे महाराज... कहां चल दिए। रुकिए तो ... गाड़ी कभी भी चल पड़ेगी। उस युवा साधु को छोटे से स्टेशन से आगे बढ़ता देख दूसरे साधु चिल्ला उठे। लेकिन उस  पर तो जैसे अलग ही धुन सवार थी। वह आगे बढ़ता ही जा रहा था। दूसरे साधु पीछे - पीछे चिल्लाते हुए लगभग दौड़ने लगे। महाराज , आपको कुछ भ्रम हो गया है क्या। आप कह

4

जनाब, जरा हमारे स्कूल पर भी हो नजरें - इनायत ....

12 जुलाई 2016
0
0
1

अपने देश में भेदभाव मिटाने औऱ समानता कायम करने पर काफी बातें होती है। लेकिन वास्तव में होता इसके बिल्कुल विपरीत है। क्योंकि दरअसल असमानता , गरीबी व बेरोजगारी की जड़ हमारी शिक्षा नीति में है, लेकिन इस ओर देश के कर्णधारों का ध्यान ही नहीं जाता। यह तो सर्वविदित तथ्य है कि देश की भीषणतम समस्या गरीबी और

5

खुशी...!!

15 जुलाई 2016
0
1
0

वृद्धाश्रम में संदूक रखते ही राजाराम ने चैन की सांस ली। अरसे बाद उनके चेहरे पर एेसी रौनक लौटी थी। हालांकि उनका यह व्यवहार दूसरे साथियों की तरह संचालकों व स्वयंसेवकों के लिए भी खासा रहस्यमय था। क्योंकि इस वृद्धाश्रम में खुशी - खुशी अब तक कोई नहीं आया था। सब मुसीबत के मारे होते। देखने वाला कोई न होता,

6

ऊंची डिग्रियों के फीके नतीजे

21 जुलाई 2016
0
0
0

 तो कहना मुश्किल था कि इसकी कितनी भयंकरपरिणति उसके परिवार को झेलनी पड़ती। अब सवाल उठता है कि यदि पेशेवरव्यावसायिक डिग्रियों का यह हाल होगा तो साधारण विद्यार्थियों के लिए देश– समाज में कौन सा स्थान बचेगा। क्या साधारण युवा अपने को दौर के लिहाजसे बचा पाने में सफल हो पाएंगे। आज स्किल इंडिया की बात हो रह

7

ऊंची डिग्रियों के फीके नतीजे

21 जुलाई 2016
0
4
0

अमितेश कुमार ओझाव्हाट्स योर क्वालिफिकेशन ...। पहले छात्रों से जब यह सवाल पूछा जाता था,तो जवाब साधारणतः एमबीए और इंजीनियरिंग के मिलते थे। लेकिन समय के साथऐसे जवाब मिलने दिनोंदिन कम होते जा रहे हैं। क्योंकि उपभोक्तावाद केमौजूदा दौर में इन डिग्रियों का महत्व काफी कम हो गया है। यदि कहें कि इनडिग्रियों क

8

धोखा....!!

22 जुलाई 2016
0
1
0

अमितेश कुमार ओझाकस्बे के नगर सेठ गोविंद दास अपने नौकर राजाराम को बेटे से कम नहीं मानता था। कदाचित इसका कारण गोविंद दास का नंबर एक औऱ दो दोनों प्रकार का धंधा था।राजाराम उसका हर राज जानता था। इसलिए गोविंद दास उसे हर प्रकार से संतुष्ट रखने की भरपूर कोशिश करते। परिवार के भरण - पोषण की मजबूरी में राजाराम

9

आरक्षण और युवा पीढ़ी

23 जुलाई 2016
0
1
0

अमितेश कुमार ओझा जब मैं छोटा था तब मेरेलिए आरक्षण का मतलब ट्रेन का रिजर्वेशन था। लेकिन कॉलेज पहुंचने पर मुझे इसके सहीमायने समझ में आए। इस मुद्दे पर मैने अनेक वाद – विवाद देखे और सुने। जिससे मैंसोच में पड़ गया। बेशक समाज के उस वर्ग को जिसे सदियों तक पीछे धकेला गया, पिछड़ेबने रहने पर मजबूर किया गया, क

10

भयंकर होता दहेज का दानव ...

25 जुलाई 2016
0
1
0

अमितेश कुमार ओझामेरी एक परिचित महिला ऐसी है जो जवानी में ही विधवा होने को अभिशप्त रही। बच्चे बड़े होने पर उसे उनकी शादी की चिंता हुई। उसके एक बेटा और एक बेटी थी। बेटी की शादी के लिए महिला दर – दर की ठोकरें खाती रही। कहीं से मदद की आस होते ही वह उनके दरवाजे पहुंच जाती और अपने से कम उम्र के लोगों के भ

11

बलि प्रथा पर रोक जरूरी...!!

27 जुलाई 2016
0
0
1

अपने देश  में धर्मांधता पर बनने वाली फिल्में काफी पसंद तो की जाती है। लेकिन इन फिल्मों का लेशमात्र भी सकारात्मक असर समाज पर पड़ता हो, एेसा नहीं कहा जा सकता। इसका जीता - जागता उदाहरण सदियों बाद भी समाज में बलि प्रथा का कायम रहना है। साधारणतः हर धर्म में यह किसी न किसी रूप में मौजूद है। जिसे रोक पाने

12

कमाओ भैया कमाओ... लेकिन पब्लिक को यूं मूर्ख तो न बनाओ

28 जुलाई 2016
0
3
0

अमितेश कुमार ओझाहमारे देश मेंअच्छे – खासे पढ़े लिखे डिग्रीधारी नौजवानों को चंद हजार की नौकरी भले न मिलती हो,लेकिन फिल्मी स्टार और क्रिकेट खिलाड़ियों की करोड़ों की कमाई की चर्चा यूं कीजाती है मानो दस – बीस रुपए की बात हो रही हो। कोई फिल्म रिलीज हुई नहीं कि उसेकरोड़ों में खेलने वाला करार दे दिया जाता

13

जरूर दो जनाब वीआइपी को सिक्यूरिटी , लेकिन जनता का भी तो ख्याल रखो ...!!

3 अगस्त 2016
0
1
0

अमितेश कुमार ओझा कुछ दिन पहले मैं अपनेशहर में किसी जरूरी कार्य से जा रहा था, कि अचानक एक बड़े पुल पर पुलिस ही पुलिसदेख घबरा गया। पुल  के नीचे से रेलवे लाइनगुजरती है। मैने सोचा क्या कहीं कोई अनहोनी हो गई है। पुल पर इतनी पुलिस क्यों है।चौंकने वालों में मैं अकेला नहीं था। जिसकी भी नजर इतनी अधिक संख्या

14

युवाओं के लिए आजादी का मतलब...

9 अगस्त 2016
0
2
1

अमितेश कुमार ओझासमाज की यह बड़ी विडंबना है कि हर दौर में पुरानी पीढ़ी को नई पीढ़ी अधिकस्वतंत्र व गैर  - जिम्मेदार लगती है। हम अक्सर बुजुर्गों से सुनतेहैं... भैया ... आजकल के ये लड़के...। इनकी तो न ही पूछो तो ठीक....लेकिन सवाल उठता है कि क्या पुरानी पीढ़ी की नई पीढ़ी के प्रति यह सोचउचित है। बेशक आज क

15

कैसे मजबूत हो बैंकों की बुनियाद

26 अगस्त 2016
0
1
0

अमितेश कुमार ओझा कुछ साल पहले मेरे शहर में दिन – दहाड़े बैंक की 20 लाख रुपए की रकम लूट ली गई। वाकया दिन को हुआ था, लिहाजा पुलिस ने आनन – फानन कुछ लोगों को गिरफ्तार कर लिया। लेकिन असली समस्या तब आई जब लूट का शिकार बने बैंक के कर्मचारियों ने शिनाख्त परेड के दौरान अपराधियों को पहचानने से साफ इन्कार कर

16

नारा नहीं संस्कृति बने स्वच्छता अभियान...

2 अक्टूबर 2016
0
0
0

अमितेश कुमार ओझा पिछले साल देश केप्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने जब महात्मा गांधी की जयंती पर स्वच्छ भारत अभियानका नारा बुलंद किया तो बेशक समूचे देश में साफ – सफाई को लेकर एक माहौल बनता नजरआया। जगह – जगह लोग झाड़ू लेकर निकल पड़े।स्वयंसेवी संगठनों से लेकर आत्मकेंद्रित हाई प्रोफाइल संस्थानों में भी लोग

17

नारा नहीं संस्कृति बने स्वच्छता अभियान...

2 अक्टूबर 2016
0
2
0

अमितेश कुमार ओझा पिछले साल देश केप्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने जब महात्मा गांधी की जयंती पर स्वच्छ भारत अभियानका नारा बुलंद किया तो बेशक समूचे देश में साफ – सफाई को लेकर एक माहौल बनता नजरआया। जगह – जगह लोग झाड़ू लेकर निकल पड़े।स्वयंसेवी संगठनों से लेकर आत्मकेंद्रित हाई प्रोफाइल संस्थानों में भी लोग

---

किताब पढ़िए

लेख पढ़िए