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जा को राखे साइयाँ

डॉ. आशा चौधरी

11 अध्याय
14 लोगों ने खरीदा
6 पाठक
22 अगस्त 2022 को पूर्ण की गई
ISBN : 978-93-94582-04-0

"मेरे बचपन का काफी समय मध्य प्रदेश के दूरदराज कस्बों गांवों में बीता क्योंकि तब मेरे पापा पुलिस विभाग में थानेदार थे। वे उनमें से थे जिनका ज़मीर सदा भरपूर जीवित रहा। इमानदारी व सच्चाई उनके खून में बहती थीं। इसलिए मेरे पास बचपन की याद के तौर पर रहस्य व रोमांच से भरी कई सच्चाइयां हैं जिनमें से एक आपके सामने उपन्यास के रूप में रख रही हूं। यकीन मानिए यह मात्र किस्सा कहानी नहीं बल्कि सच और केवल सच है। हत्या के मामले में मेरे पापा जी अपने सिद्धांतों से कोई समझौता नहीं करते थे। कहने सुनने में बड़ा अच्छा लगता है ईमानदारी से काम करते हुए अपराधी को सजा दिलवाना ! लेकिन इस काम में जितनी उलझन एवं मुश्किलें हैं उन्हें वही समझ सकता है जिसने उन मुश्किलों को किसी न किसी रूप में अपने अपने स्तर पर झेला हो। हत्या की इस गुत्थी को सुलझाने के दौरान तो पापा जी की जान पर ही बन आई थी। मेरी याद में यह गुत्थी हम उनके परिजनों के लिए भी सबसे कठिन व दुखदाई थी। अपराधी ने जब देखा कि वह थानेदार को रिश्वत आदि से किसी भी तरीके से खरीद नहीं पा रहा है तो उसने जादू टोने के मारक रूप का प्रयोग करवाया जिसे गांवों में मूठ मारना कहते थे। यह मूठ बेहद खतरनाक बताई जाती थी क्योंकि अपने शिकार को ये चुपचाप खत्म कर देती थी। डॉक्टर बीमारी पकड़ नहीं पाते थे और रहस्यमय तरीके से उसकी मृत्यु हो जाती थी। टोना जानने वाला कोई अन्य जानकार ही इसे पहचान कर इस मूठ की गति को बदल सकता था, या इसे किसी अन्य प्रकार से रोक कर बेअसर कर सकता था। लेकिन ऐसे गुणी को खोजना बहुत बहुत मुश्किल होता था। जिसे मूठ मारनी होती थी मुक्के या घूंसे के रूप में उसका नाम लेकर उस पर छोड़ी जाती थी। अगर उसने अपना नाम सुन कर हां हूं या किसी भी तरह जवाब दे दिया तो उस पर मूठ जा लगती थी। यानि वह उसकी चपेट में आ जाता था। दूरदराज गांव में तब ऐसे जादू टोने खुलेआम नहीं मगर दबे छुपे रूप में प्रचलित तो थे ही, जिसका प्रमाण मेरा यह उपन्यास है जो पूरी तरह से उस वास्तविक घटना पर आधारित है। इसके माध्यम से मैं अपनी मम्मी व हमारे परम पूज्य गुरु बाबा नीम करोली महाराज जी को सादर प्रणाम करते हुए अपने पापा जी, मम्मी, प्रिय पालतू कुत्ते सीजर सहित उन सबको एक एक को श्रद्धांजलि अर्पित करती हूं जो किसी भी रूप में इस वाकये के पात्र रहे हैं... 

ja ko rakhe saiyan

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पुस्तक के भाग

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लेखिका परिचय

13 अगस्त 2022
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डा. आशा चैधरीशिक्षा-एम ए, दर्शनशास्त्र, पी-एच. डी., एलएल. बी।दर्शनशास्त्र विषय में देवी अहिल्या विश्वविद्यालय इंदौर, म प्र की गोल्ड मेडलिस्ट,पंडित रविशंकर विश्वविद्यालय रायपुर से तत्कालीन राष्ट्रपति म

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जाको राखे सांईया ……

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उन सभीको समर्पित……

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भूमिका:

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अपने बचपन में मध्यप्रदेश के किन्हीं गांवों में रहने का अवसर मिला था। मेरे पिता तब थानेदार थे और पुलिस की उस नौकरी में बेहद ईमानदार व सिद्धांतवादी ! हत्या के कई मामले उन्हें तब गांवों की अपनी पोस्टिंग

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‘‘ कितने बजे गए थे तुम वहां ?’’ ‘‘यही कोई साढ़े तीन बजे के आसपास ’’ ‘‘और लाश कब दिखी ?’’ ‘‘यही कोई पौने चार हुआ होगा। मैंने ठीक से घड़ी में देखा तो नहीं मगर, बस् मैं थोड़ा नीचे उतरा कि दिख गई वो लाश।’

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अगले दिन उसे मुखबिर से वह सब उपलब्ध हो गया था जो उसे चाहिये था। ‘‘सर, ये लड़का ठीक बोल रहा है। ये पिछले आठ-दस दिनों से यहां ना हो कर शहर में ही था। इसके पूरे इन दस दिनों का लेखा-जोखा ले आया हूं। ये गा

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दिन का डेढ़ बजा जाता था जब थानेदार अपनी बुलेट मोटर सायकल पे पीछे हेड कांस्टेबल सत्तारखां को बिठाए सरपंच के गांव के ठीये पर जा पहुंचा था। बुलेट या राजदूत मोटर सायकिल की आवाज ही काफी होती थी ये बताने को

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गांव में प्रतिवर्ष गुड़ी पड़वा के मौके पर आयोजित होने वाली बैलों की दौड़ का समय पास आता जा रहा था जिसमें पिछले दो सालों से सरपंच के बैल बाजी मार रहे थे। उसकी इच्छा इस साल हैट्रिक करने की थी। किंतु विधाता

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शाम को थानेदार ने जिला कार्यालय से आ कर जो सुनाया था उसे सुन कर तो थानेदारनी को साधू की बात एकदम याद हो आई थी कि तू मुझे ढूंढती फिरेगी ! ‘‘लो भागवान, अभी हमारी बेटियां यहीं परीक्षा देंगी। अभी तुम अपन

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उस रोज छोटा भाई बीमार था उसे शहर में डॉक्टर को दिखा कर, दूजे, जिस लेडी डॉक्टर ने मृतका का पीएम किया था वह डॉक्टर अब जिला अस्पताल में आ गई थी। पता चला था कि एमएलए व सरपंच के गुर्गे उसे धमका रहे थे कि

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बहरहाल, आप में से बहुतों ने कभी मूठ का नाम भी नहीं सुना होगा। वैसे, इस जैसी चीजों के बारे न सुनने में ही भलाई है। हमारा अधिकांश बचपन धुर-ठेठ गांवों में बीता कि जहां पुलिस महकमे में होने के कारण, और स

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अब तक इस सारे कार्यक्रम में जो सबसे अछूते थे वे थे मेरे पापा। वे इस दरमियान बिना किसी हलचल के, निस्पंद ही रहते आए थे, वे मानो किसीको नहीं पहचानते थे। उनकी आंखों में हम बच्चों के लिये भी अपरिचय के ही भ

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