
भाग :1
“ अरे मेरी
मुमताज ! अब तुम बड़ी हो गयी हो गयी हो और अभी भी तुम मिटटी से खेल रही हो ... पागल
कहीं की ! “ कहते हुए
माधव ने मुमताज की चुटिया खीच ली .
मुमताज तेजी से पीछे पलटी और गीली मिट्टी से सने अपने हाथ माधव के
खादी के कुरते पर पोछते हुए बोली “ शहजादे माधव मियां ! मै मिट्टी से खेल नही रही हूँ , मै तो अपने माधव का पुतला
बना रही हूँ , मुमताज
ने अपनी ऊँगली उस अधूरे पुतले की ओर की और बोली “ देखो बिल्कुल तुम जैसा है न ? “
माधव जोर से हँस पड़ा “ अरे ये मुझ जैसा कैसे हो सकता है ... ? न ये बोलता है .. न चलता है , न तुम्हारी किसी परेशानी
में तुम्हारा साथ देता है ... और न ये तुम से इतनी मोहब्बत करता है जितनी मै तुम
से करता हूँ ."
अपनी नीली आँखों में दुनिया भर की संजीदगी ला कर मुमताज माधव की
आँखों में देखते हुए बोली
“ तुम भी
कभी कभी इस मिट्टी के पुतले जैसे हो जाते हो माधव , महीनों तक न जाने कहाँ गायब रहते हो .. उस वक्त
मेरी सारे गम , खुशियां , अफसाने सिर्फ मेरे होते है
जिन्हें मै किसी से नही कह सकती हूँ .मेरी परेशानिया सिर्फ मेरी होती है और मुझ से
बहुत दूर कहीं इस बेजान पुतले से खोये रहते हो . मै इसे तुम जैसा बना लूंगी , तुम्हारे न होने पर इस से
झगड़ा करूँगी, इसे गले
लगूंगी , अपने सुख
दुःख सब बाँट लूंगी इस से . ये मिट्टी का पुतला तुम हरपल मेरे साथ हो ये एहसास
दिलाएगा मुझे ."
दोस्तों ये कहानी है हिंदुस्तान के उस हिस्से के एक मोहल्ले की जिसे
हम आज “ पुरानी
दिल्ली “ नाम से
जानते है , और ये वो
दौर था जब मुल्क की आजादी का सूरज , गुलामी के बादलो के बीच से निकलने की राह खोज रहा था , यानि 1940-50 का दशक .
पुरानी दिल्ली के इस अनाम सीलन भरे मोहल्ले में न जाने कितने इंसान
सिर्फ इंसान बन कर रहते थे , हां भले
ही बाहर वाले उनकी पहचान हिन्दू और मुसलमान के रूप में करते थे . पर इस मोहल्ले
में रहमान का दर्द श्याम महसूस करता था और रामबिहारी की ख़ुशी सुल्तान की भी होती
थी . गुप्ताइन के घर की सत्यनारायण की कथा का प्रसाद सबसे पहले रजिया के घर जाता
था , और
सुल्ताना बी की ईदी ठकुराइन के घर वालो का मुंह मीठा कराते थे .
और इसी अनाम मोहल्ले की एक अँधेरी गली में दो घर थे पहला रामनारायण
मिश्रा यानि मुंशी जी का और उससे 6 मकान आगे अनवर अली यानि मौलाना साहब का , इन दोनों की पीढ़िया यही
गुजरी थी , दोनों
घरो में मेल मिलाप ऐसा की बाहर से आने वाला शायद ही इन दोनों घरो में भेद कर पाए .
मील मुंशी रामनारायण मिश्रा के तीनो लडको में सबसे छोटा लड़का था “ माधव मिश्रा “ . पढने में मेघावी , विचारो में तेज़ , देखने में सुंदर, दिल का साफ और जाति धर्म से
ऊपर अखंड देशभक्त . पढाई के साथ साथ एक राजनीतिक दल का सक्रिय सदस्य भी .
और मौलाना साहब की एकलौती बेटी जिसे नजाकत , नफासत , इल्म संजीदगी और खूबसूरती
को मिला कर खुदा ने उस पाकीजा रूह को बनाया उसे इस जहाँ में नाम मिला “ मुमताज “ . उसकी खूबसूरती में एक अजीब
सा तिलस्म जैसा था जो देखता उसमे कैद सा हो जाता . और इन सब से कहीं ज्यादा भोली
और मासूम थी मुमताज .
माधव और मुमताज साथ साथ खेले और पले थे , रोएं और हँसे थे , साथ साथ एक दुसरे से रूठे
भी थे और एक दुसरे को मनाया भी था . अब दोनों बचपन की पगडंडिया पार कर जवानी की
सरपट भागती सड़क पर थे और अब साथ साथ बेहिसाब मोहब्बत भी कर रहे थे वो भी एक दुसरे
से . ये जानते हुए भी उनके पाक इश्क के बीच में मजहब की दीवार खड़ी है उन्हें अपने
रब और उस से भी ज्यादा अपने इश्क पर यकीं था .
अब माधव को अक्सर पार्टी की काम की वजह से बाहर जाना होता था और बिना
एक दुसरे को देखे अपना दिन गुजारना माधव और मुमताज की सब से बड़ी सजा होती थी .
“ खुदा का
शुक्र है , आज जो
धूप निकल आई , पिछले
जुमे के बाद से तो सूरज के दीदार ही नही हुए , “ कहते हुए रज्जो चाची ने हाथ में पकडे आचार के मर्तबान मिश्राइन की छत
पर धूप में रख दिए .
“ सही कहती
हो मुमताज की अम्मी , इस बार
की ठंडी तो लागत है जान ले कर ही रही , “ मिश्राइन ने रज्जो की बात का समर्थन करते हुए कहा और उनके बगल में
बैठ गयी . और बात को आगे बढ़ाया “
और एक हमार लड़का है मधवा , न जाने इस ठंड पाले में कहाँ कहाँ घूमता भटकता रहिता है , कहिता है आजादी लाना है
.... अब रज्जो तुम बताओ का आजादी आ जाने से हम को रोटी बर्तन नहीं करना पड़ेगा या
मिश्रा जी हम को मारब पीटब बंद कर देहे ? “
रज्जो ने अपनी चुन्नी से पान का बीड़ा निकाल कर मुंह में दबाया और
मिश्राइन के हाथ हाथ रख बताया “
जाने हो मिश्राइन जिज्जी ई आजादी वाजादी सब मुल्क के बड़े नेताओ की
समझ की बाते है , हम तो
जल्दी से कोई भला सा लड़का देख मुमताज का निकाह पढवा दे यही है हमारी आजादी.” फिर जैसे कुछ याद करके
रज्जो बोली “ कल
मुमताज के अब्बू न जाने कौन सा नाम ले रहे थे जिन्ना न जाने झिन्ना उनका कहना है
की हम मुसलमान अलग मुल्क चाही . अब बताओ जिज्जी ई कौन सी बात हुयी हमे तो न चाही
दूसरा मुल्क हमे यही क्या कमी है जो दुसरे मुल्क जायेंगे ? “
“ अरे तुम
डरो न मुमताज की अम्मी , उस दिन
माधव अपने भाई को बता रहा था तो हमने सुना था की बापू ने कहा की अलग देश उनकी लाश
पर बनेगा , अब तुम
बताओ कोई महात्मा जी की बात को काट सके है क्या ? “मिश्राइन ने रज्जो को सांत्वना देते हुए खुद से
सवाल किया .
“ या खुदा
! अल्लाह उन्हें लम्बी उम्र नवाजे , जहन्नुम में जाये अलग मुल्क “ रज्जो के मुंह से बरबस ही निकल पड़ा .
“ हाँ
रज्जो बहन ! उस दिन माधव कह रहा था की जब अपना देश आजाद हो जायेगा तो अपनों का राज
होगा , हम ही
अपने मालिक होगे . सब साथ में प्यार से रहेगे . अमीर गरीब , हिन्दू मुस्लिम में कोई भेद
नही . सब बहुत अच्छा हो जायेगा . “मिश्राइन और रज्जो की आँखों में एक काल्पनिक आजादी के सपने में रंग
भरने लगे थे .
कितना गलत गलत समझा था उन्होंने आजादी के मायने को .
और वहीं से थोड़ी दूर पर अपने छोटे से कमरे में मुमताज अपने छोटे से
कमरे मिटटी के माधव को अपना हाल बता रही थी .
भाग 2 ( अगस्त 1947 )
एक मुल्क को दो हिस्सों में बाँट दिया गया था ., ! मजहब के नाम पर एक लकीर खीच
दी गयी और वो लकीर जमीन पर ही नही इंसान की इंसानियत पर भी खिची थी . सरहद के नाम
पर खिची गयी उस लकीर ने वजूद ,
परंपराएं , ईमान , इंसाफ , मोहब्बत सब कुछ बाँट दिया
था . अब दुनिया के सामने थे तो महज एक ही वतन के लहू से भीगे दो टुकड़े पाकिस्तान
और हिंदुस्तान .
पूरे मुल्क की तरह दिल्ली भी बटवारे की आग में जल उठी . सदियों से
साथ रह रहे इंसान भगवान और खुदा के बंदो के रूप में बंट गए .
माधव उस वक्त पार्टी के काम से दिल्ली से बहुत दूर नागपुर में था .
दंगे शहर के शहर झुलसाने लगे . सब खत्म होने लगा . चारो तरफ आग थी सिर्फ नफरत की
आग .
....... और माधव
जब कई दिनों बाद किसी तरह अपने मोहल्ले में पहुँचा तो सब कुछ खत्म हो चुका था आग
अब ठंडी पड़ने लगी थी . दंगइयो से अनवर अली का घर बचाने के प्रयास में मुंशी
रामनारायण मिश्रा अपाहिज हो घर के एक कोने में पड़े थे . मिश्राइन की आंख की आंसू
सुख चुके थे .
माधव भागता हुआ मुमताज के घर पहुँचा .. अब वहाँ था तो जला लुटा और
गिरा हुआ मकान मात्र .
मौलना साहब और रज्जो ने पाकिस्तान जाने से इंकार कर दिया था . और अंत
तक अपना घर अपना मुल्क छोड़ने को राजी नही हुए थे . उनके लिए पाकिस्तान आज भी एक
गैर मुल्क था . पर जब मुंशी जी दंगाईयो की भीड़ से मौलाना साहब के घर को न बचा सके
थे तो वो रज्जो और मुमताज के साथ से घर छोड़ कर भागे थे . पर किस से और कितनी दूर
भाग सकते थे अनवर अली ???
अगली गली के मोड़ पर ही उनकी गर्दन पर तलवार और रज्जो के पेट पर छुरे
का वार हो गया और वो.....
और मुमताज हाथ में मिटटी का पुतला लिए बेशक्त भागती चली जा रही थी ..
तभी भीड़ के कुछ हाथो ने उसे दबोच लिया . मुमताज लड़की थी और उससे भी बड़ी बात जवान
लड़की थी . इस लिए अभी उसके नसीब में कुछ सांसे और बाकी थी . दंगइयो के भीड़ उसे उठा
कर ले गयी एक खंडहर में ( जो खंडहर मर चुकी संवेदनाओ का खत्म हो गयी इंसानियत का )
उसके मुसलमान होने की सजा देने के लिए ., दंगो में हासिल मादा को सिर्फ अपनी जान नही गवानी होती है उस से पहले
इंसान से हैवान में तब्दील हो चुके नर की हवस भी बुझानी होती है . कोई भी युद्ध हो
दंगा हो उसकी सब से ज्यादा कीमत औरत को चुकानी होती है और ये कीमत मुमताज ने भी
चुकाई .
मुमताज के पल पल मुर्दा होते नग्न जिस्म पर न जाने कितने आत्मा से मर
चुके बदन आते जाते रहे . मुमताज की आत्मा कुछ समय बाद सच में आजाद हो चुकी थी पर
उसके हाथ में अब भी टूट चुके मिटटी के पुतले का सर मजबूती से भिचा हुआ था .
और अब मुमताज के सामने खड़ा जिंदा “ मिटटी का माधव था , और उसके कानो में गूंजते मुमताज के शब्द “ तुम भी कभी कभी इस मिटटी के
पुतले जैसे हो जाते हो माधव , महीनों
तक न जाने तुम कहाँ गायब रहते हो .. उस वक्त मेरी सारे गम , खुशियां , अफसाने सिर्फ मेरे होते है
जिन्हें मै किसी से नही कह सकती हूँ .मेरी परेशानियाँ सिर्फ मेरी होती है और मुझ
से बहुत दूर कहीं इस बेजान पुतले से खोये रहते हो . मै इससे तुम जैसा बना लूंगी , तुम्हारे न होने पर इस से
झगड़ा करुँगी, इसे गले
लगूंगी , अपने सुख
दुःख सब बाँट लूंगी इस से . ये मिटटी का पुतला तुम हरपल मेरे साथ हो ये एहसास
दिलाएगा मुझे . “
आजाद हो चुका देश था और हमारे सामने एक सवाल “ हम सब भी तो मिटटी के पुतले
ही तो है “
समाप्त