भारत को अब डिजिटल इंडिया और न्यू इंडिया का सपना दिखाया जा रहा है। वही भारत में जहां अभी भी गरीब, भुखमरी व्याप्त है। उसको राजनीति क लाभ की दृष्टि से उपयोग करने की रवायत हावी हो रही है। देश की समस्याओं पर राजनीति करके अपनी राजनीतिक हैसियत बढ़ाना हमारी राजनीति की परंपरा बन चुकी है, उसी को आगे बढाते हुए आज न्यू इंडिया की जुमलों से देश को अपनी तरफ़ आकर्षित किया जा रहा है। बीते दिनों बिहार के अररिया में सड़क जमींदोज होने की जो त्रासदी सामने आईं, अगर न्यू इंडिया का यही भविष्य है, तो देश की आवाम को ऐसे नए भारत की आवश्यकता नहीं होनी चाहिए। भारत में बाढ़ की विभीषिका से प्रतिवर्ष लाखों लोग हताहत होते हैं। दक्षिणी-पश्चिमी मानसून में एकाएक आई तेजी की वजह से बिहार ,गुजरात, असम और पश्चिम बंगाल समेत नौ राज्य अभी भीषण बाढ़ की चपेट में हैं, लेकिन आज की नजाकत कहती है, कि देश के कुछ हिस्से भीषण बाढ़ की चपेट में है, तो दूसरी ओर, कुछ इलाके सूखे की मार झेल रहे हैं। इन परिस्थितियों के लिए देश , समाज, और सरकार सभी जिम्मेदार हैं, क्योंकि इन सभी ने अपनी जिम्मेवारियों से जी चुराया। आज उसका नतीजा देश ग्लोबल वार्मिंग के रूप में भुगत रहा है, फिर भी न समाज और न सरकार सजगता से फैसले लेने को तैयार है, जिससे इस गम्भीर त्रासदी की पीड़ा को कुछ कम किया जा सके।
आज देश में विदेशी सम्बंधो पर हमारी हुक्मरानी व्यवस्था ज्यादा मेहरबान दिख रही है, तभी तो देश सिस्टम के बह जाने के कारण बाढ़ की पीड़ा झेल रहा है, लेकिन देश की हुकूमत को तो विदेशी सम्बंधो की फ़िक्र अधिक है, तभी नेपाल को बाढ़ राहत पहुँचाना प्राथमिकता में है। देश के भीतर बाढ़ से पीड़ित मौतों पर तो हमारी सियासी व्यवस्था आंखे बन्दकर करके तमाशबीन बनी हुई है। वर्तमान समय में देश के भीतर लगभग साढ़े चार सौ लाख हेक्टेयर क्षेत्र बाढ़ के अनुमानित क्षेत्र हैं, जिसमें से प्रतिवर्ष औसतन 77 लाख हेक्टेयर क्षेत्र बाढ़ से पीड़ित होते हैं। जिसके कारण देश को प्रति वर्ष लगभग 35 लाख हेक्टेयर क्षेत्र की फ़सल का नुकसान उठाना पड़ता है। वहीं नीति आयोग की रिपोर्ट के मुताबिक प्रतिवर्ष औसतन 1400 से अधिक लोग कालकलवित हो जाते हैं। 2013 में उत्तराखंड, 2014 में जम्मू-कश्मीर तथा 2015 में तमिलनाडु में आई भीषण बाढ़ के बाद भी पर्यावरण-संरक्षण के प्रति हमारी सरकारें कटिबद्ध नजर नहीं आ रहीं हैं।
सिस्टम की इन मुद्दों पर चुप्पी आज देश के लोगों के घर-बार, जीवन के साथ लुका-छिपी का खेल खेल रही है, और हमारी व्यवस्था आधुनिकता का अध्याय शुरू करने के लिए हर बात में 2022 का प्रयोग कर 2019 को हथियाना चाह रही है। आज देश की राजनीतिक रवायत भी भविष्यवेत्ता बनकर उभर आई है, जो वर्तमान न देखकर भविष्य की चाल बता रहीं है। लेकिन फ़िर जब देश को बाढ़ और सूखे से सचेत करने औऱ बचाव का काम करना होता है, फ़िर फेल हो जाती है। बाढ़ पीड़ितों को क्या मतलब न्यू इंडिया से, क़िस्मत और परिस्थितियों के मारे किसान मर अभी रहें है, फ़िर दुगनी आय के लिए क्या उनकी आत्मा 2022 के बाद राशनकार्ड लेकर आएंगी। हमारी राजनीति अगर वर्तमान को नही सही कर पा रही है, फिर यह लोकतंत्र के सपनों से खिलवाड़ और मज़ाक के अलावा कुछ भी नहीं है। आज़ादी के इतने वर्षों में कभी किसी आगे खिसकाएं गए मुद्दों ने देश का पीछा छोड़ा है, तो इसके उत्तर देने मे व्यवस्था भी निरूत्तर हो जाएगी। फ़िर जुमले बाजी क्यों?
बाढ़ नियंत्रण के लिए मानव संसाधन मंत्रालय से बाढ़ के दंश से कराह रहे राज्य आसाम को पिछली दो पंचवर्षीय योजनाओं के अंतर्गत 2383 करोड़ की जगह 813 करोड़ आवंटन क्यों हुआ। यहीं हाल बिहार, और उत्तरप्रदेश का भी है। फिर मात्र सियासी घड़याली आँसू बहाने से देश का दस्तूर नहीं बदलने वाला। कुशल राजनीतिक व्यवस्था से ही समस्याओं का निस्तारण हो सकता है, जो देश की व्यवस्था में आज़ादी से ही नदारद है। नहीं तो देश में जो वर्ष 1954 में देश का एक करोड़ हेक्टेयर बाढ़ प्रभावित क्षेत्र था, वह बढ़कर साढ़े चार करोड़ हेक्टेयर को पार नहीं कर जाता। इसके साथ बाढ़ सुरक्षा विधेयक 2010 भी अधर में नहीं पड़ा रहता। इसका अर्थ साफ है, राजनीतिक चमक बनाएं रखने के लिए जुमले देश में आज़ादी से आज तल्ख़ चले आ रहें हैं, लेकिन उसका फ़लसफ़ा वही है, ढाक के तीन पात।
आज देश के भीतर तीन करोड़ लोग बाढ़ से प्रभावित, 80 लाख बेघर, 500 लाख करोड़ की संपत्ति बर्बाद हो गई, उसकी जिम्मेदारी कौन लेने को तैयार है? उत्तर आज की राजनीति में निरूत्तर बनकर रह गया है। सीएजी की रिपोर्ट के अनुसार किसी राज्य ने 11 और 12 योजना में रत्ती भर इन समस्याओं से निजात के लिए कुछ नहीं किया। बीते दो पंच वर्षीय योजनाओं में 517 में से 220 योजना शुरू ही नहीं हो सकी। एक लाख 49 हजार से ज्यादा मौत आज़ादी के बाद से अब तक हो चुकी है। फ़िर आपदा प्रबंधन के नाम पर हो क्या रहा है। इसका उत्तर राजनीति भी देने को तैयार नहीं। उसे फिक्र तो 2019 की है। देश में बाढ़ सुरक्षा के लिए केंद्रीय जल आयोग, गंगा फ्लड कंट्रोल मिशन 1972, ब्रह्मपुत्र बोर्ड, राष्ट्रीय बाढ़ आयोग, टास्क फोर्स और न जाने कितनी संस्था और बोर्ड चल रहे है, फिर भी आवाम के जान, माल को बचाया नहीं जा सका है।
अब जब नए भारत की कल्पना के बीच इन बाढ़ प्रभावित राज्यों में 400 के करीब मौत हो चुकी है। इसके इतर एक घटना ताइवान में घटती है, बिजली जाने की, उसके बाद अगर आर्थिक मामलों के मंत्री वहां इस्तीफा दे देते हैं, तो क्या हमारी हुक्मरानी व्यवस्था अपनी चिरनिंद्रा को अब त्यागेंगी? और सीएजी की रिपोर्ट के अनुसार 12वीं पंचवर्षीय योजना तक लगने वाले 219 टेलिमीट्रि स्टेशन लगवा पाएगी। इसके साथ 375 में से 222 ठप्प टेलिमिट्रि को सुधारने की जहमत दिखाएगी, क्योंकि बिना इसके जलस्तर और मौसमी सूचनाओं को प्रदान करने का खोखला दावा ही किया जा सकता है। जो अभी भी रवायत बना हुआ है। इसके इतर 17 केन्द्रशाषित राज्यों में से दो राज्यों के द्वारा बाँधो का निरक्षण किया गया। फ़िर क्या समझा जाए, विकास के खोखले दावे के बीच बाढ़ के कहर से आवाम को सुरक्षित करना आज की तारीख में किसी लोकतांत्रिक सरकार की जिम्मेवारी में शामिल नहीं? देश तो गरीबी से कागज़ी अमिरियत की तरफ बढ़ा, लेकिन प्राकतिक आपदा से बचने की रुपरेखा नदारद ही दिखी। न्यू इंडिया बनाने से पहले इसमें सुधार होना चाहिए।