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लेख-- बाबा न राम के हुए , न रहीम के

28 अगस्त 2017

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आज की नजाकत में धर्म पर हावी वि ज्ञान है। फ़िर भी धर्मांधता का चश्मा समाज पर चढ़ा है। सत्ता का तख़्त सजाती जनमानस है। जनमानस और सियासी रणबाकुरों की फ़ौज लिपटी एक बाबा के चरणों में है। आज देश में न्यू इंडिया का तासा पीटा जा रहा है, क्या न्यू इंडिया में जनमानस धर्मांधता का दामन ओढ़कर और सत्ता बाबाओं की जूती बनकर रह जाएंगी? लोकतंत्र का मान-मर्दन कब तल्ख़ ये ढोंगी बाबा करते रहेंगे? यह लोकतंत्र की हत्या नहीं तो क्या है, कानून- नैतिकी एक बाबा के समक्ष अपंग नजऱ आता है। ऐसी व्यवस्था हमारे किस काम की? सबसे पहली बात इन बाबाओं की जमात देश में तैयार कौन करता है? उत्तर ढूढ़ने के लिए ज्यादा हाथ-पैर मारने की आवश्यकता नहीं। इनकी हैसियत को जमीं से आसमान पर पहुँचती आम आवाम है, सत्ता के सियासी फ़ेर बाज फ़िर उनका भंजन वोटबैंक के रूप में करने के लिए बाबा की शरणस्थली में झुकना पसन्द करते हैं। देश की लोकतांत्रिक विरासत में यह रवायत कब ख़त्म होगी? नेताओं का जनाधार इतना कमजोर क्यों पड़ जाता है, कि उन्हे ऐसे बाबाओं के पैरों में नतमस्तक होना पड़ता है? आज के वैश्विक युग मे भी अगर हमारी सामाजिक जड़ता पीछा नहीं छोड़ रहीं। तो इसका निहितार्थ यही है,कि समाज ने चन्द्र और मंगल तक उड़ान भले भर ली हो, लेकिन, धर्म और आस्था के नाम पर होने वाला नासूर समाज से दूर नहीं गया है। आज देश में करीब 30 लोगों की जान जाती है, सैकड़ों घायल हो जाते हैं क्योंकि एक धार्मिक गुरु को गुनहगार ठहराया जाता है। धर्म और आस्था के नाम की चिंगारी हिंसा की सुनामी बनकर हजारों सुरक्षाकर्मियों को ध्वस्त करते हुए सड़कों को खून से लहूलुहान कर देती है। देश के कई राज्यों में कानून-व्यवस्था चरमरा जाती है। किसलिए? क्योंकि बहुत से लोगों को उनकी आस्था के आगे किसी कानून, संविधान और नैतिकता की परवाह नहीं है। क्या यही लोकतंत्र की परिपाटी में संवेधनिक ढांचे में रखा गया था? क्या भारतीय राजनीति का असल में यही न्यू इंडिया का प्रारूप है? सवाल तो बहुतेरे हैं, लेकिन जवाब ढूढ़ने होंगे, हमारी व्यवस्था को। समाज को, और उग्र हुई भीड़ को भी सोचना होगा, देश के भीतर क्या एक ढोंगी की हैसियत संविधान, लोकतंत्र और व्यवस्था से भी सर्वोपरि हो सकती है? जिस देश के युवा देश में किसी लड़की के साथ हुए घिनोने अपराध के बाद कैंडिल मार्च करते हैं, फ़िर ऐसी क्या स्थिति निर्मित हो गई, कि बलात्कार के मामले में गुरमीत राम रहीम को अदालत द्वारा दोषी ठहराए जाने पर उनके समर्थकों ने हरियाणा-पंजाब से लेकर दिल्ली-यूपी तक आतंक मचा दिया। इसके साथ इन प्रदेशों को आग की लपटों के हवाले करने की हिमाकत की। एक भक्त परम्परा में राम और रहीम दोनों अपनी चमक रखते हैं, लेकिन इस राम रहीम ने नाम को बदनाम किया। समाज के सामने बलात्कारी बाबा न राम रह सके, न रहीम। देश में आज के दौर में ऐसी दुकानदारी कैसे पनप जाती है। वहीं से समस्या की जड़ शुरू होती है। एक बाबा अगर पांच करोड़ भक्त होने का दावा करता है। इससे यह स्पष्ट होता है। देश अभी भी भेड़-चाल से मुक्ति नहीं प्राप्त कर सका है। देश आधुनिकता की गीत गा रहा है, समाज पश्चिमी सभ्यता को देखते हुए नगीयत का दामन थाम चुका है। फ़िर धर्म और आस्था के विषय पर कोई सोच-विचार क्यों नहीं करता? देश ने इसके पहले भी धर्म और आस्था के नाम से समाज को डसने वाले बाबाओं और संत परम्परा को चुना लगाने वालों को देखा है, इसलिए अब आंख बन्दकर विश्वास करने की परिपाटी त्यागें। नहीं तो ऐसे ही राम रहीम का चोला ओढ़कर समाज को बदनाम करने की साजिश होती रहेंगी, और तख़्त की सियासत में सत्तारूढ़ सियासी सियासतदां इनके चरण की चरणपादुका बनते रहेंगे। इसके इतर देश और समाज को अपने धर्म रूपी अधार्मिकता के दंश से समाज को डसते रहेंगे? भले ही हरियाणा में मचे उपद्रव के बीच केंद्र सरकार ने खट्टर सरकार को फटकार लगाई हो, लेकिन यह सत्य है, कि सत्ता के भूखे शेर अपने तख़्त के लिए बाबा के चरणों की धूल बनें रहे, सत्ता अपने रंग में मस्त दिखी, जनता पस्त दिखी। अब जांच की टीम भी गठित होगी। इस जांच के क्या अर्थ। अगर समय रहते सरकार चेती नहीं? अगर धारा 144 के बावजूद इतने भारी मात्रा में बाबा के समर्थक इकठ्ठा हुए, मतलब साफ है, सत्ता भी बाबा के चरणों की दासी बनी दिखी, क्योंकि जब हरियाणा सूबा रामपाल और जाट आंदोलन का दंश झेल चुका है, फिर उससे कुछ सीख क्यों नहीं ली गई? हरियाणा में बाबा समर्थित अंध भक्तों का यह कोई पहला तांडव नही था, जिसने मानवता की चोली उतारकर राक्षसी वेश धारण किया हो। इसके पहले भी रामपाल के समर्थकों ने हिसार में अपना आतंक मचाया था। ऐसे में अब जब राम और रहीम दोनों नाम को समेटने वाले बलात्कारी बाबा का पर्दाफाश हो गया है। उसके बाद लोकतंत्र के रक्षक और आवाम को बहुतायत प्रश्नों के हल ढूढ़ने होंगे। जिसमें पहला सवाल राजनीति का स्तर इतना घटिया क्यों, कि वह एक बलात्कारी के समर्थन में खड़ा होना पड़ा? लोकतांत्रिक भावना का भंजन सत्ता हित के लिए क्यों? राजनीति और तर्कशास्त्र इन ढोंगी बाबाओं के सापेक्ष कमज़ोर क्यों पड़ जाते हैं? आज़ादी से पूर्व अभी तक बाबाओं के वेश में समाज को छला, बहुतेरे बाबाओं ने, फ़िर अंधभक्ति और विश्वास का झूठा चश्मा समाज क्यों नहीं त्याग रहा? अब वक़्त की नजाकत कहती है, पहले व्यक्ति को परखों, फ़िर अपनी श्रद्धा और विश्वास को परोसो। इन विषयों पर मनन हमारे समाज को करना होगा, तभी राम रहीम जैसे निकृष्ठ संतों के वज्र से देश मुक्त हो पाएगा।

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