कभी सूरज की रौशनी बन कर
मेरे आँगन में बिखर जाती,
मेरे मन के हर कोने को जगमगाती
कभी चाँदनी बन कर
मेरे आँगन में पसर जाती ,
मेरे अंदर तक शीतलता भर जाती।
कभी खुशबु बन कर ,
मेरे आँगन से गुजर जाती।
मेरे आस पास क्या वह तो ,
अंदर तक मुझे महका ती ,
कई दिनों तक जब।,
देखा नहीं अपने आस पास
जाकर उसके घर देखा ,
पता चला किसी ने बेरहमी से उसके साथ
दुष्कर्म कर, उसे खत्म कर दिया
व्यथित मन घर लौटा। देखा
आज आँगन में पड़े थे
खून के छींटे
मैं शर्मिंदा था अपने पुरुषत्व पर
क्यों की मुझ जैसे पुरुष ने ही
उस कली को फूल बनने से पहले ही
मसल कर - कुचल कर रख दिया।