कंदराओं में पनपती सभ्यताओं
✒️
हैं सुखी संपन्न जग में जीवगण, फिर काव्य की संवेदनाएँ कौन हैं?
कंदराओं में पनपती सभ्यताओं, क्या तुम्हारी भावनायें मौन हैं?
आयु पूरी हो चुकी है आदमी की,
साँस, या अब भी ज़रा बाकी रही है?
मर चुकी इंसानियत का ढेर है यह,
या दलीलें बाँचनी बाकी रही हैं?
हैं मगन इस सृष्टि के वासी सभी गर, हर हृदय में वेदनाएँ कौन हैं?
कंदराओं में पनपती...
हो गये कलुषित, विपद से जीव सारे,
या अघी से मानवों की साख दिखती?
सूर्य की लाली चढ़ी है व्योम के पट,
रक्त की स्याही, नये इतिहास लिखती।
सौम्य है अब भी मनस में, योग्य चिंतन, घोर पापों की ध्वजायें कौन हैं?
कंदराओं में पनपती...
श्रेष्ठ है मनुजत्व सारे सद्गुणों में,
यह ढिंढोरे पीटता किसके सहारे?
जन्म है जिसका नदी के तीर पर ही,
वह, मिटाने को लगा उसके किनारे।
तृप्त हैं संबंध सारे यदि मनुज के, न्याय की यह याचनाएँ कौन हैं?
कंदराओं में पनपती सभ्यताओं, क्या तुम्हारी भावनायें मौन हैं?
...“निश्छल”