वो राम की खिचड़ी भी खाता है, रहीम की खीर भी खाता है, वो भूखा है जनाब उसे, कहाँ मजहब समझ आता है। किसी न काफ़ी विचार-विमर्श के बाद इन लाइनों को गढ़ा होगा, लेकिन देश के सियासतदां तो धर्म औऱ मज़हबी
राजनीति से ऊपर उठ सकें नहीं। तभी तो गरीबी अपने होने पर रो रही है। हमारा संविधान कहता है कि हम सब संविधान और कानून की नजर में एक समान और बराबर हैं , ऐसे में फिर शासन- प्रशासन कैसे संविधान की मूल भावना से हटकर काम करने लगता है? यह समझ में आता नहीं। मैं
ग़रीब परिवार से हूँ, मैं राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम के तहत राशन लेता हूं। यह ख़बर अखबारों में छपी थी, जब राजस्थान के दौसा जिले के स्थानीय प्रशासन ने हुकुम दिया था, कि राशन के लिए वीपीएल कार्डधारकों को अपने घर पर उक्त बातें लिखना होगा। अब जब मध्यप्रदेश के शिवपुरी के विनेगा गांव में प्रशासन की तरफ़ से ग़रीब का मुहर लगाया गया। तो इससे कई यक्ष प्रश्न ख़ड़े होते हैं। क्या सरकारी व्यवस्था इतनी लचर और शिथिल पड़ गई है, जो गरीबी और अमीरी के बीच फ़र्क़ नहीं कर पा रहीं? क्या किसी के घर पर नाम के साथ ग़रीब लिखना लोकतंत्र और मानवाधिकार का उल्लंघन नहीं? जो व्यवस्था अपने हितोउद्देश्य के लिए कुछ भी कर सकती है, वह यह कैसे पता नहीं कर सकती, कि किसे अन्न की सबसे सख़्त जरूरत है? या नहीं। इसके इतर क्या वै
ज्ञान की औऱ डिजिटल युग में लोगों में विभेद का यहीं तरीका व्यवस्था के पास एकमात्र उपाय है? शायद राजनीति ने जाति-धर्म से आगे बढक़र कभी सोचा नहीं। तभी तो तारीख़ बदल गई, लेकिन तवारीख़ नहीं। कितनी सरकारें आई, और चली गई, लेकिन देश से गरीबी हटाओ का नारा दशकों पुराना होने के बाद भी गरीबी हटी नहीं। आजादी के 70 बरस बाद भी आज देश में 36 करोड़ लोग गरीबी रेखा से नीचे हैं। तो यह शर्मिंदगी का विषय है।
सर्वोच्च न्यायालय द्वारा केन्द्र सरकार को अनाज सड़ने देने की बजाय गरीबों में मुफ्त बांट देने के निर्देश दिए जा चुके हैं , लेकिन शायद व्यवस्था भूख शांत करने की दिशा में इतने तेज़ी से कार्य कर नहीं पा रही। जितनी फ़ौरी कार्यवाही के रूप में लोगों के माथे पर ग़रीब लिखने को उतावली दिखती है। जनवरी 2010 में आरटीआई के माध्यम से पता चलता है, कि भारतीय खाद्य निगम गोदामों में 10,688 लाख टन खाद्यान्न सड़ा जाता है। यह देश की वास्तविक तस्वीर बयाँ करती है। तो पहली जरूरत किस दिशा में होनी चाहिए, इससे व्यवस्था अंजान है। ऐसे में यह गरीबी का मखौल उड़ाने से ज़्यादा कुछ समझ आता नहीं। यह देश की अजीब विडंबना है, कि एक ओर देश में लाखों टन अनाज सड़ रहा है, तो दूसरी ओर गरीबी रेखा से नीचे रहने वाली करोड़ों आबादी भुखमरी से लड़ रही है, साथ में शिवपुरी जैसे स्थानीय प्रशासन उनके साथ
खेल खेल रहीं है।
तमाम सरकारी कार्यक्रम और लोककल्याणकारी योजनाएं आज़ादी के बाद से चल रही हैं, लेकिन गरीबी देश का पीछा छोड़ने को तैयार नहीं। तो ऐसे में घर पर गरीब लिखने से गरीबी मिटने वाली नहीं, और न फ़र्जी राशनकार्ड बनना। इस तरीक़े की घटना सिर्फ़ गरीबीयत का अपमान करना है, जिसपर लग़ाम लगाई जानी चाहिए। आज देश में एकीकृत बाल विकास योजना, विद्यालयों में मध्यान्ह भोजन योजना, राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा मिशन, अन्नपूर्णा एवं अंत्योदय अन्न योजना, स्वर्ण जयंती ग्राम रोजगार योजना, महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना नाम से अनेकों कार्यक्रम चल रहें हैं। अगर इन योजनाओं का बजट प्रतिवर्ष बढ़ जाने के बावजूद भूख से मरने वालों की संख्या निरंतर बढ़ रही है तो कारण साफ़ है। दोष सार्वजनिक वितरण प्रणाली में ही है। इसके लिए गरीबी रेखा के नीचे जीवनयापन करने वालों की निश्चित संख्या और पहचान करना आवश्यक है, लेकिन व्यवस्था तो लोगों के घर पर ग़रीब लिखकर, लग्गी से घास खिलाने की कहावत चरितार्थ कर रहीं है। जिससे समस्या का निदान होने वाला नहीं। ऐसे में अगर सुरेश तेंदुलकर समिति के अनुसार 37 फ़ीसद जनसंख्या निर्धनता में जीवन जीने को विवश हैं। इसके अलावा अर्जुन सेनगुप्ता समिति के मुताबिक लगभग 80 फ़ीसद आबादी की प्रतिदिन बीस रुपये से कम में जीवन जी रही है। तो फ़िर सरकारी नीतियों में बदलाव की सख़्त जरूरत है। जिसे धर्म-जाति की राजनीति करने वाली व्यवस्था समझने को तैयार नहीं। ब्राजील ने 2003 में फोम जीरो करके एक योजना चलाती है, जिसका उद्देश्य भूख से निजात दिलवाना होता है। जिसके मुताबिक प्रतिदिन 1.25 डॉलर से कम में जीवन जीने वाले, परिवारों को प्रतिमाह 18 डॉलर का अनाज-कूपन दिया जाता है। ब्राजील सरकार ने इस योजना को भ्रष्टाचार, लालफीताशाही और राजनीतिक हस्तक्षेप से बचाकर समूचे विश्व में अपार प्रशंसा हासिल की। तो क्या अपने देश में योजनाओं को राजनीतिक हस्तक्षेप से नहीं बचाया जा सकता।
उसके अलावा चमकदार इंडिया में अब भी करोड़ों लोग खुले आसमान के नीचे भूखे पेट सोने को विवश हैं। उस देश में शिवपुरी जैसी घटना गरीब औऱ निरीह लोगों पर तमाचा जड़ने के साथ प्रशासन की असंवेदनशीलता को व्यक्त करता है। जिस देश में निजता की बहस हो रही हो, तो ग़रीब लिखना भी मौलिक अधिकार का हनन होने से कम नहीं। जिसको लेकर मानवाधिकार आयोग ने नोटिस भी जारी किया है। यह लोकतंत्र का राजनीतिक मख़ौल ही है, कि समाज के वंचित तबके को उसका दाय आज़ादी से आज तक प्राप्त हुआ नहीं, फ़िर ऐसे में सामाजिक समरसता और समानता कहाँ से आ सकती है? जितनी तन्मयता गरीब लिखवाने की दिखी, अगर वह गरीबी को लेकर धूल फांक रहीं समितियों को लागू करने की देश में होती, तो 26 से 32 रूपये कमाने पर लोगों को गरीब की श्रेणी से बाहर न कर दिया जाता। शिवपुरी का स्थानीय प्रशासन जिस तरह से फ़र्जी राशन कार्ड बनने से रोकने की कोशिश कर रहा है, वह कतई लोकतांत्रिक लहज़े में उचित नहीं। डिजीटल इंडिया की आहे भरते देश में क्या कारण है, कि फ़र्जी राशन कार्ड बनने से रोकने के लिए लोगों के घर पर गरीब लिखना पड़ रहा है। केंद्र सरकार के द्वारा लगातार अवगत कराने के बाद भी मध्यप्रदेश की व्यवस्था 20 लाख फ़र्जी बने राशन कार्ड की पहचान करने में दिलचस्पी नहीं ली। तो यह व्यवस्था की नाकामी है। इसके लिए सभी के माथे पर ग़रीब का तमगा लगाना आवाम की गरीबीयत और लोकतांत्रिक अधिकारों का मजाक बनाना है। यह सरकारी व्यवस्था को सोचना चाहिए, और गरीबी की सटीक परिभाषा तय करनी होगी, जिससे ज़रूरतमंद को सुविधा मिल सके, और धांधली करने वाले दण्डित हो सकें।