shabd-logo

लौंग का लश्कारा

26 जून 2023

127 बार देखा गया 127

लौंग का लश्कारा

‘ भाभीजी !!!!!

उसकी एकदम ही चीख निकल गई थी। सांसे जहां की तहां अटक सी गईं थीं जैसे। न जाने कैसा कुछ था जो गले में जा अटका था। उसे याद नहीं कि कब वो बेहोश हो एक ओर को ढुलक गया। उसकी लुप्त होती चेतना में देखता था वह सब कुछ जो उसने अपने लगभग पूरे जीवन भर झेला-सहा था और उसी सब से बचने वह यहां आ गया था भाईजी की छत्रछाया में। उस अर्ध बेहोशी जैसी हालत में वह न जाने क्या क्या तो बड़बड़ाता था जो अवश्य ही उसकी अतिशय स्वामीभक्ति का ही पता देता होगा।

भाईजी व उनके परिवार को वह अपने परिवार से भी ज्यादा मानता था। अतः उनके लिये तो वह सदा एक टांग पर खड़ा रहने को तैयार था यह बात वहां सब जानते थे। नीमबेहोशी में उसे दीखता था वह पल कि जब वह अपने जीजा से त्रस्त हो कर यहां आया था और फिर यहीं का हो कर रह गया था।

कहां तो अपने गांव-खेड़े में कोई उसे कुछ समझता न था और यहां ?

यहां तो भाइजी के परिवार में, खास कर भाभीजी व बच्चे उसे पूरी तवज्जो देते न थकते थे बल्कि उसे लगता था कि वे लोग उसे कुछ ज्यादा ही तवज्जो देते थे। मन ही मन कभी वह डरता भी था कि कहीं ऐसा न हो कि कोई उसके गांव का आ कर उन्हें उसके बारे में बता दे कि गांव में तो इसे कोई पूछता न था, यहां बड़ा सर्वेसर्वा बना बैठा है। इस करके वो भरसक चाहता था कि गांव का कोई यहां उससे नहीं ही मिले। खास कर जीजा को तो वह यहां की माटी भी नहीं सूंघने देना चाहता था। कहीं जीजा अपनी तिकड़मों के बल पर भाईजी के मन चढ़ गया वो तो फिर उसकी बहन का जीना हराम करेगा ! अच्छा था कि वो यहां पर उसकी स्थिति से भयभीत हो कर यहां नहीं ही आता था। जो उसे पता चल गया कि भाईजी इतने सीधे हैं, इतने अच्छे हैं तो वह उनका पूरा फायदा उठाने लगेगा।

नीमबेहोशी में भी उसे अपने जीजा का डर बना हुआ था कि जिसने कभी उसकी बहन को कितना-कितना ना परेशान कर रखा था। बड़ी मुश्किल में काबू में आया था जीजा। न करे भगवान कि अगर भाईजी की नजरें कभी उस पर मेहरबान न रहें किसी कारण से, तो उसी जीजा को बिगड़ते कितनी देर लगेगी ? कितना-कितना रोती आई थी उसकी बहन ! उसके वे आंसू वह भूला तो नहीं था। इतने समय सुख से रहने के बाद भी बहन के उन आंसुओं से उसका मन गीला-गीला हो आता था।

आज भी उन आंसुओं का गीलापन वह महसूस कर रहा था क्या ?

उसे जरा होश आया था तो उसने पाया था कि कोई उस पर कुछ द्रव सा छिड़कता था जिसे वह बहन के आंसू समझ रहा था। जरा आंखें खोल कर उसने देखा था तो- अरे, ये तो भाईजी थे ! उन्हें अपने इतने नजदीक पा कर उसे न जाने कैसी हरारत सी हो आई थी। उसकी तो और घिघ्घी ही बंध गई थी। वे थे ही इतने रौबदाब वाले कि अच्छे-अच्छों की उनके सामने बोलती बंद हो जाती थी। तभी तो अपने को तीसमार खां समझने वाले जीजा की मानो टें बोल गई थी। हां, बीच बीच में जरूर वह अपनी औकात पे आने से नहीं चूकता था मगर कहो कि काफी कुछ नियंत्रण में था। ओह् !

उसकी डोलती-चकराती चेतना लौट-लौट कर आती थी कि यानि कि उसमें अभी भरपूर जान बाकी थी। फिर क्यों वह मरा सा हुआ जाता था ?

मन का हर कोना उसे झकझोरता क्यों था ? क्यों उसके मन में पिछली बातें, पिछले दिनों का सारा घटनाक्रम जैसे किसी एक रील की तरह चलता था ?

वह देखता था अपना यहां आना कि जब उसे भाईजी से मिलने ले जाया गया। उन्हें देखते ही वह तो सीधा उनके चरणों पर जा गिरा था। फूटफूट कर रोते हुए उसे देखते थे वहां मौजूद सब। रोते-रोते उसने अपना दुखड़ा उन्हें कह सुनाया था अल्प शब्दों में। जिसका सार यही था कि

-वह उनके अपने उस गांव का है कि जहां के कभी उनके पुरखे हुआ करते थे,

-उसे कोई भी काम दिला दें,

-उसकी बहन को उसका पति बेहद परेशान करता है,

-वह उनके जनदरबार में इसी आशा में आया था कि वे उसे कोई कामकाज दे देंगे,

-उसके जीजा को सीधा कर देंगें !

‘ठीक है ! हो जाएगा तुम्हारा जीजा सीधा। बल्कि आज ही से तुम मन को खुश कर लो कि अब से तुम्हारा जीजा तुम्हारी बहन को नहीं परेशान करेगा, क्योंकि तुम हमारे पूर्वजों के गांव से हो, तो तुम और तुम्हारी बहन हमारे भाई-बहन हुए। और यह नहीं हो सकता कि कोई हमारी बहन को परेशान करे, आज से तुम जब तक चाहो यहीं रहो, जो काम समझ सको वह करो !’

वहां मौजूद सब सुनते थे जिनमें अनेक पत्रकार भी थे जिन्हें अपने अखबारों के लिये भाईजी के कसीदे काढ़ने को पर्याप्त सामग्री मिल गई थी। सबने बेहद खोद-खोद कर, सब तरह से खंगाल कर देख लिया था कि उसे किसीने किसी छिपे हुए, किसी निहित उद्येश्य से वहां नहीं भेजा था, बल्कि वह तो खुद आया था भाईजी के जनदरबार की प्रसिद्धि जान कर। उसे अपने गांव की पुलिस पर, पंचायत आदि पर भरोसा नहीं रह गया था, उसे तो अब बस् भाईजी पर भरोसा था। और - - -

उन्होंने उसके उस भरोसे को बनाए रखा। लोग कहते थे कि वे अपनी बात के बड़े पक्के थे। उन्होंने अपने पूर्वजों के गांव के उस अदना से निवासी को अपना भाई क्या कहा कि उसका ओहदा वहां उनके छोटे भाई जैसा हो लिया था ! महलनुमा उनके निवास के विशाल केंपस में बने कर्मचारियों के कमरों में उसे एक कमरा मिल गया, भरपेट भोजन व चाहने पर सप्ताह में एक बार भरपेट दारू भी उपलब्ध थी। भला उसे वहां क्या काम करना था ?

उसे आता ही क्या था ? तो भी,

वह नौकरों पर नजर रखने के ही काम में नियुक्त कर दिया गया। कपड़ों पर प्रेस ठीक से की है कि नहीं, बच्चों ने ठीक से खाया है कि नहीं ? उन्हें स्कूल छोड़ने वाली कार में अंगरक्षक जैसा बैठ रहता, उन्होंने होमवर्क किया कि नहीं, ट्यूशन वाले सर को गेट तक छोड़ने जाना, उनका नाश्ता-पानी ठीक से आ रहा कि नहीं, पालतू कुत्तों को घुमा लाना, कुओं की साफ-सफाई के दौरान नजर रखना कि कहीं कुओं से निकाल कर कोई चीज तो बाहर नहीं ले जाई जा रही ? आदि जैसे कामों के लिये मुकर्रर कर दिया गया था।

हुंह, ये भी कोई काम हुए ?

कहने को कोई कहता, मगर दबे-दबे स्वरों में कि क्योंकि वह भाईजी के अपने गांव से था, तो भैया, बस् अपनी गली का तो कुत्ता भी प्यारा होता है। ऐसा सोचवा देते वहां कई, लेकिन कोई मुंह से बोलता नहीं था। ठीक था, जो भी था, उसे कोई परेशानी नहीं थी क्योंकि न ठीक से पढ़ा-लिखा, न कोई हुनर था उसमें फिर काहे को बड़े-बड़े सपने देखता ? सो वह इस प्रकार की घरैलू जिम्मेदारी भरे काम ही बड़े मनोयोग से कर सकता था, सो, कर रहा था।

भाईजी के बच्चों को भी वह खूब भा गया था वे उसे ‘चाचू’ ‘चाचू’  कहते तो उसे बड़ी तसल्ली होती। बड़ा फख्र होता था। आ कर देखे जीजा कि कितने सुख-सम्मान से रहता था वह उस दरबार में कि जहां के नाम से ही जीजा की तो फटती थी ! जरा देखे तो वह कि कितने सम्मान से रखते हैं भाईजी उसे ! उसकी तो पूरी उमर यहीं कट जाए, ऐसे ही सब चलता रहे इसी में खुश था वह।

उसका अंर्तमन न जाने कहां-कहां कुलांचे भरता था हिरन सा, ऐसे में वे पल उसके सामने थे कि जब दीपावली के बाद भाईजी व भाभीजी जनदर्शन के लिये झरोखे में आ कर बैठते थे। उस झरोखे को बनाया ही इस प्रकार गया था कि वे दोनों दूर तक नजर आते थे। उन दोनों के बैठने के स्थान पर उनके ऊपरी छोर पर दीपमाला जगमगाती थी जिससे वे दोनों एकदम देवी-देवता से प्रतीत होते थे। वह तो अपनी कल्पनाओं में आंख भर-भर देखता न थकता था उनकी दिव्य मूरतों को।

कभी सुना था उसने अपने गांव में कि वे दरबार लगाते हैं जहां वे अपने लोगों के दुख-दर्द की पूछ-ताछ करते हैं। कहीं किसी को कोई सरकारी अफसर परेशान तो नहीं करता, उनके काम तो नहीं अटकाता ? इसीलिये तो वो अपनी समस्या ले कर उनके पास क्या आया कि बस् वो तो यहीं का हो कर रह गया। उन्होंने तो उसे मानो बेमोल खरीद ही लिया था।

ओहो !

कितना ध्यान रखते थे वे अपने क्षेत्र का ! तभी तो हर चुनाव में जनता उन्हें ही जिताती थी। अरे कहो कि उनके बिना जाए एक-एक वोट उन्हें ही मिलता था ! वे कोई प्रचार न करें तो भी जनता उनके आगे किसी को नहीं जानती-   मानती थी ! अपने इलाके के सबसे रईस, सबसे सहृदय, सबसे अच्छे जनप्रतिनिधि माने जाते थे।

हर पर्व, समारोह पर वहां मौजूद एक-एक को खुद परोसते-खिलाते थे भाभीजी के संग। कोई अभिमान नहीं, कोई घमंड नहीं, बिल्कुल एक ऋषि के जैसे। इतना समय हो गया उसे यहां, कभी तो उसने उनका ऊँचा स्वर सुना हो ? वे तो साक्षात देवता हैं देवता ! तभी तो उस दीन-हीन से अकिंचन को अपनी समस्या के समाधान की आस उन तक ले आई थी। और देख लो, हो ही गया ना उसकी समस्या का समाधान !

‘ मनु, यहां खुश हो न तुम ? किसी चीज की जरूरत तो नहीं ?’

एक दिन पूछते थे उससे भाईजी। महलनुमा हवेली में उनके अचानक ही सामने आ पड़ने पर वह एकबारगी तो कुछ घबरा ही गया था। उसे वैसे भी इन बड़े-बड़े लोगों से बात करने का कोई सलीका तो था नहीं, वो तो उसकी मजबूरी थी जो उसे उनके सामने ले आई थी। वरना वह कहां सोच सकता था ऐसे महलों में रहने वालों को इतने पास से देखने-सुनने का। कितने सीधे-सरल थे वे उससे उसकी कुशल क्षेम पूछते थे !

वह बस् हाथ जोड़ आंखें बंद करके उनके चरणों में झुक ही तो गया था। हल्की सी खनकती हंसी की आवाज के साथ, अपने सिर पर किसी हाथ को आशीर्वाद देते पा कर जब उसकी झुकी हुईं, बंद आंखें खुली थीं तो उसने देखे थे दो अत्यंत गोरे, संदर से सुंदरतम पैर जिनमें सोने की मोटी-मोटी पायलें थीं, बिछिया भी सोने की ही थीं।

अरे ! भाईजी के साथ भाभीजी भी थीं। वह उन्हीं के चरणों में जा झुका था। उसे लगा था मानो साक्षात देवी मां का ही आशीर्वाद मिल गया था उसे।

‘यही है तुम्हारा वो देवर जो ठीक तुम्हारे ससुराल से आया है। इसका ध्यान रखना ही पड़ेगा।’

भाईजी बता रहे थे अपनी अर्धांगिनी को। जब मनु ने बड़ी ही हिम्मत व हसरत से कुछ गरदन उठा कर देखा था तो तक्षण ही उसकी नजरें पुनः उन्हीं चरणों में जा लगी थीं। श्वेत कपोतों की जोड़ी जैसे वे पैर ही उसकी नजरों के केंद्र बने रहे थे, उनका चेहरा देख ले ऐसी उसकी हैसियत कहां थी ?

कहीं नाराज ही न हो जाऐं ? कहीं कुछ और ही न समझ लें !

वह अत्यंत सावधान रहता था कि कहीं किसी कारण उसे नौकरी से ही न निकाल दें। भला मालिकों से आंखें मिलाई जाती हैं ? वह तो गले-गले तक उनके अहसानों से दबा हुआ था। ठीक है कि मालिक बेहद अच्छे, भलेमानस थे मगर थे तो आखिर मालिक ही ! और सरकार की अगाड़ी व घोड़े की पिछाड़ी अच्छी नहीं होती। वह जवाब क्या देता बस् गरदन हिलाता था कि वे दोनों तब आपस में बतियाते चले गए थे। वह गदगद होता रहा था बड़ी देर तक। कैसी अप्रतिम मूरत थी भाभीजी व भाईजी दोनों की !

कैसी तो राम मिलाई जोड़ी थी भला !

वह संतुष्ट हो कर, हर्ष विभोर सा गदगद् हो कर मानो रोता था कि कोई था जो उसके मुंह पर पानी छिड़कता था ?

बेहोशी क्योंकर उस पर इतना आ पसरी थी कि वह होश में आना ही न चाहता था जैसे ?

‘भाभीजी भाभीजी ! उसके मुंह से अस्फुट स्वरों में रह-रह कर यही शब्द निकलते थे। क्या, हो क्या गया था आखिर उसे ? क्यों कंपकंपाता, थरथराता था वह आंधी तूफान में हिलते-कंपकंपाते किसी कमजोर खरपतवार की तरह ?

ऐसे ही तो कंपकंपाने लगा था उस एक रोज जब बच्चों के स्कूल जाने के समय कार में भाभीजी भी आ बैठी थीं बच्चों के साथ। उसकी तो बोलती बंद !

‘क्या रोज ऐसे ही चुपचाप रहते हो मनु ?’

भाभीजी ने चुटकी ली थी तो छुटकू ने उसकी सारी पोल खोल कर रख दी थी कि बाकी दिनों वह उन्हें कितने-कितने चुटकुले, कहानियां सुनाया करता था, कितना उनका मनोरंजन करता था। वे लोग तभी तो उसे पसंद करते थे।

‘अच्छा मुझे कोई चुटकुला नहीं सुनाओगे ?’

भाभीजी मुस्कुराती हुई पूछती थीं तो उसकी तो जुबान ही तालू से जा लगी थी। वो तो भला हो कि किसी तरह करते-कराते स्कूल आ गया वरना क्या कैसे करता वह ? कितनी स्नेहिल थीं वे इतने बड़े घराने की वधु कहो कि राजवधु ? कोई गुमान नहीं, कोई अभिमान नहीं। सरल सादी अपनत्व से भरी धर्मभीरू महिला थीं।

जब भी उन्हें देखा उसने वे सदा सिर पर पल्ला लिये होतीं थीं। कभी सामने आ पड़ती थीं तो उसकी तो नजरें जैसे धरती में ही गड़ जाती थीं, ये कोई डर मात्र नहीं था बल्कि सम्मान था जो उनके सामने उसकी नजरें न उठने देता था। उन्हीं अपनी नीची नजरों से भी वह उनके साफ सफेद झक्क, बेदाग रंग की आभा से चकाचौंध हो हो उठता था।

घर के भीतर रहते हुए भी माथे तक आता उनका सिर का पल्लू कुछ-कुछ घूंघट सा ही हो जाता था जिसकी आड़ में उसे उनका पूरा माथा कभी न दिखा, दोनों कमलनयन मान-मर्यादा से लबालब थे। तराशी हुई ठोड़ी, गुलाबी आभा लिये वैसे ही तराशे हुए मगर पतले सुतवां होंठ और उन्नत नासिका में बाऐं तरफ दिखती थी एक झिलमिल करती  बेशकीमती हीरों जड़ी लौंग।

बच्चों के स्कूल आदि बाहर जाते में वे सिर के पल्लू को माथे से थोड़ा पीछे सिर पर ले लेती थीं मगर मजाल जो मनु ने कभी उन्हें पूरी नजरें उठा कर देखा हो। उसकी तो नजरें  खुद ब खुद झुक जाती थीं उनके सम्मान में। उसे तो बस् उनकी नाक की लौंग ही दिखती थी चमकती हुई। उन्हें जितना भी देख पाया था वह इतना ही था। बाकी तो उनकी धीमी किंतु बेहद सुमधुर, हृदय को झंकृत करने वाली आवाज जो भी सुनता था उन्हें भूल नहीं सकता था। एक अजब सा सात्विक भाव जागता था उन्हें देख कर।

वह तो बस् इतना जानता था कि वे उसकी मालिकिन थीं जिनके लिये पूरी तरह से स्वामीभक्त होना ही उसका फर्ज था। इससे अधिक कुछ और नहीं हो सकता था। उस परिवार ने उसके लिये जितना किया है उतना तो भगवान् ने भी नहीं किया था मानो। भगवान् बुरा न माने पर यही सच लगता था उसे।

जब से वह भाईजी की शरण में आया था जैसे उसके जीवन की दिशा ही बदल गई थी। वहां गांव में अहदी, बेकार-बेरोजगार पड़ा रहने वाला मनु कितना काम का मनु हो गया था यहां ! जाने कब से जीजा की नजरें उसकी छोटी सी, थोड़ी सी जमीन जायदाद पर थीं। अब वो जमीन कितनी सुरक्षित हो गई थी। कोई आंख तो उठा ले उसकी ओर ?

भाईजी के आशीर्वाद ने वो सब कर दिखाया था जो भगवान ही कर सकता था। वो तो उसके लिये जीते-जागते भगवान् ही थे।

एक दिन भाभीजी पूछ रहीं थीं उससे उसके घर-परिवार के बारे में। उसने अपनी रामकहानी कह सुनाई थी किसी तरह। कितना द्रवित हो उठी थीं वे। तब से उनके मन में उसके लिये और ज्यादा जगह हो गई लगती थी। मगर एक बात उसे अचरज में डालती थी अक्सर ही, कि इतना सब होने पर भी भाभीजी आखिर क्यों इतनी चुप-चुप, वीरानियों से घिरी प्रतीत होती थीं ? जैसे कुछ था जो उन्हें मथता था भीतर ही भीतर। कितनी दूर कहीं किसी गहरे कुऐं से आती थी जैसे उनकी आवाज जब वे कह रही थीं-

‘कितनी भाग्यवान है वह बहन जिसे तुम जैसा भाई मिला है जो अपनी बहन के सुख की इतनी चिंता कर रहा है ! ऐसे भाई को तो सौ-सौ जतन करके जमाने की नजर से बचा कर रखना चाहिये। तुम वैसे तो मेरे देवर लगते हो पर जी करता है कि तुम्हें भाई ही बना लूं। जरूरत पड़े तो तुम मेरे भाई बनोगे ना ? ’

वे न जाने क्या-क्या कुछ ऐसा ही कहती गईं थीं एक दिन कि जब वह अपनी रामकहानी सुना चुका था। वह अधिक कुछ तो नहीं समझ पाया जड़बुद्धि सा फिर भी हां में मुंडी हिलाता गया था। तब से उसने लगातार महसूस किया था कि भाभीजी को कोई न कोई ऐसा गम जरूर है जिसे बस् वे ही जानती थीं या फिर जानता होगा उनका भगवान् !

काश, वह उनका वह गम दूर कर पाता। मगर क्यों वे इतना दुखी रहती थीं ? क्या नहीं था उनके पास ? कितने अच्छे भाईजी, कितने प्यारे बच्चे, कितना धन-दौलत, मान-सम्मान, रौब-रूतबा, क्या नहीं था उनके पास ? उन्हें नख से शिख तक सोने-हीरे-जवाहरात से लाद रखा था भाईजी ने। और क्या चाहिये था उन्हें आखिर ? आखिर क्यों वे इतना निराश, टूटी- टूटी सी रहती थीं ? इतना जरूर था के भाईजी उनसे उमर में बहुत बड़े थे मगर इससे क्या होता है ? वे कितने अच्छे तो थे न !

‘ तुम्हारी कितनी बहने हैं ?’ एक उसांस भरती वे पूछती थीं एक दिन।

‘ बस् एक ही है।’ जब उसने कहा था तो उनकी उसांस और गहरी हो गई थी।

‘ ईश्वर की दया है कि तुम्हारी एक ही बहन है।

कह कर उन्होंने अपने कमलनयन बंद कर लिये थे कहीं गहरे गहरे में। चुप से देख ही तो लिया था मनु ने। और फिर मुड़ कर चली गईं थीं वे कुछ और कहे बिना। वैसे वे बहुत कम बात करती थीं। उसे अजीब लगता था कि ये कुछ बड़े कहे-समझे जाने वाले लोग न जाने क्या-क्या तो फितूर पाले रहते हैं। खुश रहना नहीं जानते। अब देख लो, सब कुछ है पर खुश रहने को तैयार नहीं। मगर,

धीरे-धीरे जब वह घर के इतना अंदर गया, तो उसे पता चला कि जब ऐसा कुछ हो तो कोई कैसे खुश रह सकता है ?

धीरे-धीरे अंदर का सारा दलदल उसे दीखने लगा था। कब तक छुपता वह सब ?

बाहर से परिवार में सब जितनी सुख-समृद्धि दिखती थी वह उतनी थी नहीं। वो सब जो बाहर से देखने पर अति सुंदर, लुभावना दीखता था वह अंदर से उतना ही वीभत्स था। घर में सब कुछ था मगर शांति न थी। भाईजी के लिये राजनीति ही सब कुछ थी। वे राजनीतिक लक्ष्यों की प्राप्ति के लिये कोई भी कीमत देने को तैयार रहते थे। जबकि भाभीजी ठीक उनके विपरीत थीं। वे अपने परिवार को ही सब कुछ मानती थीं।

इसीलिये इतना सब सहे जाती थीं ? क्या ? क्या सहती थीं वे भला ?

कहते हैं ना कि दीवारों के भी कान होते हैं। मनु तो पाता था कि दीवारों के केवल कान ही नहीं होते उनके जुबानें भी होती हैं जिनसे वे फुसफुसाती भी हैं मालिकों के बारे में !

वे दीवारें फुसफुसा-फुसफुसा कर बतलाने से बाज ना आती थीं कि - - -

’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’

2

‘ भाभीजी भाभीजी  - - - - -

वह बड़बड़ाता हुआ इधर-उधर सिर झटकता था जैसे किसी बुरे सपने को भुला कर जागना चाहता हो। कुछ था जो उसे अंदर ही अंदर झंझोड़ता-हिलाता था। उसकी चेतना कब तक दूर-दूर तिरती ? जरा मौका मिला कि वह उसमें फिर से उतर-उतर कर अपना ठिकाना तलाशती थी। इस बार जब उसकी चेतना लौटी तो मन ने उसे कस कर थाम लिया था। वह नीमबेहोशी में भी बीयर की सुगंध ले पा रहा था। ओह, ये तो भाईजी थे जो उसके चेहरे पर ठंडी बीयर छिड़क कर उसे होश में लाने के प्रयास कर रहे थे।

‘ ले संभल। काहे इतना बौरा रहा है ? ऐं ? जाग कर आराम कर ले थोड़ा।’

कहते वे उसे अपने हाथ का सहारा दे कर बिठाते थे। उसने इधर-उधर देखा था, कहीं भी तो कुछ न था वैसा कि जिसे देख वह होश खो बैठा था। तो क्या वो सचमुच एक बुरा सपना देखा था उसने ? हां लगता तो यही था। न जाने कितनी देर से थमी राहत की एक सांस आ ही गई थी उसे।

भला हो तेरा भगवान् जो वह सब सच न था ! कितना भयानक सपना देखा था उसने !

पर क्यों ? भयानक सा उसे कोई वहम तो न हुआ था ?

हां हां, जरूर उसे वहम ही हुआ था ! वहां तो सब साफ-सुथरा था, कोई गड़बड़ न थी वहां किसी तरह की। कितने अच्छे हैं भाईजी देखो तो। कैसे उस जैसे अदना से प्राणी के लिये इतना अपना कीमती समय दे रहे हैं। कोई करता होगा अपने नौकरों-चाकरों के लिये इतना कुछ ?

‘ ले चल उठ, कुछ खा-पी ले। हां, जब जरा ठीक लगे तो विकास के संग जईयो, दोनों मिल के एक काम करियो। ठीक है। काम विकास को समझा दिया है। और हां - - -’

वे बड़े अपनेपन से कहते थे। उनके बोल उसके कानों से हो कर जिगर तक उतरे जाते थे। वैसे तो वो उनके लिये कर ही क्या सकता था अकिंचन, मगर, भला भाईजी को किसी काम में उसकी जरूरत हो और वो यूं पड़ा रहे ? हो ही नहीं सकता। कोई अर्जेंट काम होगा तभी तो वे उसे खुद उठा-संभाल रहे हैं। कितना अहदी है वह जो काम के समय यूं पड़ा है ? उसने अपने आप को गरियाया और भरसक उठ कर बैठ गया। वे कह रहे थे-

‘ तू अपने जीजा की जरा चिंता मत कर। वो तेरी बहन का अब कुछ नहीं बिगाड़ सकता। तू बस् ये समझ ले कि जैसे तेरी वैसे ही वो मेरी बहन हैं। कोई मेरी बहन की ओर आंख तरेर तो ले जरा ?’ कहते उसे अपने हाथ का सहारा दे कर पास की कुर्सी पर उसे बिठा रहे थे वे।

नहीं नहीं ! उसकी कहां हैसियत कि वह भाईजी के बगल में बैठे। उसने अपने आप को संभाला और पूरी कोशिश की कि उसे संभालने में भाईजी को अब और अधिक परेशान न होना पड़े।

‘ हें ? तू समझ रहा है न ? जब तू यहां है तो तुझे मेरे सिवाय किसीसे डरने की जरूरत नहीं। जा, निश्चिंत हो के जा। विकास के साथ जा के काम करके मुझे बताने आ। अब से तू वो देसी-वेसी कुछ नहीं पियेगा। ये ल्ले मेरे दारूबार की चाबियां देख ले कहां रखता हूं। जब तेरा मन हो निकाल और पी। अभी ये रम ले जा। दो बोतलें ले जा, और ये सोडा भी रख। काम सब विकास से समझ और बिल्कुल सही काम करके आ। इतनी रम में तो तुम दोनों भगवान् को भी ठिकाने लगा के आ सकते हो !’

हंसते थे वे ठठा कर।

उसे धीरज सा हो आया कि घर में सब कुछ ठीक-ठाक था वरना ऐसे हंस सकते थे वे ?

मगर भगवान् को ठिकाने लगाने का मतलब वह नहीं समझ पाया। उसे समझने की जरूरत भी नहीं पड़ी क्योंकि हंसते हुए ही भाईजी ने घंटी बजाई थी जिसे सुन विकास उसे लिवाने आ खड़ा हुआ था। उसने बड़ी ही अर्थपूर्ण नजरों से मनु को देखा था और फिर नजरें झुका ली थीं। भाईजी का रौब ही ऐसा था कि नजरें आप ही आप झुक जाती थीं।

‘ हें ? आई समझ में ? जीजा की चिंता मत कर। वो काम मेरा है। मैं देखंूगा स्साले को। जा तू विकास के संग जा, काम पूरा करके आ।’

उसने पूरा झुक के सलाम बजाया था और विकास के संग निकल आया था। विकास ने रम और सोडे की बोतलों से भरा बैग थाम लिया था। वे लोग दोतल्ला उतर कर लंबे-लंबे बराम्दे पार करते किचन की तरफ आए जहां उन्हें एक सेवक ने किचन से कुछ सामान जिसमें अद्धे की एक बोतल जिसे वहां चेपटी कहा जाता था, अगरबत्ती-माचिस और एक नारियल ला कर दिया।

‘ ले पकड़। देख ले कुछ और तो नहीं चाहिये तुझे ? मेरा तो इससे चल जाता है।’

बड़ी सर्द आवाज में कहता था विकास। उसे कुछ समझ में तो आ नहीं रहा था वह तो बस भाईजी के आदेश पर ही विकास के साथ चला जाता था।

और क्या-क्या था उस सामान में ?

विकास के कहने पर जब उसने देखा तो उसमें एक बड़ा टिफिन था जिसे उसने खोल कर देखा कि बढ़िया चिकन मसाले वाला, कुछ लच्छा परांठे, नमकीन-तले काजू और कुछ नमकीन था महंगा जिसकी गंध ही उसे लार टपकाने को विवश कर रही थी। और क्या करता वह उसने ले कर अपनी बगल में दाब लिया। बाहर सामने वाले पोर्च में न जा कर वे लोग महल के कहीं बेहद पीछे के किसी और ही दरवाजे की ओर जा रहे थे। ओहो !

कितना शानदार था भाईजी का वह हवेली कहलाने वाला महल ! बिल्कुल जैसे स्वर्ग में ही आ गया था वह तो। आंखें फाड़-फाड़ कर देखता था वह जिधर नजर जाती थी उसकी। भोजन कक्ष, मेहमान कक्ष, स्वागत कक्ष, सम्मेलन कक्ष, रंगमहल न जाने कौन-कौन से कक्षों के पास से गुजरता बाहर से ही जितना देख पा रहा था मंत्रमुग्ध सा चले जाता था विकास के पीछे-पीछे उसके कदमों से कदम मिलाने की कोशिश करता सा।

लंबे-लंबे खामोश गलियारों में टिमटिमाते बल्बों की मद्यिम रौशनी बड़ी शांत मगर रहस्यमय लग रही थी। दिनभर नौकरों-चाकरों से भरे रहने वाले महल में अभी रात पाली के लोग आए नहीं थे या वे सब कहीं-कहीं अपने काम की जगहों पर समा चुके थे पता नहीं। समय का कोई अता-पता नहीं चल रहा था मनु को। वहां ऐसा मनहूस सन्नाटा था जिसमें अपने ही कदमों की आवाज भी डरावनी लग रही थी।

सदरबाड़ा होते हुए वे लोग रंगमहल की ओर से बाहर आ गए थे। आज पहली बार उसे इतना अंदर आने की अनुमति मिली थी जिससे उसे बड़ा घमंड सा हो रहा था खुद पर कि इलाके के इतने बड़े आदमी के कितना करीब था वह !

ऐसे ही किन्हीं सोचों में गुम था वह कि उसे दीख पड़ता था महलनुमा उस हवेली के पीछे की ओर भी एक लंबा सा पोर्च कि जहां एक पुरानी जोंगा जीप खड़ी थी वही कि जिससे उसने गाड़ी चलाना सीखा था। विकास ने वहीं रूकने का इशारा किया और जीप में ड्रायवर के बाजू की अगली सीट पर जा बैठा था झट से। इसका मतलब था कि जीप मनु ही चलाएगा। उसने देखा चाबी उसमें लगी हुई थी। सब कुछ मानो पहले से ही तय था।

विकास को ऐसे कामों की आदत हो गई लगती थी। सो बिना कुछ बोले, बिना देर किये विकास ने उसे जीप चलाने का इशारा कर दिया था। और पोर्च से सटते हुए दूर तक चले गए सघन वृक्षों की कतारों के बीच सांपिन सी बल खाई कोलतार की सड़क पर वे चल पड़े थे उस ओर कि जिस तरफ विकास तो कई बार जा चुका था मगर मनु पहली बार जा रहा था। हालांकि वह जान रहा था कि काम कोई गड़बड़ी भरा ही था फिर भी वह भाईजी को ना नहीं कह सकता था।

वह क्या, इलाके में अच्छे अच्छे खां उनके आगे पानी भरते थे !

‘ जल्दी दबा ले आम के बाग से बावड़ी की तरफ ’   कहा था विकास ने मगर फिर कहता था-

‘ हें ? आज बावड़ी की तरफ नहीं जाते। इधर-उधर ही कहीं निबटा देता हूं’

विकास फुसफुसा कर कहता था, जाने मनु से कि अपने आप ही से। बावजूद इसके कि उसे इस प्रकार के काम करने की आदत लगती थी फिर भी उसकी आवाज में एक अवसाद सा तैरता था जिसे मनु समझ रहा था। अपने अवसाद, डर व अनखनाहट को काबू करने की गर्ज में ही विकास इतना पिये जा रहा था नीट की नीट ! मनु ने कुछ कहे बिना गाड़ी चौथे गियर में डाल बावड़ी की ओर न जा कर जिधर विकास इशारा करता था उधर ही ओर मोड़ दी थी।

बावड़ी की ओर भरपूर सुनसान रहता था। उससे भी कुछ आगे तक जाना था उन्हें कि जहां पर भाईजी के आखिरी खेत की सीमा अगले गांव से लगती थी। उन खेतों के बाद घना जंगल कि जिसमें दिन में भी सूरज को देखने के लिये लालटेन की जरूरत पड़ती बताई जाती थी, और उसके भी आगे थी उनकी पुश्तैनी गढ़ी कि जिधर कोई भलामानस दिन में भी न दिखाई देता था। जीप उधर ही मुड़वा रहा था विकास। उसने डाल दी थी जीप उधर ही रफ्तार में। विकास ने तो जीप में बैठते ही बोतल खोल ली थी। पिये जाता था वह पागलों सा। उसे पीते देख मनु को भी अब भूख-प्यास सताती थी। लेकिन काम कर-करा के, खा-पी के आराम करना उसे बड़ा ही अच्छा लगता था।

आज का काम आखिर है क्या ?

वह जानना चाहता था मगर विकास ने इशारे से बस् उस दिशा की ओर अंगुली कर दी थी जिधर उन्हें जाना था। कई घुमाव तथा कई खेतों के बीच से कच्चे-पक्के रास्ते से निकल कर जब वे बांस के एक विशाल झुरमुट की ओर पहुंचे तो विकास ने एक पहाड़ी रास्ते की ओर इशारा किया जहां से गढ़ी के लिये चढ़ाई आरंभ होती थी। कुछ देर तक सतत चढ़ाई के बाद विकास के इशारों को मानते हुए उसने जीप रोक दी थी उस बियाबान में निपट अकेली सी खड़ी उस गढ़ी के पीछे के हिस्से में कि जहां पूरा सुनसान जंगल दूर तक चला जाता था।

यहां भाईजी की जमीनों के विस्तार खत्म होते थे, वहां किसी पंछी तक की आवाज न थी, इंसान की तो बात ही क्या। इस गढ़ी के सामने वाले भाग से देखें तो वहां कुछेक गांव रहे होंगे क्योंकि कोई-कोई ढिबरी या लालटेन सी कहीं-कहीं टिमटिमा रही थीं। किंतु इस पीछे की ओर तो सिवाय स्याह घनेरे जंगल के और कुछ न दिखता था।

मनु को कुछ अजीब सा लगा था वहां लेकिन इसी बीच विकास ने बोतल खोल कर उसे पकड़ा दी थी। पीना मनु यहीं सीखा था। बोतल ले कर पीने लगा वह भी विकास की देखादेखी बिना सोडा या पानी मिलाए। वाह, क्या स्वाद था ! ये बड़े लोग भी आखिर यूं ही तो नहीं पीते हैं। कहने वाले कहते हैं कि शराब में क्या स्वाद मगर इसका स्वाद जिसे लग जाए उसे फिर क्या भाए ? वह सोचता था मन ही मन।

‘ खाना अभी खाऐगा के बाद में ? ’ पूछ रहा था विकास, और जवाब भी खुद ही दे रहा था।

‘ भूख तो भई लग आई है।

‘ काम में कित्ता टेम लगेगा ? वैसे काम है क्या ? ’

उसने पूछा था उस भयानक होती जा रही रात में चारों ओर देखते हुए। हालांकि आकाश में कुछ तारों ने लुकाछिपी छोड़ उन्हें एकटक ताकना आरंभ कर दिया था फिर भी समां बेहद ही रहस्यमय सा लगता था। जैसे कुछ था जो उनके आसपास तैरता-मचलता था। एक खौफ सा उस पर तारी होने लगा जिसे बड़े जतन से उसने छुपा लिया था। वह नहीं चाहता था कि विकास उसे डरपोक समझे। या फिर वह भाईजी की नजरों में कम आंका जाए। सो,

काम जो भी हो करना ही था क्योंकि भाईजी के आदेश के पालन में कोई कोताही वह नहीं करना चाहता था, विकास के सामने तो वह और भी अपने आप को भाईजी का सबसे ज्यादा आज्ञाकारी सिद्ध करने में आगे-आगे हुआ जाता था। किसीका क्या भरोसा कोई चुगली ही कर दे ! उसे अभी कुछ समय यहीं रहने का मन था। मन का क्या, उसे तो मन न हो तब भी रहना ही होगा।

उसने सोडे की बोतल खोल कर रम में थोड़ा सा मिलाते हुए बुझे-बुझे मन से आसपास नजर डाली थी। सब तरफ रात ने अपनी काली चादर फैला दी थी। आसमान में अभी तारे इतने ना निकले थे अनगिनत कि अंधेरे को जीत सकें, अभी उनका सरदार चंद्रमा भी प्रकट नहीं हुआ था, सो अंधियारा अभी टिमटिमाते तारों पर भारी था।

तभी, कहीं दूर उसे कोई टिमटिमाती रौशनी सी दिखाई दे कर गायब हो गई

उसे अचानक ध्यान हो आया कि गांव में उसके संगी साथी कहा करते थे कि भूत कभी-कभी वीराने में एक आंख से देखता है। कहीं ऐसा कोई भूत ही तो नहीं देख रहा था उन्हें वहां ? उसे कंपकंपी सी चढ़ आई।

ये सब हो क्या रहा था उसके साथ ? सीधे-सादे तरीके से जीना चाहता था वह तो, न जाने क्यों ऐसा लगता था कि कुछ कहीं गलत होता जा रहा था उसके जीवन में। आज का ही देख लो, ऐसा लगता था कि कहीं कुछ गड़बड़ जरूर हो रही है।

मगर वह करे क्या ? हालात के आगे बेबस होने के अलावा कोई रास्ता ही न बचता था उसके सामने तो। वह सोच में गुम था उधर विकास फिर पूछता था और पूछने के साथ-साथ उसे समझाता भी था-

‘ देख, खाना पेले खाए लेते हैं। बाद की फिर ना कहियो क्या कंडीसन हो ? ’

उसने तो जीप से उतर कर फटाफट दरी बिछा कर टिफिन खोलने की तैयारी कर ही ली थी। बिना कुछ समझे मनु भी उसका साथ देता था दरी के दूसरे कोने को पकड़ कर बिछवाने लगा था।

‘ तू अभी नया हे इस काम में। तेरेको आइडिया नईं रे भई। अबी अपन बोरा खोलेंगे तो कजने कांईं दिखे ? पाछि अपन खाने के लायक बी नी रहें। तो इसलिये के रा हूं के पेलां अपन खाना खई लां।

आधी मालवी आधी हिंदी इस इलाके में वे ही लोग बोलते थे जो बाहर कहीं से आ कर यहां बस गए थे। खासकर वे जो भाईजी के यहां काम करने लगे थे। वे अपनी बोली पूरी तरह भूल नहीं पाते थे और यहां की बोली भी पूरी तरह सीख नहीं पाते थे इसलिये होता यही था कि जब वे बोलते थे तो दोनों बोलियां आपस में मिल जाती थीं।

विकास को सुनता मनु अभी तक पेशोपस में ही था। कुछ-कुछ रम का नशा हालांकि उस पर चढ़ने लगा था पर अभी उसने पूरा होश नहीं खोया था।

कैसा बोरा ?

वह जानना चाहता था पर जब पूछने की कोशिश में उसे लगा कि उसकी जुबान कुछ लड़खड़ा सी रही थी जिसका मतलब था कि नशा हो आया था उसे तो। पलकों पर भी बेहद बोझ सा महसूस होता था। अचानक उसे विकास की पीठ के पीछे, जीप के बाजू से कोई धुंधला साया सा सरकता दिखा। या कि वह उसकी नशा ले चुकी आंखों का धोखा ही था। साया दन्न से कहीं अंधेरे में ओझल होने को था।

भाभीजी !

भाभीजी जैसा ही लगा कुछ कुछ उसे। जैसे वे ही थीं।

‘ भाभीजी भाभीजी ’ उसके मुंह से डरे हुए से अस्फुट शब्द निकले थे।

वह बेहद डरा हुआ सा गढ़ी के बाऐं दिशा में बने उस कुंए की ही तरफ देखने लगा आंखें फाड़-फाड़ कर जिधर वह साया गुम हुआ था।

उस कुंए के ठीक सामने कुछ कदमों की दूरी पर था वह प्रसिद्ध़ भैरव मंदिर कि जिसमें काल भैरव की मूर्ति को न जाने किस परंपरा के तहत शराब का भोग आज तक लगाया जाता था। इस मंदिर के द्वार कभी बंद न किये जाते थे क्योंकि मान्यता थी कि इस ओर आने वाले अपराधी मनोवृत्ति के लोगों को इनके दर्शनों से अपराध से दूर होने की प्रेरणा मिलती थी। यह बात और थी कि अनेक अपराधी इस सदा खुले रहने वाले मंदिर में अपने अपराध की सफलता की कामना में या किन्हीं भी अन्य ऐसे ही कारणों से काल भैरवजी को अद्धा-पव्वा चढ़ाने रात में सबसे छुप-छुपा कर आया करते थे। सुबह-सुबह पुजारी को मूर्ति पर अक्सर ही मिलने वाली ऐसी ही बोतलें तथा अन्य चढ़ावे, नारियल वगैरह इस बात के प्रमाण थे।

आज भी विकास अपने काम के आरंभ में काल भैरव को पहले अद्धा की बोतल चढ़ा कर ही काम की शुरूआत करने वाला था। दरी पर टिफिन रख वह सामान में से नारियल-अगरबत्ती तथा अद्धे की बोतल निकालने से पहले हाथ पैर धो कर, कुल्ला कर के, अपने बदन पर पानी के छींटे मारता देखता था मनु की ओर जो कि उस कुऐं के बाद अब मंदिर की ओर ही देखे जा रहा था पलकें झपकाता-झपकाता, फुसफुसाता बड़बड़ाता था-

‘ भाभीजी ! ’

‘ कायको ? ज्यादे तुझे हजम नी होगी। मत पी अब। भाभीजी काय को यां आने लगीं ? वो तो मस्त अपने रेशमी रजाई गद्दे पे सोती होंगी। वो आऐं तो झमरझमर, रूनझुन इत्ता होगा के बेचाारी कहीं भागीच्च नी सकतीं। इत्ते जेवर पिन्हा के रखते हैं भाईजी। देखा नी तूने ?’ विकास कहता था अपने में मगन सा। इतना पीने के बाद भी भाभीजी के प्रति सम्मान इंच भर कम न हुआ था उसमें। सो कहता था डपटता सा-

‘ और देख, तू पीने के बाद भाभीजी का नाम क्यों लेता रे ? मैं केता तेरे को के पीने के बाद कुछ और बोल, सुलोचना का, पूनम का के सोनिका-मोनिका का नाम लेने का। पर भाभीजी भाभीजी नईं बोलने का। समझा।’

मनु नासमझ सा अब मंदिर को तकना छोड़ विकास को तकता था जो पानी का जग उसकी ओर बढ़ाता था इस आशय के साथ कि वह भी हाथ-पैर धो कर तैयार हो जाए। मंदिर जा कर नारियल बधार कर, अद्धा चढ़ा कर बहुत से काम निबटाने थे उन दोनों को फटाफट्। और विकास यह खूब जानता था कि अच्छी तरह पीने के बाद फिर कुछ भी हो सकता था, यह भी कि वे दोनों सुबह यहीं लुढ़के मिलें। या फिर बोरा खोलने के बाद कुछ करने की हालत में ही न रहें।

न जाने क्या हो उस बोरे के अंदर !

बताते थोड़े ही हैं भाईजी काम देने के बाद। बस् उनका तो आदेश होता है कि काम किसी भी हालत में पूरा होना चाहिये ! विकास को यह भी समझ में आ रही थी कि मनु काम के बारे में, बोरे के सच से लगभग लगभग अनजान ही है। कहीं ऐसा न हो कि बोरा खुलते ही उसकी हालत विचित्र हो रहे और सारा काम कहो कि विकास पर ही आ पड़े ! इसलिये वह बड़े अनुभवी सा काम करने के पहले ही खाना-पीना निबटा लेने के पक्ष में था। भरपेट खाने के बाद ही विकास का दिमाग चलता था इस प्रकार के काम में। विकास क्या, कोई भी इस जैसे काम को आसानी से तो नहीं कर सकता न्। जानते थे भाईजी, सो

पूरे इंतजाम के साथ भेजते थे। इस बार भी इंतजाम उनका पूरा था। मगर मनु एकदम कच्चा-बच्चा ही तो था ! वह डरता, झिझकता सा करता था वह सब जो विकास उसे करने को बोलता था। रह-रह कर मगर वह मंदिर में डरा-डरा सा इधर-उधर होता था। अगरबत्ती की भक्तिमय सुगंध भी उसके लिये अजब सा रहस्यमय माहौल बना रही थी। माचिस की तीली जलाने की जरा सी भी आहट पर चौंक जाता था।

उसे तो यही समझ में न आ रहा था कि इतनी रात को वे उस सुनसान जगह पर क्या करने भेजे गए हैं ! और नारियल-अद्धा चढ़ाने का मकसद क्या था ? वह तो सब कुछ यंत्रवत सा करता था। हालांकि विकास के मंुह से बोरा शब्द सुन कर नशे में उसे हरारत सी लगती थी मगर सोचने-समझने की शक्ति जवाब दे गई थी जैसे।

बोरा ?

हो सकता था कि उस बोरे में हो न हो धन-दौलत भरी होगी, अथवा जैसाकि उसके गांव में होता था कच्ची शराब की बोतलें होंगी जिन्हें किसी खास जगह पर छिपाने के लिये भेजा होगा भाईजी ने उन दोनों को विश्वस्त मान कर !

‘ ही ही ही ही, खी खी ’ कर हंसते न थमता था विकास पीने के बाद। उसके ठहाके से मनु पहले तो कुछ समझ न पाया था फिर वह भी नशे में उसी की तरह हाहाहीही कर हंसने लगा था। उन दोनों के ठहाकों से आसपास के वृक्षों की डालियों में छिपे कुछ उल्लू घबरा कर उड़ गए थे।

पूरे इलाके में उल्लुओं की भरमार थी जो कि रात को ही अपने बसेरे से बाहर निकलने वाले जीव होते हैं। वे अभी निकले न थे यानि अभी रात पूरी तरह उठी नहीं थी। फिर भी, अंधेरा इतना घिर आया था कि लगता था बड़ी देर से पसरा हुआ था, और न जाने कब तक पसरा रहेगा।

नशा उन दोनों पर हावी हो चुका था। जी भर के हंसना-खाना-पीना हो लिया था उनका। अब काम करने की बारी थी।

’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’

3

‘ ले जल्दी जल्दी हाथ चला।’

फावड़ा-कुदाल संभाल कर नशे में धुत्त वे दोनों बड़ी मेहनत से खोदते थे वो गड्डा जिसमें उस बोरे को दबाना था। मिट्टी कच्ची थी सो गड्डा खोदने में मुश्किल नहीं आ रही थी। गड्डा खुद गया तो विकास के अनुभवी हाथों ने ज्यौंहीं जीप में रखा बोरा थामा वह वहीं खड़ा का खड़ा रह गया था कुछ पलों के लिये।

‘ चल जल्दी कर अब बड़ी नींद आ रही है।’  कहता था मनु। एक तरफ नशा और दूसरी तरफ काम से उपजी थकान और बोरियत। वह बस् अब किसी तरह काम खत्म कर वहां से भाग जाना चाहता था। उधर,

विकास था कि बोरा थाम के चुपचाप खड़ा था अपनी जगह पर जमा हुआ सा। लंबी सांस ले कर उसने तो बोरे को खोलने का फैसला कर ही लिया था। और लो, उसने तो बोरा खोल ही डाला था। बोरे के मुंह पर बंधी रस्सी खोल कर अलग पटक उसने बोरे के भीतर झांका था तो उसकी चीख निकल गई थी घुटी-घुटी सी।

कुछ-कुछ जोरों से ही तो नहीं चीख उठा था वह ? तभी ना उसकी वह चीख उस मनहूसियत भरे सुनसान-बियाबान में थोड़ा इधर-उधर घूम कर, कहो कि वहां की मनहूसी से घबरा कर, निराश-हताश सी वापस वहीं लौट आई थी जैसे। विकास की वो अजीब सी हालत देख मनु को अपने बुरे-वीभत्स अनुमानों, आशंकाओं के सत्य होने का अंदेशा सा होता था। उसने झपट कर बोरे में झांका तो विदेशी शराब का उसका सारा नशा हिरन हो गया था।

नशा हिरन बन के भागता था, मगर उसकी टांगें जवाब दे रहीं थीं। वह धम्म् से वहीं बैठ गया था। अब क्या, कैसे होगा ?

ये काम था ? कैसे, क्या करवा रहे थे भाईजी उन लोगों से !

इतने खतरनाक और निर्दय थे वे ? काश, पहले पता होता। तो,

तो क्या कर लेता वह ? मना कर सकता था ? था उसमें इतना दम ? उसके मन में कोई डपटता सा पूछता था उससे। उसका हृदय बेतहाशा धड़क रहा था। हालात के चाबुक से मगर, धीरे-धीरे धड़कनें सामान्य होने लगी थीं अपने आप। लेकिन, वह बेहद उदास-हताश सा जहां का तहां बैठा रह गया था। मानो उसमें कोई जान ही न रही हो।

कहीं दूर कोई उल्लू फिर बोलता था रूक-रूक, थम-थम कर। उसकी डरावनी आवाज वातावरण को और भी डरावना बनाती थी रह-रह कर।

विकास और मनु एक ही नाव के सवार तो नहीं थे। विकास तो पहले ही से सब करने-धरने में माहिर था। वह तो पहली बार नहीं कर रहा था ऐसा काम जो भाईजी ने आज सौंपा था। तब फिर क्या कारण था कि विकास को भी दिमाग में अनगिनत घंटियां सी बजती महसूस होती थीं। कानों में सन्नाटे से गूंजते सुनाई पड़ते थे। उसके भी शरीर में मानो प्राण न बचे थे, उसकी टांगों में भी मानो ताकत न रही थी, वह अनुभवी भी जो बैठा तो बैठा का बैठा ही रह गया था एक नौसिखिये की ही तरह।

कब तक यूं ही बैठे रहेंगे ?

यहीं बैठ कर रात बिताने तो नहीं ही भेजे गए थे वे लोग।

पास की झाड़ियों में खड़खड़ाहट सी होने पर उनकी तंद्रा भंग हुई थी। कोई जानवर था सियार या कि उद्बिलाव सा किसी आस उम्मीद में आया होगा।

रात के उस घमासान रूप से विकराल, अजीब से वातावरण में अगर कोई हिंसक जंगली जानवर आ कर उन्हें सूंघ ले तो ? तो,

चलो रे चलो ससुर ! भोत हो लिया सोग। आज के नशापत्ती का कोई मतलब ही नहीं निकला।

काहे का नशा ? कोई नशा बचा भी था ?

अब तो काम में लग ही जाना था। अचानक विकास ने सामान्य से कुछ ज्यादा ही ऐहतियात बरतने के उद्येश्य से आसपास से सूखी लकड़ियां इकठ्ठा करना आरंभ कर दिया। मनु को उसने बोरे की रखवाली में ही बैठने को कहा था मगर वो तो डर के मारे विकास के संग छाया सा लग लिया था।

दोनों ने मिनटों में ही वे आवश्यक लकड़ियां इकठ्ठी कर बोरे पर होलिका जैसे जमा फटाफट उनमें आग लगा दी थी। अब उन्हें वहां जंगली जानवर का खतरा न था। भोर का तारा निकलने के पहले काम खतम होना ही था। गड्ढे में सब डाल कर बंद करना था, कर दिया। वापस आना ही था, आ गए वापस। भाईजी से शाबासी मिलनी ही थी।

मिल गई शाबासी। फिर ?

फिर और क्या चाहिये था ? अब तो कुछ नहीं चाहिये रे ददा। बस् कुछ ऐसा हो जाए के वो डरावना सपना भुला जाए !

अपने कमरे में अपने बिस्तर पर बेसुध पड़ा मनु रह-रह कर छटपटाता था। सो नहीं पाया था ठीक से अगले दिन भर। पड़ा था बस अपने कमरे में चुपचाप। गनीमत है कि चुपचाप था। विकास ने तो किसी किसी को इस प्रकार का काम करने के बाद चिल्लाते-पगलाते थी देखा था। मजबूत कलेजा पाया था मनु ने तो। निभ जाएगी उसकी यहां। क्योंकि जिसने इस प्रकार का काम सफलतापूर्वक कर लिया वो यहां फिट हो गया समझो। ऐसे काम के आदमी की यहां बेहद कदर थी। भाईजी ऐसे आदमियों की सारी खबर रखा करते थे। ऐसे काम निबटाने के बाद उनके हालचाल वे खुद पूछने आते थे।

‘ देख जरा जा के, कहीं उसने ज्यादे तो ना पी ली है। पूरा दिन हो गया बाहर ना निकला बताते हैं !’  भाईजी विकास को भेजते थे मनु के लिये चिंतित से।

उसके कमरे पर जब विकास पहुंचा तो उढ़के हुए दरवाजे की झिरी से उसने झांक के देखा था कमरे में कोई हलचल न देख उसे यकीन हो गया था कि मनु का नशा तो जरूर रात को ही हिरन हो चुका था मगर उसके होश अभी तक लौटे न थे। होता है ऐसा होता है कच्चे दिल के आदमी के संग। उसने मनु को झिंझोड़ा तो उसने आंखें खोली थीं। हां तो अब नींद खुली बच्चू की।

‘ चल उठ, कब तब सोएगा ? भाईजी चिंता करते हैं तेरी। बड़ी किस्मत वाला है रे तू तो।’  कहते उसके पलंग की पाटी पर बैठ गया था विकास। मगर उसकी आवाज में कोई उत्साह न था। एक उदासी सी उसके बोलों में थी, क्यों ?

इधर मनु भी बिना हिले-डुले चुपचाप पड़ा था। जैसे उसमें कोई जान न हो। जैसे उसने कुछ सुना ही न हो। विकास जानता था कि इस राह में ऐसा भी होता है। आदमी को न जाने क्या-क्या सहना होता है। तभी इतना सब देख कर यहां गुजर कर पाता है। एक बार कलेजा पत्थर का कर लिया तो फिर सब सध गया। उसे पता था कि पहली बार ही कोई धुरंधर नहीं हो जाता। सो वह मनु को टटोलता था-

‘ चल उठ, हाथ-मूं पखार के कुछ खा-पी ले। फिर एक काम से निकलने का है अपन को।’

‘ नहीं नहीं, अब कोई वैसा काम नहीं।’

कहता मनु एकदम यूं उठ के बैठ गया था जैसे उसे करंट लगा हो। उसका चेहरा कल रात की याद कर के जर्द हो आया था। उसे लग रहा था कि जैसे उसके सारे बदन में बुखार की ज्वाला सुलगती हो। अजीब सा ताप उस पर चढ़ता था। मन ही मन जैसे कोई बोझ सा उसे जकड़ता था। दबता-पिसता सा था वह किसी उस बोझ तले, समझ नहीं पाता था कि क्या हो गया, क्या वह कर आया, कैसे कर आया, अब क्या होगा ?

कैसे निकले इस मकड़ जाल से ? कैसे वापस लौट जाए अपनी पुरानी जिंदगी में कि जिसमें भले ही इतनी साधन-संपन्नता नहीं थी मगर उसमें इतनी लाचारी, इतनी डरावनी बेचैनी भी तो नहीं थी।

फिर अचानक उसे याद हो आया जीजा, महालंपट, महातिकड़मबाज और महाशातिर जीजा जिसके जाल में बहन और बच्चे तिल-तिल मरने को अभिशप्त से थे। उसे खयाल आया कि कहते हैं कि पाप को पाप ही काटता है। उस पाप के पुलिंदे से निबटने का कौन सा वह मनहूस पल था जो उसे यहां इस पापनगरी का रास्ता दिखा गया था ? अब तो पाप से पाप न कटना था बल्कि पाप से पाप ही बढ़ना था।

अब क्या करे वह ?

विकास जो कभी उसके जैसी ही अनेक मानस यात्राऐं करके अपने आज जैसे थमे हुए मानसिक हालात पर पहुंचा था, बावजूद इसके वो उदास सा था, मनु की स्थिति को समझ रहा था। मनु को कंधे से थपकता था वह-

‘ अबकी वैसा काम नईं हे रे, चल घूमना-फिरना हो तो। थोड़ा बाऐर निकलेंगे तो मन ठीक रेगा। नईं ?’ काहे का मन और काहे का कुछ ठीक। मनु का तो मन करता था कि धाड़ें मार-मार रोने लगे। और वो विकास के कंधे लग रोने ही लगा था। कैसे रोकता खुद को।

विकास ने उसे रोने दिया खूब। रूलाई का भी अजब स्वरूप है, जब रोने की छूट हो तो थम जाती है, और रोने की मनाही हो तो उबल-उछल कर आती है। विकास ने मनु को रोने से नहीं रोका तो कुछ पलों में रो-सिसक कर वह खुद ब खुद शांत हो गया था।

‘ चल में चलता हूं। बता देता हूं भाईजी को के तेरा मन अभी काम करने का नईं। जब ठीक लगेगा तभी करना कोई काम। हें ? ठीक हे ? अभी ओर आराम कर ले। कुछ नईं केंगें भाईजी। बड़ा दिल हे उनका। जिनावर, नोकर-चाकर सब मोज मस्ती से रेते हें यां।’

मनु के रहे-सहे आंसू सूख चले थे। अजब सी हताशा उस पर उतर आई थी जब विकास चल दिया था तो। वह चाहता था किसी से अपने भीतर की ढेर सारी बातें कहे वह, उगल दे अपने अंदर का सारा गर्त। लेकिन किससे ?

कौन सुनेगा और फिर क्या होगा ?

भाईजी के विरूद्ध तो कोई यहां जा नहीं सकता, खुद वही उनके विरूद्ध जाने का सोच भी सकता था ? जब उनके विरूद्ध कुछ करने का दम ही नहीं था तो यूं रेंरें-पेंपें करने का, यूं चींचीं-चूंचूं करने का क्या मतलब ?

मन के किसी गुमनाम कोने से उसे ये कौन डपटता था ? कहीं दबे-छिपे स्वार्थ और भय के कीड़े ने उसके मन की सजगता को कुतरना आरंभ कर दिया था और वह थका-थका सा फिर बिस्तर पर लेट गया था। उसकी आंखें छत पर जा टिकी थीं। अगर इसी तरह करता रहा वह तो भाईजी उसे यहां रखेंगे नहीं और वापस उसे अपने गांव लौटना होगा जहां उसका जीजा अब तो उसे और उसकी बहन को और भी ज्यादा परेशान करेगा कि ले देख लिया ? बड़ा चला था भाईजी से शिकायत करने - - -

उसने अपने आप को समझाने की कोशिशें आरंभ कर दीं। समझाना ही होगा मन को कि भाईजी जैसे दबंग के साथ रह कर उनसे लाभ लेना है तो इस तरह के अनेक काम करने ही होंगे। और फिर उसे इससे क्या कि वे ऐसा या वैसा क्यों करते-करवाते हैं ? ये उनकी समस्या। भई इतने बड़े नेता हैं, इतने इतने शत्रु हैं उनके, क्या, कैसे निबटना है वे ही जानते होंगे। जो उसने उनका साथ नहीं दिया तो क्या वे उसे ऐसे ही छोड़ देंगे ? और साथ दिया तो कहां से कहां पहुंचा देंगे। विकास को ही देख लो। कित्ते मजे से रखता है अपने परिवार को। भाईजी का दायां हाथ बना घूमता है गाड़ियों में शान से। जनता उससे भी उतना ही डरती है जितनी भाईजी से।

तो ?

उसने दरवाजे पर खटखटाहट सुनी और इसीके साथ उसे दिखी पूनम जिसे वे सब ‘माल  कहा करते थे। वो एक थाली में कुछ लिये खड़ी थी। उसकी ओर नजरों की कटारी सी फेंक कर बोल रही थी-

‘ ये ल्ले, तेरे लिये भाईजी ने भेजे हें दोनों। बोतल, और मैं।’  मनु ने मरे मन से देखा थाली में कुछ खाने के सामान के साथ महंगी शराब की बोतल लिये खड़ी थी वह।

पूनम जो कि बस नाम की ही पूनम थी अपनी काली-कलसेंढ़ी काया के कारण नहीं वरन उसकी काली करतूतों के कारण वह उसे हमेशा गंदी सी ही तो लगती थी। मगर यहां कई तो उस गंदी-संदी पर ही प्राण उंडेला करते थे। उन्हें तो बस् माल चाहिये होता था माल। वो माल उसमें भरपूर था। भरपूर माल को भरपूर उजागर करती वह नौकर-चाकरों के मुंह लगी रहती थी। मालिक की खास मुंहलगियों में से थी सो उससे कोई बहस न करता था। उसके नखरे हजार थे मगर जब मालिक जहां जिसके पास भेज दें चुपचाप चली जाती थी। अभी आई थी मनु का मन बहलाव करने। मालिक का सोच था कि अभी मनु कुछ ऐसे ही माल का हकदार था। काश, वे जानते कि उसे ऐसे माल की कतई अपेक्षा न थी !

‘ तो क्या चाहिये तुझे हरामी ?’

चिहुंकती-मचलती पूछती थी वह बिजली सी गिराने को बेताब। मनु उसे अच्छा लगता था। बूढे़ से ही हो चुके भाईजी को खुश करना तो उसकी लाचारी ही नहीं बल्कि ख्वाहिश ही रहती थी क्योंकि उनसे उसे मनचाहा धन मिलता था। अपने परिवार को पालने में उसे जो भी चाहिये होता था वे उसे मुहैया करा देते थे चुटकियों में। ऐसा देखते-जानते थे सब वहां। इस कारण उससे जलने वालों की भी कमी न थी। मगर अपने दिये धन की ऐवज में उससे सब कुछ वसूलना भी वे बहुत अच्छी तरह जानते थे। ऐसी ही भरपूर वसूली के ही लिये आज उसे वहां मनु के कमरे पर पूरी तैयारी के साथ भेजा गया था ताकि मनु अधिक विचलित हो कर कहीं भाग ही न जाए, कहीं किसी पर कुछ राज ही न उगल दे। अब हर किसी का तो वे काम-तमाम नहीं करवा सकते न् ! सो,

पूनम जैसी छटंकी रख छोड़ी थीं उन्होंने अपने सेवकों के मन-बहलाव के लिये। जब खुद को कुछ और बढ़िया माल न मिलता था तो वे भी उसीसे काम चला लिया करते थे। आखिर यूं ही नहीं पूनम इतनी ऐंठती-अकड़ती थी। मालिक के बिस्तरे की हर सलवट का राज जानती थी सो मालिकिन भी उससे न उलझती थीं !

मालिकिन के विचार पर मनु का मन फिर कैसा-कैसा तो हो आया था। अब तक पूनम ने अपने तमाम कपडे़ शरीर से वैसे ही अलग कर दिये थे जैसे सांप अपनी केंचुल अलग कर देता है। पूरी तरह नंग-धड़ंग होने की फिराक में वह अंगड़ाई लेती उसकी तरफ देखती थी। ऐसा उसने आज तक न देखा था कि उसकी अंगड़ाई पर कोई लुट न सका हो-

‘ ले रे, बावरे, तेरेको क्या गम खाता है रे ? पी जा उस गम को सराब में और भूल जा सब। ला तेरा सारा डर मिटा दूं। अभी बहोत ताकत बची है रे। बहोत गर्मी सनसना रई है। ले तेरे में दम हो तो अपने जिगर की गर्मी मिला दे इसमें। सब भूल ना जाऐ तो कहना।’

मनु को उबकाई सी हो आई उस पर। न चाहते हुए भी उसका मुंह बन गया था, वह छुपा न पाया था अपने भीतर के भावों को उससे। जो भी हो, चाहे कितना ही वह जवान हो, मगर वह सोचता था कि जवान होने से ही सब कुछ नहीं किया जा सकता जब तक कि अपना मन ना हो।

न जाने कैसे जानवर से होते होंगे वे लोग जो बस् तन की भूख मिटाने नदीदे से किसी भी तन को भंभोड़ने लगते होंगे ! वह तो इस प्रकार इस गर्मी को नहीं ही मिटा सकता था। उसने नजरें फेर ली थीं।

कैसे करे इस फजीते से अपना बचाव ? सोचता था वह।

’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’

4

उधर पूनम अपने अपमान से चिढ़ती जा रही थी। उसे भाईजी के अलावा किसी और से देर नहीं सुहाती थी। भला हुआ था कभी ऐसा कि किसीने उसे इतनी देर तक ठुकराया हो इस प्रकार ?

बड़ा आया मुंह फेरने वाला ! उबकाई दिखलाता था मरा। नसीब तेरे कि तुझे खुश करने भेजा है मालिक ने, वरना तेरे जैसे खाली-ठाली को पूनम जैसी कौन घास डालेगी ? लेकिन पूनम के तरकश के सारे तीर खाली जा रहे थे।

मालिक को तो जवाब देना होगा न ? वे कहेंगे किस बात का पैसा लेती है ? यहां नहीं कुछ कर पाई तो अभी न जाने और कहां-कहां भेज देंगे। वो तो उसे गम भुलाने की मशीन सी ही समझते थे। वैसे मनु उसे अच्छा लगता था। साफ-सुथरा रहता था, घर का भी अच्छा ही था। दिखने में भी ऊँचा-पूरा, चोखा था। बस् अब बिस्तर में कैसा है ये और देख लेना था आज। लेकिन,

मनु तो उसकी तरफ देखने को भी राजी न था। उसे तो तब ये ख्याल आता था कि बच्चों को स्कूल ले जाने का टाइम तो नहीं हो गया ?

मगर कहां ?

बच्चों को तो बोर्डिंग भेजे एक सप्ताह हो गया। या कहीं,

मालिकिन को कहीं जाना हो ?

पर कहां ? वे तो

उसे फिर भरपूर रूलाई सी आने लगी थी जो अगले ही क्षणों में पूनम के घिनौने करतबों से नहीं बल्कि वह जो कुछ कहती थी उसे सुनकर रूक-थम गई थी। क्या-क्या तो न कहती थी वह बेहया ? उसकी जुबान तो बस् कतरनी ही थी कतरनी !

और भला क्या सुना था मनु ने ?

‘ तेरा जीजा आया था रात को। आज उसे ही निबटा के आ रई हूं।’  यही तो कहती थी वह नंगी-पुतंगी सी उस पर ढहती हुई। मनु को तो जैसे फिर करंट लगा हो। वह यूं उछल कर उठ खड़ा हुआ था। ठीं ठीं ठीं कर हंसती थी पूनम अपना बड़ा सा मुंह खोल कर। न जाने अपने अपमान पर खीजती हुई या न जाने नशे में, कि जाने गुस्से में बिफरती हुई। मनु विस्फारित नेत्रों से देखता था उसे। वह कहे जाती थी-

‘ और क्या ? अभी कल रात हमने खूब मजे किये। पन, ससुरा सारा जेवर ले गया मालिकिन के। मरा एक तो दे जाता ! मेंने मालिक से कही तो वे बोले पहले तुझे खुस कर दूं तो जेवर का क्या है ले जाने दे अभी। बुलाऐंगे उसे और एक एक जेवर बरामद कर लेंगे !’

मालिकिन के जेवर ? जीजा कैसे ले गया ? और

ये जीजा यहां क्या चोरी करने आया था ? मनु बेहद भयभीत हो आया था जीजा के जिक्र पर। उसे पता था कि अगर जीजा को यहां का कारोबार जम गया, या फिर, भाईजी को ही जीजा के रंगढंग पसंद आ गए तो फिर तो हो लिया ! जो हो, जीजा यहां से दूर ही बना रहे इसी में भलाई थी उसकी व उसकी बहन की। न जाने क्या मंजूर था उसके ईश्वर को ! वह हैरान सा परेशान सा हो पूछ रहा था-

‘ जीजा कब आया था ? तूने मुझे क्यों नहीं बुलाया ? ’ चिढ़ बहुत ही ज्यादा सी हो आई थी उसे पूनम पर।

‘ अयहय, जैसे तू यहीं बैठा अपनी अम्मां का श्रृाद्ध करता था रात भर ! हें ? में आई थी बताने पर तू हो तब तो बताती ना !’

सच कह रही थी वह। मनु को याद हो आई फिर से वह रात। वही जंगल। वही सब कुछ, जिसे देखते ही उस पर चढ़ा रम का सारा नशा हिरन हो गया था। उसके हृदय में फिर वही धुक-धुकी सी होती थी। क्या करे, कैसे भूले उस मंजर को ? वो तो फिर से हाजिर-नाजिर था उसके दिलो-दिमाग पर। उसके सामने उसे वो ‘माल  भी कुछ न दीखता था जिसके लिये महल के लगभग तमाम नौकर-चाकर उतावले से लार टपकाते रहते थे। हालांकि उन्हें वो माल मिलता तब था कि जब भाईजी की क्षुधा शांत हो लेती थी। तब तक वह इतना थक चुकी होती थी कि बस् मत ही पूछे कोई। आज वही मनु के सामने अपना माल लुटाती खड़ी थी और मनु था कि ऐसे संवेदनशील मौके पर चूका जाता था ! उसने तो रात न जाने क्या देख लिया था कि जीजा के आने की खबर भी उसे भूली पड़ती थी ?

‘ तू आखिर था कहां ? इत्ती रात को आया और धुत्त सो गया। जीजा को भी नहीं पूछा रे तूने ? जीजा का कुछ तो मान रखता रे साले ? ’  मजाक करती उसे छेड़ती थी वह भारी भरकम और पूरी तरह सांवली काया वाली लिजलिजी सी, जिसका नाम पूनम था और जिसे सब लोग वहां भाईजी की मनचढ़ी रखैल के रूप में जानते थे। मनु कभी इस तो कभी उस पाले में झूलता था।

अब उसे फिर से जीजा का ध्यान हो आया जो न जाने क्यों आया था। कहीं बहन का कुछ नुकसान तो न करके आया था हरामी ? उसके मन में गाली निकलती थी उसके लिये। कहीं बहुत चिंता सी भी हो आई थी बहन और उसके बच्चों के लिये। कब से उन्हें देखा तक नहीं है। और आखिर कब देख पाऐगा उन्हें ? क्या ऐसे ही पड़े रहना होगा उसे यहां न जाने कब तक ? मालिकिन के जेवर ले गया है तो भाईजी को अब मनु क्या मुंह दिखाए ? यही कहेगा कि देख लीजिये आप, वो है ही खराब आदमी। आप ही उसका कुछ इलाज कीजिये।

मनु का मन जाने कैसे कैसे डरता-फड़फड़ाता था। बल्कि उसे तो लगता था कि उसे कुछ हो हवा गया था। मन उसके जरा वश में न था। रह-रह कर परंतु जीजा का विचार उसे नाग की तरह डसता था फन उठाए कि आखिर वह क्यों आया था ? बताने को वह तैयार न थी जिसे कुछ तो अवश्य पता चली होगी उसके आने की वजह।

‘ जा पूछ ले भाईजी से जो दम हो तो !’  कहती थी वह छमिया बाई।

तो क्या जीजा वहां तक पहुंच गया ? उनसे मिल कर गया है ?

मनु को अब ख्याल आया कि उसने विकास को लौटा कर गल्ती की है। अभी भी वक्त था कि विकास के साथ काम पर जाया जा सकता था। वहीं किसी प्रकार पता कर लेगा कि जीजा क्यों आया था और क्यों उससे मिले बिना वापस हो गया। उसने आव देखा न ताव अलगनी से अपना कुरता और शॉल खींच किसी प्रकार अपने बदन पर डाल निकल गया था कमरे से बाहर। विकास का कमरा उसके कमरे से कुछ ही दूरी पर था। वहां पहुंचने में उसे मिनट भर भी न लगा होगा। उसने कमरे के दरवाजे पर दस्तक दी। दस्तक पर दस्तक देता था वह।

‘ क्या हुआ क्यों इतना बेचैन हो रहा है ? अभी तो पहचानने को तैयार न था और अब इतनी पहचान निकल आई तेरी मुझसे ? ’

‘ विकास, विकास मैं चलूंगा काम पर। मुझे यहां अकेला नहीं रहना है।’  उसने बड़े इसरार से कहा था।

‘ अकेला कहां हैं तू ? हें ? वो छुट्टी सांडनी तो थी तेरे साथ ? नहीं ?’

‘ अरे गोली मार उस ससुरी को। जबरदस्ती पीछे पड़ रही थी। कहती थी के भाईजी ने भेजा था उसे। भला वे क्यों भेजने लगे ?’

‘ ले, तुझे इत्ता भी नईं पता ? भाईजी का जिससे मन भर जाता है उसे वे हमको दे देते हैं। चल अच्छा बता के जमी के नहीं तुझे वो सांडनी ?’

‘ काहे जमेगी ससुरी ? मैं तो भाग आया उससे बच के किसी तरह बस् !’

‘ क्यों ? क्यों भाग आया साले ? उस बंदरिया का मूं काला करके कपड़े लत्ते छीन के भगा देना था उसे तो। मरी सबका जनम गारत करती फिरती है पचासों की जूठन।’

‘ मुझे क्या करना उससे। भाड़ में जाऐ वो। पर मुझे एक बात बता रही थी वह कि मेरा जीजा कल रात यहां आया था जब हम दोनों वो काम करने गए थे ’

मनु का ध्यान फिर उस रात और उस काम में जा अटका था जो वह भूल नहीं पा रहा था।

‘ तू पठ्ठे हमको मत चला। सच सच बता कितना गहरा उतरा ? दाई से पेट मत छुपा कहता हूं रे। एक वही तो आसानी से मिलती है अपन को। और तू बता इत्ती जल्दी कैसे निबट गया रे ? वो चाहे जो हो जाए सामने आ गए आदमी को छोड़ ही नहीं सकती !’

ही ही ही। विकास कहता था पूरी बेशर्मी से हंसते हुए कि जिस हंसी पर उसने फौरन ही रोक लगा ली थी मनु की पीठ पीछे किसीको देख कर। मनु मुड़ा तो किसी सुंदर, कमनीय सी नवयुवती को हाथ में चाय का ग्लास लिये पाया। मनु की निगाहें जैसे कहीं स्थिर सी हो कर रह गईं थीं। वे नजरें उस चेहरे से हटने को तैयार न थीं।

‘तू क्यों लाई ? मुझे बुलाना था के नहीं ? ’

नाराज सा होता था विकास उस कोमलांगी पर कि जिससे मनु की नजरें अररधम्म से जा चिपकी थीं। और ऐसी जा चिपकी थीं कि वह पलक झपकना भी भूल गया था।

‘जा, अंदर जा। खबरदार जो आगे कभी खुद ले के आई।’ विकास डांटता था उसे जो न जाने कौन थी वह उसकी ? अपलक, एकटक देखे जाता था मनु उसे, सोचते हुए कि उसे यहां कभी नहीं देखा पहले। वह गरदन नीची किये जैसी आई थी वैसी ही वापस जाने लगी।

‘अरे, बेवकूफ, चाय तो रखती जा जब ले ही आई है तो। मनु तो ठीक है कि घर का ही ठहरा, खबरदार जो और किसीके सामने बाहर आई ! ’ विकास गरजता था उस पर, उस कोमलांगी पर। कितनी असहाय सी हो आई थी वह, कितनी लाल पड़ गई थी शर्म से !

जा भीतर से एक खाली ग्लास और ले आ। मनु इसीमें से आधी ले लेगा।’ विकास कुछ नरम पड़ता कहता था उससे। जरूर उसे भी लग रहा था कि उसे इतने जोरों से डांटना अच्छा नहीं था मगर क्या करता ? जरूरी हुआ होगा तो डांटता था वह उसे।

पर वह थी कौन ?

मनु के सोचों के पंख लगे जाते थे कि इस बीच उस कोमलांगी ने खाली ग्लास ला कर रख दिया था और चुटकियों में भीतर कहीं गुम हो गई थी। विकास ने गर्मागर्म चाय को अपने ग्लास से खाली ग्लास में आधी-आधी डाल दिया और चुस्कियां लेने लगा था। अच्छी खासी सुबह चढ़ आई थी और मनु को अब तक चाय नहीं मिली थी। कैसे मिलती ? वह कोई साहेब बहादुर थोड़े ही था कि कोई चाय हाजिर करे। रसोई में समय-समय पर खुद जा कर लेना होता था चाय, नाश्ता, खाना आदि सब। वो तो भाईजी की मेहरबानी थी कि सब बना बनाया मिलता था। और कहीं होता तो नानी याद आ जाती के नहीं ?

चाय हलक में उतरी तो उसे लगा कि सुबह हो गई थी। उसने विकास की ओर देखा था जो किन्हीं सोचों में गुम लगता था। थोड़ी देर वह इधर-उधर देखता नीची नजरें किये बैठा रहा, फिर चुप से उसकी नजरें अधखुले दरवाजे के पीछे की हल्की सी हलचल का जायजा लेने लगी थीं विकास की नजरों से बच कर। मगर वहां किसीके होने की हल्की सी सरसराहट भर थी जो भी उसकी नजरों के वहां तक जाते ही गुम हो चुकी थी। अब विकास अपने सोच के बियाबान से निकल आया था पूछ रहा था उससे-

हां तो बता तू चलेगा मेरे साथ कि भाईजी को किसी और का नाम सुझाऊँ ?’

मनु समझ रहा था कि उसे भाईजी की नजरों में चढ़ने के लिये अब तो और भी जान लुटा कर काम करना होगा। वैसे भी वह होता कौन था जो उन्हें किसी काम के लिये मना करे ? उसकी हैसियत ही क्या थी ? वह तो उनका पालतू सा ही था, जैसे यहां सब थे। कहने को भाईजी उसे अपने पूर्वजों के क्षेत्र का कह कर मान देते थे, उसे और उसके साथ-साथ सब जानते थे कि वे मनचाहा काम लिये बिना किसीको कुछ नहीं देते। ठीक तो था,

काम ही तो प्यारा होता है कौन आपके चाम या कि चमड़ी से आपको चाहेगा ? काम न किया तो फिर कौन दो रोटी देगा आपको ? काम न करे तो कोई मां, बहन, बीवी, बच्चों को कुछ नहीं समझता। काम ही से सास बहू को पसंद करती है, और काम ही से बहू भी सास को दो रोटी देने के लायक समझती है। सोचता था मनु और हां में सिर हिलाता हुआ अपनी सहमति देता था अधभिड़े दरवाजे के परे चोरी से देखता हुआ। विकास ने उठ कर दरवाजे को पूरा बंद कर दिया था। शायद या बल्कि निःसंदेह वह मनु की भटकती हुई निगाह के उद्येश्य को जान गया था।

मनु ने भी अपनी निगाहों को भरसक वहां से हटा लिया था। इस भरपूर कोशिश में उसका दायां हाथ कुर्सी के हत्थे पर बजे जाता था किसी फिल्मी धुन पर। वह समझ गया था कि हृदय के खाली पड़े कोने में कोई बिना इजाजत के आ बसा है।

कौन आ बसा है ? कैसे पूछे ? कि कौन ?

ये मेरी छोटी बहन है। आज ही सुबह आई है गांव से। मना किया था घर के लोगों को यहां आने को मगर मां की तबीयत खराब है सो सूचना देने खुद आ गईं। अब, तू यहां की तो जानता ही है, भाईजी छोड़ें तब तो जाऊँ !’ कहता था विकास कुछ-कुछ उससे, कुछ-कुछ अपने आप से मानो।

‘बता दे भाईजी को कि मां बिमार है। जाना जरूरी है, मना क्यों करंगे ?’

‘तू अभी की उनकी हालत नहीं देख रहा ? अभी तो वे मुझे छुट्टी नहीं देंगे बता चुके हैं। जब तक ये काम नहीं हो जाता मुझे यहां से यमराज भी नहीं बुला सकता। और फिर, मैं चाहे कित्ता ही उनके मनमाफिक काम करता रहूं। जिस दिन मैं काम से जरा भी हटा कि कोई दूसरा उनके मन चढ़ा। कित्ता ही अच्छा काम कर लो, जिस पल बेकाम के समझे गए उसी पल उखाड़ फेंकेंगे वे।’

कितने मरे मन से वहां की असलियत को फुसफुसाते हुए से स्वर में बयान करता था विकास, भाई जी का खासम-खास सेवक। उनके हर राज को जानने वाला। उनका हरदम अजीज, और खुद इतना लाचार !

‘आप कहो तो मैं उनके हाथ जोड़ कहूं कि मां बीमार है ’

कहती अंदर से थोड़ा बाहर झांकती थी विकास की बहन, उसके इतना कहते ही विकास गुस्से से जैसे पागल ही हो गया था। वह तो बहन की बात पूरी होने के पहले ही कुछ दबे हुए से स्वरों में भी चिल्ला ही पड़ा था जैसे -

‘खबरदार, जो उधर जाने का नाम लिया ! तेरी टांगें तोड़ दूंगा। समझी ? कलमुंही समझ नहीं रही कि भाईजी कित्ते खतरनाक हैं तेरे जैसी के लिये ! अब ये बात बतानी जरूरी है ? ’

वह फूल सा सुंदर चेहरा जर्द पड़ गया था, उसने अपने आप को फिर से भीतर छुपा लिया था। विकास गुस्से में या कि बेबसी में थरथर कांप रहा था कुछ पलों के लिये। मनु ने उठ उसे बांह से संभाल कर कुछ शांत किया था। उसने महसूस किया था कि विकास की सांसे धौंकनी की तरह चल रही थीं। वह कह रहा था-

‘देखी नहीं पूनम, सोनिका, हें ? ऐसी ही बना कर छोड़ देंगे मरी को !’

न अंदर से कोई आवाज आती थी न इधर ही कोई आवाज थी कुछ देर को।

कुछ देर के तैश के बाद विकास एक लंबी सांस ले कर उठ लिया था चुपचाप। मनु भी उसके पीछे-पीछे। बाहर आ कर विकास ने दरवाजा बाहर से बंद कर दिया और मनु की ओर देखते हुए बेहद फुसफुसा कर कहा-

किसीको पता नहीं है कि ये आई हुई है। मैंने तो भाईजी को बताया तक नहीं है कि मेरी एक छोटी बहन भी है। उनका क्या भरोसा, कसम से कोई मेरी बहन की ओर देखेगा तो मैं नहीं जानता कि मैं उसका या अपने आप का क्या करूंगा !’

मनु सोचता था वह ठीक ही तो था। मगर साथ ही उसे डर भी लगता था भाईजी के बारे में ये सब जान कर। वह तो उन्हें बहुत ही अच्छे इंसान के रूप में देखता था। कल रात के वाकये को अब भी वह एक बुरे सपने के रूप में लेने को आतुर था। मगर अफसोस कि वह सब सच लगने ही लगा था। कब तक सच से नजरें फेरे रहेगा ? जितनी जल्दी सच को सच् समझ लिया जाए उतना ही अच्छा होता है कभी कभी, बल्कि अक्सर ही। अब,

कि जब सच् सामने आए जाता था तो अजब डर सा लगता था उसे कि कहां, कैसे फंस गया वह यहां आ कर। वह तो कभी भूल से भी यह सब करने तो नहीं ही आया था। अपने तई वो एक ईमानदार और अच्छे आदमी की जिंदगी जीना चाहता था। एक के बाद एक घटनाऐं इस प्रकार घटती गईं कि वह तो चक्रव्यूह में ही उलझता जाता था जैसे।

अब क्या करे ?

‘जा तू भाईजी को बता दे कि तू मेरे साथ है। फिर निकलते हैं अपन। इस बेवकूफ लड़की को भी घर छोड़ते चलेंगे।’  विकास फिर कुछ मनु से तो कुछ अपने आप से बोलता था जैसे। मनु मुंह बाए सुनता था।

‘और हां, यहां किसीसे इसका जिक्र मत करना कि ये यहां आई हुई है।’  विकास का इसरार न समझे इतना बौड़म नहीं था मनु। उसने उसके कंधे को जरा थपथपा कर निश्चिंत करते हुए पूछा-

‘लेकिन काम क्या है ? ’  विकास कोई जवाब दे इसके पहले ही कहता था -

‘कल जैसा काम अब मुझसे नहीं बनेगा रे भैया !’  मनु ने पूरी हिम्मत करते हुए कहा था।

‘अरे, अभी थोड़ा रूक जा, फिर देखना पईसा मिलेगा तो तू दौड़-दौड़ के करेगा सब। जा अभी जा के मिल ले। वईसा कोई काम नहीं है रे। पूछ-ताछ का, पतासाजी का काम है, अच्छा है थोड़ा बाहर जा के घूमना-फिरना होगा। यहां से निकलेंगे तो अच्छा ही लगेगा। जा तू जल्दी जा फिर वो बाहर जाने वाले हैं चुनाव प्रचार में।’  एक के बाद एक पहेली सी मनु के सामने बनी हुई थी।

’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’

5

लड़खड़ाते कदम और डगमगाता मन लिये वह जब भाईजी के सामने हाजिर हुआ तो उसने देखा वे कहीं निकलने को तैयार थे। मनु को आया जानकर उससे मिलने रूक गए थे।

‘ठीक है सब ? ’

पूछते थे वे जिन्हें कल तक वह ईश्वर का अवतार ही समझता, उनसे सम्मानजनक रूप से बेतहाशा खौफ खाता आया था। आज वे उसे शैतानी ताकतों के एक पुरोधा से ही लगे थे। उसके मन में एक वितृष्णा सी उभरती थी, जाने अपने अकिंचन होने को ले कर या जाने भाई जी के इस नए रूप को ले कर। फिर भी, सारी वितृष्णा के बावजूद उन्हें देख उसकी सिट्टी-पिट्टी गुम हो ली थी। जीभ तालू से जा चिपकी थी। कुछ जवाब देने के नाम पर वो तो मुंडी भी न हिला पाया था बेबस का बेबस। वे ही कहते थे-

‘जा विकास के साथ। उसे सब समझा दिया है। जैसा वो कहे वैसा करना। उसके साथ रहना। उस पर निगाह रखना। हें ? तेरे ईनाम की तू चिंता मत करना। और हां, तेरे जीजा का मैंने पक्का इलाज कर दिया समझ ले। वो और उसका परिवार अब बिल्कुल सीधा न हो जाए अल्ला की गाय की तरह, तो तू कहना ! समझ ले कि तेरा काम हो गया। जा तू मेरा काम करके आ। और हां रूक, ये रख ले - - -’  कहते हुए उन्होंने अपने सामने रखे ब्रीफकेस में हाथ डाला और नोटों की एक पूरी की पूरी गड्डी अपने सामने रखी चंदन की लकड़ी की बेहतरीन नक्काशीदार सेंटर टेबल पर उसके लिये उछाल दी थी वहां मौजूद सबके सामने।

सब नीचे देखते थे। किसी में भाईजी की ओर देखने का साहस न था। मनु नोटों को लेने के लिये हां ना कुछ कहे कि इसके पहले ही भाईजी अपने कारवां के साथ फुर्र हो लिये थे। ‘चलो’  उनके एक आदेश पर सारी उनकी टोली चटपट गायब !

मनु ने नीची नजरों से ही देखा था कि उनके साथ कोई एक महिला भी थी जिसने शॉल से अपना चेहरा ऐसे ढंक रखा था कि उसे पहचानना मुश्किल था। काजल की कोठरी में वह स्याणी अपना काला मुंह छिपाती थी ! अब वह यहां के रंग-ढंग बहुत कुछ समझने लगा था इस कारण उक्त महिला का उनके साथ जाने का उद्येश्य समझ में आना स्वाभाविक था। उसे बड़ा ही गैर शालीन सा महसूस हो रहा था। अजीब बात थी कि गंदले वे लोग थे और शर्म मनु को आ रही थी। वास्तव में उसने कभी पहले ये सब गंदलापन देखना तो दूर कभी कहीं सोचा भी नहीं था। सो उसे हैरत होती थी कि कितनी आसानी से लोग गंदगी में कीड़ों के समान जी लेते हैं !

उसे अजब हिकारत सी अपने पर भी आती थी कि अनचाहे ही वह भी कैसे इस गंदगी का एक हिस्सा बने जाता था ! क्या जवाब देगा अपनी बहन को वह जो कभी उसे पता चला कि वह यहां ऐसे घिनौने कामों में लग गया है ! वह तो यह सब करने नहीं आया था यहां ! वह तो अपने कुकर्मी जीजा के जुल्मों से अपनी बहन व भांजों को बचाने की फरियाद ले के आया था। आश्वासन मिला और करने को काम भी मिल गया तो वह उन आश्वासनों के पूरे होने की उमीद में काम-काज करते यहीं का हो लिया था। भाईजी अब फिर उसे आश्वासन दे गए थे।

उसे याद आ रहा था कभी जब उसके पिता जिंदा थे, गांव से एक बार वे उसे किसी मेले में ले गए थे जहां उसने फिल्म देखी थी जिसमें हीरो अमिताभ कहता था -

‘सेठ मैं फेंके हुए रूपये नहीं लेता।’

कितनी तालियां बजी थीं हीरो के उस डॉयलाग पर ! आज अगर मनु कह पाता कि मैं ऐसे फेंके हुए पैसे नहीं लेता तो उसकी तो एक-एक हड्डी ही न बजा दी जाती ? फिल्म में हीरो कह सकता है, मनु तो इस दुनिया में एक आम से भी आम आदमी था, एक निहायत ही गरीब और मजबूर आदमी कि जिसकी शालीनता, जिसकी पसंद-नापसंद के क्या मायने ? जिसकी नैतिकता और शराफत की क्या औकात ? यदि वो ये सब चोंचले अपना कर जीना चाहे तो कितने पल जी लेगा ? किसी भी पल इस सबके निमित्त उसे अपनी व अपने परिजनों की इज्जत व जान गंवानी पड़ सकती थी।

उसे मन ही मन विचार आया कि उसकी अपनी क्या इज्जत ? पैसा और रसूखदार ही तो थे इज्जत के हकदार ! आदमी की भीतरी अच्छाई और भलमनसाहत के कोई मायने रह भी गए थे ?

जाने कब उसने यंत्रवत् वो नोटों की गड्डी उठा ली थी। अनगिनत सोच मन में लिये मनु वहां काठ के पुतले की तरह खड़ा रह गया था नोटों की उस गड्डी को थामे। उसने अपनी जिंदगी में कभी इतने नोट नहीं देखे थे। काश, कि आज विकास के साथ जाना नहीं होता तो वह आराम से इन नोटों को देखता, उन्हें बार-बार गिनता अकेलेपन में और फटाफट् दौड़ लगाने की जुगत में रहता अपनों के बीच वे सारे रूपये ले कर। सच् ही कहता था विकास कि जब पईसा मिलेगा तो

उसके मन में धुकधुकी सी भी हो रही थी कि आखिर वह क्या करे इतने सारे पैसे का ? यहां तो कोई उसका नहीं जिसे वो ये पैसा थमा दे। कहां रखेगा वो इस पैसे को क्योंकि अभी तो विकास के साथ निकलना था। उसे पता था कि जब किसीको विकास या उसके जैसे अनुभवी के साथ भेजा जाता था तो आवश्यक पैसा दे दिला कर ही भेजा जाता था। इसका आशय था कि ये नोट केवल उसीके हैं। उसे भाईजी ने इतने सारे लोगों के बीच ये पैसा सिर्फ उसीके लिये दिया है। पर वो क्या करे इस पैसे का कि जब उसके अपने ही उससे इतनी दूर थे ? पैसा पास में हो और कोई अपना पास में ना हो, इससे बड़ी लाचारी नहीं कोई। वह खड़ा सोचता था।

‘चलेगा कि उड़ती धूल के एक-एक कण को गिनेगा अभी।’

विकास उसे लिवाने आ गया था पीछे। उसने बड़ी सफाई से नोटों की गड्डी को शॉल में समेट कर छुपा सा लिया था विकास की नजरों से बचाने को। कौन जाने कौन, क्या, कैसा इंसान हो। दिखने में तो सभी अच्छे ही होते हैं। मन की वे ही जानें अपने।

‘बस् आ रहा हूं मैं। अपना थोड़ा सामान तो ले लूं।’  कहता वह अपने कमरे की ओर लगभग् दौड़ सा गया था। कमरे में आ के देखा था पूनम कभी की जा चुकी थी। कमरा अस्त-व्यस्त था। उसने अपने कुछ कपड़े और एक-दो जरूरी सामान ले कर नोटों की गड्डी को एक गोपनीय जगह पर छुपा कर ताला लगा दिया था। उसी तरह लगभग दौड़ते हुए कमरे की चाबी संभालता हुआ वह वापस विकास के कमरे की ओर आ गया था जहां विकास अब कुछ निश्चिंत सा लग रहा था कि भाईजी जा चुके थे।

अपन ऐसा करते हैं कि इसे भी साथ लिये चलते हैं मेरी बहन को। मैं रास्ते में मां से भी मिल लूंगा और इसे घर भी छोड़ दूंगा। तू भी मेरा घर देख ले। कभी जरूरत पड़े तो अपन सबको एक हो के रहना चाहिये के नहीं ?’  कहता उससे समर्थन मांगता था विकास।

मनु की हालत तो थी कि अंधा क्या चाहे दो आंखें !

घर जा कर मां को क्या जवाब दूंगा। वो इसके शादी-ब्याह की चिंता में आधी हुई जाती है। कहीं इसका रिश्ता हो जाता तो मेरी चिंता तो मिटती।’  कहता था विकास अपना सामान रखता हुआ। जल्दी जल्दी ताला लगा कर वे लोग अंदर बने पोर्च की ओर आऐ कि जहां उनके लिये एक अन्य स्टेशन वेगन तैयार खड़ी थी।

मनु प्रश्नसूचक नजरों से विकास को देखता था कि उसने अपनी बहन को तो अंदर ही बंद कर दिया। मगर मनु को बैठने का इशारा कर विकास ने तो अपना सामान डिक्की में पटक स्टेशनवेगन स्टार्ट की और फिर वेगन को रिवर्स करके अपने कमरे के पीछे हलके से ले गया था जहां पीछे के कमरे का ताला लगा कर दीवार की आड़ में मानो इंतजार में ही खड़ी थी उसकी बहन अपने नाममात्र सामान के साथ। वह फौरन आ गई थी। ओह् ! समझा !

अब, मनु की उड़ी-उड़ी नजरें फिर उसका पीछा करने को बेताब थीं। लेकिन उसने महसूस किया था कि वह उसकी ओर बिल्कुल भी नहीं देख रही थी। देख भी कैसे सकती थी ? विकास जैसे सख्त दिल भाई के रहते वह कहां किधर देख सकती थी।

विकास को ऐसे कामों की आदत थी। सो वह फटाफट् सब किये ले रहा था जबकि मनु अभी नौसिखिया ही तो था जिसे सिखाने की जिम्मेदारी विकास पर आई थी। भाईजी ने देख लिया था कि मनु में स्वामीभक्ति ही स्वामीभक्ति भरी पड़ी थी। बस् फिर क्या था ? उन्हें लगता था कि उसे अब बहुत आगे जाना था अगर वह यहां के रंग-ढंग समझ गया तो। और वे देख चुके थे कि वह आखिर सीखे ले ही रहा था। इतना बड़ा काम कर आया था और पूरा होश में था, यानि स्वामीभक्त सेवकों की गिनती में एक और नाम शामिल हुआ।

ऐसा न था कि भाईजी को सेवकों की कोई कमी थी, कमी थी तो स्वामीभक्त सेवकों की। एक भी ऐसा आता था तो वे बड़े प्रसन्न होते थे। इसीलिये वे उस पर नोटों की वह पूरी गड्डी लुटा गए थे। इन्हीं लोगों के सहारे तो आती है ये माया। थोड़ी इन पर भी लुटा दी जाए तो कहते हैं कि रूपया रूपये को खींचता है।

अभी उन्हें अनेक जरूरी काम निबटाने थे, उस पर तुर्रा ये कि चुनाव तथा दीवाली आजू-बाजू आ कर बैठ गए थे तो दोनों ही सफलतापूर्वक संपन्न करने का एक बड़ा उत्तरदायित्व आ पड़ा था। और, परिस्थितियां यूं हो गईं थीं कि इधर एकादशी का वह दिन समीप आता था जिस दिन उन्हें अपनी धर्मपत्नी के साथ जनदर्शन के लिये बैठना होगा और उधर ये घटना घटित हो गई। उन्हें पूरा यकीन था कि विकास और मनु निश्चित समय यानि एकादशी के पूर्व ही अपना काम करके आ जाऐंगे।

‘जो भी हो, जैसे भी हो, जहां भी हो, मेरे पास ले आ पकड़ कर।’  वे विकास को समझा गए थे। सो, विकास थोड़ा समझाया अधिक समझने वालों में से था। चल पड़ा था मनु को साथ ले कर अपनी यात्रा पर अपनी बहन को भी साथ ले कर।

जब वे लोग निकले तो वहां कोई न था क्योंकि हवेली के उस बियाबान-सुनसान से में बने इस पोर्च का ऐसे ही अभियानों के लिये उपयोग किया जाता था। उनके इतने बड़े निवास में वैसे तो बहुत सी जगहें, बहुत से कक्ष ऐसे थे जो खाली पड़े रहते थे, जिनमें महीनों तक कोई जाता न था, मगर इस पोर्च तथा इसके आसपास तो और भी निर्जन सा रहता था। केवल काम के आदमियों को ही यहां आने की अनुमति थी। वे भी फटाफट् काम करते और फौरन इधर-उधर हो लेते थे। उन्हें यहां अनावश्यक रूकना मना था।

कल रात को भी मनु यहां आ चुका था, कल का सब याद कर उसका जी कैसा-कैसा तो होता था मगर आज कई बातें थीं जो उसके उचटते मन को संभाले लेती थीं। सबसे बढ़ कर थी विकास की बहन की उपस्थिति जो उसके रंगहीन, बेमजा से जीवन में उमीदों का एक नया ही रंग भर रही थी।

गांव से आने के बाद आज पहली बार उसमें जीने की एक उमंग जागती लगी थी। इतने दिनों में पहली बार लगा था कि जीवन में कुछ रस बाकी बचा है जो उसे बुला रहा है। जीवन इतना नीरस भी नहीं था जितना वह समझ बैठा था। उसके दिल की धड़कनें बढ़ने लगती थीं जब वह उस कोमलांगी के बारे में सोचता था। बल्कि उसे देखने के बाद से वह तो लगातार उसके बारे में ही सोचे जा रहा था। नहीं ?

मगर आखिर वो और क्या करे ?

वह थी ही ऐसी कि उसके हृदय के मकान में एक तो उससे बिना पूछे आ गई थी, दूजे, आ कर जाने का नाम नहीं लेती थी !

उसे इतने दिनों में आज पहली बार महसूस हुआ था कि सच् ! वह भी जीना चाहता था ! कहां खो गई थी यह जीजिविषा इतने दिनों तक ? यह बात और थी कि उसके दिलो-दिमाग से अभी तक कल रात की घटना की याद न भूलती थी। कल जिस रास्ते पर वे लोग रात को निकले थे, उसी रास्ते पर वे आज दिन की रौशनी में कहीं जा रहे थे। बैठने के पहले उसने चोर निगाहों से स्टेशनवेगन के पीछे वाले हिस्से में झांका था, डिक्की में झांका था कि कहीं फिर कोई बोरा तो वहां न था ? वहां अब कुछ न था सिवाय उनके अपने सामान के और, और एक झोला था जो विकास की बहन का था जिसे वह बड़े सार-संभाल कर लिये बैठी थी।

‘रख दे पीछे इसे भी।’  विकास ने उसे कहा था तो भी उसने उसे अपने से अलग नहीं किया था।

‘क्या है इसमें जो ऐसे चिपकाए बैठी है ?’  विकास ने घुड़का था तो वह बड़े धीमे से बोली थी-

मेरी किताबें हैं।’

‘ओहो, तेरा ये किताबों का शौक कब जाएगा ? जहां जाती है किताबें साथ ले जाती है। पढ़-लिख कर बनेगी कलट्टर !’

और विकास ने चाबी घुमा कर गाड़ी को सीधे ही फटाफट गीयर पर गीयर बदलते हुए एक्सीलरेटर पर पैर का दबाव बढ़ा कर स्टीयरिंग घुमा दिया था उधर ही जिधर वे लोग रात को हो आए थे। अब वे दोनों कुछ देर को चुप थे।

कितनी अजीब सी चुप्पी थी उन तीनों के बीच। तब केवल इंजन की घरघराहट और बहती हवा की गाड़ी की स्पीड से सुनाई पड़ती आवाज के अलावा कोई और शोर न था। विकास मानो तेज गति से वहां से निकल जाना चाहता था। वह ऐसे दौड़ा रहा था जैसे किसी से पीछा छुड़ाना हो। निःसंदेह वह भी किन्हीं भयावह, डरावने विचारों से भाग रहा था। भले ही वह ऐसे वातावरण में इस प्रकार के कामों में अभ्यस्त हो चुका था पर आखिर था तो इंसान ही, एक ऐसा इंसान कि जिसका अपना एक परिवार था जिसकी वह चिंता करता था और वह परिवार भी उसकी चिंता करता था। इसीलिये कई दिनों से कोई खबर न थी उसकी तो उसकी मां ने उसकी बहन को भेजा था अपनी बीमारी का झूठा बहाना बना कर।

मगर बेटी को क्यों भेजा ?

क्या ये लोग भी ऐसे-वैसे ही हैं ? सोचता था मनु अपने ही विचारों में गुम। उस सुनसान क्षेत्र में चले जा रहे थे वे जिधर भाईजी के खेत-खलिहान, बाग-बगीचों आदि के लंबे-लंबे विस्तार ही थे। अब नजदीक आती जा रही थी वह एक छोटी पहाड़ी कि जिसके अधबीच में बनी हुई थी वह भुतहा कोठी जिसके लिये कहा जाता था कि कभी किसी जमाने में वहां अपराधियों को फांसी दी जाती थी।

गांव वालों में अनेक सच्ची-झूठी कहानियां इस कोठी के बारे में बिखरी हुई थीं जिनमें अधिकांश फांसी पाऐ व्यक्तियों के भटकते रहने वाले भूतों को ले कर थीं। राम जाने इनमें से कितनी सच थीं और कितनी निरी झूठी। लेकिन इन कहानियों के पात्र रात होते ही डरावने से लगने लगते थे इसलिये दोपहर ढलते-ढलते ही चरवाहे भी इस कोठी की ओर से वापस हो लिया करते थे, शाम या रात को तो प्रायः अब कोई नहीं ही जाता था वहां। वह सूनी कोठी या गढ़ी जो कभी दूर से मनु का ध्यान खींचती थी आज उसे इतने पास से देखना होगा ?

‘ऐसा करते हैं क्षमा को पहले घर छोड़ देते हैं फिर निबटाते हैं सब।’

उस कोठी के ही आजू-बाजू बसा था विकास का गांव जहां कि उसकी कुछ एकड़ जमीन थी जिस पर खेती-किसानी करते थे वे लोग। वह बीच-बीच में बताता जाता था जहां आवश्यक लगता था, आसपास की भरसक जानकारी दिये देता था वह मगर जो जानकारी मनु को चाहिये थी वह न देता था। इतनी देर में पहली बार उसे उसकी बहन का नाम पता चल पाया था। क्षमा, वाह कितना अच्छा नाम है ! कितनी गरिमा है इस नाम में ! सोचते हुए उसने आसपास गौर से देखा था उसी कल वाली राह को।

रात को जो सफर इतना भयावह लग रहा था अब दिन में वह उतना ही सरस लगता था। मनु को मन ही मन पता था कि यह सरसता किसी और कारण से थी। वह चोरी-चोरी किसी न किसी बहाने से विकास की नजरें बचा कर उधर एक नजर मार लेता था जिधर क्षमा बैठी हुई थी। उसने पाया था कि अब वह भी उसे थोड़ा तकती थी फिर गरदन घुमा नजरें नीची कर लेती थी। क्या उधर भी कुछ ऐसी ही धुकधुकी हो रही होगी ? कैसे पता चले ? और पता चल भी गया तो विकास क्या सोचेगा ?

आखिर उसकी सगी बहन है वह !

तो ? वही कौन कुछ गलत करने जा रहा था ? एक मुहब्बत का हल्का सा ज्वार उठने को था, लहरें यदि सहारा नहीं देंगी तो आप ही आप बिला जाएगा कहीं। ठीक ही तो। मगर,

उसे अपने जीवन में जाने क्यूं ऐसा पहली बार लगता था कि इस ज्वार को भरपूर उठने देना चाहिये ? क्या करे वह इसके लिये ? उसके दिमाग में विचारों की रेलमपेल मची थी। एक विचार जाता था तो चार और न जाने कहां से कैसे तो बगटुट चले आते थे।

‘घर से कोई और आ जाता, क्षमा को क्यों भेजा अकेले ?’  अपने मन में काफी देर से उठ रहे सवाल को और अधिक न दबा सका था मनु इसलिये पूछ ही लिया था उसने चोर नजर से पीछे देखते हुए।

‘यही तो मैं भी कहता हूं। मां को क्या पड़ी थी ? कहीं कुछ चिंता की बात तो नहीं है ? यही जानने आया हूं।’  विकास के माथे पर चिंता की लकीरें गहरी हो गईं थीं। इस बीच उसने शायद ही एक्सीलरेटर से पांव का दबाव कम किया हो। वह सनन दौड़ाए जाता था गाड़ी उस सूनी-सपाट सड़क पर। आनन-फानन में गढ़ी आने में थी। मगर उस ओर न जा कर उसने अपने गांव जाने वाली कच्ची सड़क पर डाल दी थी गाड़ी। धूल उड़ाती गाड़ी जब गांव पहुंची तो सुबह पक गई थी। यानि घरों में, खेतों में काम शुरू हो गया था। बिना कहीं रूके विकास ने कुछ गलियों से गुजर कर एक बड़े से पीपल के वृक्ष के कुछ दूर बने मकान के पास रोक दी थी बिना इंजन बंद किये -

‘उतर, मुझे ज्यादे समय नहीं है। एकादशी से पहले वापस भी आना है।’  न जाने विकास क्षमा से कहता था या मनु से।

क्षमा अपना सामान ले कर उतरी और एक बार मनु की ओर देखती हुई घर की ओर चल दी थी।

तू नहीं उतरेगा ? ’ पूछता था वह मनु से जो कि उतर कर सब देख-भाल कर लेने का पहले से ही इच्छुक था। मनु फौरन उतर गया मानो विकास की आज्ञा पालन को मरा जा रहा हो। वैसे वह विकास के अंडर काम सीख रहा था तो उसकी आज्ञा का पालन तो उसे करना ही था।

’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’

6

वह घर गांव से काफी कुछ बाहर की ओर बना था। मनु ने गाड़ी से उतर कर चारों और नजरें डालीं तो मकान के एक ओर खेतों आदि का विस्तार था तो दूसरी ओर दिखता था उसी पहाड़ी का अगला सिरा और उस पर तनी हुई उसी भुतहा गढ़ी का बाऐं तरफ वाला हिस्सा जिसे उसने इस तरफ से आज पहली बार देखा था। वह गढ़ी यहां से बेहद पास दीख रही थी मानो अभी ही पैदल चल कर जा पहुंचेंगे वहां। वहां से कालभैरव मंदिर का बुर्ज और उस पर फहराता झंडा दीखता था।

मनु को पिछली रात का वो वाकया याद आता था तो एक पल को उसे झुरझुरी सी हो आती थी। वह पलकें झपका कर भूलने की कोशिश करता था।

दूर जहां तक नजर जाती थी गढ़ी और उसके ऊपर तना सघन आसमान देख वह हैरत में भर जाता था कि

क्या सच ही वह और विकास उस रात वहां आए थे ? या कि उसने एक सपना ही देखा था वीभत्स ? जो हो,

गढ़ी उसका बहुत ध्यान खींच रही थी। उसके खंडहर बता रहे थे कि कभी वहां खासी रौनक रही होगी। न जाने क्या कैसे घटित हुआ होगा कि आज वह वीरान हो अबूझा मौन झेलती हताश सी अकेली खड़ी थी ! उसके अनेक बुर्जों पर घास उग आई थी, ईंटें निकल गईं थीं, रंग-रौगन उड़ गया था, प्लास्टर चूना आदि अनेक जगहों से उखड़ चुका था।

मकान के भीतरी क्षेत्र में गाड़ी ला कर विकास ने इंजन बंद कर दिया था। किसी गाड़ी को आया जान कर अंदर से एक वृद्धा निकल कर आई और ज्योंहि विकास को देखा, वह दौड़ कर उसकी ओर बढ़ी, विकास भी गाड़ी बंद कर उतरा और वृद्धा के कदमों में झुक गया, पांव छू कर गले लग गया था।

मां बेटे का यह भावपूर्ण मिलन देख मनु की आंखें नम हो आईं थीं। उसकी तो मां बचपन में ही नहीं रही थी। वह कैसे जाने कि क्या होता है मां का प्यार।

इस बीच क्षमा ने दौड़ कर एक खाट बिछा दी थी। बड़ी सुघड़ता से अब वह उस पर एक दरी बिछाने जा रही थी। उसकी भागदौड़ देख मनु को अच्छा लग रहा था। विकास की बलैंया लेती, उसे असीसती विकास की मां का ध्यान अब मनु की ओर गया था जो न कब से मां-बेटे के उस अद्भुद मिलाप को भाव-विभोर सा देखे जा रहा था। मनु ने भी झट से पा लागी कहते चरण छुए थे। आशीर्वादों का अंबार अब उस पर भी आ लदा था। गद्गद् सा हो गया था मनु तो।

यहां आते समय रास्ते में तो वह सोचता बैठा था कि न जाने कैसे खराब से लोग होंगे विकास के परिवार वाले कि जिन्होंने भाईजी के बारे में सब कुछ जानते-बूझते हुए भी अपनी जवान लड़की को वहां अकेले भेज दिया था। अब उसका वह विचार उड़न छू हो गया था। कैसी ममतामयी थीं विकास की मां जो न जाने कितनी-कितनी चिंता करती क्या-क्या न कहती थीं उसे। इस सबका सार यही समझ में आ रहा था मनु के कि वे विकास को अब और वहां नहीं रहने देना चाहती थीं। बस् बहुत हुआ। अब आ जा वापस उनकी नौकरी छोड़ के। अपनी जो भी है थोड़ी सी ही सही, वही खेती संभाल। कैसी नौकरी कि जिसमें इतने दिनों तक कोई छुट्टी नहीं मिलती ! कब तक कुंआरी रखेगा बहन को और कब तक खुद भी ऐसे ही बैठा रहेगा ? न हुआ तो वे खुद ही भाईजी से अरज करने चल देतीं।

मगर, उन्हें क्या पता था कि वे कैसे खतरनाक थे ? ओहोहो, मनु घबराता था। ना ना ना, वहां कभी नहीं आना !

लेकिन विकास ही जानता था कि भाईजी की नौकरी में जो एक बार आ लगा बस् फिर तो वही होगा जो कहते थे न बड़े-बूढ़े लड़की के ब्याह के बाद उसे बिदा करते हुए कि डोली में बैठ कर जा रही है याद रखना कि तेरी अर्थी ही उठे ससुराल से ! ठीक वही सच था भाईजी की देहलीज पर आ कर उनके खास सेवकों के लिये।

मनु देख रहा था चुपचाप कि विकास ने बड़ी तसल्ली से मां को इधर-उधर का न जाने क्या क्या समझाया, बहन के लिये अच्छे लड़के देखने को कहा, जिसे सुन कर क्षमा शरमा कर भीतर चली गई थी और जब विकास ने कहा कि स्वयं के लिये उसे मां की पसंद की ही लड़की चाहिये थी मगर अभी कुछ साल और नहीं। तो, क्षमा वापस आ गई और भाई से झूठमूठ लड़ती-झगड़ती थी कि मां नहीं बल्कि क्षमा स्वयं अपनी भाभी का चुनाव करेगी।

‘अच्छा बाबा, जो करना हो कर लेना, जिसे चाहो पसंद कर लेना और तुम लोग ही रख लेना उसे। क्यों ? क्योंकि भाईजी के महल में दम मारने की फुरसत नहीं है न् !’  कहता हंसता विकास मनु की ओर देखता था समर्थन के लिये। जहां बात फुरसत पर आई कि फिर मां और क्षमा उसे यह नौकरी छोड़ने की कहने लगी थीं। ओह् !

बीच-बीच में वे दोनों कितनी जल्दी-जल्दी उनके लिये चाय-नाश्ता बना लाई थीं जिसे देख मनु को तो न जाने कितनी भूख लग आई थी। कितने दिनों बाद उसे घर का कुछ नसीब हुआ था।

वहां थोड़ा रूक कर जल्दी ही वे लोग निकल ही पड़े थे मां और क्षमा के लाख मनुहार करने, नाराजी दिखाने के बावजूद। अब तक मनु के मन की मुराद पूरी हो गई थी। उसने क्षमा के दिल की बात जाननी चाही थी जो उसे सीधे-सीधे तो पता नहीं चली मगर यह साफ जाहिर हो गया था उस पर कि आग दोनों तरफ थी बराबर लगी हुई ! यहां उसका चक्कर चला तो कुछ सफलता की उमीद हो सकती थी।

उस पर अब प्यार का बुखार चढ़ने को बेताब था मगर वह भी अब समझने लगा था भाई जी के खौफ को। समझ में आती थी उसके कि क्यों भाईजी के सेवकों में सब गुमसुम, चुपचाप अपने काम निबटाते रहते थे। पैसा हालांकि वे भरपूर पाते थे मगर हमेशा जान का, इज्जत का खौफ उनके दिलों में बराबर बना रहता था। क्यों वे लोग अपने परिजनों को खास कर युवा महिलाओं को वहां नहीं रखते थे। कौन जाने कब भाईजी के गुस्से या कि हवस का शिकार होना पड़ जाऐ ! अथवा, कौन जाने कब भाईजी उठवा दें भरी मेहफिल से ! उनका स्वभाव था कि जो काम उन्होंने दिया है वह हर हाल में पूरा होना ही चाहिये। वे अपने खास सेवकों से ना सुनने के आदी नहीं थे। जो कुछ वे चाहते थे वे करवा ही लेते थे। सेवकों की क्या कहिये, भाईजी तो अपने स्वजनों को भी इसी प्रकार रखते थे कि जो वे कहें हर हाल में उनके अपनों को करना ही होगा ! इसीलिये तो उन्होंने बच्चों को बोर्डिंग भेज दिया था और भाभीजी को भी नहीं बख्शा !

क्षमा उन्हें दूर तक जाते हुए देखती रही थी। इसी प्रकार मनु भी जहां तक संभव था किसी न किसी बहाने से जहां तक संभव होता था पीछे देखने से बाज न आया था। अंततः गाड़ी ऐसे मोड़ पर आ गई थी कि पीछे देखने का कोई कारण न बचा था। अब विकास ने गाड़ी एक बड़े शहर की दिशा में डाल दी थी जो यहां से कुछेक घंटों की दूरी पर ही था।

‘यहां क्या करेंगे ?’  मनु पूछता था। उसे लगता था कि बस् वे चलते ही जाऐं। कभी मंजिल न आए कि जिस पर पहुंच कर कुछ गलत करने की नौबत से वह बचा रहे।

‘क्या करना क्या है अपन को ? बता तो सही।’

विकास ने जो बताया सुन कर मनु के रौंगटे खड़े हो गए थे। कितने तिलिस्मी पेंच भरे थे भाईजी के महल के भीतर ! उसकी धड़कनें एकबारगी तो बेतहाशा बढ़ ही गईं थीं। फिर हालात से समझौता कर लेने की उसकी मजबूरी के चलते वे धड़कनें सामान्य हो ही जानी थीं। क्या करे वह ? किस गोरखधंधे में उलझता जाता था ? कभी निकल भी पाएगा इससे बाहर ? या कि जैसी विकास की मान्यता थी कि जो आता है वह फंस कर ही रह जाता है यहां के मकड़जाल में, वह भी ऐसे ही फंसा रह जाएगा यहां ? वो ज्यादा तो पढ़ा-लिखा नहीं था, गांव में जितनी कक्षा थीं उतना ही किसी तरह पास कर लिया था उसने। किसी कक्षा में पढ़ी कबीर की कोई साखी याद आती थी उसे बरबस अपने लिये-

‘माखी गुड़ में गड़ी रहे पंख रहयो लिपटाय,

हाथ मले और सिर धुने लालच बुरी बलाय ’

कितना ठीक उतरता था उस पर कबीर का कहा हुआ एक-एक शब्द।

कुछ देर की चुप्पी के बाद वह भाईजी के साथ उस शॉल ओढ़े महिला की चर्चा मनु से करता अपना दिल बहलाता था। नौकरों, सेवकों का यह एक सबसे प्रिय विषय हुआ करता है मालिकों के रहस्यों की रसभरी चर्चा। या यूं भी कह सकते हैं कि उनके रस भरे रहस्यों की चटखारेदार अनवरत चर्चा। कुछ यही करते थे वे दोनों भी तब अपने सफर को मनोरम बनाने के लिये।

‘कौन होगी वो ससुरी ?’

विकास उसका हुलिया पूछता था जैसे ही मनु ने उसका जरा सा हुलिया बयान किया कि वह अपनी सीट पर बैठे बैठे ही उछल ही पड़ा था-

‘अरे वो तो पूनम की सहेली है सहेली सोनिका ! दोनों बदमाश औरतों ने भाईजी से यारी बना रखी है।’

पूनम का इतिहास बतलाते वह बताता था कि वह भाईजी के उस मुनीम की बेटी थी जिसने भाईजी के हाथ के नीचे खूब रूपया, संपत्ति बनाई थी। उस मुनीम ने अपनी सभी बेटियों की छोटी ही आयु में यहां से बड़े दूर-दूर विवाह कर दिये थे। मगर सबसे छोटी पूनम का विवाह करने के पहले ही एक रोज वह भाईजी की नजरों में आ गई। हुआ यूं था कि भाईजी के खेतों में कहीं से कोई शेर का बच्चा अपनी मां से बिछड़ कर आ गया था जिसे सेवक पकड़ लाए थे। इस शावक को भाईजी ने अपनी हवेली के अगले भाग में बने बगीचे में एक बड़े से पिंजरे में जू के कर्मचारियों के आने तक जनता के दर्शनार्थ रखवा दिया। जनता में लोकप्रियता दिलाने वाले ऐसे काम करने का कोई एक भी मौका वे प्रायः नहीं ही चूकते थे।

उसी शावक को देखने आने वालों में एक थी मुनीम की वो सबकी मुंहलगी कजरारी बिटिया जो अपनी जवानी के नशे में अच्छे अच्छों को पानी पिलाने का बूता रखती थी। वह गई तो थी शेर का बच्चा देखने पर उसकी जुबान पर कब कोई लगाम रही ? वह भी उन दिनों कि जब लड़की जात का जोर से बोलना उचित न माना-समझा जाता था ? वह कर्मचारियों व दर्शनार्थियों से अपनी स्वाभाविक आदत में हंसी-ठठ्ठा करती न थकती थी और इधर भाईजी अपनी खुली कार में सवार कहीं जाने को निकलते थे।

‘अरे, क्या इस शेर को देखना ? असली शेर तो वो रहा ! ’

महल से निकलते भाईजी के कानों में जाने से बच न सकी थी उसकी ये बिंदास टिप्पणी। ओहो ! धनी-मानी राजनैतिक परिवार से थे, ऐसे चने के झाड़ पर चढ़ा देने वाले बेबाक लोग उन्हें ही क्या उन जैसे किसीको भी अच्छे लगेंगे। पता करवाया तो वो तो अपने ही मुनीम की बेटी निकली। कहां छुपा रखी थी ये अब तक मुनीम ने ? वह काली सांवली रंगत वाली, आंखें झपकाने-नचाने व सामने वाले की आंखों में सीधे आंखें डाल-डाल कर अजीब-अजीब तरीकों से बतियाने के अपने द्विअर्थी हाव-भाव तथा रंगढंग से बड़ी ही जल्दी सीधे भाईजी के अंतपुर में जा बैठी।

मुनीम से जब वो नहीं ही संभली तो,

मुनीम को भी लगा कि भले ही भाईजी काफी उमर के थे लेकिन अगर उनसे बेटी का ब्याह हो गया तो जनम सुधर जाएगा। मगर क्या उस लालची व अव्वल दर्जे के बेवकूफ मुनीम को पता न था कि भाईजी ऐसे ब्याह न जाने कितने रचा चुके थे ? कुछ समय तक के लिये जनता से छुपाए रखने की ताकीद के साथ उन्होंने एक मंगलसूत्र उसके गले में भी डाल दिया। और ऐसा कोई उन्होंने अकेली पूनम के ही साथ किया था क्या ? ऐसी तो उनकी कई थीं, जानते ही थे जानने वाले। उन अनेकों की तरह पूनम बेचारी भी अपनी करनी का फल भोगती, अपने परिजनों को रूतबे-रूपये में तुलवाती मालिकिन बनने का ख्वाब ही देखती रह गई। एक दिन भाईजी ने अपने विश्वस्त डेरीवाले से जिसे आम जनता दूधवाले के नाम से ही पुकारती थी, पूनम का ब्याह तय करा के अपने होने वाले बच्चे पर बड़ी चतुराई से दूधवाले के नाम को चस्पा कर दिया था !

वे किसकी सुनते थे ? दूधवाला उनका विश्वस्त था और पूनम से तब उनका मन भर चुका था, सो उससे थोड़ा उन्हें पिंड छुड़ाना था।

वे अपने विश्वस्तों को इसी प्रकार उपकृत किया करते थे। विरोध की कोई गुंजाइश उन्होंने कभी किसीके लिये नहीं छोड़ी। उल्टे, वे अपने आसपास आने वालों को अपने अहसानों के भार तले अलग लाद दिया करते थे। पूनम बेचारी जो भाईजी की राजवधु बनने का या फिर किसी उच्च अफसर की बीवी बनने का ख्वाब देखती न थकती थी, दूधवाले से ब्याही जा कर भी उनके अहसानों में ही तो दबी थी कि वे उसे व उसके पति को मौके-अवसरों पर भरपूर पैसा देते-दिलवाते थे। उनकी जान बख्श रखी थी उन्होंने ! कोई और होता तो उपयोग करता और कहीं कुऐं बावड़ी में फकवा देता मार कर ! मन मसोस कर इस अहसान भरी सच्चाई को सहन करना ही पूनम की मजबूरी थी जिसे वह बड़ी खुशी से सहन करती दीखती थी। उसे अपने हर कार्य को पूरा करने में वे उसका भरपूर उपयोग करते थे और जताते थे कि उसके सहयोग के बिना महल में कुछ होता ही नहीं कभी ! उसका मन रखने को दूधवाले को उन्होंने किसी अर्धसरकारी विभाग में किसी नौकरी पर भी लगवा दिया था कि भई नौकरी करता है पति ! कोई गाय-भैंस वाला ही नहीं है !

पूनम हो कि उस जैसी कोई अन्य हो, जब इज्जत-आबरू के कोई मायने न रहे हों तो वे महिलाऐं तथा उनके परिवार उनसे होने वाली आय तथा भाईजी से अपनी नजदीकी का रौब दिखा कर संतोष करने की कला सीख ही जाते थे। ऐसी ही कला मुनीम व उसके परिजनों ने भी सीख ली थी। बाहरी लोग जलते भी थे कि वाह री किस्मत, कितनी कलुवी, भौंडी कन्या के इत्ते भाग्य ! ओफ् ! देखो तो जरा, छातियों के नाम पर दो दो फुटबॉल, पुठ्ठों-पिछाड़ी के नाम पर उससे भी बड़े बड़े दो फुटबॉल, कमर के नाम पर कमरा या कहो कि एक टायर और, और ? मत पूछो भाई, मत ही पूछो !

नजरों में लोलुपता भर के जब वो देखती थी तो उसके ये बड़े-बड़े सब भरपूर गर्मागर्म माल में बदल जाते थे। इसीसे भाभीजी जैसी संस्कारी महिला की तो कोई औकात ही नहीं थी कि वह गर्मागर्म गोश्त के उस लबालब कटोरे को लार टपकाते भाईजी से दूर रख सके। उमर हालांकि भाईजी की अच्छी खासी हो चुकी थी पर भूख उनकी उस जैसे किसी कटोरे से ही बुझती थी ! कहते थे कि उनकी जवानी को बनाए रखने के लिये शेर की विष्ठा व मांस से बनी दवाइयां सीधे चीन से मंगवाई जाती थीं ! जिन्हें खाने और भरपूर विदेशी शराब चढ़ाने के बाद पूनम और सोनिका जैसी औरतों की ही जरूरत रह जाती थी उन्हें।

बेचारी भाभीजी !!!

इतनी गोरी चिट्टी, कमनीय-कोमलांगी और संदर-सुशील कि देख कर भूख भाग जाए मगर किस्मत का कोई क्या कर ले ? जब नहीं कर सकती ऐसी औरतों की बराबरी तो जाओ चुपचाप बच्चे पालो अपने। जेवर पर जेवर पहनो, बदलो, पुराने तुड़वाओं के नए बनवाओ, जितने चाहो उतने बनवाओ, चाहे जितने पूजा-पाठ, रात्रि जागरण व भंडारे कराओ, कभी अपनी सास के तो कभी अपनी दादी सास के नाम पर जब जितना जी में आए उतना दान करो, जो भी करो, मगर पूरी शालीनता से, खानदानी मर्यादा निभाते हुए घर-परिवार के दायरे के भीतर ही भीतर। पत्नी घर की चारदीवारी में ही भली लगती है। उसे तो बस घर-परिवार के दायरे में ही अपना जीवन बिताने में शान महसूस होनी चाहिये। बिना कुछ किये आखिर उसे सब कुछ हांसिल जो हो रहा है। देखो जरा उन बाहरी छटंकी औरतों को, बेचारियों को कितने-कितने ना जतन करने पड़ते थे फिर भी मालिकिन के रौब-रूतबे को तरसती तरसती ही मर जाती हैं स्सालियां ! देखो तो जरा क्या-क्या न लोटमपोट करनी पड़ती थी उन्हें एक-एक दमड़ी के लिये।

हां, अब वो पूनम कुछ पुरानी हो चली थी सो उसकी सखी का भाग्य जागने की बारी थी। अपने किसी परिचित के तबादले की अर्जी ले कर वह सखी भी जानते-बूझते ही तो मिली थी भाईजी से। तबादला तो बाद में हुआ भाग्योद्धार उसका पहले हो गया। सोनिका नामक उसकी यह सहेली तो दिखने में पूनम से भी कहीं ज्यादा काली कलूटी, बदशक्ल सी ही कही जाती थी भाभीजी के समर्थकों में। बेहद दुबली पतली अलग थी मरी। पूनम को तो वहां सब नौकर-चाकर ‘मालामाल  कहते खी-खी हंसते थे, मगर उस सोनिका के पास तो माल के नाम पर आगे-पीछे कुछ भी न था। फिर भी न जाने कैसे भाईजी के मुंह का जायका बदलने को पर्याप्त थी !

एक तरफ पूनम अपनी ढाईमन की काया के संग उन्हें भरपूर रिझाती न थकती थी तो दूसरी तरफ कृष्काय सोनिका हिनहिनाती सी हंसी हंसती, अपने निचुड़े-पिचके से मगर धधकते से बदन से कपड़े लत्ते ढलकाती, अपने सारे मान सम्मान को उनके पैरों की जूतियों के तले रखने को मरी जाती थी। या इन जैसियों का कोई मान-सम्मान होता भी था ? भगवान् ही जाने,

मगर जाने क्या था उसकी सूखी संटी काया में कि भाईजी के अंतपुर में उसका निर्बाध आना-जाना हो चला था। भाभीजी बेचारी मौन की मौन, सारा गंदला तमाशा देखने को अभिशप्त सी, कैसे गुजर करती होंगी, वे ही जानें।

अंतपुर की सीमा के इस-उस पार, महल में उसे किसीसे गुरेज न था। यहां तक कि नौकर-चाकर तक उससे हंसी ठिठोली कर लिया करते थे। इन दोनों को भाईजी सबसे साझा करके खाते-बरतते थे। दोनों सहेलियों की अजब कशमकश भरी, जलन भरी प्रतियोगिता को भाईजी खूब समझते थे अतः उनके तो पौ बारह ही थे। हंसता था बतलाते हुए बड़ी ही बेहद भद्दी हंसी विकास, कहता था चुटकी लेता सा-

पूनम का ब्याह तो उन्होंने दूधवाले से करा के अपना मतलब गांठ लिया। सोनिका के ब्याह के लिये कहीं अब वे मुझे न चुन लें। भैया, यहां ज्यादा रहे तो अपन को ये ही सब जूठन मिलने के पूरे चांस हैं। तू जैसा हुलिया बता रहा है वो सोनिका ही थी उनके साथ। किसी अफसर को पेश करनी होगी। तभी उसे बाहर ले जाते हैं।’

छिः! सुनते सुनते मनु का मन कड़ुआहट से भरा जाता था। क्या इतने गिरे हुए लोग भी होते हैं इस दुनिया में ? फिर वह सोचता था कि पूरी दुनिया, अच्छा ही हुआ भगवान् कि उसने पूरी दुनिया नहीं देखी !

‘तू कर लेगा उससे ब्याह ?’  पूछता था हिकारत से मनु।

‘क्या करूंगा और ? हीही, यहां रहना है तो करना ही पड़ेगा।’ हीहीहीही।

‘इसीसे कहता हूं अपन दोनों में ही रखना। कुछ समय में निकल लो यहां से कहीं दूर अपने परिवार को ले लिवा के। वे पीछे ज्यादा परेशान नहीं करते हैं जो अपन उनकी पोलपट्टी न खोलो तो। उनका यही है कि हो गया सो हो गया। अपने जैसे कितने ही तो किसी और ही नए प्रदेश में जा बसे है उनको छोड़ कर। बस् कुछ पैसा और हो जाऐ फिर मैं भी सोचता हूं कुछ। वैसे सुनते हैं कि मैं बच गया उससे। उसका ब्याह वे अपने ही किसी टिकिटार्थी से कराने वाले हैं। टिकिट तो वे उसे क्या दिलाऐंगे पर ससुर, फिर देखना वो इस सींकड़ी-सडै़ली के बल पर क्या सीढ़ियां चढ़ेगा दनादन !’

गाड़ी जब एक ढाबे पे रोकी तो अच्छा खासा ज्ञान मिल चुका था मनु को अपने आका के बारे में। काश, ये सब पहले पता होता तो ? तो आज यूं फंसने से तो बचा हुआ होता। काहे का फंसा था मगर ? अभी भी वक्त है निकल ले बच्चू। वरना, भाईजी के पाश में यदि ज्यादा फंस गया तो फिर तो हो लिया ! वह इतनी चिंता करने लगता था कि उससे तो ठीक से खाया भी न जाता था। ढाबे पर मनु को विकास ने बहुत ही चिंतित देखा था सो वह समझ रहा था कि नया-नया चेला है, अधिक से अधिक फिक्र करता ही है।

मगर जब वे पुनः चल पड़े थे तब भी चिंता की लकीरे मनु के माथे पर गाढ़े चपकी हुईं थीं। भई इतनी तो चिंता की कोई बात ही नहीं।

जब ओखली में सिर दिया तो मूसल से क्या डर ? भाईजी के क्षेत्र में उनके सेवकों को कौन नहीं जानता ? वे सब अव्वल तो अच्छे हो ही नहीं सकते थे, दूजे, किसी कारण वश वे अच्छे हों भी हों तो उन्हें अच्छे मानता कौन था ? और,

इसमें कोई दो मत नहीं कि चाहे उन्हें कितना ही खराब मानें, मगर भाईजी के डर के कारण लोग उनके सेवकों का भी मान करते थे। मान कैसा ? डर से भरा मान। मन ही मन हिकारत भी हो तो दिखाना नहीं। अतः जब तक उनकी नौकरी में हैं जी भर के मान-शान ले लो। फिर कहीं दूर भाग लो सदा के लिये। मनु को ये विचार कुछ जमता नहीं था क्योंकि यदि भाईजी चाहें तो उसके गांव से उसे पकड़वा ही सकते थे।

‘चल ठीक है। तू यहां से काम छोड़कर गांव चले जईयो जो वे जाने दें तो। मैं तो ऐसा गायब होंऊँगा कि बस् किसीको पता चल जाए तो कहना।’  वह निश्चिंत सा कहता था।

‘ऐसे जीने में क्या मजा कि कोई खोज न ले, डरते रहो हमेशा ’

‘तू समझ नहीं पाया अभी उनको। करने को इतने काम होते हैं उनके पास कि वो अपने गए हुओं को फिर नहीं बुलाते। हां अगर उनके खिलाफ कुछ खुराफात की तो फिर तो खैर नहीं। कई तो मेरे सामने गए। कुछ साल बाद आ कर पैर पकड़ लिये तो आशीर्वाद ले लिया कि अब काम नहीं कर पाऐंगे। बस् भाईजी का कोई राज खोला कि फिर तो हो चुकी उसकी जिंदगी पूरी समझो। हां, औरतों की बात अलग है। उनसे तो जब उनका जी चाहे वे काम लेते ही हैं। उन औरतों की अगर बेटियां भी हैं तो उनकी तो समझो निकल पड़ी !’ कहे जाता था विकास जिसे सुने जाता था मनु।

‘वो अपना दिया उधार भी किसीसे वापस नहीं मांगते, ही ही ही ही, हां ये बात और है कि उधार देते ही किसे हैं ? और फिर, कौन है जो उनसे उधार ले कर नहीं वापस करे ? वैसे भाईजी बहुत समझदार हैं, जानते हैं कि किसीसे ज्यादा पंगा लिये बिना शांति से काम करना ही ठीक है।’

मनु और विकास भाईजी पुराण में लगे-लगे कब अपनी पहली मंजिल पर पहुंच गए थे पता ही न चला। वो शहर आ गया था जहां उन्हें पहले छानबीन करनी थी। यह भाभीजी का ननिहाल था जहां उनकी बचपन की शिक्षा हुई थी।

लो कर ली छानबीन। कहीं कोई हो तो मिले ?

जितनी संभव थी उतनी छानबीन के बाद वहीं आराम आदि करके रात में ही उन्हें अगले शहर के लिये चल देना था। अब गाड़ी मनु चलाऐगा। ऐसा तय करके वे एक सस्ते से होटल में रूक गए थे जहां विकास पहले भी आता जाता रहा था। मनु को भाईजी का फैला कारोबार देख बड़ी हैरत हो रही थी। कहां-कहां तो लोग उन्हें जानते-मानते थे। भला कैसे वह निकल पाएगा उनके नागपाश से ? विकास तो बड़ा सरल काम समझ रहा था जबकि मनु को लगता था कि बिल्कुल सरल न था उनके मकड़जाल से बच निकलना। अपनी बहन, भांजे-भांजियों, अपनी जमीन आदि को कहां छुपा देगा वह उनसे ? तो क्या अब जीवन भर उन्हीं के आश्रय में ऐसे ही गलत-सलत काम करता सड़ता रहेगा ? कुछ तो सोचना होगा न ? एक गल्ती हुई है अब और आगे तो न हो। सोचता था वह मरते-दरकते से मन से।

’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’

7

मनु को रात में गाड़ी चलानी थी इसलिये उसने शाम ढलते ही खाना खाया और सो गया था। सच ही उसे नींद भी आ गई थी। यह बात और थी कि नींद में भी उसे मकड़ी का जाल बुनते भाईजी ही सपने में दीखते थे। जैसे जाल उससे लिपटता जाता था जितना वह उस जाले से बचना चाहता वह उतना ही उसे अपनी लपेट में लिये जाता था। कभी इस करवट तो कभी उस करवट वह बेचैन सा इधर-उधर होता था अंत में उसे दीख पड़ी थीं अपनी पारिवारिक गरिमा व आत्मीय स्नेह से भरपूर भाभीजी, जिन्हें देखते ही वह बुक्का फाड़ कर रो पड़ा था- भाभीजी !!!

जब उसकी नींद खुली तो उसने देखा विकास उसे झकझोर रहा था-

‘बस् कर, क्या भाभीजी भाभीजी लगा रखी है। तू तो मरवा ही देगा।’  कहता वह उसे हिला हिला कर जगा रहा था।

जागने पर मनु को बड़ा धक्का सा लगा कि सपने में जितना लाचार वह स्वयं को देख रहा था वास्तव में उससे भी कहीं ज्यादा लाचार वह जागने पर था। बुझे हुए से मन से वह तैयार हुआ था और चल पड़े थे वे दोनों फिर से अपनी राह पर। अपनी अगली मंजिल की ओर।

‘और जो यहां भी कुछ ना मिला तो ? ’ मनु ने पूछा था।

‘तो क्या ? अपना काम भाईजी के हुकुम की तामील करना है, कर दी। नहीं मिले कुछ तो हम क्या करें ?’  विकास मशीन सा हो चुका था, और मनु अभी भी मन से बंध जाया करता था। इसीलिये अधिक सोच-विचार में लग जाता था। उसके इस कच्चेपन की ही जरूरत थी भाईजी को। उसके जैसे भावुक व्यक्ति को ही अधिक देर तक रखा जा सकता था वहां। आखिर जितने भी विश्वासपात्र हों उतना ही अच्छा न ? काम भी बड़ी जल्दी सीख लेता था वह चाहे गाड़ी चलानी हो कि अंतःपुर की व्यवस्था संभालना, सब अच्छे से कर लेता था। बस् जरा भावुक और सिद्धांतवादी ज्यादा ही था, पर, चल जाएगा ये यहां।

गाड़ी में विकास को नींद आती थी मगर जागता था वो क्योंकि मनु कोई बहुत अच्छा ड्रायवर तो था नहीं। कोई एक्सीडेंट कर करा दिया तो नाहक ही पुलिस का खर्च अलग आ लगेगा। भाईजी ने जो पैसा दिया था उसे अधिक से अधिक बचा लेने की फिराक में रहता था वह। ऐसे ही तो कमाई कर पाते थे वे लोग वहां। जो दे दिया, बस् दे दिया, काम हो जाने पर खुश हो कर भाईजी फिर पैसा नहीं पूछते थे, उल्टे और ईनाम दे देते थे। विकास सोचता था बहन का ब्याह निबटाना था। ऐसे ही तो नहीं निबट जाएगा।

उसके पिता बचपन में ही खत्म हो गए थे। घर में वही सबसे बड़ा था सो सारी जिम्मेदारी निबटाने में बचपन से ही लग जाना पड़ा था उसे। जमीन जायदाद पर नाते-रिश्तेदारों की नजरें थीं मगर भगवान् के शुक्र से कहीं कुछ गड़बड़ नहीं हो सकी सिवाय इसके कि वह भाईजी के हत्थे आ चढ़ा। शायद, बल्कि निःसंदेह इसी वजह से रिश्तेदार दुबक लिये थे।

तब से विकास भाईजी की सेवा में जो लगा था तो अब कहीं जा कर उसे इस सेवा से मुक्ति की चाह होती थी। उसने अनेकों को मुक्त होते देखा था। उसकी भी इच्छा होती थी कि बस् बहुत हुआ। ज्यादा देर करने से अपराधों की भयावहता बढ़ती जाएगी और संभव है कि फिर उसे जेल भी जाना पड़े।

मां को तो पता भी नहीं है कि वह यहां काम क्या करता है ? वो तो भाईजी को शराफत का पुतला ही समझती है। उसकी नजर में तो वे देवता हैं देवता, इसीसे क्षमा को भेज दिया था। हे भगवान्। कहीं भाईजी देख लेते उसे तो ? गई थी वो तो !

उसने हिचकोले खाती मगर सरपट दौड़ती जा रही गाड़ी में अपने बाजू में नजरें तरेर कर मनु को कुछ ध्यान से देखा। गांव तो गांव अच्छे बड़े-बड़े शहरों के माहौल में भी आज भी शादी-ब्याह के लिये सबसे पहले तो जाति देखी जाती है। मनु उसीके जाति-समाज का था गनीमत थी। उसका क्षमा को छुप-छुप कर देखना विकास से छुपा नहीं था। वह देख चुका था कि मनु में अभी भी एक नैतिक आग्रह बचा हुआ था। किन्हीं सिद्धांतों की बातें उसे समझ में आती थीं अभी भी। यदि वो यहां अधिक रहा तो फंस ही तो जाएगा बेचारा। अगर ये मनु यहां काम न कर रहा हो तो सब ठीक ठाक है इसमें क्षमा के लिये।

उसके मन में विचार उफनते थे जिनसे मनु अनजान था। वह बड़े ध्यान से ड्रायविंग किये जा रहा था संभाल कर। विकास जायजा लेता था उसके काम करने के अंदाज का। वह उसे अपने ही जैसा जिम्मेदार प्रतीत होता था। उसे लगता था कि अब अपनी जमीन जायदाद बेच-बाच कर पैसा संभाल लेने का वक्त आ गया है।

अब अधिक दिनों तक भाईजी की सेवा में रूकने का मतलब ?

अपने विचार लोक में चुपचाप विचरता था वह, कभी बाहर देखता कभी मनु को तकता हुआ।

सुबह की लालिमा जब अंधेरे से लड़ने का अपना दैनिक व्रत खोलने अलसाई सी आ खड़ी हुई तब जा कर वे लोग एक उस शहर पहुंचे थे जो भाईजी की ससुराल था यानि भाभीजी का मायका जहां उनके पिता ने बताते हैं कि अपनी सारी संपत्ति एक मठ को दान कर दी थी वह भी तब कि जब उन्हें अपनी दो जवान हो चुकी जुड़वा बेटियों वरदा-शारदा के हाथ पीले करने थे।

जाने मठ वालों ने उन्हें कैसे बुद्धू बनाया कि पत्नी व जवान बेटे-बेटियों के रहते वे अपना सब कुछ मठ को दे कर स्वयं भी मठ में ही जा बसे। पत्नी, एक बेटे व दो बड़ी हो रही बेटियों की कोई चिंता उन्हें न रही थी। जुड़वां बेटियों में बड़ी बेटी पढ़ाई-लिखाई में बेहद अच्छी थी। उसे जिले में प्रथम आने पर वजीफा मिला था जिसकी मदद से वह अजमेर के मेयो कॉलेज में सीनियर सेकेंडरी कर रही थी। अब उसकी यह पढ़ाई खतरे में आ गई थी क्योंकि पिता ने बेटी-बेटा, पत्नी-रिश्तेदारी आदि सब प्रकार के संबध अस्वीकार दिये थे। वे तो वीतरागी बन गए थे तब कि जब परिवार की अनेक जिम्मेदारियों को निभाना अहम था। रिश्तेदारों की तो जान पे बन आई थी। ननिहाल में तो उनका परिवार वैसे भी चार-चार साल रहते आया था। अब नाना-नानी खतम हो गए थे सो मामा-मामी कितना कलेजा दिखाते ? जिसके पास छदाम न हो कौन उसका रिश्तेदार बने और उसे कौन रखे ? और तब के जमाने में जवान बेटियों को ले कर एक अकेली मां अपने मायके के अलावा कहां जा रहे ?

बड़ा बेटा ब्याह के बाद अपने ससुराल जा बसा था जबकि उन दिनों घरजंवाई रहना अच्छा भी नहीं समझा जाता था। बाप से उसकी ज्यादा जमती न थी मगर बहनों तथा मां ने क्या बिगाड़ा था ? कौन पूछे ? उसने तो मां-बहनों के प्रति अपनी किसी भी जिम्मेदारी से नजरें फेर ली थीं। पिता सेर, तो बेटा सवा सेर निकला था !

सारा समाज ऐसे मामलों में गल्ती का ठीकरा पत्नी के ही माथे फोड़ता पाया जाता है। जैसे पत्नी का एकमात्र काम अपने बिगड़े पति को सुधारते रहना ही है। जैसे वे बिगड़े मानुस पत्नियों के सुधारे सुधर ही जाते हों। हर बिगड़े नवाब के बिगड़ने के लिये खुदा ना खास्ता पत्नी को ही दोष जाता था। मठ का तो किसीको कोई अंदेशा दूर-दूर तक न था। बहुत खोजबीन से पता चला था कि मठ की एक सेविका मठवालों ने इसी काम में लगाई हुई थी। अच्छे-अच्छे बेवकूफों से संपत्ति हड़पने का माध्यम थी वह।

इधर उन लोगों की संपत्ति गई तो फिर न आई। अब चिंता एक मां को अपनी बेटियों के हाथ पीले करने की थी। समाज के बुजुर्गों के जोर डालने पर ससुराल जा बसे बेटे के लिये भी इसे चिंता की बात मानना आवश्यक हो गया था। इस कारण यही चिंता उसके ससुराल वालों को भी खाए जाती थी कि बेटी की दो-दो ननदें उसकी छाती पर आ बैठी हैं जिनकी शादियों में तो लेने के देने पड जाने थे।

वह तो किस्मत कहो कि जाति-समाज के किसी समारोह में भाईजी आमंत्रित थे और लो ! सब चिंता मिटा दी थी उन्होंने तो परिवार की। वहां दोनों कन्याऐं भी उपस्थित थीं। मगर बड़ी कन्या वरदा को देखते ही उनकी बांछें खिल गईं थीं। उन्होंने उसका हाथ इधर मांगा उधर उन लोगों ने उन्हें फटाफट् थमाया ! कि कहीं उनका इरादा न बदल जाए।

मगर नहीं, भाईजी तो अपनी बात के ऐसे पक्के थे कि केवल नारियल, सवा रूपये और तीन कपड़ों में कन्या ब्याह ले गए। वह कन्या जो उनकी बेटी की उम्र की थी। तब कौन देखता था कन्या की आयु, वर की आयु ? कन्या का मन ? उसके मन की तो बात ही मत करो। कन्या का क्या मन देखना ?

अरे इतने बड़े आदमी ने मांगा है तो खुशियां मनाओ। कन्या उनके चरणों की चीची अंगुली की धूल के कण के भी बराबर न थी, उनके महल में राज करने जा रही है राज।

और सच् ही भाईजी को घोड़े पे सवार उस एक राजकुमार के जैसे प्रचारित किया गया जनता में, जो दीन-हीन मगर कुलीन हिरोइन के उद्धार के लिये आता है ऐंड दे लिव हैप्पीली फॉर लांग ।

कभी किसी फिल्म में, किस्से-कहानी में विवाह के बाद की स्थितियों की चर्चा नहीं होती थी तब। सो मान लिया गया था कि बेटी एक बड़े आदमी की बीवी बन कर बेहद खुश थी। आखिर कितना पैसा था ? ऊपर से नीचे सोने ही सोने से लदी, आऐ दिन गहना-जेवर बदल बदल कर पहनती थी। जो गया वह देख आया कि कितना सोना-जेवर डाले झमर-झमर घूमती थी बिटिया इत्ते बड़े महल की मालिकिन बन। सारे जेवर आऐ दिन बदलते थे, जो नहीं बदलती थी तो वह उसकी नाक की लौंग ही थी जो कि उसकी परदादी सास की निशानी थी पुश्तैनी।

किसे दिखा होगा उस सोने के पीछे का उसके बुझे मन का पीलापन, उसके जीवन का मुरझायापन किसे दिखा होगा ? वे तो उसके बदन पर सोने का बढ़ता भार देखते न अघाते थे, या फिर जलने वाले इसे देख जलते ही थे। देखते-गिनते थे उसके बाग-बगीचे, खेत-खलिहान, महल-चौबारे।

देखते-देखते दो बेटों की मां बन वह अपना गम कुछ भूल भी जाती मगर हाथ कंगन को आरसी क्या ? कोई और तो भाईजी के बारे में कुछ कह नहीं सकता था। वे तो जो भी करते थे सब आंखों आंख दिखता था मगर किसमें साहस कहने का कि वे क्या करते थे ? सो, हाथ कंगन को आरसी क्या ? उनका सब कारोबार तो खरा खेल फर्रूखाबादी ही था। अपने इलाके के इतने लोकप्रिय जननेता पर क्या किसी एक ही स्त्री का हक हो सकता था ?

बतला चुका था विकास जरा सी देर में भाईजी के ससुराल का सब इतिहास जैसे कि सब सेवक उनके पीछे आवश्यकता पड़ने पर एक दूजे को बता कर अपना सेवक धर्म निभाया करते थे। होता था तब, ये होता था कि ऐसे खुर्राट मालिकों के हाथ के नीचे काम करने वाले सेवकों में अपनी मालिकिन के लिये एक अकथनीय आदर भाव तथा मालिक के लिये वैसा ही हिकारत का भाव हुआ करता था। ये बात और है कि वे उनके विरूद्ध कर कुछ नहीं सकते थे।

मनु को बड़ी बेचैनी सी होती थी किसी महिला के बारे में ऐसे दुखप्रद प्रसंगों से क्योंकि वो अपनी बहन से जोड़ लेता था इस सबको। उसकी बहन ससुराल में जीजा ही नहीं सारे ससुरालियों द्वारा परेशान की जाती थी। वह सहज ही ऐसे प्रसंग में उस महिला के पक्ष में जा खड़ा होता था मन ही मन।

अब भी वह पूरे मन से भाभीजी के संग खड़ा पा रहा था स्वयं को। आखिर उनकी क्या गल्ती थी ? क्या कर के आईं थीं बिचारी किसी पिछले जनम में ! इससे तो अच्छा होता कि इतना रूप न ही लाई होतीं जिसके कारण भाईजी ने उन्हें पसंद कर लिया एकदम ही !

और क्या पड़ी थी उस इंसान को अपनी सारी संपत्ति मठ को दान दे देने की ? मठ वालों की चाल समझ में नहीं आती थी उनके पिता को ? पहले तो परिवार बना लो जब कुछ करना पड़े तो भाग लो बीवी बच्चों को अनाथ छोड़ के। दोनों जवान हो रही बच्चियों का भी नहीं सोचा ? आग लगे ऐसे धरम-करम में।

और आखिर वो कैसा भाई था जो अपनी बहनों के बारे में गैरजिम्मेदार बना पड़ा था ? भाभीजी का विचार आने से उसका मन न चाय में लगता था न नाश्ते में, जबकि विकास अपना काम चुस्ती से किये जाता था। जिस काम को पूरा करने भेजा गया था उससे संबंधित सारी तहकीकात उसने बड़ी ही तसल्ली से की। कभी चाय के ठेले पर तो कभी पान की दुकान में बड़ी सफाई से पता करता रहा था। वहां आने वाले हर व्यक्ति के बारे में पता कर लिया था उसने पर उसके बारे में कोई सुराग नहीं मिला जिसके लिये वे लोग भेजे गए थे।

अब ???

वहां से निकले यह दूसरा दिन व दूसरी रात थी कि वे लोग बस पता-साजी करते फिरते थे। हाथ उनके अभी तक कुछ न आया था। हाथ आ जाने पर क्या करना था ?

देखा जाऐगा। मनु जानता था कि विकास एकदम पक्का हो चुका था भाईजी के काम में। वह सब कर-करा लेगा जैसे उसे कहा गया था। मगर, मनु को रह-रह कर विचार आते थे कि ऐसा कैसे हो सकता है ? कैसे हो सकता है ऐसा कि

‘तू फिर सोचने लगा। मैं कहता हूं ये सोचने का काम तू इन बड़े लोगों को ही करने दे। अपन लोग इसके लिये नहीं बने हैं रे। जित्ता सोचेगा उत्ता ही दुखी रहेगा।’  कहता था विकास गाड़ी की ड्राइविंग सीट पर बैठते हुए।

अब वे अपने अगले मिशन पर रवाना हो रहे थे। यहां भी उन्हें सफलता न मिली थी। अब आगे एक शहर और छानना था उन्हें। इस आपाधापी के काम से मनु का जी बड़ा विचलित होता था। पर मनमाफिक काम हर किसी को मिले ये जरूरी तो नहीं। जो जैसा मिला करना ही पड़ रहा था उसे, मन से करे या बेमन से। बड़ी निराशा सी घेरती थी उसे रह रह कर। क्या इसी प्रकार जिंदगी बिताएगा वह ? नहीं बिल्कुल नहीं। तो फिर इस सबसे मुक्ति भी कैसे पाएगा ?

समझ में न आता था कुछ भी। और जब कुछ भी समझ में न आए तो क्या करे वह सिवाय इसके कि विकास के साथ चुपचाप वैसा ही करता रहे जैसा वो कहे। करना भी क्या था मस्त खाते-पीते घूमते थे दोनों इस शहर से उस शहर।

अब अगले उस शहर में जा रहे थे जहां भाभीजी व उनकी बहन पढ़ी थीं। यहां उनके भाई का ससुराल भी था। विकास उनके बारे में सब कुछ जानता लगता था। वह बड़े मनोयोग से बता रहा था कि वे पढ़ने में बड़ी ही अच्छी बताई जाती थीं। सो उन्हें वजीफा मिला और वे इस शहर में पढ़ने आईं थीं बावजूद इसके कि पिता का कोई सहयोग न था। उनकी बहन को भी उनके साथ यहीं पढ़ने भेजा गया था जो अपने भाई के ससुराल में रह कर पढ़ाई कर रही थीं जबकि भाभीजी होस्टल में रहती थीं क्योंकि उन्हें इसके लिये वजीफा मिलता था। सोचती थीं वे कि पढ़ कर कुछ नौकरी आदि करेंगी हालांकि उनके खानदान में लड़कियों से नौकरी नहीं कराई जाती थी। लेकिन भाई द्वारा अपने ससुराल जा बसने और पिता के द्वारा सब कुछ दान कर दिये जाने से वे लोग बेहद आर्थिक कठिनाईयों में घिर गए थे जिनसे उबरने के लिये बेटी को नौकरी करनी ही होगी पढ़-लिख कर।

मगर किस्मत में तो कुछ और ही लिखा था।

भाईजी ने उन्हें जब पहली बार देखा था तब वे अपने इम्तहान की तैयारी में अपने घर आई हुईं थीं। अपने इम्तहान की तैयारी में लगे होने के तथा मध्य रात्रि को ही अगले दिन के लिये उन्हें वापस निकलना था इस कारण वे तो उस समारोह में जाना भी न चाहती थीं मगर बहन के, इसके-उसके अनुरोध पर चली गईं थीं। और बस् !

फिर तो वह सब हो लिया था जो किसी भी साधारण सी लड़की के जीवन में परी कथा की तरह का कहा जाता है। वह परी कथा उनके साथ चंद क्षणों में ही घटित हो गई थी। वे उस दिन अपनी मां की किसी पुरानी बनारसी साड़ी में सजी अपनी लंबे बालों की एक चोटी बना कर उसमें लंबी सी एक वेणी लगाए हुए थीं श्रृंगार के नाम पर केवल यही तो किया था उन्होंने उस दिन। इतने से श्रृंगार मात्र से ही उनका रूप सोने सा दिपदिपा रहा था तो वे क्या करतीं ?

उन्हें तो वैसे भी इस प्रकार के श्रृंगार आदि का कोई नाम मात्र शौक न रहा था। जबकि बहन शारदा जाने कितने श्रृंगार किये हुए थी। उस समारोह में आने के नाम पर बस हल्के गुलाबी रंग की बनारसी साड़ी डाल कर उन्होंने एक हाथ में मां का बचा-खुचा सोने का एक कंगन पहन लंबे बालों की चोटी बना मात्र एक वेणी क्या डाल ली मानो वे तो साक्षात लक्ष्मी रूपा ही हो रही थीं। उस समारोह में प्रायः हरेक की आंखें उन पर ही लगी थीं, फिर,

भाईजी अगर वहां होते तो उनकी आंखों से वे कैसे बच सकती थीं ? पर वे तो थे ही नहीं वहां, तब ?

उस दिन जब बहुत देर हो जाने पर जब मुख्य अतिथि नहीं आए थे तो वे वापस घर जाने के लिये उस समारोह से चुपचाप निकलने को बहन को साथ ले अपनी जगह से उठ गईं थीं, बहन मुड़-मुड़ कर दोस्तों-परिचितों से बतियाती पीछे-पीछे अनखनाती चलती थी जिसके आगे चलती वे किसीसे टकरा गईं थीं। ओहो !

वे तो भाईजी थे जो मुख्य समारोह के मंच पर जाते हुए उनसे टकरा गए थे। वे उस दिन बेहद लेट हो गए थे। वहां कोई उन्हें पहचानता नहीं था। अतः अपने लाव-लश्कर के साथ बिना बाजे-गाजे के वे समारोह स्थल में प्रवेश करते थे और इधर वे दोनों बाहर निकलती थीं। वे अपनी पूरी स्वाभाविक कमनीयता में कह उठी थीं - ‘ सॉरी !’ वे तो देखते रह गए थे उस स्वर्णसुंदरी को जो थी तो पूरी भारतीय सजधज में मगर लहजा जिसका ठेठ ऐंग्लो इंडियन था -

‘आई एम सो सॉरी ’ कहती थी उनसे टकराती वो अनिंद्य रूपसी युवती और अगले ही पल उनसे टकराने के ठीक बाद लाल कालीन में दबे किसी तार आदि में पैर उलझने से ठोकर खा कर गिरने को थी कि भाईजी के ठीक पीछे आ रहे उनके छोटे भाई ने आगे बढ़ कर दोनों हाथों से उसे संभाल लिया था। घबराहट व लज्जा से उसके कपोल लाल हो गए थे, उसकी आश्चर्य व लज्जा भरी नजरें पल भर के लिये जा मिली थीं उसी की नजरों से जिसने वहां इतने सबके बीच उसे गिरने से बचा रखा था - - -

वह पल सदी सा क्यों न हुआ ? किसी की नजरों में इतनी भी सौम्यता हो सकती थी ? उसी एक पल में उस अपरिचित पुरूष की बाहों में वह लावण्या जाने क्या-क्या तो सोचती थी, लेकिन-

‘‘वैरी सॉरी ! वैरी सॉरी ! ’  कहती वो बड़ी ही शीघ्रता से अपनी स्थिति से अवगत हो आई थी। उस दिव्य पुरूष से तत्काल अलग हो अपनी राह पर चल दी थी। तो,

छोटे भाई का तो पता नहीं, क्योंकि वे अपने मनोभाव अपने तक ही सीमित रखने वाले माने जाते थे। हां, उस अचानक घटी घटना से भाईजी का तो तन-मन का तार-तार झंकृत हो उठा था मानो। एक लड़ाई थी जो तब जीतनी थी, एक विजय थी जो हांसिल करनी थी। ऐसा नहीं होता था उनके साथ कि उनका दिल आ गया हो। उनका वो दिल तो जहां-तहां, जब-तब कहीं भी तो आते ही रहता था, और, जिस गति से आता था उसी गति से गले-गले तक भर कर वापस भी हो लेता था। लेकिन उस युवती में कुछ था ऐसा खानदानी सा, कि उन्हें बस् यही लगा कि उस बेशकीमती रत्न को तो उनके महल में ही होना चाहिये। पत्नी बनाने, वंश चलाने के लिये उन्हें आखिर कोई खानदानी युवती ही तो चाहिये थी, जिबह करने के लिये !

हां, जिबह ही तो किया गया उस युवती को ! नहीं तो, क्या ही अच्छा होता जो उन्होंने उस युवती का हाथ वहां अपने साथ मौजूद अपने से बारह साल छोटे विधुर भाई के लिये मांग लिया होता जिसकी पत्नी की अकाल मौत पचमढ़ी में धूपगढ़ की पहाड़ियों में पैर फिसलने से हो गई थी। इस घटना में भी शक की सूई भाईजी की तरफ ही इशारा करती बताई गई थी। खैर,

तब उस समारोह में उनके उस छोटे भाई ने भी तो देखा था उस कमनीया को, उसने तो स्वयं की बाहों में कुछेक पल को संभाला भी था उस रूप के जखीरे को। क्या उसे कुछ अनोखा न लगा होगा ? क्या उसका दिल ना डोला होगा ?

स्वयं भाईजी की तो उमर शादी के पार हो चली थी। उनके रूझान भी राजनीति आदि ही के थे। वे अब क्या शादी-विवाह करेंगे। अनेक सुधीजन यही समझ रहे थे कि वे अपने उसी विधुर छोटे भाई के लिये कोई सुयोग्य कन्या देखने उसे समारोह में पधारे हैं।

तब, कोई तो कहे कि उन दोनों का टकराना किस मकसद से हुआ ? उनसे ज्यादे तो वे उनके छोटे भाई से टकराईं थीं। उसी टकराने के कुछ मायने भी थे। मगर भाईजी तो किसी अन्य दिशा में बहती नदी को भी अपनी ओर मोड़ लेने का हौंसला रखते थे। फिर भी,

यह भी तो हो सकता था कि उनकी वह सांवली बहन उनसे आगे होती, और भाईजी उससे टकरा कर रह जाते। तो कुछ न होता, कुछ होने जैसा। या फिर भाईजी कुछेक मिनट और लेट हो रहते, या फिर वे ही कुछ मिनट जल्दी ही वहां से निकल जातीं तो वो टकराते ही नहीं। वे तो चली गई होतीं। तब तो कुछ भी न घटित होता वैसा ! कैसा ?

विधाता कहें, समय का फेर कहें कि इत्तेफाक ही कहें आखिर न जाने कौन शक्ति या व्यवस्था ही है कि जो मानव की जिंदगी में कभी-कभी ऐसे मकाम आते ही हैं कि जब अनेक घटनाओं के कोई कारण समझ में नहीं आते, तो नहीं ही आते।

मनु सोचता था कि आखिर क्यों हुई वह टकराहट ? सोचने में कितनी हसीन, कितनी रोमांटिक लगती थी वह टकराहट ! किसी रोमांटिक उपन्यास या फिल्म में जैसे घटित हो रही हो। मगर,

इस कहानी में तो हिरोईन को सीधे-सीधे ही विलेन ले गया था। हीरो मौन का मौन। हीरो का कोई रोल ही न था सिवाय टकराने और टकराने के बाद हिरोइन को विलेन के लिये उपलब्ध करा देने के अलावा। उस बेमेल विवाह के बाद क्या कभी वे उस हीरो से नहीं मिली होंगी ? क्या उन दानों में से किसीको वो कुछ पल याद न आऐ हांेगे कभी ?

आए तो होंगे मगर उससे हांसिल क्या ?

तू लगता है पागल हो जाएगा। इतना गुमसुम रहेगा तो मैं कैसे चलाऊँगा रे ?’

विकास उसे सोचों में गुम देख कर हंसता था।

मनु को तो मगर सोच में लगना ही भा रहा था उस वक्त। वह पूरी शिद्दत से सोचता था कि उन दोनों की वह प्रथम मुलाकात कैसी रोमांचित कर देने वाली रही होगी, जिसमें एक लड़का, लड़का क्या, एक आदमी अच्छी पकी उमर का अधेड़, एक युवा लड़की को देख उस पर मर मिटता है !

लड़की के पिता का अपना एक इतिहास है जिसके कारण सब उस युवती को वहां देख तो रहे हैं मगर अलग-अलग नजरों से। सांवली उसकी जुड़वां बहन की तुलना में सबको वह अतीव सुंदरी कन्या अपने पुत्र के योग्य तो लगती है पर केवल कन्या से कौन अपने पुत्र का विवाह करना चाहता था वहां समाज-जाति के उस समारोह में ? वे तो सब किसी धन-वैभव से अटी पड़ी किसी मोटी मुरगी की आस में ही ऐसे सामाजिक समारोहों में आते-जाते थे। मोटी मुरगी अपेक्षित नहीं थी तो केवल भाईजी को, जो भले ही युवा न थे मगर ऐसे अधिक बूढ़े भी न थे। तब उस दौर में तो आसानी से इतनी उमर के आदमी से युवा कन्या बांध दी जाती थी वह भी खुशी खुशी। तो,

समारोह के गेट से बाहर जाती कन्या के कदम थम गए थे जब उसने लाउडस्पीकरों पर आयोजकों की ओर से अपने लिये एक सर्वथा अप्रत्याशित संबोधन सुना था जिसमें मंच पर पहुंचे भाईजी उससे अपना स्वागत करवाने को इच्छुक बताऐ जा रहे थे।

आयोजक मंच से पुकारते थे हल्के गुलाबी व गोल्डन जरी बॉर्डर वाली साड़ी पहने, लंबे बालों की चोटी में सफेद फूलों की वेणी डाले उसी कन्या को जो अभी-अभी मुख्य अतिथियों से टकराई थी, उसे उनके स्वागत को आना चाहिये ताकि वे उस कन्या से क्षमा मांग सकें।

उसे वापस आना पड़ा था अपनी बहन के साथ, उनके स्वागत के लिये। और, स्वागत करने तक तो भाईजी ने उसे पसंद कर लिया था। बल्कि स्वागत ही इस कारण करवाया था कि वह उन्हें पसंद आ गई थी सो जरा और गौर से, नजदीक से देखने के इच्छुक थे। स्वागत कर उनके मांगे अपना परिचय दे कर कन्या चली गई थी क्योंकि अर्धरात्रि में दोनों बहनों की ट्रेन थी अजमेर के लिये जहां अगले दिन से उनके इम्तहान होने थे।

इधर इम्तहान खत्म होते थे कि उधर भाईजी से विवाह की मंजूरी उसे देनी पड़ी थी मां के दबाव में बहुत कुछ, और बहुत कुछ उस समय के चलन के अनुसार उसने ना नुकुर न करते हुए, परिवार की हां में हां रखते हुए, नजरें झुकाऐ, राजी-खुशी हां कर दी थी उस अपने पिता की ही उमर के व्यक्ति के लिये। कहीं वो इस भ्रम में तो नहीं थी कि रिश्ता उस दूसरे व्यक्ति के लिये आया है जिसने उसे गिरने से संभाला था ?

जी हां, वो समझी तो यही थी मगर बहुत जल्दी उसका ये भ्रम दूर कर दिया गया था। वैसे भी उन दिनों कन्याओं से उनके ब्याह की सहमति लेते कहां थे माता-पिता ? बस् रिश्ता तय किया और बांध दी बछिया ! तो,

यही वह शहर था जहां उसने अपने युवा सपनों को आखिरी बार देखा था। यहीं अपने उन सपनों की समाधी बना कर वह बिना किसी विरोध के एक साधारण से कटपीस कपड़ों के व्यापारी की बेटी अब एक बड़े राजनेता, एक समाजसेवी, एक राजा जैसी हैसियत वाले मगर बेहद दकियानूस से और कुछ दबी-छिपी जुबानों से खासे चरित्रहीन कहे जाने वाले इंसान के महल की शोभा बढ़ाने चली आई थी अपनी आगे और पढ़ने की इच्छा को भी यहीं दफना कर। उसे क्या मालूम था कि -

उसे यहां अपनी आंखों के नीचे तक घूंघट में रहना होगा। कि -

उसे अपनी नाक में हरदम ससुराल में दादी सास से मिली उस लौंग को पहने रहना होगा जो वहां सुहाग की निशानी कही जाती थी। कि -

उसे हरदम किलो-किलो भर सोने के जेवरों से लदे रहना होगा जो कि वहां अच्छे संपन्न घर की वधु होने के सूचक माने जाते थे। कि -

उसे अपना मुंह केवल मुस्कुराने व खाने के लिये ही खोलने की आजादी होगी !

बहुत कुछ यह सब जान कर या इस सबसे अनजान रह कर भी, उसके शिक्षकों ने उसे कहा था कि वह किसी न किसी प्रकार शिक्षा से जुड़ी रहे। जब इतने बड़े घराने में जा रही थी तो कन्या शिक्षा के लिये अवश्य कुछ करे क्योंकि तब लड़कियों को अधिक शिक्षा आदि नहीं दी जाती थी। वह इतनी बुद्धिमति थी कि यदि उसे और पढ़ने का मौका मिलता तो वो अपने माता-पिता, अपने स्कूल, अपने शहर, अपने क्षेत्र का नाम रौशन करती। इसमें भी क्या उजर कि उस सरस्वती रूपा दिव्यज्योति से भाईजी का महल जगमग हो गया था, रौशन हो गया था ! मगर,

इस शहर में विकास व मनु क्यों आए थे ?

क्योंकि इस शहर में उन दोनों बहनों का अपने पुराने शिक्षकों से आना-जाना रहता था, पत्र-व्यवहार चलता था। वे किन्हीं गरीब छात्र-छात्राओं को वजीफे दिलाया करती थीं अपनी ओर से। वे अपने पुराने स्कूल को भूली नहीं थीं। सो, न कहां-कहां और कैसे-कैसे न माथा पटकते थे वे लोग, लेकिन हाथ कुछ न आता था। इस दौरान ऐकादशी तो आ कर चली भी गई ! क्यों कहा था उन्होंने ऐकादशी से पहले लौट आने को ?

अब ?

अब क्या जवाब देंगे भाईजी को ? नौ दिन चले अढ़ाई कोस। वे कोई काम बताऐं और उसे पूरा किये बिना वापस आने वालों को वै कैसा बरतते हैं ? बहुत नहीं तो थोड़ी मुश्किल तो आनी ही थी ना ! विकास बेफिक्री दिखाने के बावजूद भी कुछ चिंतित सा था। मनु को तो घबराहट के जैसे दौरे ही पड़ रहे थे। जो हो अपनी आखिरी कोशिशें कर के वापस लौट चले थे वे दोनों उसी रास्ते से। बीच-बीच में और जहां उन्हें कुछ समझ में आता था रूक जाते थे।

जब वे वापस विकास के घर पहुंचे तो मनु की कब्ज होती रूह को कुछ क्या, बहुत कुछ आराम आया था। वैसे तो क्षमा के विचार मात्र से उसका मन हल्का होने लगता था मगर उसे अपने सामने पुनः देख कर तो वह रोमांचित ही हो आया था।

उसने कहीं न कहीं महसूस किया था कि विकास के सामने क्षमा भले ही छुपाने में कामयाब रही थी मगर ऐसा लगता था कि आग दोनों तरफ बराबर लगी ही हुई थी।

यह बात और थी कि उड़ती चिड़िया के पर गिनने में बहुत कुछ सक्षम विकास इस सबसे अनजान बनने का स्वांग रचते हुए भी दोनों पर बराबर नजर रखे हुए था। जो लड़की दिन में भी किसी काम के लिये उठाए जाने पर कैसी अनमनी रहती थी, कैसी नाराजगी दिखाती थी वही इतनी रात को भी इसरार कर-कर के खाना बनाती, परोसती न थकती थी। कैसी दौड़-दौड़ कर काम कर रही थी सारे, अधिकतर मनु के। उसके कमरे में पानी की सुराही, ग्लास, उसका बिस्तर, उसके लिये रजाई कंबल, मच्छरदानी तो क्या-क्या। वे लोग न जाने कितने थके थे कि बिस्तर पर पड़ते ही नींद के आगोश में समा गए थे।

अगली सुबह विचित्रताओं भरी थी। घर में न मां थी न क्षमा। विकास तो घोड़े बेच कर सोता था मगर मुहब्बत का मारा मनु जल्दी जाग गया था। रात को उसकी इतनी खातिरदारी करने वाली क्षमा न जाने कहां थी। मनु को सुबह जागने के कुछ ही देर बाद अगर चाय मिल जाए तो क्या कहने ? अपने जागने की सूचना उसने खांस कर, कमरे में कुछ खटर-पटर करके दे दी थी इसके बावजूद किसीने उसके कमरे की ओर न झांका था। वह इधर-उधर देख आया था। बिस्तर पर पड़ा भी कब तक रहता। गांव देख आने के बहाने वह थोड़ा बाहर निकल घूमने लगा था।

सुबह हुई ही थी, सूर्य रश्मियों ने अभी उषा की अगवानी में अपने सुनहरे रंग बिखराने आरंभ ही किये थे कि पहाड़ी के परले छोर से जहां गढ़ी अपना मस्तक ताने खड़ी थी, जिधर काल भैरव मंदिर का झंडा फहराता था उधर ही से कोई दो मानव आकृतियां प्रकट होती इसी ओर आती थीं। मनु रूक कर देखने लगा। अरे, ये तो मां और क्षमा थीं।

वह वृक्षों की ओट में हो गया यह सोच कर कि शायद वे दिशा-मैदान आदि के लिये गई होंगी। परंतु उसने फौरन स्वयं को सोचते पाया कि गांव में हालांकि अनेक घरों में ये सुविधा नहीं थी मगर विकास ने भाईजी के हाथ के नीचे काम करते हुए अपने मकान को बड़ी अच्छी प्रकार से बनाया था जिसमें थोड़ी दूर हट कर एक शौचालय भी बना ही हुआ था। तब उन्हें इतनी दूर कहीं बाहर जाने की क्या आवश्यकता थी ?

वह वृक्ष की ओट से उन्हें घर की ओर आते देखता रहा। वे दोनों बड़ी तेज गति से आ रही थीं। उनके हाथों में एक झोला था जबकि होना ही था कुछ तो कोई लोटा आदि जैसा कुछ होना था। और मां की तो उमर भी काफी हो गई थी भले ही वे स्वस्थ थीं मगर उन्हें इतना चलने की सुबह-सुबह क्या आवश्यकता आ पड़ी ? ऐसा भी नहीं लग रहा था कि वे सुबह सैर पर गई होंगी। तो आखिर वे करने क्या गई थीं इतनी सुबह ? और वो भी फांसीघर की ओर कि जहां कोई वैसे ही जाना नहीं चाहता बताते थे।

मनु के मन में सौ प्रश्न उठते थे जिनके जवाब नहीं बना पा रहा था उसका मन। उनसे पूछने का तो सवाल ही नहीं था। वह चुपचाप आ कर अपने कमरे में घुसना ही चाहता था कि क्षमा ने उसे बाहर से आते देख पूछा था-

‘आप उठ गए इतनी जल्दी ? भैया तो अभी सोऐंगे देर तक। मैं चाय ले आऊँ ?’

और जब क्षमा ने पूछा था तो मनु के मानस प्रांतर में उमड़-घुमड़ करने को बेताब सारे प्रश्न न जाने कहां छू मंतर हो लिये थे। वह तो उसे अपने से बात करते देख ही लरज उठा था। उसे अपने कानों तक गर्मी सी महसूस हो रही थी। वह समझ रहा था कि क्षमा के लिये उसके दिल में जो कुछ भी था यह गर्मी सब उसीका नतीजा थी। जब वह चाय ले कर हाजिर हुई तो उसका दिल जैसे उछल कर उसके हलक में ही आ जाना चाहता था। उसके गले में कुछ फंस सा गया था। हें हें, यह उसका दिल ही तो नहीं था जो अकुलाहट में उसकी बोलती बंद किये देता था ?

क्षमा चाय लिये खड़ी थी उसने चाय का ग्लास अपने कांपते हाथों से थामना चाहा तो पाया था कि ग्लास के बदले उसने क्षमा के हाथ को ही थाम लिया था। न उसने हाथ छोड़ा न क्षमा ने छुड़ाने की कोशिश की कुछ पलों के लिये। जब उसे होश सा आया तो वह ग्लास उसे थमा अपना हाथ छुड़ा कर भाग गई थी। मनु ने सब तरफ देखा था। गनीमत थी कि आसपास कोई नहीं था, वरना क्षमा को कोई परेशानी होती तो मनु को बिल्कुल अच्छा नहीं लगता।

ऐसा प्यार हुआ करता था तब। वही उसे हो गया था क्षमा से और, क्षमा को मनु से।

अब क्या होगा ?

अब या तो वो दोनों इजहार ही नहीं करेंगे, या फिर छुपाछुपी इजहार कर भी दिया तो गति क्या होगी ऐसे प्यार की ? अवसर आने पर क्षमा के घर के लोग उसका ब्याह कहीं तय कर ही देंगे। वह भी चुपचाप अपना मन मसोस कर अपने ससुराल चली जाएगी। जहां वह अगले को इसी भ्रम में रखेगी कि वह तो केवल उसीके इंतजार में बैठी थी केवल उसीके लिये। उसके मन में तो एक पल के लिये भी किसी अन्य का विचार न आया था।

ऐसा ही तो जमाना था वह कि प्यार किया नहीं जाता था भई वो तो हो जाता था। और जब हो गया तो जब तक बने कर लो, जब तक कहीं ब्याह-शादी न हो। फिर मुंह बंद कर चल दो वहीं जहां कान पकड़ कर माता-पिता भेज दें सती-सावित्री बनते हुए ! तुम भी ब्याह लाओ कोई अपने घर की पसंद की दान-दहेज के साथ। तुम्हें कितनी देर लगनी थी किसीको भूलने में ?

मनु देखता था प्रायः लड़कियां ऐसा ही जताती थीं कि उन्हें शादी के पहले कोई प्यार-व्यार न हुआ था। जबकि वे और कुछ नहीं कम से कम प्यार तो किसीसे करने ही लगती थीं। वे जो कुछ जताती थीं वह इसीलिये कि उनसे ऐसी ही अपेक्षा की जाती थी कि वे शादी के पहले किसीकी तरफ नजर उठा कर देखती भी नहीं थीं। ऐसा करना अच्छा नहीं समझा जाता था लड़की के लिये। और लड़का ? वो तो जो चाहे करे। उसे सब चलता था। उसका क्या बिगड़ता है ?

मनु को सोच की जो बीमारी लगी थी वह सच ही बड़ी गंभीर बीमारी थी। हाथ में चाय का ग्लास लिये बैठा सोचता ही रह गया था वह और चाय तो ठंडी ही हो चली थी।

क्षमा जब खाली ग्लास लेने आई थी तो उसने देखा था कि वह भोला बंदा सचमुच ही बेहद भोला-भाला था। कैसे टिका हुआ है वह भाईजी जैसे के यहां ? भैया से कह कर इसे तो वहां से जल्दी ही हटवा देना चाहिये। मगर जाएगा भी कहां ? वह चाय फिर से गर्म करती सोचती थी। इधर वह सोचती बैठ गई और चाय थी कि उफन-उफन कर बहे जाती थी। अब मां ने देखा था कि लड़की का ध्यान न जाने कहां रहने लगा है, एक जरा सा काम नहीं कर सकती ठीक से ? जब तक मां ने दूसरी चाय चढ़ाई तब तक विकास भी उठ ही गया था।

‘जल्दी बनाओ चाय-वाय फिर हुआ तो दोपहर तक निकलना है हमें।’ कहता वह दातुन आदि करने के साथ ही नहाने चल दिया था। अर्थात अब भाईजी के सामने उपस्थित होने का वक्त आया ही जाता था। इस तनाव में मनु का दिल फिर हलक में आने की बात करता था गरीब ! काश यहां से कहीं जाना ही न पड़े !!

’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’

8

क्षमा रात की ही तरह दौड़-दौड़ कर काम करती न थकती थी। वह मनु को न देखते भी भरपूर देख लेती थी। यही हाल मनु का भी था। कितना कुछ मिल जाता है प्यार में, उस प्यार में कि जो बस् ! हो जाता है अपने आप। कितना साहस जैसा कुछ आ समाता है दिल में कोई चाहे तो आजमा कर देख ले। किससे आजमा लेने की क्या बात कहना चाहता था मनु ? विकास तो देख रहा था कि उसकी बोलती लगभग् बंद ही तो थी।

क्षमा ने नाश्ते में जीरा-आलू की सब्जी व अजवाइन वाली नमकीन पूड़ियां बनाईं तो विकास की पसंद से थीं किंतु निहायत गोल, फूली हुई व गर्मागर्म पूड़ियां मनु को परोसी थीं। विकास ने देखा था वह अपने भाई से ज्यादा मनु का ध्यान रख रही थी। उसे मन ही मन हंसी सी आ गई यह सोच कर कि बहन-भाई के बचपन के प्यार पर कितनी आसानी से मनु ने डाका डाल दिया था जवानी में। यह तो होता ही है। चाहे कुछ समय के ही लिये क्यों न हो !!

क्षमा ने बाहर कोई आहट सुनी और दौड़ गई थी बाहर की ओर। जब वह वापस लौटी तो उसके हाथ में अखबार था। गांव कोई बहुत बड़ा गांव न था। शहर से आने वाली बस से गिने-चुने अखबार भेजे जाते थे। इक्के-दुक्के लोग अखबार पढ़ते थे जिनमें विकास का परिवार भी था। क्षमा ने अखबार भी पहले मनु के सामने रख दिया था। वह अखबार पढ़ने का वैसे कोई खास शौकीन न था मगर जब क्षमा ने सामने रख दिया था तो पढ़ना जरूरी ही हो गया था। चाय पीते-पीते एकाध पृष्ठ पलटने के बाद वह फिल्मों के विज्ञापन देखने लगा। क्या ही अच्छा होता कि इतने बड़े-बड़े शहर घूम आए कोई फिल्म भी देख लेते। लेकिन तब सिवाय काम के उन्हें कुछ और सूझा ही नहीं। बावजूद इतनी ईमानदारी के वे काम पूरा नहीं कर पाए थे।

कहीं भाईजी नाराज तो नहीं होंगे ? वह अभी सोच ही रहा था कि उसके आगे बैठे विकास ने अखबार थाम लिया था, थाम कर कुछ देखता था वह। और तब कि जब क्षमा और मां अंदर थीं विकास ने वह अखबार अपने पूरे कब्जे में कर लिया था।

बहुत कम घबराने वाले, या घबराहट की बात आने पर भी घबराहट का बाहर प्रदर्शन न करने वाले विकास के चेहरे पर हवाईयां क्यों उड़ रही थीं। बहुत ही अनमना सा, चिंतित सा क्यों हुआ जाता था वह ? भाईजी का डर अचानक आ कर बैठ गया था या कोई खबर थी डराने वाली अखबार में ? मनु असमंजस में उसे देखता बैठा रह गया था। कुछ पूछ भी तो नहीं सकता था उससे अभी।

जाने क्या तो खबर रही होगी अखबार में कि जिसे पढ़ते ही विकास के रंग-ढंग बदल लिये थे एकदम ही। चाय का खाली ग्लास पटक कर वह एकदम ही उठ खड़ा हुआ था। क्षमा जब वापस आई तब तक तो विकास ने स्वयं को संभाल अवश्य लिया था मगर मनु को समझ में न आता था उसका वह अजब व्यवहार। क्षमा के पीछे मां भी आ गई थीं। वे दोनों से खाना खा कर निकलने को कह रही थीं। विकास ने मना कर दिया था अचानक ही जबकि मनु को उसके व्यवहार से लग रहा था कि वे लोग अभी कुछ और अच्छा समय यहीं बिताने वाले थे। मगर अचानक विकास कहता था कि अब जाना ही होगा।

‘चल तू बस अब। किसी तरह निकलें अब। ’ और

मां तथा क्षमा को अचरज में छोड़ कर वे दोनों बगटुट भागे क्यों थे ? जैसाकि आम परिवारों में होता है बेटा घर से अपने काम पर जा रहा है तो मां क्या-क्या तो हिदायते देती न थकती थीं, ऐसे जाना, इधर से जाना, मोटर सामने आऐ तो हट जाना, वह मंद हंसी हंसता था-नहीं मां तुम नहीं बताओगी तो हम नहीं हटेंगे जैसे !

क्षमा क्या-क्या न समझाती थी भैया जल्दी आना, ठीक से जाना, खाना समय पर खा लिया करना वगैरह-वगैरह मगर कौन सुनता था ? कौन जाने क्या हुआ था अचानक कि वे तो बस किसी प्रकार निकल भागने को थे।

मां सोचती थीं ऐसा भी इसका क्या काम-धाम था जो जब आता है हवा के घोड़े पर सवार ही आता है ! बहन की उमर हुई जा रही है कब करेगा इसकी शादी-ब्याह, कब करेगा अपना ब्याह ? घर में जवान लड़की बिठाए रखने के अनेक डर होते हैं, वो तो गनीमत थी कि विकास भाईजी की सेवा में था सो गांव वाले डरते थे उससे। वरना गांव-गोहर में औरत जात का अकेले इज्जत-आबरू से रहना क्या इतना आसान होता है ? इतने अच्छे बताए जाने वाले भाईजी क्या इतना नहीं सोच पाते थे कि सेवकों के भी परिवार होते हैं ? बस् अपने ही काम में दौड़ाऐ रखते हैं। मगर सोचने से क्या होता था ?

गाड़ी स्टार्ट कर विकास ने इधर गियर पे गियर बदले उधर क्षमा तथा मां की आंखों से ओझल हो लिये थे वे दोनों। मनु को एकबारगी यह भी लगता था कि विकास इसी प्रकार काम करने का आदी है। वह उसकी हड़बड़ को शायद इसी कारण अधिक गंभीरता से नहीं ले पाया था। उसने तो सोचा भी नहीं था कि आखिर क्यों वह इतनी जल्दी मचा कर चल दिया था वहां से, जबकि मनु मन ही मन चाहता था कि कुछ और समय आराम से वहीं रहने को मिले, क्षमा के नजदीक। लेकिन चाहने से भी क्या होता है ? उसने विकास की ओर प्रश्न भरी नजरों से देखा था जो कि अब बेहद चिंतित दीख रहा था कहता था-

‘जल्दी से जल्दी भाईजी के चरणों में माथा रख देंगे अपन ससुर।’

‘मगर क्यों ? ऐसा क्या हो गया ?’

‘तुम भी ससुर, बिल्कुल ही भोंदू हो जी। पेपर नहीं देखा तुमने आज का ?’ पूछता था विकास बड़े अचरज के साथ उससे।

मनु का ध्यान अब इस बात पर गया कि सुबह वह अखबार उलट-पलट रहा था, लेकिन वह अखबार चाटने वालों में से तो था नहीं। सो केवल फिल्मी कॉलम वगैरह देख रहा था। दूसरे छोर से उसमें कोई ऐसी खबर दिखी थी विकास को जिसे देख वो कुछ परेशान हो उठा था लेकिन तभी क्षमा के वहां आ जाने से वह कुछ कह नहीं पाया था। इसी बीच उसने फौरन वहां से चल देने का फैसला कर लिया था। वह सोचता था कि मनु ने उस खबर को पढ़ लिया होगा किंतु मनु तो किसी ऐसी खबर से अनजान था जो विकास की बेचैनी का कारण बनी थी। उसने देखा कि विकास अखबार के किसी पन्ने को अपने साथ ही ले आया था जबकि क्षमा ने अखबार पढ़ा भी न था। जरूर वह उन लोगों से कोई खबर छुपाना चाह रहा था।

क्या थी वह खबर ? सीट के पीछे खोंसा हुआ अखबार का पन्ना निकाल कर मनु ढूंढता था उस खबर को। ओह् !

अब क्या होगा ? क्या करे मनु किस्मत का मारा ? क्या किस्मत ले कर आया था बिचारा ? उसके हाथ पांव फूले जाते थे।

हुआ यह था कि उस रात बेहद नशे की हालत में लाश को जलाने व दफनाने के बाद वे दोनों तो किसी तरह आ लगे थे अपने डेरे बिना ये ध्यान दिये कि लाश अधजली तो न रह गई थी। अगली सुबह कबर बिज्जुनुमा किन्हीं जंगली जानवरों ने, वो जगह खोद डाली और रात को अपने खेतों के किन्हीं रखवालों की निशानदेही पर वहां से कुछ हड्डियां आदि बरामद कर ली थीं पुलिस ने। छोटे से गांव में फौरन तो पता चल जाता था कि कौन है और कौन गांव से नदारद है !

अखबार कहता था कि घटना में बरामद सब अवशेष ज्यादे पुराने न थे और हालांकि एमएलए साहब से अखबार या पुलिस अभी कुछ पतासाजी न कर पाई थी मगर विश्वस्त सूत्रों से पता चला था अखबार वालों को कि यंू तो छोटी सी आबादी वाले गांव में कोई इधर-उधर न गया था पर एमएलए के निवास के दो कर्मचारी दो-एक दिनों से गायब पाए जा रहे थे ! कोई वहां किसीके बारे में आसानी से मंुह खोलने को तैयार न होता था। अतः तप्तीश जारी थी।

मनु की रूह कब्ज हो आई थी। अब तो फंस गए दोनों ! खबर तो यही कहती थी। इतनी बड़ी मुश्किल से कैसे उबरेंगे वे ? कौन उबारेगा अब उन्हें ?

विकास को पता तो था कि यहां अनेक वापस हो लिये थे चुपचाप, अनेक अपनी धन-संपत्ति भी ओने-पोने गंवा कर अभिशप्त जीवन जी-जी कर मर मरा गए थे। अनेक थे जो भाईजी का अविरल साथ देते धन-संपत्ति बनाते थे। अपने जमीर को मार कर जिनके लिये जीना आसान हो उसकी तो यहां पौ बारह थी। अपने दिमाग का दरवाजा हमेशा के लिये सोच-विचार के लिये बंद कर दो, भाईजी के दिमाग से चलो तो फिर पकड़ाई में आने पर भाईजी बचाते भी थे। ये बात और थी कि उस रात डर के मारे बावड़ी की तरफ न जा विकास ने भाईजी के निर्देशों पर पूरी तरह अमल नहीं किया था। इसीका नतीजा सामने आ गया था।

उनके निर्देश थे कि इस प्रकार के काम को अंजाम देने के लिये उनके उक्त खेत के पार पुराने किसी समय की बनी गहरी बावड़ी से अच्छी कोई जगह नहीं हो सकती थी। उसी बावड़ी में कोई सौ सीढ़ियों के बाद नीचे उतर कर यदि विकास ने लाश को आग दी होती तो इक्का-दुक्का जाग रहे कोई चरवाहे व पास के गांव आदि के निवासी यही समझते कि बावड़ी में भूत नाच-कूद रहे हैं। वहीं राख और जल चुके कोयले आदि को भी पानी आसानी से अपने में समा लेता। बाकी बचे कुछेक अवशेषों को रफा-दफा करना इतनी बड़ी मुश्किल नहीं लाता। बुरे ही दिन आए थे उन दोनों के कि विकास ने थोड़ी कोताही बरत दी।

असल में वो बावड़ी में जाने से बचता था। भीतर ही भीतर बेहद धर्मभीरू व हनुमानभक्त विकास के लिये वहां स्थापित हनुमान जी के सामने ऐसा काम करना अब और संभव न था। उसके पहले इस काम में लगे बंदे के साथ वो कुछेक बार जा चुका था मगर एक बार तो आधे में ही डर कर भाग आया था। तब,

उस रात इस नए-नवेले भोंदू मनु के साथ वहां उतरने में उसे नानी याद आ रही थी सो उसने डर के मारे घने जंगल में पेड़ के नीचे ही वो सारा काम निबटा कर फुरसत पाई थी। वैसे गर्मियों में बावड़ी या कि जिसे बावली भी कहा जाता था, उसका पानी सूखने पर बावली की गहराई में डूबे-दबे राज नाग बन-बन कर सिर उठाने लगते थे। ऐसे ही एक वाकये के बाद भाईजी का वो दमदार समझा जाने वाला सहायक भी कुछ बरस पहले अपना रूपया-धेला संभाल उनका साथ छोड़ गया था। यह तय था कि अभी भाईजी को विकास जैसों की खासी उसकी जरूरत थी। इसीलिये उनकी पारखी नजरों ने मनु का चुनाव कर लिया था और उसे शरण देने में उन्होंने जरा देर न लगाई थी।

‘भाईजी ही उबारेंगे।’

विकास ऐक्सीलेटर पर दबाव बढ़ाता था बुरी तरह। लंबी सांस लेता मनु निढाल सा हो अपनी सीट में धंस सा गया था। उसका दिमाग न चलता था। सब कुछ जैसे किसी और ही लोक में घटित हो रहा था उसके आसपास का। गाड़ी का तेज गति से चलना, इंजन की आवाज, डीजल की गंध, सामने की सड़क, दौड़े जाते जंगल, पेड़-पौधे। सब जैसे किसी ओर ही लोक के थे। इस लोक का था तो वह जो उसे दुख के पहाड़ के रूप में मिला प्रतीत हो रहा था। निःसंदेह अब उसके दुख कम नहीं होने के, उल्टे वे बढ़ने ही हैं। उसका जी हो रहा था कि वह चिल्ला-चिल्ला कर रोने लगे, कि अपना माथा कहीं फोड़ने लगे, कि गाड़ी से उतरे और भाग जाऐ कहीं, कहां ? कहीं भी कि जहां यह सब न हो। इतनी जहालतें-मलामतें न हों।

पर कहां है कोई ऐसी जगह ?

वो जहां भी जाएगा ढूंढ लिया जाएगा। अब जीजा और उसके परिवार को कितनी आसानी हो जाएगी। वे लोग तो पूरे आजाद हो जाऐंगे उसकी बहन को सताने के लिये। उसका हताश मन सुलगता था कि आखिर क्यों और क्यों ईश्वर नाम की शक्ति उसने जब भी ढूंढनी चाही वह केवल पापियों के, गुनाहगारों के संग ही खड़ी मिली ?

ईश्वर कहीं होता भी है ?

सारे नियम-कायदे केवल गरीब के ही लिये हैं, कमजोर के ही लिये बने हैं सब ?

समर्थ को इन नियम कायदों के तोड़ने पर कोई सजा नहीं। करे समर्थ और भुगतें निर्बल !

उनके पापों की सजा हम भुगतें और सोचते रहें कि एक दिन ईश्वर उन्हें जरूर दंड देगा। कब देगा वह दंड ? कभी देगा भी तो तब तक तो ये सारे सुख भोग चुके होते हैं, गरीब न जाने कितना भुगत चुका होता है !

तब दंड दिया भी तो वो किस काम का ?

‘ तेरा अच्छा है बस् सोचने लगता है। मेरा तो दिमाग ही नहीं चलता।’  कहता था विकास।

जबकि मनु को तो लगता था कि विकास ऐसे में बेहद चतुराई से फैसला कर लेने में सक्षम था, वह स्वयं तो बस सोचता ही रह जाता था। उसके अवसाद की, हताशा की कोई सीमा न थी। बल्कि यहां आ कर तो उसे अवसाद और हताशा में डूबे रहने की आदत ही पड़ गई थी जैसे। इन दिनों उसे लगता था कि यहां उसके साथ कभी भी कुछ भी हो सकता है। कुछ भी वैसा जो उसके लिये अप्रत्याशित ही हो। अब यही देख लो ! पेपर में खबर थी कि - - - ओह् !

जब वे दोनों भाईजी के सामने पहुंचे तो वे अपने बड़े से डाइनिंग हॉल में नाश्ता करने बैठे थे। इतनी देर से उठने वाला कब तो नाश्ता और कब तो दोपहर का भोजन करे ? उनकी आंखें बेहद चढ़ी हुई लग रही थीं। रात का नशा अभी तक उतरा नहीं था। वे कुछ थके से लग रहे थे, कुछ परेशान भी। विकास और मनु के लौटने की खबर उन्हें दे दी गई थी। फिर भी वे जरा भी चौकन्ने न थे इस बात को ले कर कि नाश्ते पर उनके साथ इतने सेवकों के बीच कोई महिला भी मौजूद थी अपनी वाहियात उपस्थिति देती। वे बेबाकी से अपने संपर्क में आने वाली महिलाओं का उपयोग करने के लिये जाने जाते थे यह बात अब तक मनु के समझ में आ गई थी। देख वह पहली बार रहा था। क्या ? भाईजी जैसे किसीको किसी अन्य महिला के साथ या किसी महिला को भाईजी जैसे के साथ।

‘तो खाली हाथ लौट आए तुम दोनों ?’ पूछते थे वे उनसे।

वे क्या जवाब देते ? फिर भी विकास ने किसी तरह कहने की हिम्मत जुटा ली थी। वह वैसे भी उन्हें पहले से जानता था। उनके साथ कई सालों से काम कर रहा था। इसलिये उनके मूड के सारे उतार-चढ़ाव समझता था वह।

‘सब जगै छान के ही आए हैं हुजूर। कुच्छ नईं छोड़ा।’  कहता था विकास बड़े अदब से।

मनु हाथ बांधे मौन खड़ा था। भाईजी कुछ न बोले। बस् चुपचाप खाते रहे थे कुछ पलों। सेवकों का अमला सब कुछ जानते-बूझते नीची नजरें किये अपना-अपना तय काम मशीनी गति से निबटाए जाता था। वे कुछ पल बड़े ही भारी थे। किसी तरह बीते वे पल। उन गहरे पलों में भी बड़े इसरार से मनुहार कर-कर के खिला रही थी वही, वही जिसके सांवले से बदन पर मांस की उतनी बोटियां तो न थीं जितनी भाईजी को अपेक्षित होती हों। फिर भी वह न जाने अपने किस तरकश से बाण छोड़ती थी कि भाईजी को उसने पूरी तरह घायल कर रखा था। बड़ी हंस-हंस कर परोसती थी वह।

अरे ये तो वही थी उस रोज शॉल में जो मुंह छिपाए थी !

हां हां परोस ले, कौन अपने खुद के बाप का माल खिला रही थी। सोचता था मनु मन ही मन में। कैसी तो गंदी सी लग रही थी वह उसे। चली थी भाभीजी की जगह लेने हरामजादी ! कितनी बुरी दिख रही थी दांत दिखाती। लेकिन उसको गंदी लगने से क्या ? भाईजी के तो मन चढ़ी ही थी न्। चढ़ ले कितनी ही, अभी उतरेगी मन से उनके, तो देखना फिर विकास और मुझ जैसे के ही बिस्तरे पर फेंकी जाएगी बदमाश। मटक ले अभी जितना मटकना हो। वह मटक मटक कर कभी अपना पल्लू गिराती, कभी अपने बाल लहराती उनके ऊपर गिरती-पड़ती, झूलती-लहराती मरी जाती थी। गहरे श्याम वर्ण की अपनी रंगत छिपाने को उसने चेहरे पर न जाने कौन पाउडर-लाली पोता हुआ था मगर चेहरे के अलावा बाकी शरीर की कलुआई ऐसी थी कि अंधे को भी दिख जाए। आंखों को बड़ी-बड़ी और प्रभावशाली बनाने के उद्येश्य से गहरा मेकअप किया हुआ था जो मनु को तो उसमें डायन का ही दर्शन करा रहा था।

अपनी उन्हीं डायन जैसी आंखों को नचा-नचा कर वह भाईजी की बड़ी खास दिखने की कोशिश करती न थकती थी। जैसे उसे ही एकमात्र उसे ही भाईजी का ध्यान रखने की जिम्मेदारी दी थी भगवान ने वहां।

कहीं इंग्लिश की टीचर थी बताते थे, कुछ न कुछ लगातार इंग्लिश में बकर-बकर किये जा रही थी लगातार निर्लज्ज हंसी हंसती हुई। जब वह हंसती थी तो उसका सारा बदन झुनझुने की तरह हिलता था। मनु के मन में कितनी कितनी तो कड़वाहट आ रही थी उसके लिये। बड़ी अपने आप को खूबसूरत समझ रही थी, सोचती होगी बड़ी सुंदर लग रही हूं। कौन कहे कि एक बार आईना तो देख लेती !

पर वह देखता आया था कि अच्छी-अच्छी, सुंदर-सुंदर महिलाओं के पति बदरंग, बदसूरत औरतों पे मरते मिलते हैं। जाने कौन सी खीज उन्हें ऐसी बदसूरत ही नहीं बल्कि बदमाश औरतों की ओर ढकेलती है ! उसके अपने जीजा को ही लो। क्या करे वह उस हरामी जीजा का जिसे छोड़ भी नहीं सकती उसकी बहन क्योंकि समाज में लोग क्या सोचेंगे ? भले ही मरती-खटती रहे पर साथ उसके ही रहना होगा। यही था समाज का नियम।

समाज ने तो नियम बना दिया, यह भी तो देखा होता कि आदमी कैसा है ? सच्चरित्र है नहीं, और बस् महिला को सच्चरित्र बना कर घर में कोंडे रहो ! और देखो इस मोटी चमड़ी को, निलर्ज्ज जैसी को, इसके जैसी के लिये कोई नियम नहीं ! इसे समाज भी कुछ नहीं कहता क्योंकि जानता है न कि ये परवाह ही नहीं करेगी समाज की। इस जैसी के पीछे तो भाइजी जैसों की ताकत है जिस ताकत के सामने तो समाज दुम दबाए पिल्ले के जैसा बन जाता है। उसांस सी निकलती थी उसकी।

कैसे क्या होगा ? कहां जा छुपे ऐसे लोगों से बच कर। जो भाईजी ने उसे यहां से भगा दिया तो क्या करेगा वो, कहां जाऐगा ? और अभी तो पुलिस का डर और आ बसा था। उसने चोर नजर से देखा था विकास को जो कि अब कुछ निश्चिंत लग रहा था। क्योंकि उसे आखिरकार निश्चिंतता हो गई होगी कि पुलिस से भी वे बचाऐंगे और यहां से भी भाईजी कोई उन लोगों को भगा ही नहीं देंगे। आखिर उन्हें भी तो काम के आदमी चाहिये। ऐसे भगाते रहे तो कहां से लाऐंगे इतने लोग ? और मरवाऐंगे भी आखिर कितनों को ? मरवाना भी कोई खेल है क्या ? पर सच ही, उनके लिये तो खेल ही रहा होगा। कभी सपने में भी सोचा था मनु ने यहां आने के पहले कि वह किसी ऐसे आदमी के पास जा रहा है ? मानो कि एक राक्षस से निबटने के लिये दूसरे बड़े राक्षस से मदद मांगने जा रहा था ? एक कुऐं से निकल कर खाई में ही तो गिरने जा रहा था। जो उसे पता होता कि वे ऐसे हैं तो क्या वह आता उनके पास ?

कभ्भी नहीं !

उसकी ही तरह का सारा जमाना उन्हें बड़े ही अच्छे इंसान के रूप में जानता था। जो उनके एकदम पास आता था वही तो जान पाता था उनकी इस प्रकार की गंदली, घिनौनी, अमानवीय असलियत। दूर से तो वे बड़े ही सज्जन, बड़े ही आदर्श पुरूष लगते थे। कोई नहीं कह सकता था कि वे इस प्रकार के थे कि जिनसे सज्जनों को दो कोस दूर ही रहना चाहिये।

और ये लंपट, उन पर अपने शरीर की बोटियां की बोटियां न्यौछावर करती औरत ?  पर नहीं, ऐसा नहीं हो सकता कि इसे पता न रही हो उनकी असलियत। कहते हैं कि औरतों में तो भगवान तीसरी आंख देता है। क्या इसे समझ में नहीं आता था ?

क्या इसीलिये इसके माता-पिता ने इसे इतना पढ़ाया-लिखाया ? इतनी अकल भी नहीं दी इसकी पढ़ाई-लिखाई ने तो क्या काम की ऐसी पढ़ाई लिखाई ? इससे तो वो अपढ़ गमड़ियां ज्यादा अच्छी हैं जो अपनी इज्जत-आबरू पे नजर डालने वाले की सरे आम छीछालेदर करने में पल भर की देर नहीं करतीं। और,

क्या करता है इसका परिवार जो यह नहीं देख पाता कि उसकी छोकरी कहां कहां न मुंह मारती फिर रही है ? या फिर कहो कि वही इसका परिवार ही इसे इसके इस मनमाफिक काम में लगा के अपना उल्लू सीधा कर रहा है ? क्योंकि विकास ने बताया था कि वो किसी बर्खास्त जज की बेटी थी जो कि नौकरी में अपनी फिर से बहाली के लिये ऐड़ी-चोटी का जोर लगाता बताया जा रहा था। तो,

ऐड़ी चोटी का जोर लगा ना बंदे, बेटी का जोर काहे लगाता था ? या जाने कौन क्या कोई और मजबूरी है इस बेचारी की कि ये अपना बदन हिलाती-दिखलाती दोहरी हुई जाती है।

मनु न चाहते हुए भी उस महिला पर चोर सा नजर डाल ही लेता था। सोच-सोच कर हैरान था कि इतनी बड़ी कोई क्या तो रही होगी इसकी मजबूरी जो इसे भाईजी जैसे के सामने यूं बिछना पड़ रहा था ! और,

भाईजी को भी क्या यही मिली मरगिल्ली, सड़ियल की सड़ियल ? उनके पहलू में कहां तो पूनम फदामा की फदामा और कहां मरियल सोनिका और ये एक और खरपतवार। पर अच्छी मिलती भी कोई कहां से ? किसी अच्छी महिला को क्या पड़ी थी उन जैसे आदमियों के पास आने की ? सो, ऐसी-वैसी महिलाओं से ही काम चलाना पड़ता था उन्हें जिनमें रूप लावण्य नहीं मगर सस्ता घटिया औरतपन भरपूर होता था। अपने इसी सस्तेपन के बूते वे किसी भी प्रकार के काम करवाने में महारथ रखती थीं।

ऐसी औरतें ना किसी की मां हैं न बहन न पत्नी। ये केवल चालू मात्र होती हैं जिनका बस् एक घटिया देहधारिणी का, एक हवस की मारी मादा का पक्ष ही प्रबल रहता है। इसीलिये भाईजी के मनचढ़ी रहती थीं। जिस दिन उनके इस चालूपन का जादू चलना बंद कि उनका इधर कदम धरना भी बंद। तब भाईजी किसी और को फांस कर अपना उल्लू सीधा करेंगे।

पर राम जाने किसने किसे फांसा था ?

जो हो मनु को तो लगता था कि नुकसान में ये चुडैलें ही रहेंगी। आखिर सब कुछ लुटा के दो टुकड़े ज्यादा कमा भी लिये तो क्या हांसिल ? अपनी ही नजरों में गिर कर कैसे जी पाती होंगी इन्हें ही पता होगा। तभी न इज्जतदार औरतों से जलन रहती थी इन्हें। अगर इज्जत बेच कर पैसा कमा कर ही ये सुखी हो पातीं तो क्यों भले घर की महिलाओं से बैर पाले रहती हैं ? उनसे प्रतियोगिता क्यों फिर ? उस इज्जत के लिये बेचैन तो रहती ही थीं जो इस जनम में तो कभी नहीं मिल सकती इन्हें। लोग इनके सामने इनसे डरते-बचते थे, पीछे तो थूकते-गरियाते ही थे न।

वैसे आज मनु पहली बार भाईजी के ये रंग ढंग देख रहा था। महल में जब-जब इतने अंदर आया तो यही सब देखने आया था मानो। अभी तो और जाने क्या-क्या देखना पड़े जो यहीं रहा तो। भाईजी ने अब उस जरूरत से ज्यादा हंसती-मटकती, अच्छी भली उमर की लेकिन छमियां बनने की कोशिश कर रही चुड़ैल को हिकारत से झिड़का था। उनका क्या था जैसे सिर चढ़ाते थे वैसे उतार भी देते थे फटाफट। बेचारी अपना सा मुंह ले कर देखती थी एक पल को उन्हें, लेकिन दाद देनी होगी उसके बेशर्म कलेजे की कि फिर भी वैसे ही दांत निकाले इधर उधर देखती उन पर ढुली जाती थी।

क्या ऐसे ही, ऐसी औरतों की इतनी बेशर्मी देखते-सहते जीना बदा था मेरे भाग्य में ? सोचता था मनु जमीन में नजरें गड़ाए। अभी तो न जाने और क्या-क्या देखना लिखा था। उसके चौकन्ने कान सुनते थे भाईजी बेहद नपे-तुले अंदाज में डांट रहे थे उन्हें-

‘स्सालों क्या इसीलिये मैं तुम लोगों पर पानी की तरह पैसा बहाता हूं ? इत्ती बड़ी गल्ती करके आ गए !’

‘भाईजी साबजी असल में हमने एक-एक कोना छान मारा ’ विकास कहे कि उसका वाक्य पूरा होने के पहले ही भाईजी दहाड़े थे-

‘चोप्प ! मैं इसके पहले दिये गए काम की बात कर रहा हूं। देख लो अब, सब मामला पेपर तक में आ गया है। फंसोगे तुम ही दोनों। भुगतो। इसीसे कहता रहा हूं कि देखभाल कर काम किया करो। अब मैं बचाता फिरूं तुम्हें !’  उन्हें क्या चिंता थी।

मगर चिंता न थी तो उन्हें बचाने की बात क्यों करते थे ? वे अपने आदमियों को भरसक बचाने वालों में से थे। हालांकि ये उनकी मजबूरी भी थी। यह तो सोलहों आने सच था ! लेकिन, जो भी हो, फंसेंगे तो वे दोनों। क्यों ?

भाईजी के खेत में एक लाश जलाई-दफनाई गई थी और दो कर्मचारी गायब। कहां थे ? कहां से आ रहे हो ? किस मकसद से गए थे ? सब पता चल जाऐगा। विकास का वहां अनुभव हालांकि काफी दिनों का था मगर वो यह भी देखता आया था कि जरा सी कोई गलती अच्छे छंटे हुए अपराधी को सींकचों के पीछे पहुंचाने को पर्याप्त होती थी। तो अब ?

भाईजी का लेकिन कोई क्या बिगाड़ लेगा ? किसमें थी हिम्मत ?

किसमें थी इतनी हिम्मत ? थी क्या वहां किसीमें इतनी हिम्मत ? लेकिन,

थी ! एक आदमी में इतनी हिम्मत थी ! उसमें थी इतनी हिम्मत और खुद्दारी कि भाईजी के रिश्वत के प्रस्ताव को उसने परले सिरे से ठुकरा दिया था-

‘एमएलए साहब, ये पैसा अपने पास ही रखिये। कभी आपके काम आएगा। मुझे मेरा काम करने की सरकार तनख्वाह देती है। और क्योंकि नौकरी करने की आदत पड़ गई है इसलिये नौकरी कर रहा हूं। आप मुझे मेरा काम करने दीजिये। मैं बिकने वालों में से नहीं हूं। यकीन रखें यदि आप अपराधी नहीं हैं तो आपको मुझसे कभी कोई उलझन नहीं होगी। आपकी इस तरह की पेशकशों से कहीं मैं आप पर शक न करने लगूं। अभी तक तो मैं आपकी बेहद इज्जत करता हूं।’

’‘मैं तो आपका इम्तहान ले रहा था। मैं तो खुद चाहता हूं कि अपराधी बचने न पाए। वैसे आप स्वयं समझदार हैं। जब जैसी आवश्यकता हो बता दीजियेगा। आपके परिवार और आपकी एक-एक आवश्यकता का ख्याल हम नहीं रखेंगें तो कौन रखेगा  ?’

’‘जी नहीं सर। मैं अकेला अपना और अपने परिवार का ध्यान रखने में सक्षम हूं। बाकी नीली छतरी वाले की मेहरबानी है।’

भाईजी को जीवन में कोई पहला बंदा मिला था जो कुछेक सौ रूपये मात्र का सरकारी वेतन पाता था और उन्हें इतनी खरी-खरी सुना गया था। वे तो आज तक हत्या या बलात्कार हो कि जमीनें हड़पने की कोई हरकतें, अपना रूतबा दिखा कर, भेंट-पूजा आदि चढ़ा कर बेखटके अपनी मनमानी करते आए थे। कोई उनके डर के मारे चूं नहीं बोल सकता था फिर अभी-अभी आए इस कम उम्र छोकरे से थानेदार में कहां से इतनी हिम्मत आ गई ? तो,

उन्होंने अपने स्तर पर पता किया था तो पाया था कि जितनी बड़ी हवेली यहां भाईजी की थी या उसे ही महल कह लो, बिलाशक उससे कहीं ज्यादा बड़ी नहीं थी थानेदार के अपने गांव में उसके परिवार की हवेली मगर बताने वाले बताते थे कि मेरठ से दिल्ली के लिये निकली सड़क उसके खेतों से हो कर ले जाई गई थी। उसके परिवार को इतना मुआवजा मिला था कि बस् पूछो मत। और

इसके अलावा, भी पुश्तैनी जमीन-जायदाद, बाग-बगीचे उनसे कुछ ज्यादा नहीं तो बहुत कम भी न रहे होंगे। ओहो ! टक्कर बराबरी की लगती थी। उन्हें समझता था कि शीशे से शीशा टकराने में नुकसान कभी दोनों शीशों का भी हो सकता था !

क्या किया जाए इसका ?

काम तमाम तो किस-किस का करवाऐंगे ?

ये तो हो नहीं सकता था क्योंकि सरकारी आदमी था जिसका हिसाब-किताब देना उन्हें भारी पड़ जाऐगा। भाईजी कच्ची गोलियां तो खेलते नहीं थे। ना ना, वे सरकारी बंदे के काम में इस तरह बाधा नहीं डालेंगे। अरे इसका तो वे अभी तबादला भी नहीं करवा सकेगे। अभी-अभी ही तो आया है।

इससे कितना अच्छा था पहले वाला थानेदार। पव्वा हो, अद्द्धा हो, देसी हो बिदेसी हो, मिठाई हो के मिठाई के डब्बे में रख दिये गए नोट हों कि गर्म गोश्त की पेशकश हो, सब कुबूल ! ऐसे लोगों से काम कराना कितना आसान होता था। मगर इस नए थानेदार से वे अब कैसे पार पाऐं ? यह तो उन्हें चुनौती देता था भई ?

तो ?

’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’

9

‘तो तू किस दिन काम आऐगी ?’

कहते थे भाईजी बड़े ही अजब और घिनौने से अंदाज में उससे। दांत निपोरती हंसती थी वो, वही जो कि हंसती थी तो उसका पूरा बदन हिलता-झनझनाता था। उसे ही बुला कर किसी दिन बड़ी ही हिकारत व रहस्य भरे स्वर में आदेश दे दिया था भाईजी ने,

‘जा, मुठ्ठी में कर ले उसे।’

बेचारी !

वो थानेदार के क्वार्टर पर गई तो थानेदारनी भी कौन कम थी थानेदार से ?

‘बाई, मुझे झाड़ू-पौंछा के लिये नौकरानी मिल गई है। तेरी कोई जरूरत नहीं।’

वैसे भी तब उस जमाने में थाने पर हाजिरी बजाने आने वाले चौकीदारों को थानेदार के घर काम-काज निबटाने पड़ते थे। सो, थानेदारनी ने उसे बाहर द्वार से ही चलती करने की गरज में कहा था। पुलिस वाले की बीवी थी वो, वह जानती न थी क्या ऐसी महिलाओं को ? जहां ढंग का मर्द दिखा नहीं कि चल पड़ती हैं घाघरा उठाए ! चल ओए, यहां तेरी दाल ना गलेगी। उस छमियां पर कितने सलीके से कामवाली बाई का लेबल लगा कर उसे उसकी औकात बता दी थी थानेदारनी ने। मगर,

पतुरिया तो पतुरिया ठहरी। ऐसे कहां टलने वाली थी आसानी से ? जब एक तीर निशाने पर न लगा तो दूसरा हाजिर करती कहती थी-

‘आप मुझे गलत समझ रही हैं। मुझे तो अपनी किसी शिकायत के बारे में बात करनी है उनसे।’

‘थानेदार सा थाने पर ही मिलते हैं। वे घर पर थाने के काम नहीं लाते। थाने जैसा काम वहीं जा के बता।’

घर में घुसपैठ करने को वह कहे कि-

‘यहां गांव में आपको परेशानी तो नहीं बच्चों की पढ़ाई को ले कर ? मैं बच्चों को ट्यूशन पढ़ा सकती हूं।’  तो उसका माजरा झाड़ते हुए थानेदारनी ने दो टूक कह दिया था कि-

‘बच्चे केवल अंग्रेजी में कमजोर थे। थानेदार को इतनी अंग्रेजी आती है, और वो इतना टाइम भी निकाल लेते हैं कि अपने बच्चों को अंग्रेजी वही पढ़ाते हैं। तुझ से मेरे बच्चे नहीं पढ़ेंगे। जा तू वापस। तेरी कोई जरूरत नहीं यहां ’  ठेठ मेरठी बोली में बोलती थी वो तो।

उस अपनी छमिया को लतियायी कुतिया की तरह वापस आ गई देख भाईजी हैरत में। उन्हें पहली बार गुस्सा आता था उस अपनी पाली हुई कुतिया पर जो थानेदार को घेरने में कामयाब न हो पा रही थी। वे इधर-उधर से, सब तरफ से घेरने की कोशिशें कर-कर के हार चुके थे। थानेदार टस से मस नहीं हुआ तो नहीं ही हुआ।

अब तो बात अखबारों के माध्यम से जनता में अच्छी तरह फैल गई थी। चुनाव सर पर था। विपक्ष तो विपक्ष था भितरघातियों की भी अब तो चढ़ बनी आती थी। वे सब आलाकमान के सामने भाईजी के कारनामों का खुला चिठ्ठा रखने में क्या देर करेंगे ? क्या होगा जो जनता को सच का पता लग गया ? अब तक अपनी अच्छी इमेज के बलबूते ही जीतते आए थे अब तो आसमान टूटता दीखता था उन्हें जैसे अपने सिर पर। ऐकादशी तो आ कर बीत भी गई थी। सब पूछते थे मालिकिन कहां ? कभी यहां गई हैं तो कभी वहां गई हैं के बदले उन्होंने कह दिया था कि बच्चों को दार्जिलिंग पढ़ने भेजा है, बच्चों की मां वहीं गई हुई हैं। और बच्चों की मौसी ? वे भी उनके साथ वहीं हैं। सब मानते थे लेकिन थानेदार नहीं माना था। कहता था -

‘मेरी बात कराईये। उनमें से किसीसे भी।’

‘फोन नहीं लग रहा, वहां फोन नहीं है ’  आदि रटे-रटाऐ बहानों से जब काम न चला था तो कहां तक न करते गुस्सा ? वे चाहते तो नहीं थे क्योंकि वक्त की नजाकत को उनसे बेहतर और कौन समझ सकता था मगर न चाहते हुए भी उन्हें कुछ आवेश हो आया था-

‘आप हमारे खानदान की स्त्रियों की अवमानना कर रहे हैं।’  वे मूंछों पर ताव देकर बोले थे।

‘मैं सिर्फ उनके दर्शन करना चाहता हूं। और फिलहाल उनकी सलामती चाहता हूं।’

थानेदार अपनी तप्तीश में जी-जान से लगा था। उधर, भाईजी को ताव आता था बेवजह तो नहीं ही न ? ले कर ले दर्शन। पर कैसे कराऐं ?

‘आपकी रिवॉल्वर ?’ पूछता था वह उनसे।

‘खो गई है कुछेक महीने पहले।’

‘रिवॉल्वर खोने की रिपोर्ट तो दर्ज कराई ही होगी आपने ?’  पूछता था वह जानकार कि जिसके पास भी लायसेंसी रिवॉल्वर आदि होता है उसे पता होती हैं ये सब बातें।

‘नहीं, अनेक कामों में इस तरह उलझा रहा कि रिपोर्ट नहीं लिखा पाया। अब दर्ज कर लीजिये रिपोर्ट।’

उसके कारतूसों का विवरण तो क्या-क्या तो पूछता उन्हें थाने आ कर रिपोर्ट दर्ज कराने के नियम की बात करता था थानेदार !

पहली बार लगता था भाईजी को कि किसीसे पाला पड़ा था।

थानेदार ने उनके आम के बाग से लगे उस खेत में जंगली पशुओं द्वारा खोद निकाले गए उस बोरे की फोरेंसिक जांच कराने भेज दिया था। उधर उस बोरे में बंद महकती-सड़ चुकी अधजली काया के सिर के भाग को वह विशेषज्ञों के सामने रखते असमंजस में था कि आखिर वह लाश थी किस अभागे की ? कि जिसकी खोपड़ी के बाऐं भाग में गोली मार कर आसानी से उसे मार दिया गया था बड़ी बेरहमी से, और उसकी लाश बेहद जल्दबाजी में जलाई-दफनाई गई थी। जरूर वो सब सबूत व पहचान मिटाने को ही किया गया था।

बड़े सार-संभाल से निकाल कर वह कारतूस जब्त किया गया जो खोपड़ी में फंसा रह गया था।

इतना सुबूत काफी था ?

बेशक ! दनादन उसने इलाके के एक-एक बंदूकधारियों के कारतूसों के हिसाब-किताब लेने शुरू कर दिये थे। निःसंदेह आज नहीं तो कल पता चल ही जाना था हत्यारे का क्योंकि थानेदार का मानना था कि हर हत्यारा अपने कुछ न कुछ सुराग अवश्य छोड़ता है चाहे वह कितना ही चतुर क्यों न हो ! एकाध कोई सूत्र और हाथ आने की देर थी कि हत्यारा सींकचों के पीछे होगा।

थानेदार सोचे और कोई सूत्र हाथ न आए तो नहीं ही आए। कहीं ऐसा न हो कि इस बीच हत्यारा अपना किला मजबूत कर ले ? ऊपर से फोन आदि कराके केस को दबा दो, बंद करा दो, ऐसा कर दो, वैसा कर दो। सब होता देखा था थानेदार ने अपने उस छोटे से सेवाकाल में। सबके सामने जो बड़े-बड़े अफसर बड़े सख्त दीखते थे वे ही रसूख वालों के सामने उसने साष्टांग दंडवत करते देखे थे। खरी-खरी तप्तीश व जांच का खामियाजा उसे आए दिनों साल-छह महीनों में स्थांनांतरण के रूप में, तो उसके परिवार को इस रूप में झेलना पड़ता था कि कभी ऐसा नहीं होता था कि उसके बच्चों ने जिस स्कूल में प्रवेश लिया हो वे वहीं परीक्षा दे सके हों ! यहां प्रवेश लिया तो परीक्षा वहां दी। यह तो सामान्य बात हो चुकी थी उन लोगों के लिये।

इस सबसे डरता कौन था ? हां, कभी कभी दैवयोग से ऐसा भी होता था कि उच्चाधिकारी भी उसके जैसे ही अड़ियल, सच के पीछे पागल से मिल जाते थे तो फिर तो बड़ी ही अच्छी जमती थी। यहां किस्मत से कहिये कि कुछ ऐसा ही सुखद संयोग मिल गया था आईजी और एसपी दोनों के रूप में। बहरहाल,

खुली हुई खिड़की के रास्ते सुबह की किरणें थाने के उस कमरे में यूं आ जमीं थीं कि जैसे वे भी जानना चाहती हों कि आखिर वह अभागा कौन था ? फोरेंसिक रिपोर्ट आने के पहले पहचानना बड़ा ही मुश्किल था। केवल नरमुंड वह भी जला हुआ, शत प्रतिशत जला हुआ सा शरीर कैसे किसी पहचान का आधार बन सकता था ? मगर, उस नरमुंड में कुछ बजने जैसी कोई कैसी आवाज आती थी भला ? ओह ! कुछ तो पता चले। थानेदार ने एक बार और नरमुंड को हिला कर वो आवाज सुनी।

होगा किसी टूटी-जली-चटकी हुई हड्डी का कोई टुकड़ा बेचारा, और क्या ? लेकिन

ये कैसे,

भला किस एंगल से रखने में आ गया था वो नरमुंड थाने में उस टेबल पर खिड़की से छन कर आती धूप में ?

किसी इठलाती, सच् और केवल सच् को जग जाहिर करने को एकदम ही लालायित उस ढीठ व निडर सूर्य किरण ने तो अपना काम कर ही दिखाया था ना ! वह तो सीधी-सतर जा कर उस नरमुंड के नाक व दांत वाले हिस्से में कहीं उलझे उस प्रकाश पुंज से नेह ही लगा बैठी थी मानो, और नहीं तो क्या ?

अरे हां भई, सच में,

सूरज की अत्यंत जिद्दी वह किरण किसी उस प्रकाश पुंज पर अपनी चमक की समस्त क्षमता लुटाती उसकी चमक में अपनी चमक मिलाती दोहरी ही हुई जाती थी नामुराद !

उस अधजले, मिट्टी सने नरमुंड की नाक के नीचे जबड़ों की किसी हड्डी में फंसी दीख रही थी सूर्य की उस किरण के साथ मिल कर, हजारों हजार किरणों की रौशनी सी दमकती आभा लिये वह नाक की एक लौंग कि जिसका लश्कारा चमचमाता हुआ चीख-चीख कर मरने वाली का नाम, उसकी पहचान उजागर कर रहा था ! कहते हैं कि सुहागन महिला की लाश पर छोड़ा कोई जेवर महाअग्नि में जलने से रह जाए तो उसे परिवार के लिये शुभ मान कर आशीर्वाद स्वरूप साथ लाया जाता है। लेकिन,

उस वीभत्स रात में वह लौंग क्या दहकती महाअग्नि के ताप को इसलिये सह गई थी कि उसे कोई ऐसी मौन, किंतु खरी गवाही देनी थी ?

एकमात्र चश्मदीद सी वह तो चमचमा-चमचमा कर बेबाक गवाही दिये ही दे रही थी ना, बिना कुछ कहे सब कुछ कहती थी उसकी चमक उस लौंग के लश्कारे में मिल के -

भाभीजी !!!

उस लौंग को बड़े ही ऐहतियात के साथ निकलवा कर पंचनामा बना कर दिखाता था युवा थानेदार महल के सेवकों को, न जाने किन किन को-

‘बताओ कौन पहनती थीं ये लौंग ? तुमने किसकी नाक में देखी थी ये लौंग ?’

सबने उन्हें सिर पर से आंखों के नीचे तलक घूंघट लिये देखा था, उनके उस घूंघट की ओट से उनकी सुती हुई नाक में लौंग, जिसने उन्हें एक बार भी देखा था, उसने वह लौंग अवश्य देखी थी। कोई न था वहां ऐसा जो उस लौंग को न पहचानता हो। मगर उन सबके मुंह सिले हुए थे।

‘भाभीजी भाभीजी’  कहते-पुकारते मनु बेहोश होने की हालत में नीचे जमीन पर पसर गया था। विकास हताहत सा मौन खड़ा था जब उन दोनों को दिखाई गई थी वह लौंग।

भाईजी तो बिलख-बिलख कर, चीखें मार-मार कर रोने लगे थे बेचारे, जब उनके सामने वो चमचमाती, लश्कारे मारती नाक की एक लौंग बेहद हिफाजत व नफासत के साथ थानेदार के द्वारा रखी गई थी,

सबसे बड़ा सुबूत, सबसे पर्याप्त सुबूत-

‘अरे क्या मैं इस लौंग को नहीं पहचानता ? अरे मैं तो समझ रहा था उन्हें दार्जिलिंग भेजा है। इन लोगों की रास्ते में नीयत खराब हो जाएगी ऐसा तो मैं सपने में भी नहीं सोच सकता था। मैंने तो उन्हें अपने फूल से बच्चों के पास मिलने भेजा था। मुझे क्या पता था कि ये लोग उन्हें परलोक ही भेज देंगे। थानेदार साहेब कर लीजिये इन्हें गिरफ्तार, ये ही हैं मेरी पत्नी के हत्यारे। उनके शरीर पर न जाने कितने जेवर थे इन लोगों ने उन जेवरों के लालच में उन्हें मार डाला। अरे हरामियों मुझे कहा तो होता मैं तुम लोगों को अपना सारा सोना, सारी धन-दौलत दे देता। अब मैं कैसे समझाउं अपने इस दिल को ? क्या जवाब दूंगा अपने मासूम बच्चों को ? ’

कितना-कितना हाहाकार, कितना-कितना विलाप करते न थकते थे भाईजी। जो उनका रूदन सुनता था, जो उनका हाहाकार देखता था द्रवित हो जाता था।

तो,

प्रथम दृष्टया तो अपराधी मनु व विकास ही ठहर रहे थे। आखिर वे दो-तीन दिनों से न जाने कहां-कहां भागे फिर ही तो रहे थे।

गए होंगे अपने जुर्म से बचने की व्यवस्था करने !

अन्य सेवकों ने अपने जो भी बयान दिये उनसे यही साबित हो रहा था कि हां हां, वे भाभीजी को ले कर दार्जिलिंग के लिये निकले और कहीं रास्ते में सुनसान का फायदा उठाते हुए इन दोनों ने उन्हें मार डाला, उनके सारे जेवर उतार लिये बस् नाक में पहनी लौंग ही जल्दबाजी में इनसे न उतर सकी। वो तो इन्हें पता न था कि वो लौंग कितनी-कितनी कीमती थी। उसमें जड़े उन बेशकीमती हीरों की जड़ावन कर सकने वाले तो अब कारीगर ही नहीं रहे। उस लौंग में जड़े हीरे आज कहीं मिलने मुश्किल ही नहीं असंभव ही थे। इनको जो इतना पता होता तो उस लौंग को भी वे कहां छोड़ते ?

अरे कितने निर्दय थे वे लोग। उन्हें मार डाला सोने-चांदी के लालच में। उनकी लाश को जला कर वहीं दफन भी कर दिया !

किसी चरवाहे ने तो उस रात भाईजी के खेतों में आग की लपटें भी देखीं थी अपने मचान पर लालटेन ले कर जब वह अपने खेतों की रखवाली करता था। उसने झट से लालटेन मद्धिम करके फूस की आड़ में कर दी थीं। वह समझ गया था कि किसीको निबटा दिया गया था। कहने की आवश्यकता नहीं थी कि ऐसा तो वहां साल-छमासे में होता ही रहता था।

ना ना, मनु और विकास के विरूद्ध अपने बयान में उसने और सब कहा था बस् ऐसा नहीं कहा था !

पोस्टमार्टम आदि की अनेक पुलिसिया रस्मों के बाद सफेद कपड़े में लिपटी वो पहले से ही जली-फुंकी, लाश भाईजी को सौंप दी गई थी जिसे वे रोते-हिलकते, अपने ताम-झाम, पूरे लाव-लश्कर के साथ ले गए थे।

सारा गांव, आसपास के गांवों के, उनके ससुराल पक्ष के, उनके स्कूल के मित्र, अनेक मंत्री, अनेक अफसर, भाईजी के चुनाव क्षेत्र के न जाने कितने पक्ष-विपक्ष के असंख्य लोग जिसने पेपर पढ़ा, जिसे जैसे भी खबर मिली अंत्येष्टि में शामिल होने को आऐ थे। स्वयं थानेदार अपने सादे कपड़ों में उन्हें सम्मान देने को उपस्थित था। पुलिस बल लगाना पड़ा था ऐसी थी भाभीजी की प्रसिद्धि !

कितना प्रेम था अपनी अर्धांगिनी से, रोते-रोते न थकते थे भाईजी ! अर्सा से उनके साथ उसूलों की अपनी लड़ाई के चलते अलग हो चुके भाईजी के एकमात्र छोटे भाई नम आंखों से रह-रह कर सारा जायजा लेते रहे थे मशीन की मानिंद। बीच-बीच में बेसुध से हो जाने वाले कुशल अभिनेता भाईजी को वे निस्पृह भाव से संभालते देखे जा रहे थे। कौन न उपस्थित था वहां उस दुख की घड़ी में भाईजी के साथ ? अपने-पराए सब सारे मतभेद भुला कर आ जुटे थे उस अभागी मृतका की आत्मा की सद्गति के साक्षी बनने।

पूरे वैदिक मंत्रोच्चार के साथ जब शास्त्री जी ने भाभीजी की आत्मा का अनंत में मिल जाने का आव्हान उच्चारा था तो मानो सारा धरती-आसमान रोता था। पत्ता-पत्ता हिलकता, विचलित होता था उनकी याद में। कोई तो आंख हो जो नम न हुई हो ?

उनका पालतू तोता जो अपनी मालिकिन के हाथ से दिया खाना ही खाता था, उस उनके प्रिय तोते ने तो उन्हें इन कुछ दिनों तक न देख कर ही बिना कुछ खाए अभी कल ही प्राण तज दिये थे।

भाईजी ने उस तोते को भी उनके साथ ही महाअग्नि में विलीन कर दिया था और भरपूर विलाप करते थे-

‘अरे मुझसे तो तू ही अच्छा। मैं तो मर भी नहीं पाया रे ! मुझे भी अपने साथ ले जातीं, तुम क्यों इस तरह चली गईं ? ’

- - -

आज की तरह ढेरों तो नहीं पर काफी कुछ कैमरे अवश्य चमकते थे रोते-सुबकते, चिता की परिक्रमा करते भाईजी पर, एक-एक पर, इतनी भीड़ पर। वह कम उम्र का बहुत कुछ छोकरा सा कहा जाने वाला थानेदार दो मिनट के मौन के बाद निकल जाने को इच्छुक था मगर सब जगह तो आप थानेदार नहीं हो न् ?

कहीं-कहीं आपको इंसान भी होना ही पड़ता है।

बेशक, इंसान होने के नाते थानेदार को वहां मौजूद रहना था लेकिन नजर सब जगह उसकी एक थानेदार की, खोजी नजर ही थी। दिमाग तब भी केस की गुत्थियों में ही उलझा हुआ था। हत्या के अपराध में अपने किसी उसूल से कोई समझौता न करने वाला, हत्या के मामले में एक लाल पाई न लेने वाला थानेदार यह क्यों जानना चाहता था कि भाभीजी की अंत्येष्टि पर और सब तो एक्कम एक आ गए थे मगर ?

उनके अंतिम दर्शनों को कौन था जो नहीं पहुंचा था उनके अपने सगों में से ?

कोई विश्वस्त सिपाही थानेदार के  कानों में कुछ कहता था आ कर।

हुंम्म !!!

उधर महाअग्नि में उस पहले ही से जली-फुंकी देह के सारे निशान, उस संतप्त आत्मा के सारे संताप मिटे जाते थे, चंदन की चिटकती-जलती लकड़ियों से उड़ते धुंऐ के गुबार के गुबार आसमान में जा-जा कर कहीं नेपथ्य में विलीन होते न थकते थे। मगर, थानेदार के दिमाग में संदेहों के अनेकानेक गुबार ज्यौं के त्यौं बने हुए थे जो पूरी शिद्दत से अपने समाधान मांग रहे थे।

जनता पर अपना प्रभाव जमाने की ललक में और अफसरों पर अपना रूतबा जमाऐ रखने की अपनी नीति के कारण प्रदेश की राजधानी में भाईजी ने कभी किसी आईपीएस को सिर्फ इसलिये सस्पैंड करा कर ही दम लिया था, कि उसने उन्हें यानि जनसेवक को सैल्यूट नहीं किया था। इस प्रकरण के चलते उस अफसर का प्रमोशन रूक गया था।

यहां,

थानेदार की किस्मत और कहो कि भाईजी की बदकिस्मत कि वही आईपीएस यदि प्रमोट हो गया होता तो कहीं किसी संभाग में डीआईजी बन के बैठा होता, अभी उनका वह शत्रु बन कर इस जिले का एसपी न होता। और, थानेदार को सेना से इस्तीफा देने के बाद पुलिस सेवा में लाने वाला उसका एक दूर रिश्ते का चाचा था प्रदेश का आईजी। उन दोनों ने थानेदार को फ्री हैंड दे दिया था।

जो हो,

बशीर व रामप्रताप दो वे पुलिस कर्मी थे जो वेतन पुलिस विभाग से लेते थे और काम भाईजी के लिये करते थे, वे मनु व विकास को उनकी ओर से आश्वस्त करते थे कि जल्द ही भाईजी उन्हें छुड़ा लेंगे। थोड़े दिनों का चक्कर है। अभी तुम ज्यादा मत बोलो। भाईजी संदेसा भिजवाते थे उनके लिये कि डरें नहीं। बस् थोड़े दिनों की परेशानी है। जनता की स्मरणशक्ति बहुत कमजोर होती है। अभी कुछ दिनों में ही बेवकूफ जनता भूल जाएगी कि क्या हुआ था, किसने किया था ! चुनाव हुए, अपन जीते कि फिर बस् सारी की सारी हवा अपने पक्ष में। कुछ दिन जेल में रह लो। जितना चाहोगे पैसा अलग मिलेगा।

हालांकि प्रथम दृष्टया अपराधी पकड़ लिये गए थे जिनको ले कर जनता में भारी आक्रोश था। क्योंकि भाभीजी सबको प्रिय थीं, आदरणीय थीं।

वे आखिर भागे क्यों थे, कहां गए थे किसके कहने पर गए थे, क्यों, क्या करने गए थे ? पूछती थी उन दिनों की बेरहम पुलिस अपने पुलिसिया तौर तरीकों से। वे कुछ-कुछ मुंह खोलते थे, बहुत कुछ छिपाते थे। मगर अभी तो थानेदार द्वारा वास्तविक तहकीकात यूं होनी थी जिससे वास्तविक अपराधी के चेहरे से नकाब हट सकता था और, यह भी तो संभव था कि जो पकड़े गए थे वे ही वास्तविक अपराधी सिद्ध हों !

थाने का घेराव आदि उन दिनों आम बातें नहीं हुआ करती थीं फिर भी, जो अपराधियों को सही वक्त पर जिला जेल नहीं ले जाया गया होता तो सचमुच जनता तो उन्हें पीट-पीट कर मार ही डालती। किसी प्रकार उन्हें कोर्ट में प्रस्तुत किया गया था भारी सुरक्षा में।

लेकिन,

इस सारे अप्रत्याशित घटनाक्रम के चलते राजनीति की बिसात में भाईजी के विपक्षियों के सारे प्यादे, घोड़े, उंट आदि सब चित्त हो चुके थे। उनके हाथों के सब तोते उड़ चुके थे। विपक्ष तो विपक्ष उनकी अपनी पार्टी में ही भाईजी के विरोधी खेमे में भारी निराशा छाई हुई थी। क्योंकि अबकि चुनाव में भाईजी का टिकट ही पक्का नहीं था बल्कि उनकी जीत भी पक्की थी। इतनी सहानुभूति तो उन्हें कहीं मंत्री ही न बनवा दे ! उन्हीं की पार्टी के अनेक उनसे जलने वालों के दिलों पर सांप लोटते थे अनगिनत।

इस सब राजनीति के परे, थानेदार को सब्र करना बड़ा भारी पड़ रहा था मगर सब्र के बिना कोई चारा भी ना था। थाने की टीम कहती थी कि तेरहवीं हो जाए तब तक महल में न जाने का सब्र करना ही होगा। लेकिन नहीं, नहीं !

हत्या के मामले में इतने सब्र से तो पूरा खेल ही बदल सकता था। सो, थानेदार को अपने काम में लगातार बिना एक पल को भी आराम किये लगे रहना सुहाता था। इसी क्रम में, अब यह स्पष्ट दिखता था कि भाभीजी की हत्या वाले दिन से ही महल से कोई शख्स गायब था जो न भाभीजी के अंतिम दर्शनों में दिखा न ही अब तक के किसी कार्यक्रम में ही नजर आया है। जिसकी खोज में सब तरफ पुलिस पार्टियां भेजी जा चुकी थीं मगर जैसा कि मनु और विकास ने पूछताछ में बताया था उन जगहों से वे पार्टियां जैसी गईं थीं वैसी ही खाली हाथ लौट आईं थीं।

लेकिन, भाईजी ने अपने उन दोनों सेवकों को किसकी खोज में और क्यों भेजा था ? वे अपने तई क्या-कैसी तहकीकात करवा रहे थे ?

क्या उन्हें किसी पर शक था ? किस पर था शक ? यदि था तो वे पुलिस को क्यों नहीं बताते थे ? क्या कोई आपसी रंजिश थी उनकी किसीसे ? जिसका ऐसा बदला लिया हो किसीने उनसे ?

कुछ पता न चलता था। और,

पता चलाने की धुन में महल के चप्पे-चप्पे की तलाशी का वारंट लिये महल में अपनी विश्वस्त टीम के साथ घूमता वह जिद्दी, निडर थानेदार महल का जर्रा-जर्रा तलाशता था। इसके बाद भाईजी के मन का कोना-कोना खंगालने को था। जिस पर भी उसे राई के दाने के बराबर भी संदेह था वह उसके मन में प्रवेश करके उसकी अंदरूनी बातें उगलवा लेना जानता था जैसे।

महल की तमाम सावधानियों के बावजूद भी अनेक औरतों से भाईजी के संबंधों के अनेक प्रमाण वहां के दरो-दीवारों में बेशर्मी से सरगोशियां करते थे। वे सारे सबूत भाभीजी के दुखी वैवाहिक जीवन की कहानी कहते न थकते थे। बावजूद इसके भाईजी पुलिस को पूरा सहयोग कर रहे थे। आखिर वे एक जिम्मेदार जनसेवक जो थे ! पहले पहल भावुक हो कर जहां वे दोनों सेवकों को भाभीजी के हत्यारे बता रहे थे, वहीं वे अपने दोनों सेवकों को निरपराध बताते थे अब।

बड़े ध्यान से केस निपटाने में जुटे थानेदार ने जेलर से मिल कर दोनों को एक ही कोठरी में रखने का आग्रह क्यों किया था ? यह तो वही जाने ! रही होगी कोई केस संबंधी आवश्यकता।

भाईजी ने ही पुलिस को बताया था कि हत्या वाले दिन मनु का जीजा आया था और उसी रात गायब भी हो गया था, उन्होंने उस अनजान आदमी से वहां आने का कारण पूछा तो वह हड़बड़ा गया और उसने बताया कि वह मनु नामक उनके नए सेवक का जीजा था जो मनु को खोजता गल्ती से अंदर तक आ गया था ! उन्होंने उसकी बात का विश्वास करते हुए उसे जाने दिया था। तब दिन की पाली के सेवक जा चुके थे और रात पाली के सेवक आने में ही रहे होंगे। उन्होंने तो थानेदार को उस जगह पर ले जा कर महल का वह हिस्सा दिखाने में जरा देर न की थी जहां उन्हें मनु का जीजा संदेहास्पद हालत में घूमता मिला था। वहां जरा देर की आसान खोज में ही एक रिवॉल्वर परदे के पीछे छिपी मिल गई थी।

हां, हां, ये तो वही रिवॉल्वर थी जो गुम हुई थी, जिससे हत्यारे ने गोली मारी होगी क्योंकि उसमें एक कारतूस कम भी था। भाईजी बड़ा सहयोग कर रहे थे !

थानेदार ने उसे पूरे ऐहतियात से बतौर सुबूत जब्त किया और उस पर पाऐ गए अंगुलियों के निशानों को जांच के लिये भेज दिया। और, उधर, मनु के कमरे से तो इतने सारे नोट मिले कि जिन्हें मनु दस सालों तक नहीं कमा सकता था। उन नोटों का क्या ?

क्या वह अपने जीजा से मिला हुआ था ?

क्या वे मनु ने नहीं वरन उसके जीजा ने चुराए थे। न हो कि हत्या मनु ने नहीं बल्कि जीजा ने की होगी पैसों व गहनों के लालच में ? हां हां, बिल्कुल हो सकता है। भाईजी थानेदार से अपना शक साझा करते थे। बताते थे कि उनकी पत्नी आखिर इलाके के इस इतने धनी-मानी घराने की मालिकिन थीं सो अपने पास काफी रूपया-पैसा भी रखा करती थीं। ये वही नोट रहे होंगे, इन्हें मनु के जीजा ने ही चुराया होगा। उनका पूरा जोर अब अपने बंदों को बचाने पर था।

मनु तो अंदर ही अंदर टूटता था। कभी कुछ कहे, कभी कुछ। उधर उसके गांव में जीजा की धरपकड़ हो गई थी। उससे सारे गहने बरामद भी कर लिये गए थे। यहां की पुलिस उसे ले आई थी। इस घटना में पुलिस को पूरा सहयोग देती मनु की बहन अपने भाई को बचाने के लिये उससे मिलने जेल आई। वह समझ रही थी कि उसे किसी ने फंसाया है।

मनु ने बहन को देखा तो फूट-फूट कर रोया, इतने दिनों बाद बहन को देखना बदा था वह भी इस हाल में, और जेल में। किसने सोचा था ?

जीजा को भी वहां की उसी एकमात्र जेल में डाल दिया गया था। जेल की हवा खाते ही उसकी सारी हेकड़ी गायब हो गई थी। वह लगातार कहता था कि उसने हत्या नहीं की। हां वह मनु से मिलने आया अवश्य था पर बिना आज्ञा वह महल में नहीं घुसा था। उसने द्वार पर तैनात सुरक्षाकर्मी से परची भिजवाई थी तब भाईजी ने ही उसे अंदर बुलाया था। आने का कारण आदि पूछ कर उसे जेवर खुद भाईजी ने दिये थे।

तो,

क्यों लिये थे उसने इतने जेवर उनसे ? पूछा नहीं कि क्यों दे रहे थे ? बस् जेवर लिये और चला आया ? ऐसा भी कहीं होता है ? कोई मालिक अपने नए आए किसी सेवक के किसी रिश्तेदार को अचानक ही इतने सारे जेवर थमा दे ! और आखिर वह आया किसलिये था ? कहीं मनु ने ही तो उसे नहीं बुलाया था कि इतना माल-मत्ते वाला घर है ?

नहीं नहीं।

वह हाथ जोड़-जोड़ कर माफी मांगता था कभी मनु से तो कभी मनु की बहन से, बताता था पुलिस को कि वह तो मनु को समझा-बुझा कर वापस ले जाने ही आया था कि इतनी जमीन है अपनी, उस पर खेतीबारी करके अमन-चैन से रहेंगे वहीं गांव में। वो अब वादा करता था कि अब कभी अपनी पत्नी को परेशान नहीं करेगा। लगता था उसे सचमुच ही अक्ल आ गई थी या कि वह कोई चाल चलता था ? पुलिस की मार के आगे कब तक न स्वीकारेगा अपना अपराध ? अरे पुलिसिया पिटाई से तो अच्छे अच्छों की अकल दो मिनट में ही ठिकाने लग जाती है।

रो कर थक चुका मनु का मन जब हल्का हो चुका था तो वह देख पाया था कि जेल में पड़े पड़े विकास गहन निराशा में जा धंसा था। उसके चेहरे पर चिंता व हताशा की लकीरों ने स्थायी जाल बुन दिया था। मनु यद्यपि स्वयं अभी तक हालात से समझौता न कर पाया था मगर विकास की इतनी इतनी चिंताओं का कारण समझ में न आता था मनु के।

उसी रात कि जब पुलिस विकास से अपराध उगलवाने की कोशिशें करती थकी जाती थी, उसे आधा घंटे के लिये अकेला छोडा गया था, उस रात वह क्षमा का नाम ले ले कर चिल्लाता था-

‘तू यहां क्यों आई ? तुझे मना किया था ना मैने ?’

वह मानो अपनी जागी आंखों से सपना सा देखता था कि क्षमा आ कर महल में रहने लगी है और - - -

भाईजी ? ? ?

भाईजी उसे अपने महल में बुलाते थे। वह पागलों सा चिल्लता था-

‘खबरदार जो तू महल में गई। जा सीधी घर चली जा, भाग जा बावली।’  मगर क्षमा कहां सुने ? वह तो भाईजी के बुलाए नादान सी महल के द्वार पर जा पहुंची थी। वह उसे रोकने के लिये भागा तो ओह् !

वह तो जेल की अपनी कोठरी की दीवारों से ही टकरा कर गिर गया था।

अव्वल तो नींद का अता-पता न होता था, एक रात जरा नींद लगी ही थी विकास की कि वह तो कोई इस तरह का सपना देखता बेचैन हो कर उठ बैठा था बड़बड़ाते हुए। मनु को अजीब नजरों से देखता निराशा के गर्त में डूबता-उतराता था। उसने मनोवेग में आ कर अपना अपराध स्वीकार लिया था कहता था कि उसने अकेले ही भाभीजी की हत्या की थी। मनु पूरी तरह निरपराध है। इधर उसने स्वीकारोक्ति की उधर अखबार नई खबर से रंगे जा चुके थे।

मगर विकास क्यों ? क्यों कर रहा था ऐसा ? ओहो हो हो ! कितना पगला था मनु जो एक भाई की अपनी बहन के प्रति चिंताओं को समझ ही न पाया था। कहता था विकास -

‘मुझे पता है तुम दोनों एक-दूजे को चाहते हो। तेरी बहन के रूप में तेरे परिवार को भी मैं देख चुका हूं। एक चावल से सारी हांडी के चावलों का पता लगा लेने वालों में से हूं मैं। तू बाहर रहेगा तो मेरी वह नादान बहन भाईजी और बाकी रिश्तेदारों से भी बच पाएगी।’ इस प्रकार अपनी भोली-भाली बहन को मनु को सौंपने का इच्छुक विकास मनु को बाहर भेजना चाहता था ताकि वह क्षमा से ब्याह कर ले।

वह अपना बयान दे रहा था कि हत्या उसीने केवल पैसों के लालच में की है। उसे जो कानून सम्मत हो सजा दी जावे। मनु को संदेह का लाभ मिलना ही था जिससे उसकी बहन का मुरझाया मुख कुछ रंगत पा सका था।

इस बीच रिवॉल्वर संबंधी जांच की रिपोर्ट आ चुकी थी जो बताती थी कि भाभीजी की खोपड़ी में धंसा कारतूस भाईजी के अंतःपुर से मिली रिवॉल्वर के कारतूस से मैच करता था। यानि हत्या उसी रिवॉल्वर से हुई, लेकिन उस रिवॉल्वर पर पाए गए अंगुलियों के निशान तो विकास के नहीं थे। वे तो मनु के जीजा की अंगुलियों से मिल रहे थे। तब ? जीजा कहे कि उसने हत्या नहीं की और फिर भी निशान उसकी अंगुलियों के निशानों से मिल रहे थे, विकास कहे कि उसने हत्या की और ताज्जुब कि निशान उसकी अंगुलियों के नहीं थे !

केस अजीब तरह से उलझता जा रहा था। एक कड़ी कहीं से किसी प्रकार पकड़ में आती थी तो कई अनेक कड़ियां एक झटके में बिखर जाती थीं। बस् ये समझ में आ रहा था कि भाभीजी की हत्या के पीछे केवल रूपया-पैसा व जेवर आदि नहीं ही थे बल्कि कोई गहरी साजिश थी। मगर इसे सिद्ध कैसे किया जाए ?

’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’

10

अखबार में रोज कभी ये खबरें आतीं तो कभी वो। मनु सोचता क्षमा अखबार पढ़ती होगी, क्या सोचती होगी वह अखबार पढ़ कर उसके बारे में। उसे व मां को तो पता भी नहीं था कि विकास व मनु ऐसी खतरनाक जगह पर काम करते थे। वो तो समझती थीं कि वे भाईजी के यहां किसी प्रकार का कोई अच्छा काम-धंधा करते हैं। अब वे लोग क्या सोचती होंगी। इतने दिनों में उन दोनों ने कोई खबर नहीं ली। मनु तो खैर अभी उनका लगता ही क्या था, अवश्य ही वे दोनों नाराज होंगी विकास से। या फिर वे विकास की नाराजी का ध्यान करके वहां नहीं आई होंगी।

क्या बीतती होगी उन पर ? गांव वाले सामने या पीठ पीछे अपनी किसी न किसी प्रकार की बकर-बकर से कैसी-कैसी शामत तो लाते ही होंगे उनकी !

जब तक विकास पकड़ा नहीं गया था तो डरते होंगे उससे, पकड़े जाने पर हाल-फिलहाल कैसा डरना ? अब भाईजी की सेवा में भी है नहीं, तो कैसा डर ? जब छूटेगा, या फिर से भाईजी की सेवा में आऐगा तब की तब देखी जाऐगी। अभी तो मजे लो, कलेजा ठंडा करो अपना।

मनु ने देखे तो हैं सामने वाले को कमजोर जान कर हावी होने वाले अधिकांश लोग, कदम-कदम पर ऐसे ही लोग बिखरे मिलते थे उसे, जिनसे अपना बचाव करने वह भाईजी की शरण में आया था और इतनी मुश्किलें पाल बैठा। क्षमा का अध्याय तो वह सोचता था कि खुलने के पहले ही बंद हो गया था। पर आखिर उसे एक बार आना तो था विकास से मिलने। मगर कैसे आती वह जवान व खूबसूरत लड़की अकेली इतने भेड़ियों के बीच।

अब कैसे रहेंगी वो लोग ? थोड़ी मुश्किल तो जरूर होगी उन्हें। मनु का मन तार-तार होता था किसी अनजानी आशंका से, अनहोनी की आशंका से।

वह चाहता था कि अपनी बहन को क्षमा के बारे में बता दे। पर फिर यह भी लगता था उसे कि बहन सोचेगी कि जेल में बैठा है और नाहक ही किसी लड़की के चक्कर में और पड़ा है। वह मन ही मन घुटता था। भाईजी उसकी तथा विकास की जमानत दिलाने की व्यवस्था कर रहे हैं बहन से उसे एक दिन जब यह पता चला था तो वह घबराहट में दोहरा ही होने लगा था। बहन बताती थी कि वह उन जैसे देवता से मिलना चाहती थी।

नहीं नहीं ! तुम उनके पास मत जाना। वह चिल्लाता था मगर आवाज थी कि उसके गले से नहीं निकलती थी वह मन में ही चीख-चिल्ला कर रह गया था। कैसे समझाए वह बहन को कि वे कितने खतरनाक थे ? वे वैसे नहीं थे जैसे वे प्रचारित किये जाते थे। वह उनके अंदर की सब बातें जान गया था अब। बहन तो अपनी सीधी बुद्धि में उन्हें देवता माने बैठी थी पगली।

क्या करे वह ?

भाईजी के पाश से निकलना आसान नहीं था अब तो। जो बच भी गया तो भी न जाने कितने सालों की सजा हो सोचता था वह अक्सर। बहन के बताए उसे जो जमानत के बारे में पता चला वह सच् था। अगले दिनों में उन दोनों की जमानत हो गई थी। अब वे जेल से बाहर आ गए थे मगर केस चल रहा था उन पर सो उन्हें निगरानी में ही रहना था।

भाईजी से मिलना ही था जेल से छूट कर। उनके अहसानों तले दबे जो थे। कैसी विडंबना थी। वे दोनों फिर से वहीं आ पहुंचे थे जहां से चले थे !

कुछ उमीद नजर नहीं आती थी मनु को तो। हां बाहर आते ही विकास अवश्य फिर से कुछ सामान्य हो चला था। कभी जो रोता-सिर पटकता था जेल की दीवारों पर, वही विकास अब मनु को समझाता था कि जैसे ही केस खत्म हुआ अपन छोड़ देंगे ये जगह। सजा तो भुगतनी ही होगी क्योंकि हत्या के बाद पुलिस को खबर न करके लाश दफनाने-जलाने यानि हत्या के साक्ष्य छुपाने के अपराधी तो वे थे ही। वह बुराई में भी अच्छाई खोजता उसे धीरज बंधाता था कि चलो अच्छा ही हुआ इतने झेला-झाली के बाद भाईजी से तो मुक्ति मिल ही जाएगी ना। जेल से छूट कर फिर भूल कर भी नहीं आना है इधर बाबा रे। अपने आप उनसे पिंड तो छूटेगा।

मनु घुटे-सहमे मन से अपनी बहन को जबरदस्ती वापस भेजता था। वह भी कितने दिन रूकती। अपने किन्हीं रिश्तेदारों के भरोसे अपने बच्चे छोड़ कर आई थी।

भाईजी ने बड़ा ही अपनापन दिखलाते हुए सूतक में होते हुए भी साड़ी-मिठाई, नेग-शगुन आदि करके बहन को बिदा किया था कि आखिर वो उस जगह से आईं थीं जहां कभी उनके पूर्वज रहा करते थे ! वो तो धर्मपत्नी की असमय मृत्यु का दुख था वरना वे कभी बहन को इतने बुझे मन से विदा करते ? अबकी आऐ बहन तो बच्चों को भी ले कर आऐ। उन्हें बताऐ घर जा कर कि यहां उनके मामा का घर है, वे मामा उन्हें आशीर्वाद देते हैं !

मनु को अजब लगता था कि कैसे एक आदमी इतने-इतने मुखौटे वो भी इतनी शीघ्रता से अनवरत बदलता रह सकता है ? उसकी असली शक्ल तो आप जान ही नहीं सकते कि कैसी होगी ? वैसे जान तो गया था वह। लेकिन दाद देनी होगी उनकी अभिनय कुशलता की ! वे कहीं अभिनय जगत में होते तो अच्छे अच्छे अभिनेता पानी भरते उनके सामने। उन्होंने मनु की बहन को भरपूर यकीन दिलाया कि वे मनु का पूरा ध्यान रखेंगे। उसे कोई मुश्किल न आने देंगे। वहां भी कोई मुश्किल कभी हो तो तुरंत उन्हें सूचना दे। बहन एकदम अभिभूत थी। ऐसा स्नेह व निर्भयता भरा आश्वासन देते थे वे।

मनु का मन एकदम आहत सा हो रोने-रोने को हो आता था अपनी बहन व खुद के भी लिये। कैसे बहन की मदद करने का रास्ता मनु को अपराध की गर्त में धकेल गया था। जाती थी बहन रोती-सिसकती, उसे तथा विकास को आर्शीवाद देती, बहुत बहुत समझाती-बुझाती थी कि जो हो गया हो गया, अब जैसे भी हो सही राह अपना लो मेरे भैया।

बहन-भाई रोते थे तो विकास भी रोता था। उन तीनों के दुख-दर्द एक से ही तो थे। विकास ने उसे अपने घर का पता दे कर भेजा था। उसी बस में बिठाया था जो उसके गांव हो कर गुजरती थी। मनु अपने मन को उसी बस के साथ साथ उड़ते हुए पाता था। सोचता रहा था कि अब बहन क्षमा से मिली होगी। अब उन दोनों में क्या कुछ बातें हुई होंगी। अब मां तथा क्षमा से बिदा ली होगी।

कहीं वह एक अपराधी की बहन है इस कारण क्षमा उसे पूरी तवज्जो न दे ? तो उसका भाई भी कौन कम अपराधी था ? न जाने क्या-क्या सोचता था मनु अपनी आदत के अनुसार। विकास उसके सजा काट कर आने तक थोड़े ही रोकना चाहेगा अपनी बहन को ? मां ही क्यों चाहेगी कि बेटी का ब्याह एक अपराधी से हो, भले ही उनका अपना बेटा उससे भी बड़ा अपराधी क्यों ना हो।

जो हो, केस अपनी निर्धारित गति से चलने वाला था और उससे भी तेज गति से चलने थे भाईजी के कारोबार। अब वे थानेदार के स्थांतरण के प्रयास कर रहे थे। उन्हें अभी आने वाले चुनाव में अपने मनमाफिक सब चाहिये था। यह थानेदार तो कभी नहीं चाहिये जो उनके आगे सिर नहीं झुकाता था। अब वह बार बार अपनी तप्तीश में पूछता था कि-

उनकी साली कहां ?

वह अपनी सगी जुड़वां बहन के क्रियाकर्म में क्यों नहीं आई ?

आप उससे आखिरी बार कब मिले थे ?

उसके अंतवस्त्र जैसा सामान आपके कमरे में कैसे ?

अरे कह दिया उन्होंने जो कुछ भी सूझा कहने को। वह तो तिल का ताड़ बनाता था। बाल की खाल निकालता था। ऐसे सुलझाऐ जाते हैं केस ? हें ? कितने दिन नौकरी कर लेगा इस तरह ? वे नहीं तो कोई अन्य कभी न कभी उसे निपटा देगा कि नहीं ?

अब उनकी उमर हो गई, कई बातें भूल भी जाते है वे, कह दिया कि तब मिले थे उससे अंतिम बार, तो नहीं,

वो प्रमाण ले आया कि नहीं आप झूठ बोल रहे हैं। वो दीपावली के बाद इस-इस दिन तक यहीं देखी गई थी।

चलो देखी गई होगी, तो पूछता है कि बताइये अब वो कहां है ?

भला वे क्या जानें कि उनकी साली कहां ? साली थी कोई पत्नी तो नहीं जो बता के आए-जाए। गई होगी जहां उसकी मर्जी आई होगी। और हद है भई हद है कि उसका सामान मेरे कमरे में कैसे ? अरे नौकरों ने रख दिया होगा, अदल-बदल हो गया होगा, दोनों जुड़वां तो थीं।

भभकते थे वे कुछ-कुछ गुस्से में। मगर बला का नियंत्रण था उनका स्वयं पर। सब कुछ, सारे मनोभाव छुपा लेने में एकदम माहिर। और इधर, वो थानेदार भी तो कुछ कम होशियार नहीं, सब कुछ जान लेने को आमादा, जान लेने को तत्पर। कांटे की टक्कर थी।

सो, भाईजी के लिये खतरा हो आया था। इस कांटे का कुछ इलाज करना ही होगा। अफसरों के स्तर पर नहीं हो सकता था मगर राजनीतिक स्तर पर तो करा सकते थे न वे उसे इधर का उधर !

‘ गली गली में शोर है, ---वाला चोर है ’

‘ जीतेगा भई जीतेगा, --- वाला जीतेगा’  और

‘ चार चवन्नी थाली में, --- वाला नाली में’  जैसे अनेक नारे तब गांव-गांव में पक्ष-विपक्ष में चलते थे। ऐसे ही अनेकानेक भद्र-अभद्र नारों के साथ पग-पग पर चुनावी शोर अपने चरम पर था। चुनाव में भाईजी फिर से अपनी पार्टी के विश्वस्त उम्मीदवार थे जिनकी जीत पक्की थी। तो, वे इधर-उधर के नाम पर थानेदार का न जाने क्या-क्या करवा सकते थे।

मगर ये क्या ?

एक रात जब दस बजे के लगभग् थाने से वापस लौटे पति के लिये थानेदारनी थाली परोसती थी कि एक कोई बेहद पुरानी गाड़ी थानेदार के क्वार्टर के बगल में आ कर रूकी। गांव-देहात के एकदम बाहर बने थाने के नजदीक ही उस क्वार्टर के आसपास मोटर की घरघराहट इतनी रात को अक्सर तो नहीं ही होती थी। सो, बात ध्यान देने की थी।

‘मरे, ठीक से खाना भी नहीं खाने देते।’ सोचते हुए थानेदारनी ने सारे चौकीदार आदि जा चुके थे तब उस घनेरी-अंधियारी रात में बिना दरवाजा खोले खिड़की थोड़ी सी खोल कर देखा था बगल में खड़ी की गई किसी गाड़ी से दो लोग उतर कर दरवाजे की ओर आते थे पूरी तरह शाल-कंबल में ढंके दबे। बाहर अंधेरा घना था, इतना घना कि पीले  टिमटिमाते बल्ब की मंद रौशनी में हाथ को हाथ न सूझे। चौके में थाली सजी थी और इधर ये न जाने कौन इतनी रात में ?

‘कौन ? कैसे ?’

थानेदार की आवाज वातावरण में थोड़ा गूंज कर रह गई थी। वे लोग कुछ न जाने क्या तो नाम बताते हुए धीमें से जवाब देते थे। ठीक सामने कुछ ही कदमों के फासले पर थे सिपाहियों के बैरक जिनमें अभी अंधेरा पूरी तरह न उतरा था। वहां किन्हीं खिड़कियों के शीशों व रौशनदानों से छन-छन कर आ रही बल्ब की पीली बत्तियों की मद्यिम चमक अंधरे को धता बताने के अपने इरादों पर मुस्तैदी से जुटी हुई थी। निःसंदेह उन बैरकों में कुछ वे थे पूरी ईमानदारी से केस की तप्तीश में साथ देने वाले। उनमें से किसी की नजर अवश्य पड़ी होगी इस घटना पर। ऐसा थानेदार को पता था।

‘कल थाने पर ही मिलो।’

कहते हुए थानेदार के चेहरे पर कुछ अनमने से, कुछ गुस्से के भाव आए थे। जिन्हें ध्यान से देख कर समझ गई थी थानेदारनी कि कोई केस का लफड़ा होगा। ऐसा तो आए दिन लगा ही रहता था। लेकिन आगंतुक मिलने की मिन्नत सी कर रहे थे।

‘कह दिया ना कि कल थाने पर ही मिलना। वहीं बात करूंगा।’

दिन भर की अपराध जगत की मजबूरन सैर के बाद थोड़ा तो घर-परिवार में बैठने का अवसर आता ही था जिसमें बाहरी दखलंदाजी क्यूं ?

थानेदार ने फिर से थोड़ी सी खिड़की खोल बात दोहरा कर खिड़की पुनः बंद कर दी थी। लेकिन वे लोग तो घर पर ही बात करने आए थे। कहते थे -

‘हुजूर आप से बिना मिले नहीं जाऐंगे।’ केस के बारे में नहीं, कुछ अलग ही बात करनी थी उन्हें जो थाने पर की जानी संभव नहीं थी। सो, बैठ गए थे बाहर ही बगीचे में एक कोने में थोड़ा दब छिप कर।

थानेदारनी बहुत बेचैन सी, कभी गर्म रोटी परोसती कभी दाल-सब्जी, कभी पापड़ सेकती, परोसती थी चिंता के साऐ में। क्योंकि यह जरूरी तो न था कि इतनी रात गए बाहर खड़े व्यक्ति जो बता रहे थे वह सही ही बता रहे हों ?

कौन था क्वार्टर के बगल में मानो छुपा कर ही खड़ी की गई गाड़ी में ? कहो कि कहीं भाईजी का ही कोई बंदा न हो। एक चुटकी में सब खत्म करा दें उनका कोई क्या बिगाड़ लेगा ? क्योंकि जहां भी व्यक्ति सच का पालन करता है उसके दुश्मन अनेक हो ही जाते हैं न ? उस जमाने में कि जब लड़कियों को पढ़ाया भी नहीं जाता था तब के समय की चौथी क्लास तक पढ़ी हुई थानेदारनी ऐहतियात बरतती हुई न जाने क्या-क्या न सोचती थी।

और थानेदार ? कतई चिंतित न था।

अनुभव बहुत न हुआ था लेकिन इतना भी कम न था अनुभव। सो जैसा कि कभी तय किया जा चुका था ऐसी परिस्थिति आने पर एकदम दरवाजे खोलने की आवश्यकता न थी। बिठाए रखना था उन्हें तब तक कि जब तक सामने बने सिपाहियों के बैरकों से कोई दो ‘अपने’  विश्वस्त सिपाही या गश्ती टीम रिपोर्ट करने न आ जाए। सो,

थानेदार ने पूरी सवधानी बरतते हुए दरवाजा खोलने में पूरा उतना समय लिया था कि घर पर गाड़ी की घरघराहट के साथ उसका सामने न रोक कर साइड में रोका जाना व घर की एक भी खिड़की का खुलना आदि जैसी हलचल देख कर ही बेली खां तथा काजीजी कहलाने वाले दो कांस्टेबलों ने अब तक आ कर उन दोनों आगंतुकों को घेर लिया था जो बाहर बगीचे में एक साइड में बने चमेली के मंडप में पूरी तरह ढंके दबे, टोपा-वोपा पहने अपनी पूरी पहचान छिपाए बैठे थे। दोनों कांस्टेबलों ने आते ही दनादन उन्हें पीटना आरंभ कर दिया था। चटाचट हाथ चलाते वे उन्हें निर्देश देते थे-

‘हाथ उठाओ !’

‘उतार नकाब स्साले।’  वे तब के पुलिसिया तरीके से फटाफट् काम करने के आदी थे। अतः आव देखा न ताव टूट पडने में ही उन्हें भलाई दिखती थी। यही उनका मूल मंत्र था कि शत्रु को कोई मौका ही न दिया जाए। खिड़की खोल थानेदारनी ने कहा कि-

‘साहब को नाम बता चुके हैं ये लोग। अब और ना करो रे मार-पीट ।’

लेकिन जब तक थानेदार का भोजन निबटा तब तक वे दोनों खासे पिट चुके थे। मगर एक बार भी भागने की कोशिश नहीं की थी उन्होंने। क्यों ? उन दोनों को पकड़-धकड़ कर अब दोनों सिपाही गाड़ी की ओर बढ़े थे।

‘थान्दार साब से मिलना है।’

‘थान्दार साब से मिलना है।’

दोनों आगंतुक मार खाते थे मगर थानेदार से मिलने की बात करते थे। ऐसी पीट-पाट तो पुलिस की नौकरी में बेली खां व काजीजी को आए दिन करनी ही होती थी। वही करते हुए उन्होंने अब गाड़ी को घेर लिया था जिसमें कोई ऐसी ही पूरी तरह से ढंकी-दबी आकृति बैठी थी। पूछते थे वे दोनों गाड़ी की ओर मुखातिब हो कर। मगर गाड़ी से कोई आवाज न आती थी।

‘उतरो स्साले कौन है गाड़ी में ? क्या बात है ? क्यों आए हो यहां ? ’

‘थान्दार साब को ही बताऐंगे।’  पूछा जा रहा था गाड़ी में बैठे ढंके-दबे पूरी तरह छुपे से व्यक्ति से, मगर जवाब वे मार खाते आगंतुक देते थे। और,

इस सारे घटना क्रम में खुल ही गया था क्वार्टर में बराम्दे की ओर का दरवाजा उनके लिये। दोनों आगंतुकों को वहां देख थानेदार को बड़ा ही गुस्सा आया था। कड़क कर अपनी भारी आवाज में उनसे वहां आने का मकसद पूछा था जिसके उत्तर में गाड़ी में कुछ हलचल हुई थी। उसमें काले शीशे लगे होने के बावजूद भी परदों की ओट में बैठी पूरी तरह ढंकी-दबी आकृति ने संभल कर नीचे उतर थानेदार के सामने आ कर अपने अत्यंत धीमे और शालीन स्वर में नमस्ते की थी और-

बेहद महीन आवाज में कुछ कहती थी वो कोई इतने धीमें कि बस् थानेदार को ही सुन पड़ा था।

‘आप थाने पर बता सकती थीं।’  वो शॉल से अपना चेहरा अच्छी तरह छिपाऐ ना ना में गरदन हिलाती अब कुछ जाने क्या तो कहती थी अंग्रेजी में जिसे थानेदार के अलावा वहां कोई न समझ पाया था। और बस,

थानेदार को अहसास हो गया था कि कुछ बेहद महत्वपूर्ण बात है। दिन भर की थकान उसी पल गायब हो गई थी। कोई तलाशी, तहकीकात जैसा कुछ किये-कराऐ बिना - - -

‘आईये ’

कह कर आने वाले शख्स को अंदर बिठाना भी आखिर क्या मजबूरी थी ? ऐसे अनेक बार होता था कि आपको आराम की इच्छा है लेकिन आराम कहां ?

आप न मिलना चाहो लेकिन आपको मिलना ही पड़ता था। कभी नौकरी के अनोखे नियमों के तहत तो कभी मानवीयता के लिहाज के कारण।

दोनों कांस्टेबल बाहर मारपीट करते थे, स्साले हरामजादे सच-सच बता जैसी बातों में उलझे थे कि पुनः थानेदार ने बाहर झांक कर अब उन्हें वह सब करने से एकदम रोक दिया था।

अंदर न जाने क्या-क्या घटित होता था कि थोड़ी ही देर बाद दोनों आगंतुकों को वहां से वापस चले जाने की इजाजत मिल गई थी अंदर से। गाड़ी फटाक् से जैसे आई थी वे दोनों लपक कर वैसे ही उसे वापस ले चले थे ! मानो अधिक देर थानेदार के क्वार्टर पर उनके रूकने में कोई समस्या आ सकती थी। किसीने उन्हें नहीं रोका - - -

दोनों कांस्टेबल उन दोनों आगंतुकों को तो पहचान गए थे जो कि गाड़ी में वापस चले गए थे, मगर गाड़ी से उतरने वाली उस ढंकी-दबी आकृति को देख कर कुछ भी कहना मुश्किल था। वे उसे देख कर कुछ न समझ पाए थे कि कौन है वह ? वे अपनी ड्यूटी बजाते दोनों बाहर ही रूक गए थे कहते हुए-

‘बाईसाब हम भी चाय पियेंगे।’

जानते थे न कि थानेदारनी के लिये कोई भी वक्त बस् चाय का वक्त होता था। उनमें से बेली खां बेहद अच्छी चाय बनाता था लेकिन थानेदार ने तब किसी को भी अंदर न आने की ताकीद क्यों कर दी थी ?

बेचारे दोनों कांस्टेबल अपना सा मुंह लिये बाहर ही बाहर से मुआयना लेते थे हालात का। जानते थे कि कई बार कोई रिश्वत वगैरह के लेनदेन के मामले भी इसी तरह निबटाए जाते थे पुलिस वालों में। मन ही मन अंदाज भी लगाते होंगे वे दोनों कि आसामी अच्छा मोटा है, अच्छी रकम मिल सकती थी। उन सबका भी हिस्सा अच्छा ही होगा ! लेकिन थानेदार को तो ऐसे केस में कुछ लेना मंजूर न था !

फिर ?

उधर, पति की पुलिस की उस खतरनाक नौकरी को मन ही मन कोसती न थकती थी थानेदारनी बिस्किट और नमकीन निकालते-निकालते कि इतनी रात में न जाने कौन-कौन तो आते रहते हैं, और उस पर तुर्रा ये कि इतनी अच्छी चाय बनाने वाले कांस्टेबलों के रहते भी चाय स्वयं ही बनानी पड़ रही थी। मगर कर क्या सकती थी, सिवाय कुढ़ने के ?

अगले दिन गांव का छोटा सा रेस्ट हाउस अफरा-तफरी के बिना चुपचाप जाने किस के लिये बुक हो गया था जिसमें एसपी अपने दल के साथ सादी वेषभूषा में रात नौ-दस बजे तक चुपचाप बिना किसी को सूचित किये आ डटे थे। इसके कोई आधेक घंटे बाद आईजी जो कि थानेदार के दूर के कोई रिश्तेदार थे, अपना लाव-लश्कर थाने पर न ला कर गांव की सीमा के कुछ पहले ही छोड, बिना किसी बाधा के टहलते हुए थानेदार के क्वार्टर पर आ गए थे। जैसे किसी पारिवारिक आयोजन में आए हों । इच्छा व आदेश यही कि थाने में कोई अफरा-तफरी न मचे।

भारी मुश्किल थी थानेदारनी के लिये, एकतरफ महा उधमी, महा शरारती बच्चे तो दूसरी ओर इतने बड़े आदमियों की वो भी पति के उच्च अधिकारियों की अगवानी ! मगर वहां रूकना किसे था ?

आईजी के आ जाने पर तब थानेदार के उस छोटे से मगर करीने से सजे घर के छोटे से बैठकखाने में तब मध्यमवर्ग और तबादला होते रहने
वाले घरों में प्रचलित रेग्जीन के सोफों पर बैठ एसपी व आईजी अपने अमले के साथ न जाने क्या क्या तो विचार विमर्श करते थे। छोटे से पूजाघर से जब किसी को लाया गया तो दोनों उठ कर खड़े हो गए थे उसके सम्मान में। पूजाघर से उसे लाया जाता था, वापस पूजाघर ले जाया जाता था।

उस दिन घर में किसी सेवक को नहीं आने दिया गया था। आज कोई काम नहीं है बता कर सबको आकस्मिक छुट्टी दे दी गई थी, तकदीर तो देखो कि ऐसी कोई छुट्टी कभी थानेदारनी को नहीं मिल पाती थी !

सारे सरकारी चौकीदार और सेवक दिन की पाली के हों कि रात की पाली के, उस दिन थाने पर ही रोक लिये गए थे।

जिले से उस रात थाने पर ड्यूटी के लिये आऐ फोर्स को अपनी सर्विस रिवॉल्वरों सहित तैनाती के आदेश के साथ, थानेदार के घर से उस रात दो अधिकारियों ने महल के गुलजार होने की सूचना आ जाने पर अपनी-अपनी विश्वस्त टीम को ले कर भारी ऐहतियात बरतते हुए जब रवानगी डाली तब रात के कोई दो बजे होंगे। वे एक के बाद एक निकलते थे अपनी अपनी गाड़ियों में सपाटे से। आईजी अपनी टीम के संग थाने ऐसे जा बिराजे थे जैसे बारात लौटने पर स्वागत करने वाला तो कोई बड़ा बुजुर्ग ही हो !

कोई सोऐगा नहीं आज की रात। न थाने पर, न ही थानेदार के घर पर। लो,

अभी पूरा घर भरा हुआ था, अभी पूरा खाली ! अभी बच्चे मस्तीबाजी में लगे हुए थे, और खेलकूद कर थके हुए न जाने कब सो गए। दूसरों के दुख को अपना दुख समझ कर चिंता करते रहने वाली थानेदारनी चुपचाप पूजा घर में बंद हो गई थी।

कौन था पूजाघर में भगवान के अलावा, जिसके लिये भोजन की थाली ले जाई गई थी ? जिसे जिद कर-कर के खिलाना पड़ रहा था ? और आखिर कहां दबिश देने गए थे सब के सब इतने लोग ?

’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’

11

पूरा महल रात के सियाह अंधेरे के साए में निस्तब्ध सोता था क्या ?

उंहूं ! हो ही नहीं सकता था क्योंकि चुनाव प्रचार से आधी-आधी रात को लौटने के बाद तो महल गुलजार होता था। सभाऐं, मुलाकातें चलती थीं। पीना-पिलाना सब हो हुआ कर भी रात दो बजे के आसपास अपनी किसी मनचढ़ी रखैल के संग बिस्तर पर जाने वाले भाईजी नींद की गोलियों की जद में इतनी आसानी से तो नहीं ही आते थे। सुबह वे देर तक सोते थे। मगर

उस रात जब तीन बजे के घंटे टनटनाऐ थे तो करवट बदलने पर वे क्या तो कैसा तो बुरा कोई सपना देखते थे ? कोई था जो उन्हें हिलाता-जगाता था। इतनी हिम्मत किसकी हो सकती थी वहां ? ना ना ना, ये तो उन्हें कोई बुरा सपना ही आता था !

‘सर, आपको गिरफ्तार करने आया हूं। चलिये उठ जाइये।’

जरूर जरूर ये उनके सपने में गूंजता था या कि ???

अपने अत्यंत ही सुविधाजनक अंतःपुर में माजरा जानने को जब उन्होंने नशे में धुत्त अपनी अधमुंदी आंखों को तरेरा था तो, अधनंगी रखैल के उघड़े बदन पर रजाई फेंकते हुए किसे देखते थे वे ?

हुश ! अभेद्य किले जैसी सुरक्षा में सेंध लगाने की हिम्मत किसकी और कैसे हुई ? जानता नहीं ये कम अक्ल थानेदार कि किससे पंगा ले रहा था। दुस्साहस तो देखो-

‘जी हां जनाब। आपको चारों तरफ से पुलिस ने घेर लिया है। चाहें तो अपने किसी भी विश्वस्त सेवक का नाम बताईये हम उसे बुला कर आपकी अभी बात कराए देते हैं।’

पलकें झपकाने जितने समय में अब भाईजी का नशा फरारी देने को तैयार था। वे उठ बैठे थे। अपलक देखते थे उसे कि उससे ज्यादह वेतन तो वे अपने मनु व विकास जैसों को देते थे। क्या पागल है ये थानेदार ? कोई समझाए इसे कि चाहे जो ले ले और रफा-दफा करे मामला। क्या रक्खा था नाहक बदनामी में ? इत्ती रात न खुद सोता है न दूसरे को सोने देता है। और ये सोनिका एक और ससुरी ?

वे तो कल रात इसे बिस्तर में घुसाना भी न चाहते थे, तो भी जबरदस्ती आ घुसी थी कि इसकी भाभी इसके भाई को सता रही है। कहीं ऐसा न हो कि वो विरोधी खेमे मे जा मिले। बहुत नाज-नखरे दिखाने लगी है वो आजकल। उसे और उसके परिवार को एक घुड़की दे देंगे तो थोड़ा दब जाएगी, कुछ कीजिये उसका।

‘करेंगे करेंगे, उसका भी करेंगे’  कुछ सोचते हुए उन्होंने उसकी भाभी को नई मुर्गी के जैसा फांसने का विचार करके उसे तरजीह दे दी थी। अब नाहक ही पकड़े गए थे उसके साथ। वैसे उन्हें ऐसे मामलों में कोई संकोच न होता था मगर थानेदार जो कि बेहद अलग किस्म का माना जाता था उसके सामने अपनी इमेज बिगड़ने से उनका मूड कुछ ऑफ सा हो गया लगता था। कितनी मशक्कत से तो उन्होंने अपनी बेगुनाही का कुछ-कुछ यकीन दिलाया था उसे। अब फिर सब बराबर !

बाहर बराम्दे से पुलिस जवानों के बूटों की आवाज आती थी। इधर से उधर मार्च करते थे वे। जाने कितना पुलिस बल ले कर आया था। नर भेड़िये व मादा अल्सेशियन के मेल से जन्मा थानेदार का पालतू कुत्ता भी साथ था जो पूरा भेड़िया ही दिखता था। बताने वाले बताते थे कि अक्सर रात को गश्त में भी वो सीजर नामधारी कुत्ता उसके साथ देखा जाता था।

उस कुत्ते को भी पूरी तरह पुलिसिया कुत्ते की तरह ट्रेंड किया गया था। आंख के इशारे समझता था अपने मालिक के। मजाल जो उससे कोई चूक हो जाए। कैसा बेचैन हो रहा था जीभ निकाले इधर से उधर कि बस् आदेश मिलते ही न जाने क्या कर डालेगा भाईजी जैसे शेर का।

‘अरे छोड़ यार ! चल काम की बात कर। ले कितना लेता है बता। तू भी क्या याद रखेगा कि किसी दिलदार आदमी से पाला पड़ा था ! चल रख लेना वो लौंग पूरे पांच लाख की होगी। थानेदारनी पहनेगी हमारी बहना। इतनी कम सरकारी पगार में क्या होता होगा तीन-तीन बेटियां हैं ईश्वर की दया से ? उनके नेग-शगुन के नाम पर बता कितना दे दूं ? ले, नहीं माने तो ल्ले, जमीन दे दूंगा, चल छोड़ अब सोने दे। ठीक ?’

और कोई वक्त होता तो इतनी सारी बेहूदा बातों पर थानेदार न जाने क्या तो करने पर आमादा हो जाता मगर वक्त की नजाकत थी कि वह भाईजी की हर हरकत पे नजर रखे हुए बस् अपने काम में लगा हुआ था।

काम बनता न देख भाईजी ने ज्योंही उछल कर साइड टेबल के दराज से पिस्तौल निकालनी चाही चीते की सी फुर्ती से चीते से ही दुबले पतले सुतवां शरीर के थानेदार ने लपक कर उन्हें अपनी पकड़ में लेते हुए इशारा इधर किया नहीं था कि कुत्ते सीजर ने पलक झपकते भाईजी को जमीन पर धकिया दिया था। अगले ही पल जिला पुलिस के दो जवानों ने भाईजी के हाथों में हथकड़ियां जकड़ कर उन्हें बेबस करने में देर न लगाई थी। अब वे मंहगे कालीन पर पड़े हुए थे कोहनियों के बल। इतना अपमान ! ओह !

‘सीजर वॉच हिम।’   आदेश देता था थानेदार अपने कुत्ते को। सीजर की नजर अब एकटक भाईजी पर थी। लगातार हिलती बालों से भरी भारी पूंछ, बाहर निकली जीभ और तेज-तेज धोंकनी सी चलती उसकी सांसें बता रही थीं कि वे अपनी जगह से अगर हिले भी तो वह कुछ भी कर सकता था।

इस सारी उठा-पटक में उनकी रखैल के होश अब तक हवा हो चुके थे। अपने कपड़े-लत्ते पहन कर किसी तरह वह किसीसे नजरें न मिलाते हुए कैसी न जाने कैसी तो बेबस बैठी थी। ऐसा ही होता है ऐसी औरतों के साथ। सोचता था थानेदार। इस तरह की औरतें दूसरों की नजरें बचा कर गलत काम किया तो करती हैं पर वे शायद ही सोचती हों कि कभी इस प्रकार रंगे हाथों पकड़ी गईं तो किसे क्या मुंह दिखाऐंगी। भाईजी जैसों का क्या था वे तो बने ही ऐसे सब कामों के लिये थे। और ये औरत इतनी रात को उनके साथ ?

कौन थी ये ? ओह ! ये तो वही थी, अति महत्वाकांक्षी सोनिका जिसने भाईजी के आदेश पर किसी उस टिकिटार्थी से ब्याह कर लिया था और अब अपने पति को राजनीति में आगे लाने के लिये भाईजी के निरंतर आगे-पीछे लगी रहती थी, और किस्मत तो देखो कि वह भाईजी की सेवा में इस तरह रात-दिन लगाए रख कर भी टिकिट न पा सका था ! बेचारी यहां उनकी रातें गर्म करती थी और पति उसका वहां पड़ा अपना गम किसी और में गलत करता होगा !

‘चलो तुम भी गिरफ्तार हो चुकी हो।’

रोने धोने को बेकरार उस महिला के किसी झांसे में न आने को तत्पर थानेदार ने हिकारत से कह कर पुनः देखा था भाईजी की ओर जो किसी न किसी चाल को सोचने में लगे थे निःसंदेह। वे अब पूछते थे गरज कर-

‘आखिर मुझे किस जुर्म में अंदर कर रहे हो ?’

‘मैं आपको एक हत्या के जुर्म में गिरफ्तार कर रहा हूं।’ बेहद शांत भाव से निर्णयक स्वर में कहा था थानेदार ने, जिसे सुन कर चौंकने के साथ अट्टाहास ही तो करने लगे थे जैसे वे। पूछते थे वहशी हंसी हंसते हुए-

‘ऐं ? हत्या के जुर्म में और मुझे ? मेरी पत्नी की हत्या हुई है और अब तक पुलिस कुछ पता न लगा पाई नाकारा। अब मुझे किसकी हत्या के जुर्म में ?’ शायद रात का नशा अब भी उन पर हावी था।

‘आपकी साली की हत्या के जुर्म में।’  थानेदार ने अपनी ओर से एक पासा फेंका था।

‘क्या बकते हो। हत्या पत्नी की की है और गिरफ्तार साली की हत्या के जुर्म में कर रहे हो।’  कह तो गए थे वे मगर कहने के ठीक साथ ही उन्हें अपनी गल्ती का अहसास हुआ था। परंतु अब देर हो चुकी थी। थानेदार को साक्ष्य मिलते जाते थे। वैसे, पर्याप्त सबूत थे उनके विरूद्ध।

उधर वे अचरज में आ गए थे कि ओह् उनकी साली की भी हत्या हो चुकी थी इसीलिये वह मनु तथा विकास को कहीं न मिली थी। इसीलिये वह आज तक गायब की गायब ही थी। कहीं जीवित होती तो इतनी-इतनी ढुंढवाई में तो भूसे के ढेर में सुई भी मिल जाती। मगर उसकी हत्या किसने और क्यों की ? वे हैरत करते थे, हैरत करते मान रहे थे कि उसकी हत्या कम से कम उन्होंने तो नहीं की थी।

‘चलिये। अब जो कहना हो कोर्ट में ही कहियेगा।’  ले चली थी पुलिस उन्हें गिरफ्तार करके जल्दी से जल्दी अगले दिन पेशी कराने ताकि कोर्ट की कुछ दिनों बाद लगने वाली छुट्टियों के कारण वे जमानत भी न ले सकें।

दिन यूं ही बीतते जाते थे खरामा खरामा,

उस केस में बड़े पेंच थे भई बड़े ही पेंच। पुलिस वाले भी मानते थे कि कई स्तरों पर आसान नहीं था वो केस लेकिन थानेदार अपने मत में पक्का था कि कितने ही पेंच क्यों न हों, हत्यारा अपना कोई न कोई सुराग अपने आप ही छोड़ जाता है। सारे पेंच बनते ही सुलझने के लिये हैं। ये बनते ही हत्यारे को कसने के लिये हैं। बस् कसने वाला चाहिये। ऐसे सारे अपराध किसी के दुर्भाग्यवश उसके अपराधी को बरबाद करने के लिये ही कोड लैंग्वेज के खेल जैसे ही होते हैं। जिसने इसे डिकोड कर लिया वह अपराधी तक पहुंच गया। तब अपराधी का खेल खतम।

आखिर कोई खतरा बाहर से जितना बड़ा क्यों न लगता हो जब हम उसमें घुस जाते हैं तो वह इतना बड़ा नहीं रह जाता। फिर भी यह सोलहों आने सच मानने की बात थी कि केस बेहद जटिल था क्योंकि-

पुलिस के पास क्या सुबूत थे उनके खिलाफ ?

कोई दे सकता था उनके खिलाफ गवाही ? किसे मरना था गवाही दे कर या कि अपनी व अपने परिवार की शामत लानी थी ?

हर घर में एक न एक बहू-बेटी होती थी और यह तय था कि वह भाईजी के आसपास लगी रहने वाली औरतों जैसी नहीं ही होती थी।

तो ?

तो भला कौन अपनी इज्जत-आबरू से बैर करेगा ?

सबको तो नहीं चाहिये बहू-बेटी, पत्नी के जिस्मों के वृक्षों से झिंझोड़ कर कमाया गया पैसा। इज्जत से जीने के शौकीनों की न तब कोई कमी थी न आज है। अतः इस प्रकार के लफड़ों आदि में पड़े बिना जीने में ही समझदारी थी। सो, कोई नाम न लेता था भाईजी का, उनके खिलाफ जाने की तो बात ही और थी।

पुलिस को और सबूत मिल जाते तो केस आसान हो जाता, मगर जो भी मिले थे कहो कि किस्मत से ही तो मिले थे। किस्मत ही तो थी कि कोई चमदीद था ! कौन था ? ये नहीं बताया गया था उन्हें। बस् कोई चश्मदीद मिला है उन्हें यही कहा गया था कि उसी चश्मदीद गवाह के बयान के आधार पर ताजीराते हिंद की धारा इतने इतने के अनुसार आप के ऊपर निम्नलिखित आरोप हैं

कितने लाचार थे वे पुलिस के सामने अब। कितनी तो बदनामी हो गई पब्लिक में सोनिका को ले कर वो अलग। उनके सारे इस तरह के राज फिजाओं में सरगोशियां करते फिर रहे थे। इन सारे आरोपों के चलते सारी अकड़ अभी तो निकल गई थी मगर, न हुआ तो कुछ समय बाद ही जमानत करा के वे इन एक-एक का जीना मुहाल न कर दें तो कहियेगा। इनकी सात पुश्तें न भूलेंगी। दांत पीसते थे मन ही मन। रग-रग सुलगती थी उनकी मगर भीतर ही भीतर। बाहर से कोई कह तो दे कि अंदर क्या तूफान हिलोरें लेता था जिसमें इन सबका जो होगा वह ईश्वर ही जानता था।

और, सच् ही ईश्वर ही जानता था कि क्या होगा ! कोई पूर्वानुमान पकड़ में न आता था फिर भी लोग पूर्वानुमान लगाते न थकते थे। जितने मुंह उतनी बातें। चार लोग पक्ष में तो बीस लोग विपक्ष में, और जब भाईजी के नुमाइंदे सामने हों तो सब के सब पक्ष में। खैर,

जिस दिन हत्या का फैसला होना था खचाखच भरे जिला कोर्ट परिसर में तिल धरने की जगह न थी। सारे गवाह, सुबूत वगैरह वगैरह सही सलामत लाए जा चुके थे। पुलिस ने केस के एकमात्र अहम व चश्मदीद गवाह की जान के खतरे को देखते हुए अदालत से पूरी सुरक्षा तथा गोपनीयता मांगी थी जो उपलब्ध कराई गई थी। पूरी सुरक्षा में सारी कार्यवाही फटाफट निबटने के पल आ ही गए थे।

फैसले की घड़ी नजदीक आए जाती थी, उन्हें उस हत्या के अपराध में आजीवन कारावास दिया जा सकने का अंदेशा था। खुद थानेदार और थानेदार के आसपास के लोग ऐसा अनुमान लगाते न थकते थे। नहीं नहीं। उनके राजनैतिक रौब-रूतबे व धन-दौलत के रसूख से निराश अनेक लोग सोचते थे कि उन्हें छूटते क्या देर लगेगी ? आखिर क्या सबूत था फिर भी इस सबका कि वे हत्यारे थे ?

-सबूत था मनु जिसने वो लाश सर्वप्रथम देखी, और बेहोश हो कर गिर गया था वहीं पर !

-सबूत था उसका जीजा, जो कि मनु को खोजते-खोजते, बैठक में जाने के बदले गल्ती से वहां अंदर आ गया। तब भाईजी ने उससे लाश के जेवर उतरवा कर लाश को बोरे में भरवाया। जल्दबाजी में नाक की लौंग नहीं निकल पा रही थी। उन्होंने कहा ’’छोड़ दे उसे।’

ये छूट गया था सबूत !

-बाद में उसी लौंग के लश्कारे ने सूर्य की रौशनी में सच का प्रकाश फैलाते हुए मरने वाली के नाम की मुनादी कर दी थी। यह बात और थी कि बेचारी वह किरन भी कुछ धोखा खा गई थी !

-इतना ही नहीं, उन्होंने उससे उस रिवॉल्वर को जो कि नीचे गिराई हुई थी, उठवा कर परदे की ओट में बने एक आले में रखवाया था। क्यों ?

-क्योंकि इस पर उनकी अंगुलियों के निशान थे जो अब मिट कर मनु के जीजा की अंगुलियों के हो गए थे, लेकिन तब उसे बेचारे को यह सब क्या पता था ?

-उन्होंने तत्काल हत्या के सूत्र मिलाने की गरज से उसे वे सारे जेवर दे दिये थे। कि जब कभी पकड़ाई में आऐगा तो जेवर उसके पास मिलने या जेवर गलवाने से हत्या उसीने की यह सिद्ध करना बड़ी बात न होगी !

तो इस प्रकार मनु के जीजा के गुनाहगार होने का आधार बन गया था और वास्तविक गुनाहगार साफ बच निकला था।

-और तो और उन्होंने महंगी शराब दे कर उसके जीजा को पूनम के हवाले भी कर दिया था। ताकि कभी आवश्यकता पड़ने पर पूनम उस रात, उस पल उसके घटनास्थल पर होने की गवाही दे सके। ओह !

मनु के होश में आने तक तो उन्होंने अपने सधे हुए अपराधी मनस से सोच-विचार कर मनु के जीजा की लाचारी का फायदा उठाते हुए उससे लाश को बोरे में भरवा कर जीप की डिक्की में रखवा कर खून के निशान आदि भी चटपट साफ करा दिये थे। अब सब पूर्ववत था चकाचक्।

मनु जब होश में आया था तो उसे वहां भाभीजी की लाश न देख कर संतोष बड़ा ही हुआ था। उसे लगा था कि उसे लाश का वहम हुआ था। तब बड़े प्यार व अपनेपन का दिखावा करते हुए उन्होंने उसे विकास के साथ कोई वह काम करने भेज दिया था। उसे आश्वस्त भी कर दिया था कि जीजा की उसकी समस्या दूर हुई समझ !

एक एक बात की तस्दीक हो गई थी। सौ टंच खरे थे सब सुबूत जो थानेदार ने जुटाए थे। भाईजी हैरत में थे कि कैसे आखिर कैसे उसे इतना सब सच-सच पता चला जैसे वह तो वहीं खड़ा देख रहा हो सारा घटनाक्रम। क्या कोई उनका आदमी पुलिस से जा मिला था ?

या फिर कोई पुलिस का ही आदमी उस वक्त कि जब कत्ल हुआ वहां उपस्थित था ?

जरूर कोई था वहां !

घटना की इतनी सटीक जानकारी कैसे मिली थानेदार को ? वो अपने मन माफिक थोड़े ही बुन रहा था केस का तानाबाना। कोई तो चश्मदीद था जो भाईजी को वह सब करते-धरते देखता था।

हां कोई तो था जो वहीं खड़ा देखता था हैरत में,

भौचक्का हो कर सारा का सारा घटनाक्रम अवाक् का अवाक् ! उसे ही थानेदार ने पेश किया था पूरी सुरक्षा में अदालत के सामने तो वहां मौजूद सबकी आंखें फटी की फटी रह गईं थीं।

ये वही महिला थी जो उस रात थानेदार के क्वार्टर पर आई थी। उसे थानेदार से कुछ बेहद जरूरी बातें करनी थीं जिनके लिये वह उस रात स्वंय पहुंची थी।


आईये ’  कह कर थानेदार उसे अंदर लिवा ले गया था जिसके लिये थानेदारनी को स्वयं चाय बनानी पड़ी थी, जिसे उस जरा से क्वार्टर में अधिक जगह न होने के कारण पूजाघर में छुपाया गया था। अगले दिन सारे सेवकों को घर में आने की मनाही कर दी गई थी। क्योंकि पूरी तरह ढंकी-दबी वह महिला जो चश्मदीद होने का दावा कर रही थी उसे पूरी-पूरी सुरक्षा चाहिये थी। और,

थानेदार को तब एक चश्मदीद से अधिक क्या चाहिये था किसी हत्या के मामले को सुलझाने के लिये ?

ना, अभी तो बहुत कुछ चाहिये था एक चश्मदीद व बड़े कलेजे के अलावा। तो,

किसी तरह तमाम सब छोटे-बड़े अधिकारियों, कर्मचारियों का सहयोग आदि जुटा कर, सारे बयान वगैरह ले कर चाक-चौबंद अब सारा केस अदालत के सामने रखा जाता था।

तब उस रात थानेदार के घर में रेग्जीन के उस साधारण से सोफे पर बैठ वह जार-जार रोती थी धुंआधार अंग्रेजी में न जाने क्या-क्या गिटपिट करती।

थानेदारनी ने इतना सब देखा था तो फटाफट किसी प्रकार उबली-अधउबली चाय-नाश्ता ले कर झटपट पहुंच जाने में ही भलाई समझी थी। ऐसा न हो कि कोई ऐरी-गैरी औरत कहीं फांस ही न ले उसके पति को। नौकरी ही ऐसी थी कि अच्छे लोगों से पाला कम ही पड़ता था। और, ताज्जुब कि थानेदार उसे कुछ और ही समझ रहा था क्योंकि मृतका का दाह संस्कार तो उसने अपनी आंखों से देखा था।

जैसे ही आगंतुक महिला ने धाराप्रवाह इंग्लिश में अपना परिचय दिया था तो एकबारगी तो थानेदार को सन्न ही रह जाना था क्योंकि वह तो दाह संस्कार में खुद उपस्थित था। लेकिन, जब यकीन हो गया तो उस महिला के सम्मान में उठ खड़ा हुआ था।

क्यों ?

क्योंकि वो भी कभी अजमेर के उसी मेयो कॉलेज में ही पढ़ा था, सो अपनी सीनियर को सम्मान देना लाजिमी था। कितना मर्मस्पर्शी हो गया था वो वातावरण ! रोती हुई लगातार इंग्लिश बोलती अपना दुखड़ा सुनाती वह भद्र महिला, खड़े हो कर वैसी ही इंग्लिश में उसे धीरज बंधाता उसका वह एक अजनबी जूनियर फेलो, हालांकि इंग्लिश-विंग्लिश समझ न आने पर भी थानेदारनी के तो सारे संदेह मिट गए थे। अब वह भी अपने पति के साथ उस महिला को संभालती थी।

वह महिला बताती थी कि कौन हत्यारा था ? किसका हत्यारा था ? थानेदार का अच्छा-भला दिमाग भी चकरा गया था उस रात तो। कितने घुमाव थे उस केस में कि यदि वह महिला न आती तो सुलझाना नामुमकिन सा था, और इस बीच तो भाईजी उसका तबादला ही करा देते।

लेकिन वह अब तक कहां थी और यहां कैसे पहुंची ?

थानेदार को अपने ऐसे प्रश्नों के जवाब में पता चला था कि विकास की बहन क्षमा अक्सर अपनी मां के साथ उस पुरानी गढ़ी के नजदीक बने कालभैरव मंदिर जाया करती थी। गांव के अन्य अनेक लोगों की ही तरह उन दोनों की भी उस मंदिर में बड़ी आस्था थी। एक दिन काल भैरव मंदिर में नारियल चढ़ा कर वे दोनों जब मंदिर की परिक्रमा करती थीं तो उन्हें वहां अत्यंत द्रवित हालत में एक परेशान महिला दिखी जो किसी बेहद अच्छे धनी-मानी परिवार की लगती थी, कई दिनों की भूखी भी लग रही थी।

उसने उनसे अपनी मदद करने का आग्रह किया तो क्षमा को लगा कि मानो कालभैरव स्वयं चाहते थे कि उन लोगों के माध्यम से किसीकी मदद हो तो वो कौन होती थी मदद न करने वाली ?

मगर अभी तक वह जानती नहीं थी कि वो है कौन ? और उसे यह भी समझ न आता था कि क्या किया जाए उसके लिये ?

वो बेहद डरी हुई महिला अपनी पहचान किसी शर्त पर बताने को तैयार न थी। उसने गांव में किसीको भी अपने बारे में न बताने के इसरार के साथ बस् उसे एक शहर पहुंचा देने का आग्रह किया था जो कि वहां से बहुत दूर था। शायद वहां से उसे कोई अच्छी मदद मिल जाने की उमीद थी। मगर इस तरह के अनुभवों से एकदम ही अनजान क्षमा ने उसे तब कुछ समय के लिये वहीं फांसीघर में ही छिपे रहने को कहा ताकि इस बीच के एक दो दिनों में कुछ सोचा-किया जा सके। अगले दिन वह फिर से खाना तथा पानी आदि ले कर उससे मिलने पहुंची थी। यही वह सुबह थी कि जब मनु ने उसे तथा मां को फांसीघर से आते देखा था।

जब मनु व विकास चले गए तो रात के वक्त क्षमा मां की सहमति से उस भद्र महिला को अपने घर के पीछे बने भंडार में लिवा लाई। उसे वहीं छुपा के रखा गया। वो दोनों समझ नहीं पा रही थीं कि उसे उसके बताऐ शहर में कैसे पहुंचाया जाए। अब तक अपने परिचय के नाम पर उस महिला ने बड़ी मुश्किल से इतना ही बताया था कि वो भाईजी के यहां काम करती थी और बेहद परेशानी में थी। सो,

जब मनु व विकास भाईजी के किसी बंदे द्वारा जमानत पर रिहा करा लिये गए तो क्षमा ने किसी प्रकार उस महिला को उसकी सहमति से उन दोनों से मिलवा कर सीधे थानेदार के क्वार्टर पर भिजवा दिया था क्योंकि पूरा गांव थानेदार की ईमानदारी के प्रति आश्वस्त था।

और, बच्चा-बच्चा जानता था कि भाईजी के सेवकों की पूरी फौज किसीको खोजती न जाने कहां-कहां फिर रही थी। कहीं किसीने देख लिया तो, तो फिर तो हो लिया था ! पता नहीं क्या कर बैठें भाईजी। इसलिये मनु व विकास उसे थानेदार के पास पहुंचाने के अलावा उसकी कोई और मदद नहीं कर सकते थे। सो, उसे वहां छोड़ वे दोनों तत्काल वहां से चले गए थे कि कहीं थाने में कोई सिपाही, चौकीदार भाईजी का भेदिया कुछ जान न ले।

उस एकमात्र चश्मदीद को वहां अदालत में देख कर भाईजी को दिल का दौरा ही तो न पड़ जाता ?

ये क्या हो गया था ?

वह चश्मदीद बताती थी कि किस प्रकार भाईजी ने अपनी साली को अपने जाल में फांस लिया और वो साली भी उस जाल में फंस कर अपनी सगी बहन से विश्वासघात करने को तैयार हो गई थी। क्योंकि अपने अब तक के जीवन में कदम-कदम पर उस काली-सांवली और पढ़ाई में पिछ्ड्डू छोटी बहन को अपने से मात्र दो-तीन मिनट बड़ी अप्रतिम सुंदरी व पढ़ाई में अच्छी अपनी जुड़वां बहन से अपनी तुलना पर आऐ दिन नाते-रिश्तेदारों में लज्जित होना पड़ता था।

उस एक समारोह में भी देखा तो भाईजी ने दोनों बहनों को था मगर पसंद उसे नहीं किया था क्योंकि वह थोड़ी सांवली थी। वे उसकी निहायत गोरी चिट्टी बहन से ही विवाह करने के इच्छुक थे जबकि वह आगे पढ़ना चाहती थी। एकाध हिम्मती परिजनों ने चाहा भी था कि वे दूसरी बहन को पसंद कर लें जो कि लिखने-पढ़ने में कुछ कमजोर बस् शादी-ब्याह के ही सपने देखती-बुनती रहती थी। वो उनके ज्यादा अनुकूल रहेगी। किंतु नहीं !

उन्होंने तो अपनी पसंद बड़े साफ तौर पर बता दी थी। इतने पैसे वाले घर का आग्रह कौन ठुकरा सकता था। सो वह ब्याह हो गया था और दिल में बड़ी बहन से जीवन के इतने बड़े मोर्चे पर हार जाने की एक कसक लिये उस कुटनी सी मनःस्थिति वाली छोटी बहन ने अपनी उस पराजय को जीत में बदल डालने की कोई कोशिश बाकी न रहने दी थी। भाभीजी के दिल में वह फांस की तरह बन कर गड़ गई थी। जिसे अब किसी प्रकार निकाला नहीं जा सकता था।

भाईजी के तो दोनों हाथों में लड्डू थे। माशाअल्ला ऐसी किस्मत क्या सबको मिलती है ?

मनघड़ंत अपने अपमान की आंच में धीमे-धीमे तपते हुए उस नीतिहीना सी ही हो चुकी साली ने बहन के घर में अपनी महत्वाकांक्षाओं को जी भर कर पूरा करना शुरू कर दिया था। वो अब बहन नहीं थी बल्कि बहन की बेहद खतरनाक सौत बन चुकी थी क्योंकि उसे पता था कि उसे अब कहीं ठौर नहीं मिलना था। उसे अब जो भी पति के रूप में मिलेगा जीजा से कम धन-वैभव व कम हैसियत वाला ही मिलेगा। उसे अपनी बहन से जो बचपन की जलन जो ख्ुान्नस थी वो उससे मुक्त न हो पा रही थी। जबकि बहन ने पग-पग पर उसका साथ दिया था।

इतना ही नहीं वरन उसने भाईजी के राजनैतिक जीवन में भी अपनी महत्वाकांक्षाओं के परचम लहराने आरंभ कर दिये थे। सो, उन्होंने उसे पार्टी की स्थानीय प्रवक्ता ही नहीं बना रखा था, बल्कि अपनी काफी बेनामी संपत्ति को भी उसके नाम पर लगा रखा था। उसका ब्याह कहीं और हुआ तो वह संपत्ति उनके हाथ से चली जानी थी। भाभीजी अपने सात्विक विचारों के चलते उनके गलत-सलत कामों में साथ नहीं देना चाहती थीं। जबकि साली को कोई ऐतराज न था। उम्र में अपने से कोई बीसेक साल बड़े जीजा से उसे कोई शिकायत न थी सिवाय इसके कि वह अपनी जीजी के जीवित रहते जीजा का भरपूर साथ कैसे देगी ? तलाक के तो तब वहां कोई मायने भी नहीं समझता होगा, और वैसे भी उनके जैसे खब्ती खानदानों में तलाक का नाम तक जुबां पर लाना अपराध था।

तो ऐसी पत्नी से छुटकारे का कौन उपाय ?

वे कहें कि वे अजमेर जा रहेंगी। वहीं स्कूल में पढ़ा-लिखा कर चला लेंगी अपनी जिंदगी।

मगर नहीं जी। भाईजी के खानदान में स्त्रियों ने ऐसा कभी नहीं किया। अलग रहने आदि जैसी बातों से तो उनकी भद्द ही पिट जाऐगी। बल्कि दोनों ही कुलों की आबरू नीलाम हो रहेगी। कुलों की आबरू का जुआ किसी को तो ढोना ही पड़ता था।

तब ?

तब होता था बड़ी आसानी से होता था कि बड़ी बहन की मृत्यु हुई कि उधर छोटी बहन को उसका परिवार संभालने उसी घर में ब्याह दिया जाता था। अनगिनत उदाहरण मिल जाते थे तब इस प्रकार के। ऐसे विवाह बड़ी आसानी से हजम कर लेता था समाज।

इसलिये उसकी योजना थी कि भाभीजी को रास्ते से हटा कर कुछ दिनों बाद वे अपनी स्वर्गीया पत्नी की इच्छा तथा बच्चों की देख-रेख की खातिर साली से विवाह कर लेंगे। वह भी अपनी प्रिय स्वर्गीया बहन के बच्चों के लिये इस ब्याह के लिये सहमति देती भली ही लगेगी। सांप भी मर जाएगा और लाठी भी ना टूटेगी !

जब उन पर अस्थमा का अटैक आया तो वे एक-एक सांस लेने को तड़पती रहीं। कोई डॉक्टर न बुलाया गया। ईश्वर का प्रताप कि वे अपने आप ठीक हो गईं।

उनके खाने में कुछ मिला कर वो बड़े प्रेम से उन्हें खाने के लिये मजबूर करती थी कि किसी सेवक से बाउल नीचे गिर गया। जिसे उनकी पालतू बिल्ली ने खा लिया। वो बिल्ली न बची।

किसी बहाने वो उन्हें महल की सबसे ऊपरी छत पर ले जा कर धक्का देना चाहे तो वहां भी तो कोई नमकहलाल सेवक आ गया वहां सूख रहे बड़ी-पापड़
उठाने के बहाने ।

तरह-तरह से उन्हें रस्ते से हटाने की कोशिशों में मिलती जा रही असफलता और देर ने उसे आक्रोश से भर दिया था।

इधर,

दुख से कातर हो रही भाभीजी के लिये तो दुनिया उसी दिन खत्म हो गई थी जिस दिन उन्हें अपनी सगी बहन व अपने पति के अवैध संबंधों व बाद में बहन के दुर्दांत-खौफनाक इरादों की खबर लगी थी। किसी तरह लेकिन बच्चों के कारण सोचती थीं कि कुछ ऐसा हो जाए कि अपने बच्चों को वे स्वंय ही पाल सकें। विधाता ने मगर न जाने क्या तो तय किया हुआ था। सारी घटनाऐं न जाने किस प्रकार से उनके हाथ से बस् बालू रेत की तरह से फिसलती ही जा रही थीं। वे कहती भी तो किससे और क्या कहतीं ? पति तो वैसे ही पराया था, बहन सगी हो कर भी उनकी जान की ग्राहक बन बैठी थी।

कौन सुनता वहां उस नक्कारखाने में उनकी ? पूरी तरह मरा हुआ मन लिये वे उन दोनों के बीच से हट जाने को भी तैयार थीं किंतु इसमें भी भाईजी को अपनी व अपने खानदान की परंपराओं की हेठी लगती थी न्।

तो, बस् असमय, अकाल मौत मरना ही उनके नसीब में लिखा था ?

उनकी निराशा की कोई सीमा न थी। सब कुछ चुपचाप, असहाय बुझे-मरे-थके मन से देखती थीं और बस् सोचती थीं वे, कि-न जाने कब, कैसे मौत आनी थी !

वे देखती थीं कि एक दो रोज पहले रंगमहल के किसी काम का बता कर काफी सारा मुर्दाशंख पाउडर मंगाया गया था। रामलीला के पात्र गोरे दिखने के लिये उस पाउडर का प्रयोग किया करते थे। पानी व साबुन से भी इसे छुड़ाया नहीं जा सकता था। केवल कुछ ही लोग जानते थे इसे छुड़ाने का तरीका।

उनकी जुड़वां बहन इस आने वाली ऐकादशी पर जनदर्शन में स्वयं बैठने को उतावली थी। जब उसे ही वे मन से अपनी पत्नी का दर्जा दे चुके थे तो ऐसे विशेष आयोजनों में भी उसे ही परम स्थान मिलना चाहिये। उसे जरा सब्र न था। भाईजी ने उसे समझाया भी था कि थोड़ा सब्र करो। केवल कुछ दिनों की ही तो बात है। अभी इस ऐकादशी पर आखिरी बार बैठ लेने दो अपनी जीजी को जनदर्शन में, अभी जनता तुम्हें कैसे देखेगी मेरे साथ ? अभी तो कितने ही मेकअप में भी तुम्हारी रंगत से पहचान लेगी ना तुम्हें ?

तो,

उस दिन भाईजी को आश्चर्यचकित कर देने की नीयत से कि जब भाभीजी की वह सांवली रंगत वाली जुड़वां बहन मुर्दाशंख पाउडर चुपड़ कर अपनी बहन के पूरे मेकअप में थी, अपनी बहन की ही तरह साड़ी पहन कर घूंघट आंखों के काफी नीचे तक लिया हुआ था उसने, जिससे नाक में पहनी वह लौंग चमकती थी जो भाभीजी की पहचान सी ही बन चुकी थी। उनसे सारे गहने जेवर भी ले कर बिल्कुल ही उनके जैसी दिखने के लिये उसने उनकी नाक की लौंग भी ले ली थी उनसे कुछ देर पहनने को तो,

किसीको क्या पता था कि वह लौंग ही उसकी जान की गाहक बन जाएगी ???

उसे भी नामुराद, बेमुरव्वत, बदनसीब को जरा भनक तक न थी भाईजी के नापाक इरादों की कि अब बस् वे उसकी जीजी की जान का निबटारा करने ही वाले हैं !

वह तो बनी-ठनी भाईजी के सामने पहुंची थी एक खेला करती, यह जानने कि वे भी उसे पहचान पाते हैं कि नहीं ?

तो उन्होंने तो अपनी पूर्व योजना के अनुसार उस पल उसे अपनी पत्नी समझ उसके माथे में दन्न से गोली दाग दी थी। उस छटंकी का खेला तो इधर शुरू कि उधर खतम्!

रिवॉल्वर के साइलेंसर से पिट् की आवाज हुई थी और परदे की ओट से वह चश्मदीद सारा घटनाक्रम देखती अवाक् रह गईं थीं माथे से ढेर सा खून उगलती उस अपनी ही प्रतिकृति को वहीं धराशायी होते देख कर। उफ् !

समझ में आना बाकी तो नहीं कि-

किसी काम से अंतपुर में आईं थीं भाभीजी वहां अचानक ही भारी परदों की ओट में चश्मदीद बनी खड़ी रह गईं थीं अवाक्। उन्हें कुछ समझ में न आ रहा था। उनकी बहन बिल्कुल उन्हीं की तरह दिख रही थी। सांवली-काली नहीं वरन पूरी गोरी चिट्टी। कोई नहीं कह सकता था कि वह खुद उनके अलावा कोई और थी। सो,

मनु ‘‘भाभीजी, भाभीजी’  करता बेहोश हो गया था तो क्या आश्चर्य ? क्योंकि स्वयं भाईजी भी पहचानने में भूल कर गए थे। अब वे उस लाश के हाथ में रिवॉल्वर थमाने जा रहे थे, बल्कि थमा ही दिया था कि लगे कि मरने वाली ने आत्महत्या की है !

इसी समय मनु को खोजता उसका जीजा वहां घटनास्थल पर आ पहुंचा, जिसे थोड़ी देर पहले न जाने क्या सोच कर भाईजी ने अंदर आने की अनुमति दी थी। और अब भाईजी का खुरापाती दिमाग इस बिंदु पर तेजी से काम करने लगा या वे शायद पहले ही उसे ले कर कोई योजना बना चुके थे।

बड़ी दूर की सोचते हुए उन्होंने बेहोश मनु को फौरन दीवान के बाजु में छिपा कर रिवॉल्वर को जमीन पर सरका दिया। उसे मनु के जीजा से उठवाया, इस तरह रिवॉल्वर पर उसकी अंगुलियों के निशान आ जाने दिये। अचानक इतनी बड़ी घटना देख कर उस बेचारे की तो इतने बड़े आदमी के सामने बोलती बंद ! उसीसे सब उठाई-धराई कराते थे वे आदतन अपने बेहद मीठे संबोधनों से काम लेते हुए। कहते थे वे उससे कि- ‘ये सब साफ-सफाई कर दे वरना तू ही फंसेगा कि तू यहां यही सब करने आया था। मैं हूं न, बचा लूंगा तुझे।

भारी मोटे और दोहरे परदे की ओट से यह सब देख भाभीजी के मुंह से घबराहट के मारे चीख भी न निकल पाई थी। वो बस् सांस रोके सब कुछ देखती रह गईं थीं। जब भाईजी उस बोरे को मनु के जीजा के कंधों पर लिवा ले गए तो उन्हें ध्यान आया था कि वे उन्हें जीवित जान कर अब न जाने उनका क्या करेंगे ? वो कितने खूंख्वार हैं कौन नहीं जानता ? अब क्या वे उन्हें मार न देंगे ? कैसे, क्या करें अब ? कुछ समझ में नहीं आ रहा था उनके ?

तब बुरी तरह घबराई हुई वे वहां से निकल भागने की कोशिशों में उन दोनों के पीछे, किसी प्रकार महल के पिछले भाग के लंबे-लंबे गलियारों से होती, छिपती-छिपाती उस पोर्च में आईं थीं जो ऐसी घटनाओं के बाद लीपा-पोती के लिये उपयोग में लाया जाता था।

भाईजी उस बोरे को एक जीप में रखवा कर मनु के जीजा के संग वापस हो रहे थे। वे किसी खंबे की आड़ से उन्हें जाते देखती रहीं। जब उन्हें लगा कि वहां उनके अलावा कोई और नहीं था तो अपनी जान बचाने को वे उस नीम अंधेरे में जा कर उसी जीप के पीछे वाली सीट में छुप गईं थीं कि कम से कम महल के बाहर तो निकलें।

इसी जीप को मनु व विकास ले गए थे गढ़ी की ओर। गढ़ी पहुंच कर जब मनु और विकास पीते-पीते बतियाते थे तो मौका पा कर वे गाड़ी से निकलीं, किंतु मनु ने उन्हें देख लिया। हालांकि नशे में वह उन्हें उनका भूत समझ रहा था। तब उन्हें कुऐं की मुंडेर की ओट में छिपना पड़ा। विकास भी नशे में था मगर नशे की हालत में भी उनके प्रति सम्मानवश वो मनु को बार-बार भाभीजी का नाम लेने को मना कर रहा था।

उन दोनों की बातों से उन्हें लगा था कि वे लोग उनके लिये विश्वासपात्र हो सकते थे किंतु तब वे बेहद डरी हुई थीं। अतः किसी तरह मौका पा कर कुऐं की ओट से निकलीं और जिस मंदिर में वे पूरे ताम-झाम के साथ अनेक अवसरों पर पूजा-पाठ करने आया करती थीं, किसी प्रकार उन्होंने अपने आप को उस मंदिर के पिछले तरफ छोटे से परकोटे की ओट में छिपा लेने में ही भलाई समझी थी कि आखिर वे दोनों थे तो भाईजी के ही वफादार। कहीं ---

‘मुजरिम को अपनी सफाई में कुछ कहना है ? ’

मुजरिम तो उस महिला से नजरें मिलाते ही धम्म से कटघरे में बैठ गया था। माजरा सब समझ में आ गया था उसे। अब कुछ कहना-सुनना मायने नहीं रखता था।

उन्हें आजीवन कारावास की सजा जब जज ने सुनाई तब तक तो वे बेहोश से हो चुके थे। उन्हें सच् ही दिल का दौरा पड़ा था। जब तक उन्हें चिकित्सा उपलब्ध होती तब तक तो वे जेल जाने के बदले परलोक सिधार गए थे, अपनी करनी का फल शायद किसी और जन्म में भुगतने को।

‘भाभीजी !!! ’

‘छिमा कर दें, भाभीजी हमें छिमा कर दें।’  रोते थे मनु और विकास भाभीजी के पैरों में गिर-गिर कर। वे क्षमा करती थीं उन्हें बड़े ममत्व व सात्विक भाव से-

‘जाओ, जेल में भी और जेल से आने के बाद अच्छे आदमी बन कर रहना। तुम हमारे सेवकों में ही रहोगे। घबराना मत।’  उन्होंने दोनों को आश्वासन दिया था।

विकास ने अपनी बहन और मां को उनके हवाले, उनकी देखरेख में छोड़ा था।

मनु का जीजा बरी हो कर अपनी करनी पर सचमुच बेहद शर्मिंन्दा था। पूनम तथा सोनिका जैसी सबके बिस्तर गोल हो गए थे वहां से। वे सब अब और किसी ठौर पे अपना मालमत्ता बेचने को मजबूर डोलती होंगी। सारा महल अब साफ-सुथरा था।

अंत भला सो सब भला की तर्ज पर अब चुनाव में भाईजी की जगह उम्मीदवार थीं भाभीजी, जिन्हें वहां से जीतने के लिये सिवाय चुनाव में खड़े होने के और क्या चाहिये था ? सो, वे अपने क्षेत्र में बिना कोई प्रचार संबंधी दौड़धूप किये भारी बहुमत से जीती थीं। और,

कोर्ट की प्रक्रिया निबट जाने के बाद अपनी लौंग वापस लेने जब वे थाने आईं थीं तो थानेदार को तो उन्होंने जी भर के आशीर्वाद दिया ही था, पास ही में थानेदार के क्वार्टर आ कर अपनी सखी जैसी हो गई थानेदारनी व उसके बेहद उधमी बच्चों से मिलना न भूलीं थीं।

समाज का कितना अजब नियम है कि -

यदि पत्नी गुजर गई है तो उसकी बहन से जीजा का विवाह आसानी से किया जा सकता है। पति के न रहने पर उतनी ही आसानी से उसकी विधवा का ब्याह देवर से होना भी संभव था ना ? वास्तव में ऐसा हुआ था कि नहीं, ये मुझे ज्ञात नहीं है क्योंकि एक तो मैं तब काफी छोटी थी। सो मुझे पता नहीं। दूजे, मेरे पापा का वहां से तबादला होने पर हम सदा के लिये उस जगह से दूर चले आए थे।

लेकिन -

आपके, मेरे, हम सबके मन को अच्छा लगे इसलिये मैं अपनी सुखद कल्पनाओं में सोच रही हूं कि भाई जी के गलत-सलत कामों से इत्तेफाक न रखने वाले उनके छोटे भाई जो माता-पिता की मृत्यु के बाद अपना हिस्सा ले कर अर्सा पहले महल के दूसरे हिस्से में अलग रहने लगे थे उन्होंने भाईजी की मृत्यु के बाद आ कर पुनः घर व परिवार को संभाल लिया और निःसंदेह भाभीजी को भी उन्होंने उनकी सूनी मांग में पुनः सिंदूर भर कर एक नया मनमाफिक जीवन दे दिया होगा।

इस तरह ये कहानी जिसमें बहुत कुछ सच्चाई और काल्पनिकता दोनों का मिश्रण है यहीं खतम होती है। और सोचिये कि उन दोनों ने निरापद रूप से आगे अपना लंबा सुखद जीवन जिया

कितना अच्छा लग रहा है न यह सोचना ?

1
रचनाएँ
लौंग का लश्कारा
0.0
उसका अंर्तमन न जाने कहां-कहां कुलांचे भरता था हिरन सा, ऐसे में वे पल उसके सामने थे कि जब दीपावली के बाद भाईजी व भाभीजी जनदर्शन के लिये झरोखे में आ कर बैठते थे। उस झरोखे को बनाया ही इस प्रकार गया था कि वे दोनों दूर तक नजर आते थे। उन दोनों के बैठने के स्थान पर उनके ऊपरी छोर पर दीपमाला जगमगाती थी जिससे वे दोनों एकदम देवी-देवता से प्रतीत होते थे। वह तो अपनी कल्पनाओं में आंख भर-भर देखता न थकता था उनकी दिव्य मूरतों को। एक दिन महलनुमा हवेली में उनके अचानक ही सामने आ पड़ने पर वह एकबारगी तो कुछ घबरा ही गया था। उसे वैसे भी इन बड़े-बड़े लोगों से बात करने का कोई सलीका तो था नहीं, वो तो उसकी मजबूरी थी जो उसे उनके सामने ले आई थी। वरना वह कहां सोच सकता था ऐसे महलों में रहने वालों को इतने पास से देखने-सुनने का। कितने सीधे-सरल थे वे उससे उसकी कुशल क्षेम पूछते थे ! वह बस् हाथ जोड़ आंखें बंद करके उनके चरणों में झुक ही तो गया था। हल्की सी खनकती हंसी की आवाज के साथ, अपने सिर पर किसी हाथ को आशीर्वाद देते पा कर जब उसकी झुकी हुईं, बंद आंखें खुली थीं तो उसने देखे थे दो अत्यंत गोरे, संदर से सुंदरतम पैर जिनमें सोने की मोटी-मोटी पायलें थीं, बिछिया भी सोने की ही थीं। अरे ! भाईजी के साथ भाभीजी भी थीं। वह उन्हीं के चरणों में जा झुका था। उसे लगा था मानो साक्षात देवी मां का ही आशीर्वाद मिल गया था उसे। ‘यही है तुम्हारा वो देवर जो ठीक तुम्हारे ससुराल से आया है। इसका ध्यान रखना ही पड़ेगा।’ भाईजी बता रहे थे अपनी अर्धांगिनी को। जब मनु ने बड़ी ही हिम्मत व हसरत से कुछ गरदन उठा कर देखा था तो तक्षण ही उसकी नजरें पुनः उन्हीं चरणों में जा लगी थीं। श्वेत कपोतों की जोड़ी जैसे वे पैर ही उसकी नजरों के केंद्र बने रहे थे, उनका चेहरा देख ले ऐसी उसकी हैसियत कहां थी ? कहीं नाराज ही न हो जाऐं ? कहीं कुछ और ही न समझ लें ! वे दोनों तब आपस में बतियाते चले गए थे। वह गदगद होता रहा था बड़ी देर तक। कैसी अप्रतिम मूरत थी भाभीजी व भाईजी दोनों की ! कैसी तो राम मिलाई जोड़ी थी भला !

किताब पढ़िए

लेख पढ़िए