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लहरें बुलाती हैं

3 नवम्बर 2022

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‘आचरण, सभ्यता, नेक–नियम और मानवता से भरे आदर्शो के उपदेश केवल धार्मिक ग्रंथों में ही पढ़ने को मिला करते हैं, काकेष जी। वस्तविक जीवन में इनका
प्रयोग करने वाला मसीहा, येरूशलेम के बैतलहम में दोबारा पैदा होते मैंने आज
तक नहीं देखा है।’

***

‘जी, सुनिये।’

‘?’

गुमसुम,खोई–खोई सी, अपने ही ख्यालों में डूबी हुई, सागर की मदमस्त लहराती हुई लहरों को देखती हुई कज़ली के कानों में अनजाना सा स्वर सुनाई पड़ा तो वह सहसा ही चौंक गई। उसने गर्दन घुमा कर पीछे देखा तो किसी लंबे, एकहरे बदन और कंधों तक उसके सागर की ख़ारी ठंडी वायु में झूलते हुये लंबे बालों वाले
अनजान आगुन्तक को अपने हाथों में मछली पकड़ने की डोर और छड़ी को लिये हुये देख वह सहसा, सहम सी गई। कज़ली का यूं आश्चर्य करना और चौंकना वहुत स्वभाविक भी था। जिस पुरूष को उसने इससे पहले न देखा और जाना था, वही उससे संबोधित था, यह जानकर वह और भी आश्चर्य से गड़ गई थी। मगर उस अनजान व्यक्ति से वह कुछ कहती, इससे पूर्व ही वह पुरूष बोला,

‘आप यूं घबराइये नहीं। मेरा
नाम काकेष है। और मैं यही सवाना में रहता हूं और बैल साउथ फोन कंपनी में
काम किया करता हूं। जब भी ‘वीकेंड’ में छुट्टी होती है, या फिर कोई अन्य
अवकाश मिल जाता है, तो मछली की डोर उठाकर यहां चला आता हूं। ‘फिशिंग’ करना
मुझे बहुत अच्छा लगता है। जब भी यहां आता हूं तो आपको अक्सर यहां बैठे देखा
करता हूं। हांलाकि, मुझे आपके इस तरह अकेले, एकांतमयी तरीके से बैठे देख
कोई विशेष परेशानी तो नहीं होती है, लेकिन बड़ा अजीब सा लगता है। क्या मैं
जान सकता . . .’

‘जिस तरह से आपको भोली–भोली, सागर की लहरों में
झूमती, लहराती मछालियों को लालच और छोखा देकर अपने कांटे में फांसना अच्छा
लगता है, मेरा शौक वैसा तो नहीं है। बस ये सागर, इसकी कल–कल करती हुई अपने
शोर से अनजान, इसकी बेफिक्र, दुनियां के हर ग़म से महरूम खेलती हुई लहरें
मुझे बहुत अच्छी लगती हैं। ऐसा लगता है कि ये लहरें मुझे आवाज़ देती हैं.–
मुझे पुकार–पुकार कर बुलाती हैं, और मैं यहां इनसे बगैर कोई शिकायत किये
हुये चुपचाप चली आती हूं।’

काकेष की अधूरी बात को बीच में ही काट कर,
और अपनी बात कहकर कज़ली उठकर जाने लगी तो काकेष ने उसे रोका। बोला, ‘क्या
मैं आपका परिचय . . .?’

‘बुरा मत मानियेगा। सागर की इन लहरों से प्यार करने वाली ये कज़ली केवल अपने नाम के सिवा कोई और परिचय नहीं दे सकेगी।’

कहती हुई कज़ली सचमुच चली गई तो काकेष चुपचाप उसे तब तक जाते हुये निहारता रहा जब तक कि वह उसकी आंखों से ओझल नहीं हो गई थी।

.
. .सोचते–सोचते अचानक ही काकेष की स्मृतियों को एक झटका सा लगा। वह यादों के भंवरजाल से निकल कर बाहर आया। अपनी आंखों पर हाथ रखा तो ख़ारे सागर के जल से भी अधिक संवेदनशील अंगुलियों की पोरें पलकों पर बैठे हुये उदास आंसुओं से तर हो गईं। लगा कि इन ठंडे आंसुओं की कोख़ में ठहरी हुई तपन ने उसके मुख पर वह अचानक तमाचा सा जड़ दिया है जो उसके जीवन की एक ला–परवा भूल के समान, उसके बदन से रंज–ओ–ग़म के कोहरे के समान सदैव ही चिपका रहेगा। उसकी ज़िन्दगी की दर्द–भरी स्मृतियों का वह कोहरा जो अब जितना अधिक छंटेगा, उससे कहीं ज्यादा बढ़ता भी जायेगा।

काकेष ने नीरस और उदास मन की भावनाओं से अपने
आस–पास के वातावरण को देखा। दूर क्षितिज में सूर्य की लाली की अंतिम रशिम
भी अपना दम तोड़ रही थी और सागर की शांत होती हुई लहरों में बादलों की छोर
से सूर्य की रश्मियों का बदन गल–गल कर किसी पिघले हुये सोने के समान बहता
जा रहा था। लहरों के किनारे की बालू में दिन भर से खेलते, लिपटने और विशाल
सागर के नीले जल में नहाते हुये अर्धनग्न मानव जिस्मों का प्रदर्शन अब काफी
हद तक कम हो चुका था। चीं–चीं करती हुई सागर की लहरों में डॉलफिनों का
स्वर यदा–कदा ही सुनाई देते थे। शहर की बत्तियां जगमगा कर रात की रंगीनियों
के नाच–गाने और जश्न आदि की पूर्व तैयारियों का संकेत देने लगी थीं।

काकेश अभी तक बैठा हुआ था। अमरीका के राज्य जार्जिया के मशहूर शहर सवाना में बसे समुद्री टापू के ठीक उसी स्थान पर जहां पर कभी सागर की ‘लिटिल मरमेड
एरियल’ से भी अति सुन्दर कज़ली बेहद ख़ामोशी से बैठी रहती थी। वक्त का तकाज़ा था कि आज काकेष उसी स्थान पर बैठा हुआ था। चुपचाप, अपनी पूर्व मुद्रा में। बिल्कुल ख़ामोश, बहुत चुप, उदास, मूक, अपने सिर पर अपनी ज़िन्दगी का जैसे भरपूर वह भारी भरकम बोझ लादे हुये कि जिसको उठाये हुये वह पिछले कई महिनों से बगैर शिकायत के ढोता चला आ रहा था। यहां बैठा–बैठा कुछेक पलों में ही वहअपने जीवन की उस महत्वपूर्ण घटना को फिर एक बार दोहरा गया था कि, जिसने उसके जीवन के कारवां का रूख ऐसी दिशा की तरफ मोड़ दिया था कि जिसके कारण उसे ना तो मंजिल ही मिली थी और ना ही मार्ग। काकेष के द्वारा बहुत आग्रह करने और अपना विश्वास दिलाने पर उसे याद है कि कज़ली ने कितनी सच और सटीक बात उससे कही थी,

‘आचरण, सभ्यता, नेक–नियम और मानवता से भरे आदर्शो के
उपदेश केवल धार्मिक ग्रंथों में ही पढ़ने को मिला करते हैं, काकेष जी।
वस्तविक जीवन में इनका प्रयोग करने वाला मसीहा, येरूशलेम के बैतलहम में
दोबारा पैदा होते मैंने आज तक नहीं देखा है।’

स्मृतियों की मनमोहक सुगंध बनकर कज़ली जितनी जल्दी उसके जीवन में आई थी, उतना शीघ्र ही वह चली भी गई थी।

कज़ली! कुदरती तौर पर काजल की कभी भी न मोहताज रहनेवाली आंखों की मालिक और असाधारण रूप की सुन्दरी, इस बाला का नाम शायद उसकी आंखों की विशेषता के आधार पर ही रखा गया होगा? भारतीय मूल की निवासी ये लड़की यदि अमरीका के सवाना के एक कॉलेज में पढ़ने नहीं आई होती तो काकेष से उसका परिचय शायद कभी भी नहीं हो पाता। कज़ली आई और आकर काकेष के शान्तमय जीवन में वह सवालों की दुनियां दिखाकर लुप्त हो चुकी थी कि जिसके केवल एक प्रश्न को भी शायद वह अब कभी भी हल नहीं कर सकता था?

फिर धीरे–धीरे मुलाकातें
बढ़ीं, वे दोनों और नज़दीक आये तथा बात–चीत के संदर्भ औपचारिक बातों से आगे
निकलने लगे तो एक दिन काकेष ने कज़ली से कहा कि,

‘कज़ली जी, मेरा मन
चाहता है कि इस समुद्र की बालू पर आपका नाम लिखूं, और जब उसकी लहरें आकर
आपका नाम बिगाड़ दें तो उसके हरेक अक्षर को ढूंढ़ता हुआ मैं भी इस सागर के
गर्भ में सदा को खो जाऊं।’

काकेष की बात सुनकर, कज़ली पल भर को गंभीर हो गई। काकेष ने देखा तो उसे लगा कि उसकी आंखों में लगा कुदरती काज़ल अचानक ही फैलने लगा है। इस प्रकार कि जैसे किसी शांत झील के तल में बैठी हुई किसी बड़ी मछली ने अचानक ही करवट ली हो, और फिर उसकी करवट से सारे झील के पानी में हलचल सी मच गई हो। कज़ली की आंखों में आये हुये आंसू देखकर काकेष का भी मन एक बार को सहम सा गया। वह अपनी भूल स्वीकारते हुये बोला,

‘मुझे क्षमा करना कज़ली जी! मेरा आशय आपको नाहक रूलाना नहीं था। आप अपने जीवन में सदैव ही खुश रहें, मुस्कराती रहें, मैं तो बस यही दुआ करता रहूंगा‘

काकेष की बात में उसके लिये भविष्य के प्यार का निमंत्रण था। एक अनकही मुहब्बतों की दरिया में भीगी हुई उसकी चाहत की आरजू थी। कज़ली को समझते देर भी नहीं लगी। सच ही तो था। युवा लड़की कुछ समझे न समझे लेकिन किसी के द्वारा प्यार के अच्छे और बुरे निमंत्रण को सहज ही भांप जाती है। कज़ली भी समझ चुकी थी, पर ये नहीं जानती थी कि वह उसका रहनुमा बन कर आय था या फिर महज एक पाश्चातीय तरीके का मात्र ‘बॉय फ्रेंड’ बन कर ही। वह अभी तक चुप ही थी। बड़ी ख़ामोशी के साथ सागर की उठती–गिरती लहरों को वह फिर से निहारने लगी थी।

‘आप मुझ पर विश्वास कर सकती हैं। अपने बारे में मैं केवल यही विश्वास दिला
सकता हूं।‘ काकेष ने कहा और फिर वह कज़ली के उत्तर की प्रतीक्षा किये बगैर
आगे बोला,

‘चलिये, कहीं चलकर कोई शीतल पेय लेते हैं।’

फिर थोड़ी ही देर बाद वे दोनों पास ही में बने एक रेस्टोरेंट में बैठे हुये थे।
काकेष काऊंटर पर जाकर दो कप ‘स्ट्राबेरी शेक’ बनवा कर ले आया था।

‘आप सदा सफेद रंग की साड़ी या फिर पंजाबी सूट ही पहना करती हैं?’ काकेष ने कज़ली के वस्त्रों को देखते हुये अचानक ही कहा तो कज़ली के होठों पर पल भर में
हल्की सी मुस्कान आई और चली भी गई। वह बोली,

‘आप क्या हर समय मुझको ही परखते रहते हैं?’

‘नहीं, आपको देखकर यही सोचता रहता हूं कि परमेश्वर ने जब दुनियां बनाई थी तो उसमें कोई न कोई कमी तो रह ही गई थी। और वह कमी ऐसी थी कि जिसको पूरा करने के लिये वह आज भी इस दुनियां को तोड़ता है, बनाता है, बिगाड़ता है, फिर से बनाता है, मगर वह कमी फिर भी पूरी नहीं हो पाई है।’

‘आप कहना क्या चाहते हैं?’

‘यही कि, जब परमेश्वर ने आपको बनाया था तब उसने कोई भी कमी नहीं छोड़ी थी।’

‘?’

काकेष की बात पर कज़ली अचानक ही गंभीर हो गई तो वह बोला कि,

‘आप क्या सोचने लगी यूं अचानक से?’

‘आप मेरे बारे मैं कुछ नहीं जानते हैं, शायद इसीलिये इतनी बड़ी बात कह बैठे हैं।’ कज़ली बोली।

‘हां, यह तो सच है। मैं आपके बारे में केवल आपकी उपस्थिति के सिवा कुछ भी नहीं जानता हूं, मगर दुख है कि आप बताना भी नहीं चाहती हैं?’

‘सुन कर क्या करेंगे?’

‘दुख की बात होगी तो आपका दुख बांटने की कोशिश करूंगा। किसी मुसीबत की बात होगी तो छुटकारा दिलाना चाहूंगा।’

‘बेहतर होगा कि आप मुझे भूलने की कोशिश करियेगा।’

‘इतनी बड़ी सजा सुनाने से पहले मेरा अपराध तो बता दिया होता?’

‘मैं जब सयानी हो गई और जब मैंने इण्टर की परीक्षा पास कर ली तो कॉलेज जाने से पूर्व ही मेरी मां ने मुझे चेतावनी दी थी और कहा था कि,

‘बेटी, इस संसार में सब कुछ करना, लेकिन किसी भी बड़े घर के लड़के से प्रेम–प्रीत मत कर बैठना।‘

‘आपको कैसे मालुम है कि मैं किसी बड़े घर का हूं?’

‘क्यों, ये भी कोई पूछने वाली बात है? विदेश में रहने वाले प्रवासी भारतीय किसी नंगी–भूखी झोपड़ी में से तो नहीं आते हैं?’

‘विदेश में तो आप भी है?’

‘मेरी तो मजबूरी मुझे यहां तक ले आई है। मैं वहां रहकर नहीं पढ़ सकती थी। पढ़ाई पूरी होते ही मैं वापस चली जाऊंगी।’

‘यह आपने कैसे सोच लिया? कैसे चली जायेंगी। मैं जाने दूंगा तब न?’

‘?’

कज़ली के होठो तक स्ट्राबेरी का गिलास जाते–जाते थम गया। उसने आश्चर्य से काकेष को देखा तो वह बोला कि,

‘मेरा मतलब है कि यदि मैंने आपके सामने विवाह का प्रस्ताव रखा और आपने मान लिया तब कैसे जा सकेंगी?’

‘मैं आपसे शादी नहीं कर सकती हूं।’

‘हम दोनों मसीही हैं, फिर भी इस अस्वीकृति का कारण जान सकता हूं?’

‘यदि साहस है तो कारण मेरी मां से जाकर पूछिये।’

‘विवाह आपको करना है या आपकी मां को?’

‘?’ ख़ामोशी।

कज़ली फिर चुप रह गई तो काकेष ने उससे आगे पूछा,

‘फर्ज करो, तुम्हारी मां ने यदि इस रिश्ते की मंजूरी दे दी तब तो तुम पीछे नहीं हटोगी?’

उत्तर में कज़ली ने अपनी निगाहें झुका लीं तो काकेष को समझते देर नहीं लगी। स्त्री की झुकी निगाहें ही उसकी मौन स्वीकृति हुआ करती है।

‘ठीक है तुम अपनी मां का पता, फोन नंबर आदि दो, तब मैं अपने मां–बाप से कहूंगा कि वे जाकर तुम्हारी मां से मिलें।’

उस दिन की बात इसी स्थान पर आकर ठहर गई तो फिर वे दोनों अपने–अपने निवास स्थानों पर चले गये। साथ ही काकेष ने कज़ली को उसके भीवष्य की मंजिल का सुनहरा सा चित्र दिखाया तो वह भी सपने देखने लगी। इस तरह से दोनों अक्सर मिलते रहे। बात–चीतें होती रही। प्यार के सुन्दर सपनों के मध्य दोनों के कहकहे वायु में गूंजते हुये सागर की लहरों में इस प्रकार से घुलने लगे कि
अब दोनों की शामें सवाना के इस ‘टॉयबी आईलेंड’ की जैसे आवश्यकता बन चुकी
थीं। हांलाकि सब कुछ वैसा ही था, फर्क था तो केवल इतना ही कि कज़ली को अब
सागर की लहरों से पहले काकेष बुलाने लगा था और काकेष के हाथों में भी मछली
पकड़ने की डोर नदारद हो चुकी थी –– शायद इसका कारण भी यही था कि अपने जीवन की महत्वपूर्ण और वास्तविक मछली को वह अब पकड़ ही चुका था।

कज़ल प्राय: ही संध्या होते ही छुट्टी वाले दिन या फिर कॉलेज समाप्त होते ही
सागर के किनारे आकर काकेष की प्रतीक्षा करने लगती। बाद में काकेष भी आ
जाता। फिर दोनों सागर की बालू के किनार बैठ जाते। ढेरों–ढेर बात करतें।
बातें भी ऐसी कि जो समाप्त होने का नाम ही नहीं लेतीं। दोनों इतनी देर तक
बैठे रहते कि शाम भी गहराने लगी। सागर की मचलती हुई लहरें आगे बढ़ कर उनके पैरों को छूने लगतीं। फिर बाद में वे दोनों उठते। मन मार कर। साथ ही जाते
और कहीं भी एक साथ बैठ कर शाम का खाना खाते, फिर जुदा होते, दूसरे दिन
मिलने की आस लेकर दोनों अपने–अपने ठिकानों पर चले जाते। कज़ली अब प्रतीक्षा करने लगी थी, काकेष के मां–बाप के उत्तर की। उसके मां–बाप उसकी मां के पास गये कि नहीं। हांलाकि कज़ली ने भी अपनी मां को फोन के द्वारा काकेष के बारे में सब बता दिया था।

तब फिर एक दिन कज़ली सागर की लहरों को देखती हुई काकेष के  आने की प्रतीक्षा करती रही। उस दिन वह नहीं आया था या नहीं आ सका था, कज़ली कुछ निर्णय नहीं ले पाई थी। फिर जब शाम डूब गई तो वह निराश मन से अपने कॉलेज के कैम्पस में चुपचाप चली आई। हॉस्टल के कमरे की लैंड लाइन के फोन पर किसी का मेसेज़ था, फोन की पल–पल में बुझती और बंद होती बत्ती इस बात का संकेत दे रही थी। उसने मेसेज सुना। काकेष का ही फोन था।
वह बोल रहा था कि,

‘कज़ली मेरे मां–बाप टीकटपाड़ा में तुम्हारी मां के घर जाकर उनसे मिले थे। मुझे तुम्हारे बारे में सब कुछ पता चल गया है। मेरे मां–बाप को यह रिश्ता स्वीकार नहीं है। जब से मुझे अपनी मां का मेसेज़ मिला है, मैं बहुत ज्यादा ‘अपसेट’ हूं। समझ में नहीं आता है कि मैं क्या करूं? मैं तुम्हें भी नहीं खोना चाहता हूं और अपने परिवार के विरूद्ध जाकर उन सबको भी नाराज़ नहीं करना चाहता हूं। आज मैं ‘टायबी’ पर सागर के किनारे नहीं आ सकूंगा। हो सका तो जल्दी ही तुमको फिर फोन करूंगा।’

कज़ली ने सुना तो अपना सिर पकड़कर बैठ गई। समझ में नहीं आया कि वह क्या करे? प्यार की डगर पर जबरन घसीटकर लाने वाला ही अब डगर छोड़ कर भाग खड़ा हुआ था। उसने तो पहले ही आगाह कर देना चाहा था कि उन दोनों का यह रिश्ता कभी भी नहीं हो सकता है। पर क्या करे, जिन मार्गो पर वह चली थी उनका अंजाम कुछ–कुछ ऐसा ही तो होना था। उसकी मां ने उसे जन्म तो दिया है, पर उसके पिता का नाम वह भी नहीं बता सकती है। इतना अवश्य ही है, कि जिस कीचड़ में रहकर उसकी मां ने उसकी परवरिश की, उसे पाला–पोसा और यहां तक पहुंचाया, उस गंदगी से उसे जरूर ही दूर रखा है। लेकिन केवल अलग भर रहने से ही उसके बदन पर लगे हुये काले कलंक के धब्बे तो नहीं मिट जायेंगे। उसकी मां कितने वैभव और ठाठ से अपनी ज़िन्दगी बसर करती है, पर है तो एक काल गर्ल ही। क्या मसीहियत और आज का मसीही समाज इस प्रकार की जन्मी हुई संतानों को सहज ही स्वीकार कर सकता है? इसमें निश्चय ही सन्देह है।

उस शाम और सारी रात कज़ली एक मिनट को भी नहीं सो सकी। बार–बार उसे यही लगता कि ऐसा कब तक चलेगा? आज काकेष ने ऐसा किया तो कल को कोई दूसरा काकेष भी ऐसा नहीं करेगा क्या? ऐसा जीवन जीने से फायदा भी क्या? वह जीवन भी क्या जो ना तो खुद के ही काम आ सका है और ना ही कभी दूसरों के आ सकेगा। काकेष का भविष्य का उत्तर उसके प्रति क्या है, यह उसे पता चल ही चुका है। यदि काकेष को उसकी मां के कार्यों तथा उसके पिछले जीवन से कोई सरोकार नहीं होता और वह केवल उससे ही मतलब रखता तो वह कभी इस बात का ज़िक्र ही नहीं करता।

फिर बाद में हुआ भी ऐसा ही। काकेष ने ना तो फिर कोई फोन किया, ना ही वह सागर पर आया और न ही कोई सन्देश ही छोड़ा। उसकी चुप्पी कज़ली के जीवन से चुपचाप हुई पलायनता ही है, यह समझते कज़ली को देर भी नहीं लगी। मन की सच्ची भावनाओं से प्यार करने वाले को मिला हुआ जबर्दस्त धोखा उसे कहीं का भी नहीं छोड़ता है। जीवन की ये कठोर ठोकर जब एक बार लग जाती है तो फिर वह हर पल उसे दौंचती रहती है। यही हाल कज़ली का भी हुआ। भावनाओं का तूफान उसके सिर पर उसकी मौत बन कर मंडराने लगा। उसके दिल में बुरे ख्याल आने लगे। इस प्रकार कि वह अपने जीवन का अंत करने के बारे में सोचने लगी। ज़िन्दगी के जब पहले–पहले प्यार ने ही उस पर तरस नहीं खाया तो फिर वह दूसरों पर कैसे उम्मीद कर सकती है?

फिर एक दिन वह पुन: सागर पर गई और जाकर वहीं बैठ गई जहां पर वह काकेष से मिलने से पूर्व बैठा करती थी। आज शायद वह सारी तैयारियां करके ही आई थी। सागर की उफ़ान से हर पल भरती हुई लहरें उसे देखते ही जैसे और भी अधिक जोश से भर गईं।शायद कज़ली को देखते ही प्रसन्न हो चुकी थीं। इतनी तीव्रता से वे उछल रही थीं कि उनके एक ही उछाल में कज़ली का सारा मुख तक भीग जाता था। कज़ली लहरों को देखती और सोचती कि ये लहरें उससे कितना अधिक प्यार करती हैं। जब भी वह यहां आकर बैठ जाती है तो ये सदैव ही उछल–उछल कर उसे चूमने की कोशिश करने लगती हैं। किसकदर ये उससे प्यार करने लगी हैं। इसकदर कि जैसे उसे अपने आगोश में समा लेना चाहती हैं। ये तो उसे सदा से बुलाती आई हैं, पर वही उनसे दूर भागती रही है। क्यों न वह इन्हीं के गर्भ में समा जाये?

कज़ली सोचती रही। विचारती रही। रोती रही। अपनी किस्मत पर आंसू बहाती रह।
भावनाओं का सिर चढ़ा हुआ तूफान उसके मस्तिष्क को हर पल कुरेदता ही रहा। फिर जब शाम ढल गई। सागर के किनारे लहरों से खेलनेवाले अपने बदनों से तौलिया आदि लपेटकर चले गये। बालू के किनारे इक्का–दुक्का लोग ही दिखने लगे तथा दूर शहर की जलती हुई विद्युत बत्तिंयों के प्रतिबिंब सागर की लहरों में डोलने लगे, तभी उवसर देखते ही कज़ली ने सागर की लहरों में छलांग लगा दी। आवाज़ आई तो किसी ने उसे कूदते हुये देख लिया। तट रक्षकों को सूचित किया। गोताख़ोर सागर में कूदे। कज़ली को जब तक बाहर निकाला गया, तब तक वह इस दुनियां से बहुत दूर उस स्थान पर जा चुकी थी, जहां पर उसकी पिछली ज़िन्दगी से नफ़रत करनेवाला संसारिक मनुष्य नहीं बल्कि अथाह प्यार करने वाला नाज़रत गांव का बढ़ई रहता है। सच ही तो है कि यह संसार सब लोगों को शांति से जीने की हांमी कभी नहीं भरता है। मनुष्य का जीवन किसी को भी खैरात में नहीं मिला करता है ––  हां, खैरात में लुटाया जरूर जा सकता है।


मरने से पूर्व कज़ली कोई भी सूचना अपने बारे में देकर नहीं गई थी। सवाना नगर की पुलिस ने छानबीन आरंभ कर दी थी। वह कज़ली के कॉलेज के कैम्पस में उसके कमरे में गई। वहां खोज की गई। वहां पर काकेष के द्वारा उसका अंतिम फोन का सन्देश अभी भी सुरक्षित था। कज़ली ने उसे मिटाया नहीं था। साफ जाहिर था कि वह उसे अक्सर सुनती होगी और अपनी किस्मत पर रोती होगी। इसी फोन के सन्देश के द्वारा पुलिस काकेष तक जा पहुंची। उसे खबर दी गई तो वह भी सकते में आ गया। तब उसने सारी कहानी पुलिस को बतायी। फिर जब पुलिस को यह ज्ञात हुआ कि कज़ली की केवल मां के बुरे कामों के कारण ही वह उससे विवाह नहीं कर सकता था तो पुलिस भी आश्चर्य किये बगैर नहीं रह सकी। सब जानते हैं कि विदेश में इस प्रकार की बातों को कोई भी ध्यान नहीं दिया करता है और ना ही गंभीरता से लिया करता है। ऐसी घटनाएं विदेशी भूमि पर बहुत ही सामान्य मानी जाती हैं. यही सोचकर तब एक पुलिस अफसर ने काकेष से तो यहां तक कह दिया। वह काकेष को मूर्ख समझते हुये बोला,

‘You crazy man, you do not understand that man gives
birth to man? How can you question the birth of man? You marry to
Kaazalee or your mom and dad? You have lost the most beautiful partner in your life.’ ( ‘अरे मूर्ख आदमी, तुमने कभी समझा है कि मनुष्य ही मनुष्य को जन्म दिया करता है। लेकिन तुम्हें एतराज़ है कि मनुष्य का जन्म किन
हालातों में हुआ है? तुम कजली से शादी कर रहे थे या तुम्हारे मां-बाप से ?
तुमने अपने जीवन का एक सुन्दर साथी खो दिया है।’)

सचमुच काकेष ने कज़ली को खो दिया था। चाहे मूर्खता में और चाहे अपने परिवार की दकियानूसी विचार धाराओं का मान रखने के कारण। उस कज़ली को उसने जान बूझकर मौत के मुंह में धकेला था, कि  जिसकी आंखें कभी काजल की मोहताज नहीं थीं और जिसने कभी अपने जीवन में किसी मनुष्य को छुआ भी नहीं था। जिसकी पाकीज़गी की गवाही तो शायद आसमान के फ़रिश्ते भी दे सकते हैं?

सांझ कभी की डूब कर रात्रि में परिणित हो चुकी थी। आज आकाश में चन्द्रमा भी नहीं उगा था। केवल दूर शहर की विद्युत बत्तियों का हल्का–मन्द प्रकाश ही कभी–कभार सागर की लहरों में हिचकोलें खाता सा प्रतीत हो जाता था, नहीं तो समूचा सागर का जल किसी काले पसरे हुये दैत्य के समान भांय–भांय कर रहा था। काकेष चुपचाप अपने स्थान से उठा। सोचा कि वह भी छंलाग लगा दे, मगर उसे देखते ही सागर की नाराज़ लहरों ने अपना मुंह हिकारत से बिचका कर उसे अपने पास आने की अनुमति नहीं दी। उसने एक बार फिर से लहरों को देखा और फिर मुंह फेर कर चल दिया। वह जानता था कि सागर की मूक लहरें केवल बुलाने वाले को ही बुलाया करती हैं –– हरेक ऐरे–गैरे को नहीं। उसका ऐसा नसीब कहां जो वह भी प्यारी और पुष्पों से भी अति नाजुक कज़ली के समान समुद्री लहरों की बाहों में समा जाये?

समाप्त.


 

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