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मात देना नहीं जानतीं

22 फरवरी 2016

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घर की फुटन में पड़ी औरतें

ज़िन्दगी काटती हैं

मर्द की मौह्ब्बत में मिला

काल का काला नमक चाटती हैं I


जीती ज़रूर हैं

जीना नहीं जानतीं;

मात खातीं-

मात देना नहीं जानतीं I

-केदारनाथ अग्रवाल

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वह चिड़िया जो

22 फरवरी 2016
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वह चिड़िया जो-चोंच मार करदूध-भरे जुंडी के दानेरुचि से, रस से खा लेती हैवह छोटी संतोषी चिड़ियानीले पंखों वाली मैं हूँमुझे अन्‍न से बहुत प्‍यार है।वह चिड़िया जो-कंठ खोल करबूढ़े वन-बाबा के खातिररस उँडेल कर गा लेती हैवह छोटी मुँह बोली चिड़ियानीले पंखों वाली मैं हूँमुझे विजन से बहुत प्‍यार है।वह चिड़िया

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जीवन से

22 फरवरी 2016
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ऐसे आओजैसे गिरि के श्रृंग शीश पररंग रूप का क्रीट लगायेबादल आये,हंस माल माला लहरायेऔर शिला तन-कांति-निकेतन तन बन जाये।तब मेरा मनतुम्हें प्राप्त करस्वयं तुम्हारी आकांक्षा काबन जायेगा छवि सागर,जिसके तट पर,शंख-सीप-लहरों के मणिधरआयेंगे खेलेंगे मनहर,और हँसेगा दिव्य दिवाकर।-केदारनाथ अग्रवाल

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मात देना नहीं जानतीं

22 फरवरी 2016
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घर की फुटन में पड़ी औरतेंज़िन्दगी काटती हैंमर्द की मौह्ब्बत में मिलाकाल का काला नमक चाटती हैं Iजीती ज़रूर हैंजीना नहीं जानतीं;मात खातीं-मात देना नहीं जानतीं I-केदारनाथ अग्रवाल

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कनबहरे

22 फरवरी 2016
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कोई नहीं सुनता झरी पत्तियों की झिरझिरी न पत्तियों के पिता पेड़ न पेड़ों के मूलाधार पहाड़ न आग का दौड़ता प्रकाश न समय का उड़ता शाश्वत विहंग न सिंधु का अतल जल-ज्वार सब हैं - सब एक दूसरे से अधिककनबहरे,अपने आप में बंद, ठहरे।-केदारनाथ अग्रवाल

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ओस-बूंद कहती है

22 फरवरी 2016
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ओस-बूंद कहती है; लिख दूं नव-गुलाब पर मन की बात। कवि कहता है : मैं भी लिख दूं प्रिय शब्दों में मन की बात॥ ओस-बूंद लिख सकी नहीं कुछ नव-गुलाब हो गया मलीन। पर कवि ने लिख दिया ओस से नव-गुलाब पर काव्य नवीन॥-केदारनाथ अग्रवाल

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आज नदी बिलकुल उदास थी

23 फरवरी 2016
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आज नदी बिलकुल उदास थी। सोई थी अपने पानी में, उसके दर्पण पर- बादल का वस्त्र पडा था। मैंने उसको नहीं जगाया, दबे पांव घर वापस आया। -केदारनाथ अग्रवाल

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बसंती हवा हूँ

23 फरवरी 2016
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हवा हूँ, हवा मैंबसंती हवा हूँ।सुनो बात मेरी -अनोखी हवा हूँ।बड़ी बावली हूँ,बड़ी मस्त्मौला।नहीं कुछ फिकर है,बड़ी ही निडर हूँ।जिधर चाहती हूँ,उधर घूमती हूँ,मुसाफिर अजब हूँ।न घर-बार मेरा,न उद्देश्य मेरा,न इच्छा किसी की,न आशा किसी की,न प्रेमी न दुश्मन,जिधर चाहती हूँउधर घूमती हूँ।हवा हूँ, हवा मैंबसंती हवा

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हम और सड़कें

23 फरवरी 2016
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सूर्यास्त मे समा गयीं सूर्योदय की सड़कें, जिन पर चलें हम तमाम दिन सिर और सीना ताने, महाकाश को भी वशवर्ती बनाने, भूमि का दायित्व उत्क्रांति से निभाने, और हम अब रात मे समा गये, स्वप्न की देख-रेख मेंसुबह की खोयी सड़कों काजी-जान से पता लगाने I  -केदारनाथ अग्रवाल

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कंकरीला मैदान

23 फरवरी 2016
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कंकरीला मैदानज्ञान की तरह जठर-जड़लम्बा चौड़ागत वैभव की विकल याद में-बडी दूर तक चला गया है गुमसुम खोया।जहाँ-तहाँ कुछ कुछ दूरी पर,उसके ऊपर,पतले से पतले डंठल के नाजुक बिरवेथर-थर हिलते हुए हवा में खड़े हुएबेहद पीड़ित। हर बिरवे पर मुँदरी जैसा एक फूल हैअनुपम, मनोहर,हर ऐसी मनहर मुंदरी को मीनों नें चंचल आँख

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जो जीवन की धूल चाट कर बड़ा हुआ है

23 फरवरी 2016
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जो जीवन की धूल चाट कर बड़ा हुआ है तूफ़ानों से लड़ा और फिर खड़ा हुआ है जिसने सोने को खोदा लोहा मोड़ा हैजो रवि के रथ का घोड़ा हैवह जन मारे नहीं मरेगानहीं मरेगा जो जीवन की आग जला कर आग बना हैफौलादी पंजे फैलाए नाग बना हैजिसने शोषण को तोड़ा शासन मोड़ा हैजो युग के रथ का घोड़ा हैवह जन मारे नहीं मरेगानहीं म

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