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कविता-अफसोस

21 जनवरी 2023

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अफ़सोस

अफसोस होगा तुम्हे, यह जान कर
कि ऐसे भी जीते हैं लोग बिना संसाधनों के,
भूखे और प्यासे भी।
मजबूर अपनी मजबूरियों पर,
रोते और बिलखते भी l

शहर से दूर गांवों में और
गाँव से दूर भी जंगलों, पहाड़ों और बिरानियों मे,

हर शहर का प्रवेश द्वार होती है झोपड़ियां ओर दबे कुचले लोग,
शहर के उजालों ओर चकाचोंध में भी दबे होते है कुछ अंधेरे और बेबस तबके,

हाँ शहरों में भी बसते हैं गरीब और कमजोर
देखा है मैंने और आपने भी
अफ़सोस होगा तुम्हे, यह जानकर भी,
कैसे इन पर रोटियां सेंकती हैं
सरकारे और प्रशाशन
अफसोस होगा तुम्हे ये जानकर कि जूझ रहे हैं लोग झोपड़ियों
और एक कमरे के मकानों के लिए भी,
जैसे तुम जूझ रहे हो थ्री बी एच के और आलीशान मकानों के लिए ।

अफ़सोस होगा तुम्हे यह जानकर कि
तुम्हारे रोज के खर्चे से कम है कईयों के महीने का खर्च
अफसोस होगा तुम्हें यह जानकार
कि जितना तुम फेंक देते हो बर्बाद कर देते हो
उतना किसी की जरूरत है उतना मिलना किसी का हक है।

अफसोस होगा तुम्हे, यह देखकर भी
कि कैसे मैले, कुचले कपड़े पहने और जमीन पर बैठे पढ़ते है प्रायमरी स्कूलों में बच्चे जो कभी सुने ही नही कैडबरी, नेशले और मिल्क बार।

पर अफ़सोस है कि..अफसोस नही होगा तुम्हे

ये सब देखकर और जानकर भी अनजान बने रहने का,
अफसोस नही होगा तुम्हे, खुद को जरा सा न बदल पाने का,
अफसोस नही होगा किसी के जरा सा भी काम न आने का।

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