अमितेश कुमार ओझा
जब मैं छोटा था तब मेरे
लिए आरक्षण का मतलब ट्रेन का रिजर्वेशन था। लेकिन कॉलेज पहुंचने पर मुझे इसके सही
मायने समझ में आए। इस मुद्दे पर मैने अनेक वाद – विवाद देखे और सुने। जिससे मैं
सोच में पड़ गया। बेशक समाज के उस वर्ग को जिसे सदियों तक पीछे धकेला गया, पिछड़े
बने रहने पर मजबूर किया गया, किसी भी रूप में सुख – सुविधा देने में कोई हर्ज नहीं
है। लेकिन यह जानना – समझना भी जरूरी है कि इसकी लक्ष्मण रेखा क्या और कहां हो।
जिस तरह एक वर्ग की पुरानी पीढ़ियों के साथ अतीत में अन्याय हुआ। नए जमाने में हम वहीं
गलती नई पीढ़ी के साथ न दोहराएं। मेरे विचार से समाज के किसी भी वर्ग को अन्याय का
भान भी न होने देना ही आदर्श स्थिति है। इसलिए नए दौर में हमें फिर से चिंतन करना
चाहिए कि सरकारी वैशाखी क्यों और कहां तक मिलना चाहिए। बेशक नई पीढ़ी संकीर्णता से
काफी हद तक ऊबर चुकी है। नई पीढ़ी के लोग किसी भी बंधन में नहीं रहना चाहते। चुनाव
के समय भी यह बानगी देखने को मिलती है। जब तमाम जातिगत या मजहबी समीकरण ध्वस्त हो
जाते हैं और कोई ऐसा उम्मीदवार जीत जाता है, जिस पर हैरत होती है। यह नई पीढ़ी की
सोच का ही परिणाम है। जो हर स्तर पर कार्यकुशल और व्यावहारिक व्यक्ति के चुनाव पर
जोर देती है। इसलिए सरकारी सुख – सुविधा लेने या न लेने के फैसले को भी नई पीढ़ी
की सोच के भरोसे छोड़ देना चाहिए। किसी से ऐसी उम्मीद कैसी की जा सकती है कि वह
हाथ आती उस सुविधा को तिलांजलि दे दे जो अनायास और अत्यंत सहज तरीके से उसे मिल
रही है। लेकिन अनेक विवेकशील व्यक्ति ऐसे भी होंगे जो अपने लिए ऐसी सुविधाओं की वैशाखी नहीं चाहते। मेरे ख्याल से
आरक्षण के मामले को भी सरकारी सब्सिडी की तरह लाभार्थी के विवेक पर छोड़ देना
चाहिए। जिस तरह ट्रेनों में आरक्षण कराते समय वृद्ध यात्रियों के लिए यह विकल्प है
कि रेलवे द्वारा दी जाने वाली सब्सिडी का उपयोग वह करे या नहीं। रसोई गैस के मामले
में भी सरकार इस नीति पर अमल कर रही है। यही नहीं अब तो कुछ राज्यों में सरकारें
सरकारी खाद्यान्न लेने या न लेने के फैसले को भी लाभ पाने वाले के विवेक पर छोड़
रही है। यह सुविधा दी जा रही है कि लाभार्थी खुद ही एक फार्म भर कर इसे छोड़ने का
फैसला कर ले। पहले सरकारी राशन की दुकानों से हर सप्ताह निर्धारित राशन लेना
अनिवार्य था। इसे नागरिकता प्रमाण पत्र से भी जोड़ दिया गया था। जबकि हजारों की
संख्या में ऐसे लोग हैं जिन्हें यह मजबूरी खलती थी। मुट्ठी भर अनाज के लिए घंटों
कतार में खड़े रहना उन्हें किसी भी रूप में रास नहीं आता था। लेकिन अपनी नागरिकता
खो बैठने के डर से वे मन मार कर इस बोझ को ढोते जाने को अभिशप्त थे। अच्छी बात है
कि अब सरकार को अपनी गलती का अहसास हो रहा है। अब इस बाध्यता में ढिलाई दी जा रही है। मेरे ख्याल से आरक्षण
समेत तमाम सरकारी सुख – सुविधाओं के मामले में यही नीति अपनाई और लागू की जानी
चाहिए, जिससे इस मुद्दे पर होने वाले व्यर्थ के तमाम मुद्दों पर एकबारगी लगाम
लगाया जा सके। कोई भी सुविधा जब विवेक के आधार पर ली या छोड़ी जाएगी तब इस पर
विवाद या तनाव की कोई गुंजाइश ही नहीं बचेगी। मुझे लगता है आज की नई पीढ़ी इस पर
फैसला लेने में पूरी तरह से परिपक्व है।