shabd-logo

आरक्षण और युवा पीढ़ी

23 जुलाई 2016

454 बार देखा गया 454
featured image

अमितेश कुमार ओझा

जब मैं छोटा था तब मेरे लिए आरक्षण का मतलब ट्रेन का रिजर्वेशन था। लेकिन कॉलेज पहुंचने पर मुझे इसके सही मायने समझ में आए। इस मुद्दे पर मैने अनेक वाद – विवाद देखे और सुने। जिससे मैं सोच में पड़ गया। बेशक समाज के उस वर्ग को जिसे सदियों तक पीछे धकेला गया, पिछड़े बने रहने पर मजबूर किया गया, किसी भी रूप में सुख – सुविधा देने में कोई हर्ज नहीं है। लेकिन यह जानना – समझना भी जरूरी है कि इसकी लक्ष्मण रेखा क्या और कहां हो। जिस तरह एक वर्ग की पुरानी पीढ़ियों के साथ अतीत में अन्याय हुआ। नए जमाने में हम वहीं गलती नई पीढ़ी के साथ न दोहराएं। मेरे विचार से समाज के किसी भी वर्ग को अन्याय का भान भी न होने देना ही आदर्श स्थिति है। इसलिए नए दौर में हमें फिर से चिंतन करना चाहिए कि सरकारी वैशाखी क्यों और कहां तक मिलना चाहिए। बेशक नई पीढ़ी संकीर्णता से काफी हद तक ऊबर चुकी है। नई पीढ़ी के लोग किसी भी बंधन में नहीं रहना चाहते। चुनाव के समय भी यह बानगी देखने को मिलती है। जब तमाम जातिगत या मजहबी समीकरण ध्वस्त हो जाते हैं और कोई ऐसा उम्मीदवार जीत जाता है, जिस पर हैरत होती है। यह नई पीढ़ी की सोच का ही परिणाम है। जो हर स्तर पर कार्यकुशल और व्यावहारिक व्यक्ति के चुनाव पर जोर देती है। इसलिए सरकारी सुख – सुविधा लेने या न लेने के फैसले को भी नई पीढ़ी की सोच के भरोसे छोड़ देना चाहिए। किसी से ऐसी उम्मीद कैसी की जा सकती है कि वह हाथ आती उस सुविधा को तिलांजलि दे दे जो अनायास और अत्यंत सहज तरीके से उसे मिल रही है। लेकिन अनेक विवेकशील व्यक्ति ऐसे भी होंगे जो अपने लिए ऐसी  सुविधाओं की वैशाखी नहीं चाहते। मेरे ख्याल से आरक्षण के मामले को भी सरकारी सब्सिडी की तरह लाभार्थी के विवेक पर छोड़ देना चाहिए। जिस तरह ट्रेनों में आरक्षण कराते समय वृद्ध यात्रियों के लिए यह विकल्प है कि रेलवे द्वारा दी जाने वाली सब्सिडी का उपयोग वह करे या नहीं। रसोई गैस के मामले में भी सरकार इस नीति पर अमल कर रही है। यही नहीं अब तो कुछ राज्यों में सरकारें सरकारी खाद्यान्न लेने या न लेने के फैसले को भी लाभ पाने वाले के विवेक पर छोड़ रही है। यह सुविधा दी जा रही है कि लाभार्थी खुद ही एक फार्म भर कर इसे छोड़ने का फैसला कर ले। पहले सरकारी राशन की दुकानों से हर सप्ताह निर्धारित राशन लेना अनिवार्य था। इसे नागरिकता प्रमाण पत्र से भी जोड़ दिया गया था। जबकि हजारों की संख्या में ऐसे लोग हैं जिन्हें यह मजबूरी खलती थी। मुट्ठी भर अनाज के लिए घंटों कतार में खड़े रहना उन्हें किसी भी रूप में रास नहीं आता था। लेकिन अपनी नागरिकता खो बैठने के डर से वे मन मार कर इस बोझ को ढोते जाने को अभिशप्त थे। अच्छी बात है कि अब सरकार को अपनी गलती का अहसास हो रहा है।  अब इस बाध्यता  में ढिलाई दी जा रही है। मेरे ख्याल से आरक्षण समेत तमाम सरकारी सुख – सुविधाओं के मामले में यही नीति अपनाई और लागू की जानी चाहिए, जिससे इस मुद्दे पर होने वाले व्यर्थ के तमाम मुद्दों पर एकबारगी लगाम लगाया जा सके। कोई भी सुविधा जब विवेक के आधार पर ली या छोड़ी जाएगी तब इस पर विवाद या तनाव की कोई गुंजाइश ही नहीं बचेगी। मुझे लगता है आज की नई पीढ़ी इस पर फैसला लेने में पूरी तरह से परिपक्व है।  

अमितेश कुमार ओझा की अन्य किताबें

1

समय का मोल ...

9 जुलाई 2016
0
4
0

कहानी------------समय का मोल...!!अमितेश कुमार ओझाकड़ाके की ठंड में झोपड़ी के पास रिक्शे की खड़खड़ाहट से भोला की पत्नी और बेटा चौंक उठे। अनायास ही उन्हें कुछ  प्रतिकूलता का भान हुआ। क्योंकि भोला को और देर से घर पहुंचना था। लेकिन अपेक्षा से काफी पहले ही वह घर लौट आया था। जरूर कुछ गड़बड़ हुई.... भोला की

2

सपना ...!!

10 जुलाई 2016
0
1
1

जय जगन्नाथ... बोलो जय जगन्नाथ...रथ महोत्सव पर निकली यात्रा में उत्साहित बच्चों के मुंह से निकलने वालेइस जयकारे ने नुक्कड़ से मोहल्ले की ओर जाने वाली पगडंडी पर चल रही उदासमाला की तंद्रा मानो भंग कर दी।जीवन के गुजरे पल खास कर उसका अतीत किसी फिल्म के फ्लैश बैक की तरह उसकीआंखों के सामने नाचने लगा।क्योंक

3

घर वापसी...!!

11 जुलाई 2016
0
1
0

अरे महाराज... कहां चल दिए। रुकिए तो ... गाड़ी कभी भी चल पड़ेगी। उस युवा साधु को छोटे से स्टेशन से आगे बढ़ता देख दूसरे साधु चिल्ला उठे। लेकिन उस  पर तो जैसे अलग ही धुन सवार थी। वह आगे बढ़ता ही जा रहा था। दूसरे साधु पीछे - पीछे चिल्लाते हुए लगभग दौड़ने लगे। महाराज , आपको कुछ भ्रम हो गया है क्या। आप कह

4

जनाब, जरा हमारे स्कूल पर भी हो नजरें - इनायत ....

12 जुलाई 2016
0
0
1

अपने देश में भेदभाव मिटाने औऱ समानता कायम करने पर काफी बातें होती है। लेकिन वास्तव में होता इसके बिल्कुल विपरीत है। क्योंकि दरअसल असमानता , गरीबी व बेरोजगारी की जड़ हमारी शिक्षा नीति में है, लेकिन इस ओर देश के कर्णधारों का ध्यान ही नहीं जाता। यह तो सर्वविदित तथ्य है कि देश की भीषणतम समस्या गरीबी और

5

खुशी...!!

15 जुलाई 2016
0
1
0

वृद्धाश्रम में संदूक रखते ही राजाराम ने चैन की सांस ली। अरसे बाद उनके चेहरे पर एेसी रौनक लौटी थी। हालांकि उनका यह व्यवहार दूसरे साथियों की तरह संचालकों व स्वयंसेवकों के लिए भी खासा रहस्यमय था। क्योंकि इस वृद्धाश्रम में खुशी - खुशी अब तक कोई नहीं आया था। सब मुसीबत के मारे होते। देखने वाला कोई न होता,

6

ऊंची डिग्रियों के फीके नतीजे

21 जुलाई 2016
0
0
0

 तो कहना मुश्किल था कि इसकी कितनी भयंकरपरिणति उसके परिवार को झेलनी पड़ती। अब सवाल उठता है कि यदि पेशेवरव्यावसायिक डिग्रियों का यह हाल होगा तो साधारण विद्यार्थियों के लिए देश– समाज में कौन सा स्थान बचेगा। क्या साधारण युवा अपने को दौर के लिहाजसे बचा पाने में सफल हो पाएंगे। आज स्किल इंडिया की बात हो रह

7

ऊंची डिग्रियों के फीके नतीजे

21 जुलाई 2016
0
4
0

अमितेश कुमार ओझाव्हाट्स योर क्वालिफिकेशन ...। पहले छात्रों से जब यह सवाल पूछा जाता था,तो जवाब साधारणतः एमबीए और इंजीनियरिंग के मिलते थे। लेकिन समय के साथऐसे जवाब मिलने दिनोंदिन कम होते जा रहे हैं। क्योंकि उपभोक्तावाद केमौजूदा दौर में इन डिग्रियों का महत्व काफी कम हो गया है। यदि कहें कि इनडिग्रियों क

8

धोखा....!!

22 जुलाई 2016
0
1
0

अमितेश कुमार ओझाकस्बे के नगर सेठ गोविंद दास अपने नौकर राजाराम को बेटे से कम नहीं मानता था। कदाचित इसका कारण गोविंद दास का नंबर एक औऱ दो दोनों प्रकार का धंधा था।राजाराम उसका हर राज जानता था। इसलिए गोविंद दास उसे हर प्रकार से संतुष्ट रखने की भरपूर कोशिश करते। परिवार के भरण - पोषण की मजबूरी में राजाराम

9

आरक्षण और युवा पीढ़ी

23 जुलाई 2016
0
1
0

अमितेश कुमार ओझा जब मैं छोटा था तब मेरेलिए आरक्षण का मतलब ट्रेन का रिजर्वेशन था। लेकिन कॉलेज पहुंचने पर मुझे इसके सहीमायने समझ में आए। इस मुद्दे पर मैने अनेक वाद – विवाद देखे और सुने। जिससे मैंसोच में पड़ गया। बेशक समाज के उस वर्ग को जिसे सदियों तक पीछे धकेला गया, पिछड़ेबने रहने पर मजबूर किया गया, क

10

भयंकर होता दहेज का दानव ...

25 जुलाई 2016
0
1
0

अमितेश कुमार ओझामेरी एक परिचित महिला ऐसी है जो जवानी में ही विधवा होने को अभिशप्त रही। बच्चे बड़े होने पर उसे उनकी शादी की चिंता हुई। उसके एक बेटा और एक बेटी थी। बेटी की शादी के लिए महिला दर – दर की ठोकरें खाती रही। कहीं से मदद की आस होते ही वह उनके दरवाजे पहुंच जाती और अपने से कम उम्र के लोगों के भ

11

बलि प्रथा पर रोक जरूरी...!!

27 जुलाई 2016
0
0
1

अपने देश  में धर्मांधता पर बनने वाली फिल्में काफी पसंद तो की जाती है। लेकिन इन फिल्मों का लेशमात्र भी सकारात्मक असर समाज पर पड़ता हो, एेसा नहीं कहा जा सकता। इसका जीता - जागता उदाहरण सदियों बाद भी समाज में बलि प्रथा का कायम रहना है। साधारणतः हर धर्म में यह किसी न किसी रूप में मौजूद है। जिसे रोक पाने

12

कमाओ भैया कमाओ... लेकिन पब्लिक को यूं मूर्ख तो न बनाओ

28 जुलाई 2016
0
3
0

अमितेश कुमार ओझाहमारे देश मेंअच्छे – खासे पढ़े लिखे डिग्रीधारी नौजवानों को चंद हजार की नौकरी भले न मिलती हो,लेकिन फिल्मी स्टार और क्रिकेट खिलाड़ियों की करोड़ों की कमाई की चर्चा यूं कीजाती है मानो दस – बीस रुपए की बात हो रही हो। कोई फिल्म रिलीज हुई नहीं कि उसेकरोड़ों में खेलने वाला करार दे दिया जाता

13

जरूर दो जनाब वीआइपी को सिक्यूरिटी , लेकिन जनता का भी तो ख्याल रखो ...!!

3 अगस्त 2016
0
1
0

अमितेश कुमार ओझा कुछ दिन पहले मैं अपनेशहर में किसी जरूरी कार्य से जा रहा था, कि अचानक एक बड़े पुल पर पुलिस ही पुलिसदेख घबरा गया। पुल  के नीचे से रेलवे लाइनगुजरती है। मैने सोचा क्या कहीं कोई अनहोनी हो गई है। पुल पर इतनी पुलिस क्यों है।चौंकने वालों में मैं अकेला नहीं था। जिसकी भी नजर इतनी अधिक संख्या

14

युवाओं के लिए आजादी का मतलब...

9 अगस्त 2016
0
2
1

अमितेश कुमार ओझासमाज की यह बड़ी विडंबना है कि हर दौर में पुरानी पीढ़ी को नई पीढ़ी अधिकस्वतंत्र व गैर  - जिम्मेदार लगती है। हम अक्सर बुजुर्गों से सुनतेहैं... भैया ... आजकल के ये लड़के...। इनकी तो न ही पूछो तो ठीक....लेकिन सवाल उठता है कि क्या पुरानी पीढ़ी की नई पीढ़ी के प्रति यह सोचउचित है। बेशक आज क

15

कैसे मजबूत हो बैंकों की बुनियाद

26 अगस्त 2016
0
1
0

अमितेश कुमार ओझा कुछ साल पहले मेरे शहर में दिन – दहाड़े बैंक की 20 लाख रुपए की रकम लूट ली गई। वाकया दिन को हुआ था, लिहाजा पुलिस ने आनन – फानन कुछ लोगों को गिरफ्तार कर लिया। लेकिन असली समस्या तब आई जब लूट का शिकार बने बैंक के कर्मचारियों ने शिनाख्त परेड के दौरान अपराधियों को पहचानने से साफ इन्कार कर

16

नारा नहीं संस्कृति बने स्वच्छता अभियान...

2 अक्टूबर 2016
0
0
0

अमितेश कुमार ओझा पिछले साल देश केप्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने जब महात्मा गांधी की जयंती पर स्वच्छ भारत अभियानका नारा बुलंद किया तो बेशक समूचे देश में साफ – सफाई को लेकर एक माहौल बनता नजरआया। जगह – जगह लोग झाड़ू लेकर निकल पड़े।स्वयंसेवी संगठनों से लेकर आत्मकेंद्रित हाई प्रोफाइल संस्थानों में भी लोग

17

नारा नहीं संस्कृति बने स्वच्छता अभियान...

2 अक्टूबर 2016
0
2
0

अमितेश कुमार ओझा पिछले साल देश केप्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने जब महात्मा गांधी की जयंती पर स्वच्छ भारत अभियानका नारा बुलंद किया तो बेशक समूचे देश में साफ – सफाई को लेकर एक माहौल बनता नजरआया। जगह – जगह लोग झाड़ू लेकर निकल पड़े।स्वयंसेवी संगठनों से लेकर आत्मकेंद्रित हाई प्रोफाइल संस्थानों में भी लोग

---

किताब पढ़िए

लेख पढ़िए