हमारे देश की साक्षरता वर्तमान में लगभग 75 फीसद हैं, तो उसका कारण सरकार की सरकारी स्कूलों की अनदेखी के साथ निजी स्कूलों को बढ़ावा देना हैं। फिनलैंड, नार्वे, अजरबैजान ऐसे देश हैं, जो 100 प्रतिशत साक्षर हैं। यह देश के सामने विडंबना हैं, कि हम अजरबैजान जैसे देश की बराबरी साक्षरता के मामले में नहीं कर पा रहे हैं, फिर अन्य विकसित देशों के समक्ष खड़े होने की हम सोच ही नहीं सकते। इन तथ्यों को आधार माने तो शिक्षा को लेकर हमारे देश की नीति में ही झोल मालूम होता हैं।
फिनलैंड में निजी कॉलेज न के बराबर हैं, जबकि हमारे यहां निजी कॉलेज और अब निजी विश्वविद्यालय की जमात कुकुरमुत्तों की तरह पनपती जा रही हैं। जिसका एक कारण नेताओं और
राजनीति के पिछलग्गू का उमड़ता स्कूल प्रेम भी हैं। जिसको उन्होंने कमाई का धंधा बना लिया हैं। सरकार को पहले इस चलन को रोकना होगा, क्योंकि इस कारणवश शिक्षा-सुविधा गरीबों के बूते से बाहर होती जा रही है। प्रतिदिन निजी संस्थानों की मनमानी की खबरें अखबारों का हिस्सा बनती हैं, लेकिन सरकार की पता नहीं क्या मजबूरी हैं, कि उनके खिलाफ कदम नहीं उठा पाती हैं। यूनेस्को के मुताबिक 2014 में जहां फिनलैंड अपने जीडीपी का 7.2 फीसद शिक्षा पर खर्च किया था, वहीं भारत अपने जीडीपी का महज 3.8 फीसद शिक्षा पर खर्च कर पाया। फिनलैंड में सभी विद्यालय सरकारी हैं और उनमें कोई भी फीस नहीं ली जाती है। फ़िर हमारे देश के रहनुमा क्यों नहीं ऐसी ताकत जुटा पा रहें हैं, जिससे शिक्षा तक पहुंच सब की हो सकें।
किसी सेना की अपेक्षा, शिक्षा स्वतंत्रता के लिए एक बेहतर सुरक्षा होती है। क्या शिक्षा आज इस उक्ति को चरितार्थ कर पा रहीं है। उत्तर न में मिलता है। वर्तमान शिक्षा व्यवस्था को लेकर सवाल बहुतेरे हैं। उत्तर कौन देगा? ऐसा दिखता तो कोई नही। शिक्षा की जो स्थिति आज हमारे देश की है, उसके जिम्मेदार कौन हैं? यह उत्तर निरूत्तर नहीं है। सरकारी पिछलग्गू नेताओं ने शिक्षा व्यवस्था में खटमल बनकर चिपक गए। जिसका कारण हुआ। आज शिक्षा की गुणवत्ता को दीमक लग गया। अब नीति आयोग इस दीमक से आज़ाद होने की संजीवनी निजी हाथों में शिक्षा को सौपने का तर्क रख रहा है। ऐसे में एक ही सवाल उमड़ता है, यह कैसा मज़ाक? आज कि शिक्षा व्यवस्था में लोक व्यवहार के आधार पर क्या बचा है? निचले स्तर से उच्च शिक्षा स्तर पर नेताओं की पैठ है। फ़िर अब शिक्षा को कितने स्तर तक बेचने की फितरत जन्म ले चुकी है। जब सरकार से सरकारी स्कूल नहीं चल पा रहें हैं। फ़िर यह कैसे उम्मीद बांध ली जाए, निजी हाथो में पहुँचकर शिक्षा गंगा की तरह स्वच्छ हो जाएगी? गुणवत्ता, और रोजगारपरक शिक्षा की आवश्यकता पूर्ण हो जाएगी? आयोग ने अपने तीन वर्ष के एजेंडे में यह वकालत कि है, कि क्या निजी क्षेत्र प्रति छात्र के आधार पर सार्वजनिक रूप से वित्त पोषित सरकारी स्कूल को अपना सकते हैं। यहाँ सवाल यह आज कौन सी कम्पनी है, जो अपने निजी हितोद्देश्य को ताक पर रखकर काम करेगी? आज के समय में जब पैसा ही सब कुछ है। उस दौर में कमाई का ज़रिया शिक्षा भी बन कर रह गया है। उस परिस्थिति में शिक्षा के क्षेत्र में निजी कम्पनी कायाकल्प के लिए तैयार होगी, यह भी लाख टके का सवाल है?
एक रिपोर्ट के अनुसार समय के साथ सरकारी स्कूलों की संख्या तो देश में बढ़ी है। सवाल इस रिपोर्ट से भी मुँह उठाकर झांकते हैं। जब स्कूल बढ़े फ़िर छात्र क्यों नहीं? उत्तर वहीं सुधार का भगीरथी प्रयास सरकारी स्तर पर दूर की कौड़ी साबित हुआ। दुःखद स्थिति तो तब निर्मित होती है, कि सरकारी स्कूलों में दाखिले में भी गिरावट दर्ज की गई। वहीं दूसरी तरफ निजी स्कूलों में दाखिला लेने वालों की संख्या बढ़ी है। ऐसा नहीं निजी स्कूल जन्मघुट्टी पिलाते हो। आयोग ने कहा कि शिक्षकों की अनुपस्थिति, शिक्षकों के क्लास में रहने के दौरान पढ़ाई पर पर्याप्त समय नहीं देना तथा सामान्य रूप से शिक्षा की खराब गुणवत्ता महत्वपूर्ण कुछ ऐसे कारण हैं, जो सरकारी शिक्षा से अभिवावकों को नज़र चुराने पर विवश करते हैं। तो इस बात पर यक्ष सवाल और अंतर्विरोध दोनों उपजते हैं। पहला क्या कारण है, कि शिक्षक अनुपस्थिति रहते हैं? दूसरा जब शिक्षकों का अकाल सरकारी स्कूल झेल रहा है, फ़िर पढ़ाई पर ध्यान न देने की बात कहां से आई? अगर शैक्षणिक वर्ष 2010 से 2014 के दौरान सरकारी स्कूलों की संख्या में लगभग साढ़े तेरह हज़ार स्कूलों में वृद्धि हुई, तो शिक्षा का स्तर भी सुधारने पर जोर होना चाहिए था। नीति आयोग की सिफारिश कि शिक्षा को निजी हाथों में दे दिया जाए, इसके झटके भी कम नहीं होंगे?