शब्द .....
माेती भी हैं और पत्थर भी ,आरोप- प्रत्यारोप भी,
हमेशा घिरे रहते हैं हम इनसे....,
सीमाएँ बाँध कर भी ,जाे सीमित नहीं, वे ही ताे हैं शब्द,
कभी उदास मन -में सूर्य की प्रथम किरण- सी ताज़गी और उमंग भर देते हैं ,
ताे कहीं किसी की चीत्कार काे वहशी बन दबा देते हैं...
काेई इन्हें ताेड़ -मरोड़ कर, अपना स्वार्थ सिद्ध कर मुस्कुराता है,
ताे काेई अपनी चाटुकारिता में इनका काैशल दिखा, बिना याेग्यता के आगे बढ़ता जाता है..
ये शब्द ही ताे हैं ,जो दूसरों के दिमाग पर अधिकार कर उन्हें कठपुतली बना लेते हैं ..
शब्द कहीं अवरुद्ध हैं ,ताे कहीं प्रचण्ड ,
कहीं वास्तविकता ,तो कहीं मायाजाल..
शब्द, कहीं शकुनि की चाल हैं , ताे कहीं कृष्ण का उपदेश..
माैन में भी जाे गूँजें, वे भी ताे हैं ,शब्द !
हमेशा हम शब्दों के घेरे में रहते हैं,
आज अपने शब्दों को परिभाषित करने का प्रयास कीजिए..
क्या दर्शाते हैं...?
कौशल या फ़िर..... ?
मेरी कलम से
परमजीत काैर
16.12.19