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लेख-- आज़ादी के साथ अपने दायित्वों और संवैधानिक कर्तव्यों को समझें

3 सितम्बर 2017

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भारत परम्पराओं और त्योहारों का देश है। हमारी संस्कृति के परिचायक यहीं तीज-त्यौहार हैं। आज त्योहारों की आड़ में हुलड़बाजी समाज में पनप रहीं है। गणेश पूजन की बात हो, या किसी अन्य त्यौहार की क्या उसकी मूल भावना समाज में जीवित है। इस पर गौर करना चाहिए। क्या गणेश उत्सव को लेकर जो भावना बाल गंगाधर तिलक ने जागृति की थी। समाज उस पर चल रहा है। आज गणेश उत्सव का आयोजन भले हर गली-मोहल्ले में हो रहा है। ऐसे में उसको मनाने की मूल भावना गायब दिखती है। आज गणेश उत्सव का वह स्वरूप नहीं दिखता । जो देखते हुए लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने गणोत्सव को शुरू किया था। उस समय गणेश पूजन राष्ट्रीय एकता के प्रतीक बन गया था। आज केवल मौज-मस्ती के लिए इन उत्सवों को मनाया जा रहा है। लोगों की अपनी स्वतंत्रता के साथ साथ पर्यावरण एवं अपने स्वास्थ्य और अन्य प्राणियों को ध्यान में रखते हुए अपने धार्मिक भाव एवं विचारों को व्यक्त करना चाहिए। जिससे किसी को क्या खुद को भी भविष्य में कोई कष्ट प्रतीत ना हो । गणेश पूजन वर्तमान परिदृश्य में देश के लिए महत्वपूर्ण पर्व के रूप में सम्मिलित हो चुका है । हमें विदित होना चाहिए कि गणेश पूजन की शुरुआत बाल गंगाधर तिलक ने महाराष्ट्र से स्वतंत्रता संग्राम में लोगों को एकजुट होने के लिए किया था। जिसके द्वारा वह लोगों को एकत्रित करके अंग्रेजी शासन के खिलाफ लड़ सकें । वर्तमान में गणेश उत्सव समग्र महाराष्ट्र में ही नहीं बल्कि पूरे भारत में बड़ी तेजी के साथ पैठ बना रहा है । जहां तक बात करें तो गणेश पूजन अधिकांशता सभी लोग बड़े हर्षोल्लास के साथ मनाते हैं। यह त्योहार जहां लोगों को मिलजुल कर रहना सिखाता है। वही लोगों के बीच आपसी प्रेम एवं भाईचारे को बढ़ाने का काम कर रहा है। ऐसे में गौरतलब होना चाहिए की वर्तमान में जहां गणेश पूजन को हर एक घर में मनाया जा रहा है। वही इसके कुछ पहलू ऐसे हैं जो कि उचित नहीं हैं। वर्तमान में गणेश पूजन में मूर्तियों की मांग लगातार बढ़ रही है। हर एक लोग हर वर्ष एक नई मूर्ति की स्थापना करते हैं। बात यहां तक तो ठीक है कि इसकी वजह से कुछ लोगों को अस्थायी रोजगार के अवसर मिल जाते हैं। जिससे कि वे अपने परिवार का पालन पोषण कर सकते हैं, लेकिन यह कोई स्थाई रोजगार के तौर पर नहीं माना जा सकता है। आज के समय में चमक दमक की भारत में ही नहीं पूरे विश्व में मांग बनी हुई है। लोगों को सहज सरल और टिकाऊ चीजों की जरूरत ही नहीं है उन्हें केवल दिखावा ही पसंद है। उसके लिए आप चाहे जिस क्षेत्र की चीजों के लिए उदाहरण ले लीजिए। यह बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण बात कहें या अपनी अ ज्ञान ता की आज के वैज्ञानिक युग में चीजें तो बदल गई हैं लेकिन हमारे रहन सहन एवं ढंग पुराने समय से भी बदतर होते चले जा रहें हैं। आज के समय में हम जिस प्रतिमाओं को स्थापित करने के पश्चात विसर्जित करते हैं। हमने शायद ही उस पर गौर किया हो। हम तो बस धर्म और बाहरी दिखावों के नाम पर अंधे हो चले हैं। तिलक के प्रयास से पहले गणेश पूजा परिवार तक ही सीमित था। गणेश महोत्सव का सार्वजनिक रूप देने का कार्य तिलक जी ने किया। उसके साथ गणेश पूजन को धार्मिक कर्मकांड तक ही संकुचित नहीं रखा, बल्कि आजादी की लड़ाई, छुआछूत दूर करने और समाज को संगठित करने तथा आम आदमी का ज्ञानवर्धन करने का उसे जरिया बनाया और उसे एक आंदोलन का स्वरूप दिया। जिस आंदोलन के कारण अंग्रेजी हुकूमत की जड़ों में दरारें पड़ गई। महान वैज्ञानिक आइंस्टीन ने कहा था, दो चीजें असीमित हैं−एक ब्रह्माण्ड तथा दूसरी मानव की मूर्खता। आज कल गणेश जी और दुर्गा जी की मूर्तियां प्लास्टर ऑफ़ पेरिस की बनी होती हैं। इन मूर्तियों को नदी, तालाब या समुद्र में डाला जाता हैं। पर्यावरण के दॄष्टि से प्लास्टर ऑफ पेरिस से बनी मूर्तियां हानिकारक होती हैं। जिसके कारण पर्यावरण को नुकसान के साथ लोगों में कैंसर होने का ख़तरा रहता हैं। इसके अलावा ये मूर्तियां जल्द पानी में घुलती नहीं। इसके अलावा पानी की भी बर्बादी होती है। इस वक्त में प्रतिमाओं के निर्माण के लिए प्लास्टर ऑफ पेरिस, जिप्सम जैसे घातक केमिकल का प्रयोग कर रहे हैं। जो हमारे स्वास्थ्य के साथ साथ पर्यावरण एवं जीव जंतु के लिए भी हानिकारक हैं। हमारे यहां बहुत से तीज - त्योहारों में मान्यता है, कि हम उस उपलक्ष्य में मूर्ति स्थापित करने के पश्चात विसर्जित करें। जब हम ऐसे रसायन युक्त एवं पीओपी जैसे पदार्थों से बनी प्रतिमाओं को जिस नदी या तालाब में विसर्जित करेंगे। तो उस नदी का जल प्रदूषित होगा साथ ही साथ नदी का जलस्तर भी कम हो जाएगा। जिसके कारण बहुत सारी बीमारियों के साथ ही साथ पर्यावरण को नुकसान पहुंचाएगा। एक खास बात और आज के वर्तमान परिदृश्य में साउंड और डीजे का प्रचलन भी तीज-त्योहारों पर बड़ी तेजी के साथ बढ़ रहा है। जिससे पर्यावरण प्रदूषण के साथ साथ मनुष्य को बहुत सारी तकलीफ , जैसे कान की सुनने की क्षमता आदि प्रभावित होती हैं। इन सभी बातों पर गौर करते हुए इस भौतिकवादी परिवेश में लोगों को अपने पर्यावरण के प्रति सचेत होते हुए वस्तुओं का प्रयोग करना चाहिए। जिससे कि किसी भी जीव जंतु के साथ पर्यावरण को किसी प्रकार का कोई खतरा न हो। धर्म का महत्व अलग तथा कर्म का अपना अलग महत्व होता है। हमें अपने वातावरण एवं आस-पड़ोस को सुंदर और सुशोभित बनाए रखने का प्रयत्न करना चाहिए ऐसा कोई भी कदम नहीं उठाना चाहिए जिससे कोई भी क्षति हो सके। साथ ही साथ जब आज समाज तमाम तरीके के दुर्व्यवहार से फल-फूल रहा है, फ़िर गली-गली में आज़ादी के नाम पर शोर-शराबे का क्या अर्थ। आदमी अपने पड़ोसी को फूटी आँखों से देखकर खुश नहीं। फ़िर सामाजिक दिखावा किसलिए? आदमी अपनी धार्मिक आज़ादी को घर के अंदर रह कर निभा सकता है, या फ़िर सामाजिक बदलाव की तऱफ क़दम उठाए। फ़िर इन विषयों की सार्थकता भी सिद्ध होगी, और पर्यावरण भी प्रदूषित नहीं होगा। मोदी जी ने भी मन की बात में मिट्टी की मूर्ति के प्रयोग की बात कही थी, समाज को उस तरफ़ ध्यान देना चाहिए। जब समाज में छुआ-छूत, और सामाजिक ढांचे का स्वरूप बिगड़ रहा है, फ़िर व्यर्थ की दिखावट क्यों। अगर संविधान ने धर्म और स्वतंत्रता की आज़ादी दी है, तो कुछ सामाजिक और पर्यावरण के प्रति कर्तव्य और उत्तरदायित्व भी, उसका निर्वहन भी आज़ादी के साथ होना चाहिए।

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