मोहरा.....!
फिर वही शोर ,
भीतर , बाहर
दौड़ है ,
अजीब -सी कश्मकश है !
कुछ दिख रहा है , कुछ दिखाया जा रहा है।
फिसल रहा है समय, हाथ से रेत की तरह ,
शतरंज की बिसात लगी है
हाथी ,घोड़े ,वज़ीर और राजा मस्त चल रहे हैं ,
पिस रहा है तो केवल मोहरा !
उसका वक्त कब आएगा ?
क्या वह कभी अपनी बात कह पाएगा ?
या , हमेशा राजा की चाल में ही सर हिलाएगा ।
परमजीत कौर
22 . 12 . 19