shabd-logo

लेख-- बाबा न राम के हुए , न रहीम के

28 अगस्त 2017

284 बार देखा गया 284
आज की नजाकत में धर्म पर हावी वि ज्ञान है। फ़िर भी धर्मांधता का चश्मा समाज पर चढ़ा है। सत्ता का तख़्त सजाती जनमानस है। जनमानस और सियासी रणबाकुरों की फ़ौज लिपटी एक बाबा के चरणों में है। आज देश में न्यू इंडिया का तासा पीटा जा रहा है, क्या न्यू इंडिया में जनमानस धर्मांधता का दामन ओढ़कर और सत्ता बाबाओं की जूती बनकर रह जाएंगी? लोकतंत्र का मान-मर्दन कब तल्ख़ ये ढोंगी बाबा करते रहेंगे? यह लोकतंत्र की हत्या नहीं तो क्या है, कानून- नैतिकी एक बाबा के समक्ष अपंग नजऱ आता है। ऐसी व्यवस्था हमारे किस काम की? सबसे पहली बात इन बाबाओं की जमात देश में तैयार कौन करता है? उत्तर ढूढ़ने के लिए ज्यादा हाथ-पैर मारने की आवश्यकता नहीं। इनकी हैसियत को जमीं से आसमान पर पहुँचती आम आवाम है, सत्ता के सियासी फ़ेर बाज फ़िर उनका भंजन वोटबैंक के रूप में करने के लिए बाबा की शरणस्थली में झुकना पसन्द करते हैं। देश की लोकतांत्रिक विरासत में यह रवायत कब ख़त्म होगी? नेताओं का जनाधार इतना कमजोर क्यों पड़ जाता है, कि उन्हे ऐसे बाबाओं के पैरों में नतमस्तक होना पड़ता है? आज के वैश्विक युग मे भी अगर हमारी सामाजिक जड़ता पीछा नहीं छोड़ रहीं। तो इसका निहितार्थ यही है,कि समाज ने चन्द्र और मंगल तक उड़ान भले भर ली हो, लेकिन, धर्म और आस्था के नाम पर होने वाला नासूर समाज से दूर नहीं गया है। आज देश में करीब 30 लोगों की जान जाती है, सैकड़ों घायल हो जाते हैं क्योंकि एक धार्मिक गुरु को गुनहगार ठहराया जाता है। धर्म और आस्था के नाम की चिंगारी हिंसा की सुनामी बनकर हजारों सुरक्षाकर्मियों को ध्वस्त करते हुए सड़कों को खून से लहूलुहान कर देती है। देश के कई राज्यों में कानून-व्यवस्था चरमरा जाती है। किसलिए? क्योंकि बहुत से लोगों को उनकी आस्था के आगे किसी कानून, संविधान और नैतिकता की परवाह नहीं है। क्या यही लोकतंत्र की परिपाटी में संवेधनिक ढांचे में रखा गया था? क्या भारतीय राजनीति का असल में यही न्यू इंडिया का प्रारूप है? सवाल तो बहुतेरे हैं, लेकिन जवाब ढूढ़ने होंगे, हमारी व्यवस्था को। समाज को, और उग्र हुई भीड़ को भी सोचना होगा, देश के भीतर क्या एक ढोंगी की हैसियत संविधान, लोकतंत्र और व्यवस्था से भी सर्वोपरि हो सकती है? जिस देश के युवा देश में किसी लड़की के साथ हुए घिनोने अपराध के बाद कैंडिल मार्च करते हैं, फ़िर ऐसी क्या स्थिति निर्मित हो गई, कि बलात्कार के मामले में गुरमीत राम रहीम को अदालत द्वारा दोषी ठहराए जाने पर उनके समर्थकों ने हरियाणा-पंजाब से लेकर दिल्ली-यूपी तक आतंक मचा दिया। इसके साथ इन प्रदेशों को आग की लपटों के हवाले करने की हिमाकत की। एक भक्त परम्परा में राम और रहीम दोनों अपनी चमक रखते हैं, लेकिन इस राम रहीम ने नाम को बदनाम किया। समाज के सामने बलात्कारी बाबा न राम रह सके, न रहीम। देश में आज के दौर में ऐसी दुकानदारी कैसे पनप जाती है। वहीं से समस्या की जड़ शुरू होती है। एक बाबा अगर पांच करोड़ भक्त होने का दावा करता है। इससे यह स्पष्ट होता है। देश अभी भी भेड़-चाल से मुक्ति नहीं प्राप्त कर सका है। देश आधुनिकता की गीत गा रहा है, समाज पश्चिमी सभ्यता को देखते हुए नगीयत का दामन थाम चुका है। फ़िर धर्म और आस्था के विषय पर कोई सोच-विचार क्यों नहीं करता? देश ने इसके पहले भी धर्म और आस्था के नाम से समाज को डसने वाले बाबाओं और संत परम्परा को चुना लगाने वालों को देखा है, इसलिए अब आंख बन्दकर विश्वास करने की परिपाटी त्यागें। नहीं तो ऐसे ही राम रहीम का चोला ओढ़कर समाज को बदनाम करने की साजिश होती रहेंगी, और तख़्त की सियासत में सत्तारूढ़ सियासी सियासतदां इनके चरण की चरणपादुका बनते रहेंगे। इसके इतर देश और समाज को अपने धर्म रूपी अधार्मिकता के दंश से समाज को डसते रहेंगे? भले ही हरियाणा में मचे उपद्रव के बीच केंद्र सरकार ने खट्टर सरकार को फटकार लगाई हो, लेकिन यह सत्य है, कि सत्ता के भूखे शेर अपने तख़्त के लिए बाबा के चरणों की धूल बनें रहे, सत्ता अपने रंग में मस्त दिखी, जनता पस्त दिखी। अब जांच की टीम भी गठित होगी। इस जांच के क्या अर्थ। अगर समय रहते सरकार चेती नहीं? अगर धारा 144 के बावजूद इतने भारी मात्रा में बाबा के समर्थक इकठ्ठा हुए, मतलब साफ है, सत्ता भी बाबा के चरणों की दासी बनी दिखी, क्योंकि जब हरियाणा सूबा रामपाल और जाट आंदोलन का दंश झेल चुका है, फिर उससे कुछ सीख क्यों नहीं ली गई? हरियाणा में बाबा समर्थित अंध भक्तों का यह कोई पहला तांडव नही था, जिसने मानवता की चोली उतारकर राक्षसी वेश धारण किया हो। इसके पहले भी रामपाल के समर्थकों ने हिसार में अपना आतंक मचाया था। ऐसे में अब जब राम और रहीम दोनों नाम को समेटने वाले बलात्कारी बाबा का पर्दाफाश हो गया है। उसके बाद लोकतंत्र के रक्षक और आवाम को बहुतायत प्रश्नों के हल ढूढ़ने होंगे। जिसमें पहला सवाल राजनीति का स्तर इतना घटिया क्यों, कि वह एक बलात्कारी के समर्थन में खड़ा होना पड़ा? लोकतांत्रिक भावना का भंजन सत्ता हित के लिए क्यों? राजनीति और तर्कशास्त्र इन ढोंगी बाबाओं के सापेक्ष कमज़ोर क्यों पड़ जाते हैं? आज़ादी से पूर्व अभी तक बाबाओं के वेश में समाज को छला, बहुतेरे बाबाओं ने, फ़िर अंधभक्ति और विश्वास का झूठा चश्मा समाज क्यों नहीं त्याग रहा? अब वक़्त की नजाकत कहती है, पहले व्यक्ति को परखों, फ़िर अपनी श्रद्धा और विश्वास को परोसो। इन विषयों पर मनन हमारे समाज को करना होगा, तभी राम रहीम जैसे निकृष्ठ संतों के वज्र से देश मुक्त हो पाएगा।

महेश तिवारी की अन्य किताबें

1

लेख-- हुज़ूर न्यू इंडिया की स्थितियों पर नज़र करके तो देखिए

28 अगस्त 2017
0
1
0

भारत को अब डिजिटल इंडिया और न्यू इंडिया का सपना दिखाया जा रहा है। वही भारत में जहां अभी भी गरीब, भुखमरी व्याप्त है। उसको राजनीति क लाभ की दृष्टि से उपयोग करने की रवायत हावी हो रही है। देश की समस्याओं पर राजनीति करके अपनी राजनीतिक

2

लेख-- बाबा न राम के हुए , न रहीम के

28 अगस्त 2017
0
0
0

आज की नजाकत में धर्म पर हावी विज्ञान है। फ़िर भी धर्मांधता का चश्मा समाज पर चढ़ा है। सत्ता का तख़्त सजाती जनमानस है। जनमानस और सियासी रणबाकुरों की फ़ौज लिपटी एक बाबा के चरणों में है। आज देश में न्यू इंडिया का तासा पीटा जा रहा है, क्या न्यू इंडिया में जनमानस धर्मांधता का दामन ओढ़कर और सत्ता बाबाओं की जूती

3

लेख-- खेल के मैदानों से दूर होता बचपन

29 अगस्त 2017
0
0
0

देश में तीव्र गति से बच्चों का झुकाव आक्रमक रवैये और अन्य असामाजिक कार्यों में लग रहा है। जिसका अहम कारण बच्चों की खेलों के प्रति बढ़ती दूरी भी है। आज के समाज में बच्चा जहां घर में माता-पिता की भाग-दौड़ भरी जिंदगी में अकेलेपन का एहसास करता है, वहीं खेलों से बढ़ती दूरी उसके मानसिकता के विकास को भी अवरुद

4

लेख--- अब तो सुधरो

29 अगस्त 2017
0
0
1

संयुक्त राष्ट्र की तरफ से आई एक रिपोर्ट में विस्थापन को लेकर खुलासा हुआ हैं, वह देश की व्यवस्था और लोगों की सोच में बदलाव की तरफ़ इशारा करती है , कि अब प्राकृतिक संरक्षण के प्रति सचेत हो जाओ। इस रिपोर्ट के तहत यह पता चलता है, कि देश में पिछले वर्ष आपदाओं और पहचान के साथ जातीयता की जकड़न से आज़ादी के सा

5

चमकदार इंडिया की ग़रीब दास्ताँ

29 अगस्त 2017
0
4
2

राजनीति और जनता का प्रत्यक्ष मिलन अब मात्र चुनावी हल-चल के वक़्त दिखता है, जब उसके प्रत्याशी जनता रूपी मत को अपना भगवान और उसके साथ तमाम वे रिश्ते- नाते रचने की कोशिश करती है, जिसके जोड़ का धागा बहुत ही नाज़ुक होता है, और उसको बनाया भी इसलिए जाता है, कि क्षणिक उपयोग ह

6

लेख-- उच्च शिक्षा में सुधार का ये तरीका भी हो सकता है?

29 अगस्त 2017
0
0
0

आज एक बड़ी घटना बाज़ार का हिस्सा बनती जा रहीं है। वह है, पोर्टिबिलिटी। मोबाइल नंबर पोर्टिबिलिटी, बैंक पोर्टिबिलिटी। क्या शिक्षा के स्तर पर भी पोर्टिबिलिटी की सुविधा से सकारात्मक असर दिख सकता है? जवाब उत्तरित नहीं, लेकिन आज गाड़ी मझधार में हो, तो सभी घोड़े खोल देने चाहिए। तो क्या हमारी हुक्मरानी व्यवस्था

7

एक देश , एक कानून पर अमल हो

30 अगस्त 2017
0
1
0

देश में आज के दौर में कोई सबसे बड़ा बदलाव दिख रहा है। तो वह 1400 वर्षों बाद देश में मुस्लिम महिलाओं की सुदृढ़ होती सामाजिक स्थिति की ओर बढ़ता क़दम। महिलाएं जो सामाजिक औऱ धार्मिक प्रथा के नाम पर सामाजिक बुराई रूपी तीन तलाक के दंश से पीड़ित थी, उस समस्या से निजात दिलाने का प्रयास सार्थक रहा। अब इस समस्या

8

लेख--- लोकतंत्र के प्रहरियों को तोड़ना होगा, परम्परागत राजनीति की रवायत

30 अगस्त 2017
0
0
0

लोकतांत्रिक व्यवस्था को विस्तार और परिभाषित करने की आज की व्यवस्था में कोई आवश्यकता नहीं हैं। अगर लोकतंत्र सात दशक आज़ादी की आबोहवा में पंख फड़फड़ाने के बाद भी वर्तमान दौर में जातिवाद, परिवारवाद, और तमाम सामाजिक कुरीतियों की साया से आज़ाद नहीं हो सका, तो उसके लिए जिम्मेवार लालफीताशाही भी हैं, क्योंकि अग

9

लेख- किस दिशा में जा रहा समाज

30 अगस्त 2017
0
1
0

इस सभ्यता को हुआ क्या है। कहीं हिंसात्मक माहौल है, कहीं बर्बरता की सीमा लांघा जा रहा है। क्या यहीं लोकतांत्रिक व्यवस्था है। जिस समाज की सभ्यता और संस्कृति के रग-रग में आपसी भाईचारा और वसुुधैव कुटुम्बकम की भावना समाहित है। अगर उस समाज में बर्बरता और हिंसात्मक परिवेश अपने चरम की ओर बढ़ रहा है। फिर यह

10

लेख-- राजनीतिक उदासीनता के शिकार गांव और ग्रामीण

31 अगस्त 2017
0
2
1

भारत की दो तिहाई आबादी अगर जेल से भी कम जगह में रह रही है। तो ऐसे में निजता के मौलिक अधिकार बन जाने के बावजूद छोटे होते मकान और रहवासियों की बढ़ती तादाद प्रतिदिन की निजता को छीन रही है। जिस परिस्थिति में देश में सबको घर उपलब्ध कराने की बात सरकारें कह रही हैं। उस दौर में देश की आबादी का अधिकांश हिस्सा

11

लेख-- निजी हाथों में सौप कर कैसे सबको शिक्षा दे पाएगी सरकार?

1 सितम्बर 2017
0
0
0

हमारे देश की साक्षरता वर्तमान में लगभग 75 फीसद हैं, तो उसका कारण सरकार की सरकारी स्कूलों की अनदेखी के साथ निजी स्कूलों को बढ़ावा देना हैं। फिनलैंड, नार्वे, अजरबैजान ऐसे देश हैं, जो 100 प्रतिशत साक्षर हैं। यह देश के सामने विडंबना हैं, कि हम अजरबैजान जैसे देश की बराबरी साक्षरता के मामले में नहीं कर प

12

लेख--ये तो उत्तम प्रदेश बनने की निशानी नहीं

2 सितम्बर 2017
0
2
1

गोरखपुर के चर्चे सियासी गलियारों में तेज़ है। तो उसी गोरखपुर के चर्चे जनमानस के जुबां पर भी है। अगस्त महीने के शुरुआती दौर में 60 बच्चों की मौत ने लोंगो को अचंभित कर दिया था। अब जब महीने के आखिर में भी 42 मौत हो गई । तो जनता के पैर के नीचे से जमीं खिसक रहीं है। इसके अलावा वह हतप्रभ, और व्याकुल हो उठी

13

लेख-- आज़ादी के साथ अपने दायित्वों और संवैधानिक कर्तव्यों को समझें

3 सितम्बर 2017
0
0
0

भारत परम्पराओं और त्योहारों का देश है। हमारी संस्कृति के परिचायक यहीं तीज-त्यौहार हैं। आज त्योहारों की आड़ में हुलड़बाजी समाज में पनप रहीं है। गणेश पूजन की बात हो, या किसी अन्य त्यौहार की क्या उसकी मूल भावना समाज में जीवित है। इस पर गौर करना चाहिए। क्या गणेश उत्सव को

14

लेख-- राष्ट्र का उदय और अस्त गुरु के हाथों में

4 सितम्बर 2017
0
1
0

गुरुर ब्रह्मा गुरुर देवो महेश्वरा गुरुर साक्षात परब्रम्ह तस्मै श्री गुरुवे नमः आज यह उक्ति हमारे शैक्षिक परिवेश में शिक्षकों और छात्रों के बीच क्रियान्वित होती नहीं दिखती। आज शिक्षक और छात्रों के बीच खाई गहरी होती जा रहीं है। गुरु हमारे पुनर्जन्म का गर्भ होता है जहां से हमारा सही अर्थों में दोबारा ज

15

लेख-- ब्रिक्स में दिखी भारत की गर्जना

5 सितम्बर 2017
0
0
0

आर्थिक विशेषज्ञो की माने, तो ब्रिक्स देशों की आतंरिक व आर्थिक स्थिति के आधार पर भारत की स्थिति हर दृष्टिकोण से वर्तमान में सबल नज़र आती है। उसके साथ भारत वर्तमान दौर की विश्व व्यवस्था में सबसे मजबूत जनाधार की लोकतांत्रिक सरकार है। साथ-साथ अगर अर्थव्यवस्था की दिशा में भारत तेज़ी से बढ़ रहा है, तो विश्

16

लेख-- व्यवस्था की टूटी चारपाई, मीडिया और हमारा समाज

7 सितम्बर 2017
0
0
0

संविधान में मीडिया को लोकतंत्र को चौथा स्तम्भ माना जाता है। इस लिहाज से मीडिया का समाज के प्रति उत्तरदायित्व और जिम्मदरियाँ बढ़ जाती हैं। मगर क्या वर्तमान वैश्विक दौर में जब कमाई का जरिया बनकर मीडिया रह गया है। वह समाज के प्रति अपने दायित्वों का सफल निर्वहन कर पा रहा है। उत्तर न में ही मिलेगा, क्योंक

17

लेख--- देश में असुरक्षित होता बचपन

10 सितम्बर 2017
0
0
0

आज समाज की स्थिति में असामाजिक तत्वों का समावेश अधिक होता जा रहा है, फिर हम नए भारत का निर्माण किसके लिए कर रहें हैं? जब देश के वर्तमान ही भविष्य के लिए सुरक्षित नहीं, फ़िर क्या बात की जाए? किस संस्कृति और आचरण को महत्व दिया जाए? इस बाज़ार में सब नंगे नजऱ आ रहें हैं। आज समाज को हवशीपने का जो ज्वार लगा

18

लेख-- लोगों के माथे पर ग़रीब लिखना उचित नहीं

25 दिसम्बर 2017
0
1
0

वो राम की खिचड़ी भी खाता है, रहीम की खीर भी खाता है, वो भूखा है जनाब उसे, कहाँ मजहब समझ आता है। किसी न काफ़ी विचार-विमर्श के बाद इन लाइनों को गढ़ा होगा, लेकिन देश के सियासतदां तो धर्म औऱ मज़हबी राजनीति से ऊपर उठ सकें नहीं। तभी तो गरी

19

लेख-- सरकारें बदल जाती हैं, व्यवस्थाएं क्यों नहीं बदलतीं

27 दिसम्बर 2017
0
0
0

सरकारें बदल जाती है, व्यवस्थाएं क्यों नहीं बदलती। चुनावी मुलम्मा खड़ा किया जाता है, लेकिन जनतंत्र की आवाज़ को क्यों अनसुना कर दिया जाता है। सामाजिक पैरोकार बनने की बात होती है, लेकिन हकीकत से व्यवस्था मुँह क्यों मोड़ लेती है। तो क्या अब समय आ गया है, कि जनता उग्र हो

---

किताब पढ़िए

लेख पढ़िए