अब बारिश होने लगी थी जोर की, बिजली भी कड़की थी, लोग अपने बैग सर पे रख के भागे, कुछ रेन कोट में थे, कुछ छाते में, पता ही नहीं चला, उस पुल पर कब तुम और में अकेले खड़े रह गए..अँधेरा सा हो गया है . . लेकिन हमारे हाथो की पकड़ काम नही हुयी थी।
फिर वो बोली : छोड़ना भी मत....यूँही पकड़े रहना... मैं खुद को टूटते हुए देखना चाहती हूँ तुम्हारी बाहों में
मैंने कहा : कुछ टुकड़े मैं तुम्हारे करता हूँ, कुछ तुम मेरे करो, फिर हवा के एक झौंके में उड़ जाएंगे, जिगसॉ पज़ल की तरह जुड़ के एक नयी तस्वीर बनाएंगे.
जब बारिश थमी, वो मेरे सीने में मुंह छुपाये हुए बोली..तुम एक सपने की तरह मेरी आँखों में उतरे... वो सपना जिस में मैंने मेरे हिस्से की ज़िन्दगी मेरे हिसाब से जी ली.....
और मैंने उसके चेहरे को हाथो में भर कर कहा...वो सपना जिस में, मैंने वो किरदार जिया, जिसे एक कहानीकार अपने उपन्यास के नायक के रूप में गढ़ता है...जिसकी में शायद कल्पना ही कर सकता हूँ..
वो बोली, गुज़रे तीन साल में तुम, मुझ में से हो कर अनगिनत बार गुज़रे..... जाने कितनी बार जी उठी मैं, जाने कितनी बार मरी ।
मैंने कहा, जिंदगी के सफर में धूप छाँव होती ही है...इसे जीना-मरना भी कह सकते है...या जिंदगी जीना भी..मैंने धूप में भी तुम्हे देखा और छाँव में भी तुम्हे देखना चाहा..
उसने कहा, गुज़रे एक साल में तुम्हारे नाम से, मेरे दिल की सरहदें, जाने कितनी बार आबाद हुई, जाने कितनी बार उजड़ी ....
मैंने कहा : मैं रिफ्यूजी ही तो हूँ, सरहदों से मेरी कभी नहीं बनी..
आज फिर से बारिश थम चुकी है ..लेकिन ठंडी हवा के साथ एक ठंडी झन्न पड़ रही है ..हमारे दरम्यान एक लम्बी ख़ामोशी है ..चारो तरफ धुंधलका सा छाया हुआ है …अब उँगलियों ने एक दुसरे को विदा कर दिया है ......और अपने होटल की बालकनी से ठंडी हवा के झौंकों के साथ सारी रात उस ब्रिज को देखता रहा...
और उसका मेसेज पढता रहा..."जानती हूँ की तुम नहीं हो जानती हूँ के कभी हो भी नहीं सकते पर फिर भी तुम्हारे होने.... तुम्हारे और मेरे यूँ होने के सपने देखना अच्छा लगता है" ।
शून्य में ताकते हुए बस यही सोचता रहा..
तुम खेलो तो भी लगता है प्यार है....
समाप्त