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हमारा उद्धव और विकास उस दौर में हुआ जब भारत श्वेत श्याम टेलीविजन से रंगीन के सफर पर चल पड़ा था , बड़े बुजुर्गो की माने तो इस दौर में ही कुछ बहुत बड़े लोगो के हाथ में मोबाईल नामक यंत्र भी दिखने लगा था , हमारे अवतार का दौर बदलाव का दौर था , और हम इन बदलावों से दूर छोटे से हरे भरे गांव में श्रीकृष्णा से शक्तिमान तक , छोटे से बड़े ख्वाबो तक आगे बढ़ते रहे। हर इंसान की तरह हमे भी समय ने बहुत कुछ दिया , और बहुत कुछ छीना भी। जो छीना उसमे गांव भी था , घर भी और अपने भी। । जो मिला उसमे कांच की बंद इमारतों के बीच target, growth, appraisal, meeting, भागमभाग और आप सब का प्यार है। समय के साथ बहुत कुछ छोड़ना पड़ा पर हिंदी में लिखना , बोलना , हर रात सपने में आने वाला गांव के खेत , खलिहान और अपने अंदर बहुत मुश्किल से बचा पाया बचपना नही छोड़ पाया . मजेदार बात ये की मुझे खुद नही मालूम की हमने लिखना कब शुरू किया , शायद तब जब ये नही मालूम था की प्यार क्या है लेकिन दिल टूटने का एहसास जरूर हो गया था , या शायद तब जब ज़िंदगी के कुछ अंधरे हादसों को इतने करीब से देखा की उन्हें किसी से बयां नही कर पाया , तो कागज कलम से दोस्ती कर ली। एक वक्त तक खुद को ही अलग अलग रूपों में आपके सामने लाता रहा , इतनी थोड़ी सी ज़िंदगी में जो देखा समझा उसे अल्फाजो में लपेट आपको समझाता रहा , फिर अचानक से लगा की हमारे हर तरफ न जाने कितने किस्से बिखरे हुए है , कभी हंसती तो कभी रुलाती है ज़िंदगी , कभी लगता है बस अब एक नई शुरुवात और कभी अब सब खत्म करती ज़िंदगी , कभी उम्मीदों की रोशनी से नहायी तो कभी निराशा के अंधेरे में डूबी ज़िंदगी ...........सीलन भरी, चुभती, सहलाती, खुशबूदार ज़िंदगी, लेकिन हरदम चलने वाली ज़िंदगी तो बस दोस्तों ज़िंदगी के इन्ही हजारों रंग के अफसानों को अपने अल्फाज दे आप के सामने रख दिया .खुशियो

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..... हाँ तो फिर बोलो “ हैप्पी हिंदी डे “

15 सितम्बर 2016
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पहलू :01 “ हिंदी तेरे दर्द की किसे यहाँ परवाह.. एक अंग्रेजी साल भर , एक हिंदी सप्ताह .” “ देश के एक बड़े संस्थान ने हिंदी दिवस की पूर्व संध्या पर अपने विचारो को रखन

मामा समोसे वाले

21 जुलाई 2016
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8 जुलाई 2009 को शाम 5 बज कर 17 मिनट पर कानपुर के मोहल्ला जवाहर नगर की सरहद से लगे नेहरुनगर के कमला नेहरु पार्क वाली गली में मास्टर त्रिभुवन शुक्ला के घर में चिक चिक मची थी . बवाल ये रहा की शुक्ल महराज बम्बारोड सब्जी मंडी से 20 रुपिया के सवा किलो दशहरी आम लाये थे . और शुक्लाइन चाची आम की पन्नी आंगन म

कानपुर की घातक कथाएँ

12 जुलाई 2016
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हाँ तो बात ये है कि, दुनियां के अनगिनत शहरों की तरह एक शहर और भी है कानपुर . ये क्यों कैसे और किसने बसाया ये जानना अलग बवाल है . अभी सीन ये है की तमाम धार्मिक – अधार्मिक , भौतिक – अभौतिक , ऐतिहासिक –आधुनिक खूबियों खामियों के बीच घटना -दुर्घटना ये है की हम कानपुर में बसते है और हम में थोडा सा कानपुर 

“ रामलाल को आज ही मरना था ”

6 जुलाई 2016
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 सुबह के 10 बजे थे , किस्सा ऑफिस के लिए तैयार हो रहा था , तभी उसका फ़ोन बजा ... उसके एक दूर के रिश्तेदार रामलाल जी जोकिशायद 89 वसंत देख चुके थेनही रहे थे . और किस्सा को ऑफिस के बजाय वंहा जाना पड़ा .किस्सा जब वंहा पंहुचा तो देखा घर बहार बरमादे से लेकर सड़कतक ” रंगमहल टेंट हॉउस “ से आई लाल रंग की कुर्सिय

भंवर

23 जून 2016
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जंहा तक नजर जाती सिर्फ पानी ही पानी , गहरा नीला पानी , और इस समंदर केबीचो बीच एक छोटा सा मालवाहक जहाज हिचकोले खा रहा था , इस जहाज में 300 से ज्यादा लोगभरे हुए थे , इस भीड़ में सब थे बच्चे ,बूढ़े , जवान स्त्री पुरुष सब   ये लोग भागे थेअपने उस वतन को छोड़ कर जिसने कभी उन्हें अपना नही माना था , ये निकले थ

.. वो आखरी कॉल

20 जून 2016
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मोहित ने चाय का आखिरी घूंट पिया और घडी की ओर देखा , शाम के 5 बजे थे , ऑफिस बंद होने में सिर्फ एक घंटा बचा था और अभी बहुत काम बाकी था , तभी उसका मोबाईल बज उठा , स्कीन पर स्नेहा का नाम देख कर मोहित बरबस ही मुस्करा उठा , अपनी शादी के पूरे 3 महीने और19 दिन बाद पहली बार स्नेहा ने मोहित को कॉल कर रही थी ,

क्यां यही प्यार है ...?

18 जून 2016
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अब बारिश होने लगी थी जोर की, बिजली भी कड़की थी, लोग अपने बैग सर पे रख के भागे, कुछ रेन कोट में थे, कुछ छाते में, पता ही नहीं चला, उस पुल पर कब तुम और में अकेले खड़े रह गए..अँधेरा सा हो गया है . . लेकिन हमारे हाथो की पकड़ काम नही हुयी थी। फिर वो बोली : छोड़ना भी मत....यूँही पकड़े रहना... मैं खुद को टूटते

धुंध

17 जून 2016
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स्नेहा ने अपनी डेस्क का काम निपटा कर घड़ी कीतरह देखा 3बजने वाले थे , उसे बहुत तेज़ भूख लग रही थी ,किसी बात पर नाराज हो कर आज वो अपना लंच बॉक्स नही लायी थी ,उसे पति के हाथ कि बनायीं मैगी की याद आ रही थी ,अनजानेमें ही उसने अपने पति का नंबर डायल कर दिया ," मुझे भूख लगी है "" तो कुछ खा लो "" नही मुझे मैगी

अनजान रिश्ता

15 जून 2016
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पारुल मेहता , खिड़की के पास बैठी पिछले 40 मिनट से से बारिश को देख रही थी , बारिश की बूंदे उस तक आना चाहती थी , उसको भिगोना चाहती थी लेकिन बारिश की बूंदो और पारुल के बीच में कांच की एक दीवार थी ,पारुल बूंदो को देख तो सकती थी पर महसूस नही कर सकती थी कुछ उस तरह ही जैसे उसकी ज़िंदगी में अनदेखी दीवार खड़ी ह

तुम सा कोई और …

14 जून 2016
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ऑफिस से बाहर निकला तो बारिश की हल्की फुहारेबदन को भिगो रही थी ,दिन शाम केसाये से गुजरता हुआ रात के आगोश की और बढ़ चूका था , मेरी मंजिल यंहा से 19किलोमीटरदूर मेरा घर था ,मुझे पता हीनही चला कब बाइक हाइवे पर आई और कान में लगी Hands-free से होते हुए ताल Movie के गाने दिल तक पहुचने लगे , हाँ मुझे आज भी या

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