shabd-logo

लेख-- खेल के मैदानों से दूर होता बचपन

29 अगस्त 2017

676 बार देखा गया 676
देश में तीव्र गति से बच्चों का झुकाव आक्रमक रवैये और अन्य असामाजिक कार्यों में लग रहा है। जिसका अहम कारण बच्चों की खेल ों के प्रति बढ़ती दूरी भी है। आज के समाज में बच्चा जहां घर में माता-पिता की भाग-दौड़ भरी जिंदगी में अकेलेपन का एहसास करता है, वहीं खेलों से बढ़ती दूरी उसके मानसिकता के विकास को भी अवरुद्ध कर रहीं है। जीवन में पढ़ाई के साथ खेल कूद दोनों का महत्व है, तभी नैतिक शिक्षा की किताबों में भी खेल के महत्व पर प्रकाश डाला जाता है। आज की गतिमान जिंदगी में न बच्चों के पास खुले मैदान में खेलने का वक़्त रहा है, और न ही इस प्रतियोगिता के युग में बच्चों को खेल के प्रति सज़ग बनाया जा रहा है। बच्चों को तो किताबों तले दबा दिया गया है। जिससे उनका बचपन तो प्रभावित हो ही रहा, उसके साथ भविष्य भी गर्त की ओर बढ़ जाता है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मन की बात के कार्यक्रम में खेलों से दूर होती आधुनिक पीढ़ी को लेकर कहा कि, एक जमाना था जब मां बेटे से कहती थी कि बेटा खेलकर घर वापस कब आयोगे? अब वक़्त की नज़ाकत कहती है, कि मां अपने बेटे से कहती है कि बेटा खेलने के लिए घर से बाहर कब जाओगे। निश्चित ही बदलते तकनीकी दौर में आज की पीढ़ी का खेल के मैदानों के प्रति अरुचि और मोहभंग बढ़ता जा रहा है, जिस तरफ़ अब सुषुप्त अवस्था भरी निगाहों से देखना भविष्य के साथ खिलवाड़ से कम नहीं। इसको लेकर प्रधानसेवक की चिंता वाजिब और नज़ाक़त के मुताबिक सही है। जब से देश संचार- प्राद्योगिकी की चपेट में आया है, तकनीक ने मैदानों की शोभा छीन ली है। देश में बच्चों की सामाजिक उपादेयता शक्ति भी कमजोर हो रहीं है, क्योंकि जो सामाजिकता का पाठ बच्चें खेल-खेल में सीख लेते थे, आज कि नई पीढ़ी उससे वंचित हो चुकी है। आज मैदानों के खेल कंप्यूटर, मोबाइल, और लैपटॉप पर खेले जा रहें हैं। इन खेलों के खेलने से इन बच्चों का मानसिक विकास भले होता हो, लेकिन सामाजिक और नैतिकता का पाठ बच्चें नहीं सीख पाते। इसके अलावा आज जो खेल दिन-रात मोबाइल-फोन पर खेले जा रहें हैं, वह बच्चों में तमाम तरीके की बीमारियों को घर बनाते जा रहीं हैं। बच्चे इन खेलों में मशगूल इतने होते हैं, कि न तो उन्हें अपने खाने का ध्यान रहता है, और न ही पीने का। अधिक समय तक आधुनिक उपकरणों की चपेट में रहने के कारण अपनी जिंदगी की मूल्यवान आंखों की रोशनी को भी अंधेरे में बदलते प्रतीत होते हैं। इन आधुनिक खेलों की चपेट का ही नतीजा है, कि आज की स्थिति में बच्चों में चिड़चिड़ापन बढ़ रहा है, और बच्चे अवसाद ग्रस्त हो जाते हैं। फ़िर यही अकेलेपन और अवसादग्रस्त की स्थिति इन्हें समाज से अलग करती हैं, और बच्चे छोटी सी उम्र में ही खूंखार रूप समाज के सामने धारण करने लगते हैं। बच्चों का मैदान से दूर होने का कारण भी उनके पास से ही शुरू होता है, पहले बच्चा जब नासमझ होता है, घर में रोता है, तो आधुनिक भाग-दौड़ की जिंदगी के संरक्षक अपने पालय को मोबाइल थमा देते हैं।। धीरे-धीरे बच्चा उसी मोबाइल-फ़ोन का आदी हो चुका होता है। इसके इतर दूसरा कारण प्रतिस्पर्धा का बढ़ता दौर भी बच्चों के जीवन से मैदान को छीन रहा है। तभी तो अब पहले जो बड़े- बुजर्गों की उक्ति थी, वह बदल गई है, जिसका स्थान अब ले लिया है, खेलोगें कूदोगे, तो बनोगे खराब, पढ़ोगे- लिखोगे तो बनोंगे महान। इसके अलावा खेलों से बढ़ती दूरी का कारण मैदानों का घटता आकर भी है। अब बढ़ती आबादी ने बड़े-बड़े घरों का रूप धारण कर लिया है। जिसके कारण खेत-खलिहान भी कम हुए हैं। गांव में तो आज भी खुली जगह बच्चों को खेलने के मयस्सर हो जाती है, लेकिन शहरों की तंग गलियों में तो बच्चों के खेल-कूद के लायक कोई माहौल ही नहीं छोड़ा गया है। इसकेे अलावा समाज की भेड़-चाल ने भी बच्चों के हाथ में जिस उम्र में खिलौने होना चाहिए, उस उम्र में बस्ते का बोझ लदा दिया जाता है। जिससे उनका शारीरिक विकास तो अवरुद्ध होता ही है, मानसिक और सामाजिक विकास भी नहीं हो पाता। हमारे संस्कृति और सभ्यता सिखाती है, कि समाज बच्चों को नैतिकी का पाठ सिखाता है, लेकिन अब तो विकास की चाहत और अपने बच्चों की दूसरे बच्चों से तुलना ने बच्चों को किताबों के भीतर ही समेटकर रख दिया है, उस रवायत को हमारे समाज को त्यागना होगा। हमारे सभ्यता और संस्कृति में कितने उद्धरण हमें मिलते हैं, जो मात्र किताबी कीड़ा बनकर देश और समाज को ऊचाइयों के तख़्त पर नहीं पहुँचाया है। फ़िर आज भी आवाम को अपने बच्चों को खेल के प्रति भी सजग करना होगा। आज के हमारे परिवेश से और मासूमों की जद से हमारे बचपन के खेल गायब हो रहें हैं, क्योंकि हमारी उम्र भी ज्यादा नहीं है, फ़िर इतने कम समय मे अगर यह स्थिति है, फिर आने वाले वर्षों में डब्बा स्पाइस, लुका छिपी, लगंड़ी, कबड्डी, खो-खो आदि प्राचीन खेलों का तो इतिहास नहीं मिलेगा। आज एक ओर इन खेलों का अस्तित्व सिमट रहा है, वहीं ब्लू व्हेल जैसे खतरनाक खेल बच्चों की जिंदगी के साथ खेल खेल रहा है। ऐसे में अब वक़्त की नजाकत को देखते हुए हमारे परिवार, समाज और देश को अपनी पुरानी खेल परम्परा की ओर लौटना होगा, जिससे हमारे देश की संस्कृति और सभ्यता के परिचायक खेल भी बचें रहें, उसके साथ बच्चों में बढ़ती असामाजिक प्रवृत्ति को भी क़ाबू में किया जा। इसके साथ देश की एकता और भाईचारे को बनाए रखने के लिए भी खेल भावना का विकसित होना जरूरी है। खेल को खेल की भावना से ही खेला जाना चाहिए। पिछले दिनों क्रिकेट जो देश की रगों में बसता है। उसने यह साबित करने पर मजबूर कर दिया कि टीम के लिए कोच बड़ा है, या कप्तान। अगर थोड़ा धार्मिक और परंपारिक लहजे में विचार किया जाएं, तो हमारे देश में गुरू की भूमिका महती होती है, लेकिन बीते दिनों जिस तरीके की तकरार कप्तान और कोच में निकलकर आई। वह दुखद स्थिति पैदा करती है। हमारे देश की यह बिडंबना ही कही जा सकती है, कि अपने को सर्वोत्तम समझने की भूल सभी करते है। क्रिकेट के स्तर में आ रही गिरावट और दूर हो रही खेल भावना को देखकर यही समझ में आता है, कि देश की व्यवस्था को अन्य खेलों को भी प्रोत्साहन दिया जाना चाहिए, जो कि आजादी के बाद से दृष्टिगत नहीं किए गए। ऐसा नहीं है, कि हमारे देश में मात्र क्रिकेट की प्रतिभा है, देश में किदांबी श्रीकांत, सानिया नेहवाल, विश्वनाथन आनन्द आदि अन्य खेलों की विराट शख्सियत भी है। जिन खेलों को देश में कभी भी सुहानी आंखों से नहीं देखा गया। जब बीते कुछ वर्षाें के बीच में क्रिकेट में फिक्सिंग और खेल भावना क्षीण हुई है, तो वही दूसरी ओर अन्य खेलों में खिलाडियों ने अभावों के बीच बुलंदियों को छूआ है। उसको देखते हुए देश में अन्य खेलों से जुड़ी प्रतिभाओं को निखारने के लिए प्रयास करना चाहिए। पैसे और एकाधिकार के कारण मात्र क्रिकेट पर बढ़ावा देना अन्य प्रतिभाओं के साथ खिलवाड़ है। भले ही देश में क्रिकेट का जलवा कयाम है, किन्तु बीते कुछ समय के भीतर बैडमिंटन और अन्य खेलों से संबंधित खिलाडियों के प्रदर्शन ने सिद्ध किया है, कि शायद अगर देश में अन्य खेलों की तरफ उदासीनता का माहौल पैदा न होता, तो देश में प्रतिभा की कमी नहीं है। हमारा देश अगर ओलंम्पिक में पदक तालिका में कभी शीर्ष स्थान पर नहीं आया, तो शायद इसका कारण लोकतांत्रिक व्यवस्था की बेरूखी ही उसका कारण रहीं, क्योंकि राजनीति क सांठ-गांठ क्रिकेट के माध्यम से ही धन उगाही में लगा हुआ है। अब देश के प्रधानमंत्री देश का नाम रोशन करने वाले अन्य खेलों के खिलाड़ियों का नाम सियासी मंचों पर भी लेने लगे है। इसके साथ कुछ महीने पहले मन की बात में किदांबी श्रीकांत की तारीफ भी की। अतः यही कहा जा सकता है, कि क्रिकेट की तरह अगर अन्य खेलों को देश में महत्व और आर्थिक सहायता अगर प्रदान की जाएं, तो अन्य खेल भी देश में पनप सकते है, और खिलाड़ी देश का भविष्य बन सकते है। जो रवायत लगता हैं, आने वाले दिनों में दिख सकती हैं। इसके साथ अगर सरकार अन्य खेलो को प्रोत्साहन दे, तो शायद लोगों में भी खेलों के प्रति सजगता का माहौल देखने को मिल जाए।

महेश तिवारी की अन्य किताबें

1

लेख-- हुज़ूर न्यू इंडिया की स्थितियों पर नज़र करके तो देखिए

28 अगस्त 2017
0
1
0

भारत को अब डिजिटल इंडिया और न्यू इंडिया का सपना दिखाया जा रहा है। वही भारत में जहां अभी भी गरीब, भुखमरी व्याप्त है। उसको राजनीति क लाभ की दृष्टि से उपयोग करने की रवायत हावी हो रही है। देश की समस्याओं पर राजनीति करके अपनी राजनीतिक

2

लेख-- बाबा न राम के हुए , न रहीम के

28 अगस्त 2017
0
0
0

आज की नजाकत में धर्म पर हावी विज्ञान है। फ़िर भी धर्मांधता का चश्मा समाज पर चढ़ा है। सत्ता का तख़्त सजाती जनमानस है। जनमानस और सियासी रणबाकुरों की फ़ौज लिपटी एक बाबा के चरणों में है। आज देश में न्यू इंडिया का तासा पीटा जा रहा है, क्या न्यू इंडिया में जनमानस धर्मांधता का दामन ओढ़कर और सत्ता बाबाओं की जूती

3

लेख-- खेल के मैदानों से दूर होता बचपन

29 अगस्त 2017
0
0
0

देश में तीव्र गति से बच्चों का झुकाव आक्रमक रवैये और अन्य असामाजिक कार्यों में लग रहा है। जिसका अहम कारण बच्चों की खेलों के प्रति बढ़ती दूरी भी है। आज के समाज में बच्चा जहां घर में माता-पिता की भाग-दौड़ भरी जिंदगी में अकेलेपन का एहसास करता है, वहीं खेलों से बढ़ती दूरी उसके मानसिकता के विकास को भी अवरुद

4

लेख--- अब तो सुधरो

29 अगस्त 2017
0
0
1

संयुक्त राष्ट्र की तरफ से आई एक रिपोर्ट में विस्थापन को लेकर खुलासा हुआ हैं, वह देश की व्यवस्था और लोगों की सोच में बदलाव की तरफ़ इशारा करती है , कि अब प्राकृतिक संरक्षण के प्रति सचेत हो जाओ। इस रिपोर्ट के तहत यह पता चलता है, कि देश में पिछले वर्ष आपदाओं और पहचान के साथ जातीयता की जकड़न से आज़ादी के सा

5

चमकदार इंडिया की ग़रीब दास्ताँ

29 अगस्त 2017
0
4
2

राजनीति और जनता का प्रत्यक्ष मिलन अब मात्र चुनावी हल-चल के वक़्त दिखता है, जब उसके प्रत्याशी जनता रूपी मत को अपना भगवान और उसके साथ तमाम वे रिश्ते- नाते रचने की कोशिश करती है, जिसके जोड़ का धागा बहुत ही नाज़ुक होता है, और उसको बनाया भी इसलिए जाता है, कि क्षणिक उपयोग ह

6

लेख-- उच्च शिक्षा में सुधार का ये तरीका भी हो सकता है?

29 अगस्त 2017
0
0
0

आज एक बड़ी घटना बाज़ार का हिस्सा बनती जा रहीं है। वह है, पोर्टिबिलिटी। मोबाइल नंबर पोर्टिबिलिटी, बैंक पोर्टिबिलिटी। क्या शिक्षा के स्तर पर भी पोर्टिबिलिटी की सुविधा से सकारात्मक असर दिख सकता है? जवाब उत्तरित नहीं, लेकिन आज गाड़ी मझधार में हो, तो सभी घोड़े खोल देने चाहिए। तो क्या हमारी हुक्मरानी व्यवस्था

7

एक देश , एक कानून पर अमल हो

30 अगस्त 2017
0
1
0

देश में आज के दौर में कोई सबसे बड़ा बदलाव दिख रहा है। तो वह 1400 वर्षों बाद देश में मुस्लिम महिलाओं की सुदृढ़ होती सामाजिक स्थिति की ओर बढ़ता क़दम। महिलाएं जो सामाजिक औऱ धार्मिक प्रथा के नाम पर सामाजिक बुराई रूपी तीन तलाक के दंश से पीड़ित थी, उस समस्या से निजात दिलाने का प्रयास सार्थक रहा। अब इस समस्या

8

लेख--- लोकतंत्र के प्रहरियों को तोड़ना होगा, परम्परागत राजनीति की रवायत

30 अगस्त 2017
0
0
0

लोकतांत्रिक व्यवस्था को विस्तार और परिभाषित करने की आज की व्यवस्था में कोई आवश्यकता नहीं हैं। अगर लोकतंत्र सात दशक आज़ादी की आबोहवा में पंख फड़फड़ाने के बाद भी वर्तमान दौर में जातिवाद, परिवारवाद, और तमाम सामाजिक कुरीतियों की साया से आज़ाद नहीं हो सका, तो उसके लिए जिम्मेवार लालफीताशाही भी हैं, क्योंकि अग

9

लेख- किस दिशा में जा रहा समाज

30 अगस्त 2017
0
1
0

इस सभ्यता को हुआ क्या है। कहीं हिंसात्मक माहौल है, कहीं बर्बरता की सीमा लांघा जा रहा है। क्या यहीं लोकतांत्रिक व्यवस्था है। जिस समाज की सभ्यता और संस्कृति के रग-रग में आपसी भाईचारा और वसुुधैव कुटुम्बकम की भावना समाहित है। अगर उस समाज में बर्बरता और हिंसात्मक परिवेश अपने चरम की ओर बढ़ रहा है। फिर यह

10

लेख-- राजनीतिक उदासीनता के शिकार गांव और ग्रामीण

31 अगस्त 2017
0
2
1

भारत की दो तिहाई आबादी अगर जेल से भी कम जगह में रह रही है। तो ऐसे में निजता के मौलिक अधिकार बन जाने के बावजूद छोटे होते मकान और रहवासियों की बढ़ती तादाद प्रतिदिन की निजता को छीन रही है। जिस परिस्थिति में देश में सबको घर उपलब्ध कराने की बात सरकारें कह रही हैं। उस दौर में देश की आबादी का अधिकांश हिस्सा

11

लेख-- निजी हाथों में सौप कर कैसे सबको शिक्षा दे पाएगी सरकार?

1 सितम्बर 2017
0
0
0

हमारे देश की साक्षरता वर्तमान में लगभग 75 फीसद हैं, तो उसका कारण सरकार की सरकारी स्कूलों की अनदेखी के साथ निजी स्कूलों को बढ़ावा देना हैं। फिनलैंड, नार्वे, अजरबैजान ऐसे देश हैं, जो 100 प्रतिशत साक्षर हैं। यह देश के सामने विडंबना हैं, कि हम अजरबैजान जैसे देश की बराबरी साक्षरता के मामले में नहीं कर प

12

लेख--ये तो उत्तम प्रदेश बनने की निशानी नहीं

2 सितम्बर 2017
0
2
1

गोरखपुर के चर्चे सियासी गलियारों में तेज़ है। तो उसी गोरखपुर के चर्चे जनमानस के जुबां पर भी है। अगस्त महीने के शुरुआती दौर में 60 बच्चों की मौत ने लोंगो को अचंभित कर दिया था। अब जब महीने के आखिर में भी 42 मौत हो गई । तो जनता के पैर के नीचे से जमीं खिसक रहीं है। इसके अलावा वह हतप्रभ, और व्याकुल हो उठी

13

लेख-- आज़ादी के साथ अपने दायित्वों और संवैधानिक कर्तव्यों को समझें

3 सितम्बर 2017
0
0
0

भारत परम्पराओं और त्योहारों का देश है। हमारी संस्कृति के परिचायक यहीं तीज-त्यौहार हैं। आज त्योहारों की आड़ में हुलड़बाजी समाज में पनप रहीं है। गणेश पूजन की बात हो, या किसी अन्य त्यौहार की क्या उसकी मूल भावना समाज में जीवित है। इस पर गौर करना चाहिए। क्या गणेश उत्सव को

14

लेख-- राष्ट्र का उदय और अस्त गुरु के हाथों में

4 सितम्बर 2017
0
1
0

गुरुर ब्रह्मा गुरुर देवो महेश्वरा गुरुर साक्षात परब्रम्ह तस्मै श्री गुरुवे नमः आज यह उक्ति हमारे शैक्षिक परिवेश में शिक्षकों और छात्रों के बीच क्रियान्वित होती नहीं दिखती। आज शिक्षक और छात्रों के बीच खाई गहरी होती जा रहीं है। गुरु हमारे पुनर्जन्म का गर्भ होता है जहां से हमारा सही अर्थों में दोबारा ज

15

लेख-- ब्रिक्स में दिखी भारत की गर्जना

5 सितम्बर 2017
0
0
0

आर्थिक विशेषज्ञो की माने, तो ब्रिक्स देशों की आतंरिक व आर्थिक स्थिति के आधार पर भारत की स्थिति हर दृष्टिकोण से वर्तमान में सबल नज़र आती है। उसके साथ भारत वर्तमान दौर की विश्व व्यवस्था में सबसे मजबूत जनाधार की लोकतांत्रिक सरकार है। साथ-साथ अगर अर्थव्यवस्था की दिशा में भारत तेज़ी से बढ़ रहा है, तो विश्

16

लेख-- व्यवस्था की टूटी चारपाई, मीडिया और हमारा समाज

7 सितम्बर 2017
0
0
0

संविधान में मीडिया को लोकतंत्र को चौथा स्तम्भ माना जाता है। इस लिहाज से मीडिया का समाज के प्रति उत्तरदायित्व और जिम्मदरियाँ बढ़ जाती हैं। मगर क्या वर्तमान वैश्विक दौर में जब कमाई का जरिया बनकर मीडिया रह गया है। वह समाज के प्रति अपने दायित्वों का सफल निर्वहन कर पा रहा है। उत्तर न में ही मिलेगा, क्योंक

17

लेख--- देश में असुरक्षित होता बचपन

10 सितम्बर 2017
0
0
0

आज समाज की स्थिति में असामाजिक तत्वों का समावेश अधिक होता जा रहा है, फिर हम नए भारत का निर्माण किसके लिए कर रहें हैं? जब देश के वर्तमान ही भविष्य के लिए सुरक्षित नहीं, फ़िर क्या बात की जाए? किस संस्कृति और आचरण को महत्व दिया जाए? इस बाज़ार में सब नंगे नजऱ आ रहें हैं। आज समाज को हवशीपने का जो ज्वार लगा

18

लेख-- लोगों के माथे पर ग़रीब लिखना उचित नहीं

25 दिसम्बर 2017
0
1
0

वो राम की खिचड़ी भी खाता है, रहीम की खीर भी खाता है, वो भूखा है जनाब उसे, कहाँ मजहब समझ आता है। किसी न काफ़ी विचार-विमर्श के बाद इन लाइनों को गढ़ा होगा, लेकिन देश के सियासतदां तो धर्म औऱ मज़हबी राजनीति से ऊपर उठ सकें नहीं। तभी तो गरी

19

लेख-- सरकारें बदल जाती हैं, व्यवस्थाएं क्यों नहीं बदलतीं

27 दिसम्बर 2017
0
0
0

सरकारें बदल जाती है, व्यवस्थाएं क्यों नहीं बदलती। चुनावी मुलम्मा खड़ा किया जाता है, लेकिन जनतंत्र की आवाज़ को क्यों अनसुना कर दिया जाता है। सामाजिक पैरोकार बनने की बात होती है, लेकिन हकीकत से व्यवस्था मुँह क्यों मोड़ लेती है। तो क्या अब समय आ गया है, कि जनता उग्र हो

---

किताब पढ़िए

लेख पढ़िए