अपने देश में धर्मांधता पर बनने वाली फिल्में काफी पसंद तो की जाती है। लेकिन इन फिल्मों का लेशमात्र भी सकारात्मक असर समाज पर पड़ता हो, एेसा नहीं कहा जा सकता। इसका जीता - जागता उदाहरण सदियों बाद भी समाज में बलि प्रथा का कायम रहना है। साधारणतः हर धर्म में यह किसी न किसी रूप में मौजूद है। जिसे रोक पाने में सरकार व प्रशासन अब तक सफल नहीं हो पाई है। जब कि सदियों से हमारे कई महापुरुषों ने भी इस पर रोक लगाने की भरसक कोशिश की थी। यह सही है कि आज मांस उद्योग एक बड़ा कारोबार बन चुका है। जिस पर रोक की कोई संभावना नहीं है। लेकिन अपने फायदे के लिए निरीह पशुओं की बलि कहां तक उचित है। क्या यह संवेदनहीनता की हद नहीं। क्या इसके विकल्पों के बारे में नहीं सोचा जा सकता है। जिसके तहत बगैर पशुओं की बलि के ही धार्मिक परंपरा पूरी करने पर जोर दिया जा सके। समाज के सम्मिलित प्रयासों से यह संभव हो सकता है। लेकिन इसके लिए हमें अधिक जागरूर होना पड़ेगा। आज के आधुनिकता के दौर में भी धार्मिक परंपरा के निर्वाह के लिए पशुओं की बलि को कतई उचित नहीं कहा जा सकता है। यही नहीं खुले में पशुओं को काटने और उनकी बिक्री पर भी अनिवार्य रूप से रोक लगाया जाना चाहिए। क्योंकि इस समस्या का बहुत गहरा असर बच्चों के मन - मस्तिष्क पर पड़ता है। यह समस्या प्रदूषण का कारण भी बनती है। जिसे दूर करने के लिए समाज के हर वर्ग को सक्रिय होना पड़ेगा।