एक ही कॉलोनी में अपने-अपने परिवारों के दायरे में सीमित रहने वाले दो युवा बाहर किसी अनजान शहर में दोस्तों की तरह मिलते हैं और कहा है किसी शायर ने-‘‘एक मंजिल राही दो फिर प्यार न कैसे हो ?‘‘ इसी एक मंजिल की ओर दोनों के कदम उन्हें ले चलते हैं, धन-दौलत के अभिमान, परिवार की मान-मर्यादा की अकड़ व गुमान उनके इन साथ-साथ चलते कदमों को न रोक पाऐ क्योंकि उन कदमों के नीचे वास्तविकता, जिम्मेदारी भरी आपसी समझ, मानवीयता, धैर्य व बुद्धि की ठोस जमीन जो थी। ये यूं ही बैठे ठाले लिखी गई एक रोमांटिक उपन्यास है जिसमें नायक-नायिका के बीच आर्थिक फासले हैं जिन्हें वे कोई फासले नहीं मानते। सोच तथा मानसिकता प्रेममय व खरी हो तो फिर कोई सामाजिक, जातिगत व आर्थिक बंधन दो प्रेमियों को मिलने से नहीं रोक सकते। हालांकि घर-परिवार में अनेक बाधाऐं आज के खुले माहौल में भी उनका रास्ता रोकने में लगी रहती हैं लेकिन मजबूत मनोबल, ईमानदार प्रयास व निर्बाध इच्छाशक्ति के सहारे वे अपनी नैया आप खेने में सक्षम लगते हैं। वे अपनी नई ही दुनिया बसाने जा रहे हैं कि जिसमें किराऐ की हंसी व उधार की मुस्कानें न हों, जिसमें नजरों में सहमापन व मन में धुकधुकी न हो। जिसमें कोई अपने टूटे आईनों से आपको आईना दिखाने वाला न हो। आप इस स्वस्थ मानसिकता व सहज स्नेह के भाव से रहने योग्य हो जाओ तो ही आपका उनकी इस दुनिया में स्वागत होगा !
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