छोड़ गाँव की अल्हड़ मस्ती,
खुद को समझता शहरी हस्ती।
सोच ब्रांडेड पर चींजे सस्ती,
बातें जन-जन कीं अब डसती।।
छूट गया ये रक्षाबंधन।
टूट गया सपना तरु चंदन।।
अब लगता नहीं मन किसी मोह में।
यौवन गुजरे उहापोह में।।
जगता मन थक जाते नैन।
ख्वाबों को चिढ़ाती नीरस रैन।।
भावुक हो जाता बात-बात पे।
अटका था एक मसला जात-पात पे।।
दिल अब भी उसकी यादों में बेसुध सा हो खो जाता है।
जीवन की गति की देख क्षति बीपी भी लो हो जाता है।।
अजी! ठीक बना ली दूरी हम से।
किरणों का कोई मेल न तम से।।
एक विकल्प है घर जाने का ।
दूजा विकल्प है मर जाने का ।।
दोनों को लिए अड़ा हूँ मैं।
साहस के साथ खड़ा हूँ मैं।।
खेल अनैतिक नियति का करती किस ओर इशारा है।दूजे विकल्प का क्या कल्प जब जीवन ने हरपल मारा है।।
कुछ ख्वाबों का हो रहा सूर्यास्त।
डट खड़ा साहस नही हुआ परास्त।।
जीवन का अब कोई ठिकाना नहीं।
कुछ प्राप्त किये बिन घर जाना नही।।
साँझ भये ढल जाने से कर सूर्य सामर्थ्य पे संदेह नहीं।
क्षणिक गमन से ज्योति-पुन्ज के मम जीवन तम का गेह नहीं।।
✍️भरत शरण