लव मैरिज के पंद्रह सालों बाद परिवार की तीन भाइयों में इकलौती लाड़ली बहन को घर बुलाया गया है क्योंकि पापाजी बीमार हैं। एक भाई विदेश में बस गया है तो बाकी दो भाई देश में ही अस्पताल चलाते हैं। ये मेरा उपन्यास इतने अंतराल में बदल गए रिश्तों के समीकरण हल करने की कोशिशें करने में लिखा गया है जिसमें आपसी रिश्तों के साथ-साथ प्रकृति से हमारे रिश्तों की भी भरपूर चर्चा हुई है। संबंधों के निर्वाह के संदर्भ में बेटी व बेटों के व्यवहार में जो अंतर होता है उसे भी मैंने सहज तौर पर अभिव्यक्त करने का प्रयास किया है। इतने बड़े अंतराल के बाद घर लौटी बहन हर बदलाव पर चकित है ठिठकी हुई सी है। उसे एक बहुत बड़ा निर्णय लेना है यहां। वो क्या और कैसे किन परिस्थितियों में निर्णय लेती है इसे जानने के लिये पूरा उपन्यास तसल्ली से पढ़ें। ये सुधी प्रबुद्ध पाठकों को निराश नहीं करेगा। अपने परिवार की वो इकलौती बेटी अपने जीवन का एक बेहद महत्वपूर्ण निर्णय लेने के पहले देख रही है सब कि- अस्पताल खुद मंझले व छोटे भैया मिलकर ही चलाते थे। कभी जिसे पापाजी के किसी एक पार्टनर ने बैंक व पापाजी के आर्थिक सहयोग से एक छोटे से अस्पताल के रूप में शुरू किया था, वह इस प्रकार घाटे की बलि चढ़ा कि पापाजी व बैंक द्वारा दिया हुआ लोन न चुका पाने की स्थिति में वह अस्पताल स्वयँ पापाजी व प्रेम भैया को ही तब आनन-फानन खरीदना पड़ा था। तब तक बाकी दोनों भैया लोग अपनी-अपनी पढ़ाई-लिखाई से तौबा कर चुके थे। लेकिन उनके सधे हुए बिजनेस नेटवर्क के चलते वही घाटे में जाता अस्पताल मानो चुटकियों में, अस्पताल तो क्या अच्छा खासा फाइव स्टार होटल ही सा रहा था। जो दवाओं की गंध, बीमार व बीमारियों की उपस्थिति न दिखे तो सर्वसुविधायुक्त होटल ही था आलीशान। इसी आलीशान अस्पताल में कि जिसका उद्घाटन कभी स्वयँ पापाजी ने ही किया था आज वे खुद बेसुध हुए पड़े थे ! और भाई लोग ? भाई लोग उससे खुलने से झिझक रहे हैं। उसी अपनी बहन से जिसे कभी चोटी पकड़-पकड़ सताते थे ! एक ही परिवार, एक ही खेत की मिट्टी में कितना फर्क ! कितनी अलग-अलग ताब ! एक पराऐपन की गंध आ समाई थी।
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