पारुल मेहता , खिड़की के पास बैठी पिछले 40 मिनट से से बारिश को देख रही थी , बारिश की बूंदे उस तक आना चाहती थी , उसको भिगोना चाहती थी लेकिन बारिश की बूंदो और पारुल के बीच में कांच की एक दीवार थी ,पारुल बूंदो को देख तो सकती थी पर महसूस नही कर सकती थी कुछ उस तरह ही जैसे उसकी ज़िंदगी में अनदेखी दीवार खड़ी हो गयी थी ,
पारुल मेहता 37 साल की एक विवाहित महिला , एक बेटी और बेटे की माँ , एक बड़ी नेशनल कंपनी में अच्छी पोस्ट पर , एक बड़े शहर में खुद का घर , सास सुसर , पति यानि वो सब कुछ जो किसी को खुशहाल जीवन के लिए चाहिए होता है , लेकिन पता नही क्यों इन सब के बीच एक अंजानी सी कमी सी थी वो कमी क्या थी एक महीने पहले तक खुद पारुल को भी नही पता थी ..! एक महीने पहले थोड़ी बीमार होने पर पारुल को मायके जाना पड़ा था , जँहा पारुल को कोई अपना मिला था फेसबुक पर जो अब तक अनजाना था , वो पारुल के दूर के रिश्ते में था जिस से पारुल सिर्फ एक या दो बार ही मिली थी , उस की उम्र पारुल से कम थी , लेकिन सोच बिल्कुल पारुल जैसी थी। ,वो कुछ कुछ रूमानी से किस्से लिखता था , जो करता था रूहानी सी बातें , जिसके पुरे वजूद में अजीब सा अपनापन था।
उस से मिल कर पारुल लगा था जैसे कोई है जिसने पहली बार उसकी रूह को छुआ है , उसकी आँखों में वो सपने दिखे थे जो खुद कभी पारुल आँखों में थे ,पहली बार पारुल को ये अहसास हुआ था की कोई है जो सैकड़ो किलोमीटर दूर बैठ कर भी उसकी मुस्कान के पीछे छुपे आंसू देख लेता है , पहली बार कोई ऐसा मिला था निस्वार्थ हो कर हरदम में उसके साथ था , पहली बार पारुल ने इतना दिल खोल कर किसी के साथ अपने आपको बाँटा था , जो बातें उसके पति को बचकानी लगती थी कोई था जिस से वो उन बातो पर घंटो बात कर सकती थी , पहली बार किसी के एक एक मैसज के लिए पारुल रात के ३-३ बजे तक जगी थी …
" अनदेखे धांगो से बांध गया कोई , कि वो साथ भी नही और हम आजाद भी नही "
स्कूल , कालेज , कम्पटीशन , माँ बाप की इज्जत , शादी , टूटे सपने बदलते घर बच्चो की खुशियाँ , पति की जरूरते ( जागीर ) साँस की हिदायते आने वाले कल की चिंता यही सब तो होती है एक औरत की ज़िंदगी , इन सब के बीच में नही होती है तो सिर्फ औरत खुद की अपनी भावनाए , अहसास की एक डाली होती है जिन्हे उन्हें पनपने से पहले ही सुखा देना होता है , कभी परिवार की इज्जत के नाम पर कभी पति को नही पसंद के नाम पर और कभी जिम्मेदारी के नाम पर ,
इस अनजान से अपने से मिल कर पारुल के मन की सूख चुकी डाली जैसे फिर से पनप उठी थी ,वो जानती थी न ये प्यार है , न कोई क्रश , न दोस्ती , न कोई रिश्ता , न कोई वासना ,न कोई स्वार्थ ये सिर्फ एक वो अहसास था जिसका कोई नाम नही था , इसे उन दोनों के अलावा कोई नही समझ सकता था
" ये तो रूह का एहसाह है इससे रूह से महसूस कर "
पारुल को लगा था जैसे वो एक तपते रेगिस्तान में चल रही थी , और अब सदियों के बाद एक छाँव मिली है जिसकी न जाने कब से तलाश थी उसको , वो कुछ देर इस छाँव में ठहर जाना चाहती थी , कुछ पल जीना चाहती थी सिर्फ अपने लिए , लेकिन ये मुमकिन नही था वो वापस आपने पति के घर आ गयी थी जंहा उसे सब के लिए जीना था अपने अलावा , उसके पति ये कभी बर्दाश्त न करते की वो किसी से एक पल के लिए भी बात करे , या किसी के लिए कुछ मसहूस करे , पारुल ने बहुत चाहा की वो इस डाली को पनपने न दे , इससे उखाड़ कर फेक दे , लेकिन इस बार वो नाकामयाब रही .
उसने तय कर लिया था की वो अपनी सारी जिम्मेदारियाँ निभाएगी , सब के लिए जियेगी ,और हाँ अपने लिए भी .,
बारिश तेज़ हो गयी थी , पारुल ने उठ कर खिड़की का कांच खोल दिया और अब बारिश की बूंदो ने उसे भिगोना शुरू कर दिया था ....
समाप्त