अमितेश कुमार ओझा
मेरी एक परिचित महिला ऐसी है जो जवानी में ही विधवा होने को अभिशप्त रही। बच्चे बड़े होने पर उसे उनकी शादी की चिंता हुई। उसके एक बेटा और एक बेटी थी। बेटी की शादी के लिए महिला दर – दर की ठोकरें खाती रही। कहीं से मदद की आस होते ही वह उनके दरवाजे पहुंच जाती और अपने से कम उम्र के लोगों के भी पैरों पर गिर पड़ती। अपनी असहायता जाहिर करते हुए वह कहती कि लोगों की मदद के बगैर वह अपनी बेटी के हाथ पीले नहीं कर सकती। लेकिन क्या आश्चर्य कि बेटी की जगह बेटे की शादी की चर्चा छिड़ते ही उसके तेवर बिल्कुल बदल जाते। स्वभाव में आमूल परिवर्तन लाते हुए वह कहती ... भैया बेटे की शादी के लिए तो मैं इससे कम दहेज नहीं लूंगी। आखिर उसकी पढ़ाई – लिखाई पर इतना खर्च जो किया है। क्या बेटे को ऐसे ही किसी को सौंप दूं। उस महिला का यह दोहरा बर्ताव देख मैं सोच में पड़ जाता। मुझे लगता कि यह रवैया किसी व्यक्ति विशेष का नहीं बल्कि अपने पूरे समाज का है। बेशक अपवाद हर जगह होते हैं। लेकिन ज्यादातर का यही रवैया रहता है। बेटी की शादी की बात आएगी तो अलग तरह से पेश आएंगे लेकिन बेटे की शादी की चर्चा मात्र उनमें अकड़ ले आती है। दुल्हा बिकता है... फिल्म 70 के दशक में बना था। इसका गाना अब भी यदा – कदा कानों में सुनाई दे जाता है। यानी दहेज की बुराई तब भी थी जब समाज इतना विकसित नहीं हुआ था। लोगों पर भौतिकता वाद इस कदर हावी नहीं हुई थी। इतनी गला काट प्रतिस्पर्धा नहीं थी। लड़कियां घास – फूस की तरह बड़ी होकर ससुराल पहुंच जाती थी। वहीं लड़के थोड़ा – बहुत पढ़ – लिख कर जीवन संघर्ष में जुट जाते थे। आज तो स्थिति बड़ी विकट है। अच्छी से अच्छी शिक्षा हासिल करने के बावजूद न तो .आज के युवाओं के लिए बेहतर रोजगार की गारंटी है और न ही आर्थिक – सामाजिक सुरक्षा की। ऐसे में स्वाभाविक रूप से दहेज का दानव और और भी भयंकर रूप धारण कर रहा है। किसी जमाने में एक सरकारी नौकरी वाले सदस्य का पूरा परिवार उस पर आश्रित रहता था। लेकिन आज सरकारी नौकरी बची ही नहीं है। निजी क्षेत्रों में भयंकर असुरक्षा और प्रतिस्पर्धा की स्थिति है। लड़का हो या लड़की दोनों का शिक्षित होना जरूरी है तिस पर दहेज की मार , इस स्थिति में हम अंजाने ही कैसी समाज की रचना कर रहे हैं। नौजवानों के साथ ही उनके अभिभावक भी भारी खर्च की दोहरी मार झेलने को अभिशप्त हैं। यानी पहले बच्चों को शिक्षित बनाने पर लाखों खर्च करें फिर बच्चों की शादी पर। इस मामले में हिंदी पट्टी की हालत तो और भी चिंतनीय है। क्योंकि यहां भारी दहेज लेने या देने दोनों पर गर्व किया जाता है। मैं अक्सर अपने हमउम्र शिक्षित दोस्तों के मुंह से सुनता हूं ... अरे यार मेरी दीदी की शादी थी... जिसका बजट इतना लाख का था... आखिर हो भी क्यों नहीं ... जीजाजी अफसर जो हैं। बेशक ऐसी बातें हजारों नौजवानों को टीस पहुंचाती होंगी। सोचना पड़ता है कि किसी अभिभावक के लिए शादी पर इतनी मोटी रकम खर्च कर पाना आखिर किस कदर संभव हो पाता होगा। या फिर समाज में आखिर इस पर सवाल क्यों नहीं उठता। लेकिन विडंबना के आगे हर कोई लाचार है। क्योंकि दहेज को अपराध या सामाजिक बुराई बताने या साबित करने की बातें महज किताबी साबित हो रही है। मेरे परिचय में कई परिवार ऐसे हैं जिनके बच्चे पढ़ाई – लिखाई से लेकर हर मामले में औसत हैं। लिहाजा वे भयंकर रूप से अवसादग्रस्त होते जा रहे हैं। क्योंकि उनके बच्चे किसी भी मामले में एडजस्ट नहीं हो पा रहे हैं। इस परिस्थिति में बच्चों के साथ उनके अभिभावक भी गहरी मानसिक हताशा झेलने को अभिशप्त हैं। बेशक हमेशा की तरह आज की इन विसंगतियों को दूर करने के लिए भी नौजवान पीढ़ी को ही आगे आना होगा। तभी हम भविष्य को बचा पाएंगे। लेकिन इस तरह अंजाने में हम नौजवानों के लिए एक ऐसी दुनिया की रचना कर रहे हैं जहां औसत या सामान्य के लिए कोई जगह नहीं। जंगल राज की तरह जहां ताकतवर ही लड़ और बच सकता है।
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लेखक बी.काम प्रथम वर्ष के छात्र हैं।