कंदराओं में पनपती सभ्यताओं✒️हैं सुखी संपन्न जग में जीवगण, फिर काव्य की संवेदनाएँ कौन हैं?कंदराओं में पनपती सभ्यताओं, क्या तुम्हारी भावनायें मौन हैं?आयु पूरी हो चुकी है आदमी की,साँस, या अब भी ज़रा बाकी रही है?मर चुकी इंसानियत का ढेर है यह,या दलीलें बाँचनी बाकी रही हैं?हैं मगन इस सृष्टि के वासी सभी गर,