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लौंग का लश्कारा

डॉ. आशा चौधरी

1 अध्याय
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उसका अंर्तमन न जाने कहां-कहां कुलांचे भरता था हिरन सा, ऐसे में वे पल उसके सामने थे कि जब दीपावली के बाद भाईजी व भाभीजी जनदर्शन के लिये झरोखे में आ कर बैठते थे। उस झरोखे को बनाया ही इस प्रकार गया था कि वे दोनों दूर तक नजर आते थे। उन दोनों के बैठने के स्थान पर उनके ऊपरी छोर पर दीपमाला जगमगाती थी जिससे वे दोनों एकदम देवी-देवता से प्रतीत होते थे। वह तो अपनी कल्पनाओं में आंख भर-भर देखता न थकता था उनकी दिव्य मूरतों को। एक दिन महलनुमा हवेली में उनके अचानक ही सामने आ पड़ने पर वह एकबारगी तो कुछ घबरा ही गया था। उसे वैसे भी इन बड़े-बड़े लोगों से बात करने का कोई सलीका तो था नहीं, वो तो उसकी मजबूरी थी जो उसे उनके सामने ले आई थी। वरना वह कहां सोच सकता था ऐसे महलों में रहने वालों को इतने पास से देखने-सुनने का। कितने सीधे-सरल थे वे उससे उसकी कुशल क्षेम पूछते थे ! वह बस् हाथ जोड़ आंखें बंद करके उनके चरणों में झुक ही तो गया था। हल्की सी खनकती हंसी की आवाज के साथ, अपने सिर पर किसी हाथ को आशीर्वाद देते पा कर जब उसकी झुकी हुईं, बंद आंखें खुली थीं तो उसने देखे थे दो अत्यंत गोरे, संदर से सुंदरतम पैर जिनमें सोने की मोटी-मोटी पायलें थीं, बिछिया भी सोने की ही थीं। अरे ! भाईजी के साथ भाभीजी भी थीं। वह उन्हीं के चरणों में जा झुका था। उसे लगा था मानो साक्षात देवी मां का ही आशीर्वाद मिल गया था उसे। ‘यही है तुम्हारा वो देवर जो ठीक तुम्हारे ससुराल से आया है। इसका ध्यान रखना ही पड़ेगा।’ भाईजी बता रहे थे अपनी अर्धांगिनी को। जब मनु ने बड़ी ही हिम्मत व हसरत से कुछ गरदन उठा कर देखा था तो तक्षण ही उसकी नजरें पुनः उन्हीं चरणों में जा लगी थीं। श्वेत कपोतों की जोड़ी जैसे वे पैर ही उसकी नजरों के केंद्र बने रहे थे, उनका चेहरा देख ले ऐसी उसकी हैसियत कहां थी ? कहीं नाराज ही न हो जाऐं ? कहीं कुछ और ही न समझ लें ! वे दोनों तब आपस में बतियाते चले गए थे। वह गदगद होता रहा था बड़ी देर तक। कैसी अप्रतिम मूरत थी भाभीजी व भाईजी दोनों की ! कैसी तो राम मिलाई जोड़ी थी भला !  

laung ka lashkara

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