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लेख--- अब तो सुधरो

29 अगस्त 2017

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संयुक्त राष्ट्र की तरफ से आई एक रिपोर्ट में विस्थापन को लेकर खुलासा हुआ हैं, वह देश की व्यवस्था और लोगों की सोच में बदलाव की तरफ़ इशारा करती है , कि अब प्राकृतिक संरक्षण के प्रति सचेत हो जाओ। इस रिपोर्ट के तहत यह पता चलता है, कि देश में पिछले वर्ष आपदाओं और पहचान के साथ जातीयता की जकड़न से आज़ादी के सात दशक गुज़र जाने के बाद आज़ाद न होने के कारण लगभग 28 लाख लोग आंतरिक रूप से विस्थापित होने पर विवश हुए। जिसने देश की लोकशाही व्यवस्था और यहां के लोगों के माथे पर सिकन खींचने का काम यह किया है, कि इन 28 लाख लोगों में से 24 लाख लोगों को विस्थापन का घूट इसलिए पीना पड़ा, क्योंकि प्रकृति ने इनका साथ नहीं दिया। या यूँ कहें प्रकृति से इन लोगों ने तारतम्यता बना कर नहीं रखी। ऐसे में संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट देश की व्यवस्था और आवाम को कुम्भकर्णी नींद से उठने पर विवश कर रहीं है, क्योंकि जब आंकड़े के मुताबिक देश का लगभग 55 फ़ीसद वन क्षेत्र प्रतिवर्ष आग से प्रभावित रहता है, और जिसके कारण देश को प्रति वर्ष 440 करोड़ रुपयों की आर्थिक हानि झेलनी पड़ती है। तो ऐसे में इस वैश्विकरण के दौर में देश की आवाम को प्राकृतिक के प्रति सजगता दिखानी होंगी, क्योंकि इन कारणों के पीछे हाथ भी इन्हीं का होता हैं, और नुकसान भी आम आवाम का ही होता हैं। आज जब देश की युवा पीढ़ी देश की जनसंख्या में 60 फ़ीसद हिस्सेदारी रखती है, फ़िर उसे सामाजिक स्तर के मुद्दों पर भी बेबाक़ी के साथ काम करना चाहिए, लेकिन यह विरलय देखने को मिलता है। हमारी युवा पीढ़ी अपने अधिकारों के लिए कटिबद्ध तो दिखती है, लेकिन जब बात शायद सामाजिक उत्तरदायित्व के निर्वाहन की आती है, तो वे पल्ला झाड़ते नज़र आते है। ऐसे में देश आधुनिकता के साथ प्रकृति से संवाद करना भूल गई है, आज उसी का नतीजा है, कि देश के भीतर सूखा, तो कहीं बाढ़ देखने को मिल रहीं है। इस रिपोर्ट में जिक्र हुआ हैं, कि हमारे देश का स्थान आंतरिक विस्थापन में चीन और फिलीपीन के पश्चात तीसरा हैं। निहितार्थ रूप में प्रकृति ने अब अपना रौद्र रूप दिखाना शुरू कर दिया हैं। आज देश की राजनीति धुर्वीकरण की रास रचती है, धर्म-जाति को मुद्दा बनाती है, क्योंकि इस दुष्चक्र से समाज भी आज़ाद होकर अपने समाज , पर्यावरण, शिक्षा के बारे में नहीं सोच पा रहा है। उसको तो जातिवादी, धर्म-सम्प्रदाय आदि से निर्मित साँचे में ढ़ले कुंआ का कूप मण्डूक हमारी राजनीति ने बना दिया है, जिससे बाहर आकर वह अभी तक सोच नहीं सका। इसलिए आज़ादी से लेकर आज तक कभी पर्यावरण संरक्षण आदि चुनावी पहल भी न बन सका। अगर 2014 में कश्मीर में आई बाढ़ से निपटने में 15 अरब डॉलर खर्च हो गए। उसके अलावा उसी वर्ष देश के कुछ हिस्सों में आए हुदहुद चक्रवात ने देश को अगर 11 अरब डॉलर का चुना लगाया। तो निहितार्थ यहीं है, कि अगर जलवायु परिवर्तन को सामाजिक सरोकारिता से जोड़ दिया जाता, तो आज तक पर्यावरण संरक्षण और बाढ़ और सूखे से निपटने के लिए जितने रुपये बहा दिया गया, उससे कहीं कम में देश में एक मजबूत आपदा प्रबंधन की कड़ी तैयार हो जाती। जिससे लोगों को प्रति वर्ष आपदाओं से जूझना नहीं पड़ता, इसके साथ हमारी व्यवस्था को भी हर वर्ष इन आपदाओं से बचने के लिए कुंआ खोदने की आवश्यकता नहीं होती। हाल ही में कृषि मंत्रालय की रिपोर्ट के मुताबिक देश की खेती जलवायु परिवर्तन के कारण 2020 से इस सदी के अंत तक गम्भीर रूप से प्रभावित रहने वाली हैं। इसके अलावा हाल के वर्षों में आंतरिक विस्थापन की मुख्य वजह बाढ़ आदि रही हैं। जब देश का लगभग 68 फ़ीसद क्षेत्र सूखा संभावित और 60 प्रतिशत भूकंप संवेदी और इसके साथ देश के अगर 75 प्रतिशत तटीय हिस्से चक्रवातों एवं सुनामी संभावित क्षेत्र में आते हैं, तो ऐसे में हमारी कार्यपालिका की भी जवाबदेही बनती हैं, कि वे देश मे मजबूत आपदा प्रबंधन की कड़ी तैयार करें, जो वर्तमान परिवेश में दीप्तमान नहीं होती। यह देश के समक्ष विडंबना हैं, कि आपदा प्रबंधन के नाम पर लाखों- करोड़ों बहा दिए जाते हैं, फिर भी इन विस्थापित पीड़ितों को एक स्थायी जिंदगी मयस्सर नहीं हो पाती हैं। ऐसे में अगर पिछले वर्ष जुलाई-अक्टूबर में बिहार में आई बाढ़ से 16 लाख लोग विस्थापन होने को विवश हुए, तो ऐसे में एक ही बात हो सकती हैं, कि प्राकृतिक आपदाओं से निजात नहीं मिल सकती, लेकिन उसके पहले उचित प्रबंधन हो सकता हैं, उस पर सरकारों को ज़ोर देना चाहिए। अगर देश में देश के भीतर प्रत्येक 10 में से तीन व्यक्ति विस्थापन का घूट पीने को बेबस हैं, और 2011 की जनगणना के मुताबिक 40 करोड़ जनसंख्या आंतरिक विस्थापन कर चुकी हैं, फ़िर लालफीताशाही को विस्थापन को आगे आने वाले समय में रोकने का प्रयास करना चाहिए।

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