न्यायपालिका का जो हाल पिछले कुछ वक्त से हुआ है उसे देखकर लगता है कि मुंशी प्रेमचंद ने इस वक्त के लिए ही कहानी पंच परमेश्वर लिखी थी. गांधीजी को भी इस न्याय प्रक्रिया पर कोई भरोसा नहीं था, उनका मानना सही था कि आज़ादी नहीं मिली बस राज परिवर्तन हुआ है? गांधीजी ने वकालत छोड़ दी थी क्योकि वो जानते थे, वहां न्याय करने की नौटंकी होती है, और राज परिवर्तन से यह बदलेगा नहीं बस इतना है कि गोरी चमड़ी के लोगो के हाथ से यह काली चमड़ी के हाथ में आ गई है. गाँधी जी की सोच में शायद मुंशी प्रेमचंद की कहानी पंच परमेश्वर रही होगी इसलिए वो पंचायती राज का ज़िक्र करते थे और चाहते थे कि पंचायती राज हो. जुम्मन की खाला का , जुम्मन के जिगरी दोस्त अलगू से सिर्फ एक सवाल ही कहानी का मोड़ बदल देता है. अलगू जुम्मन की खाला को कहता है कि जो कुछ तुम कह रही हो ठीक है मैं पंचायत में आ जाऊंगा लेकिन मैं कुछ बोलूंगा नहीं, जुम्मन मेरा जिगरी दोस्त है और इससे हमारी दोस्ती में बिगाड़ हो जाएगा. खाला ने सिर्फ यही कहा " क्या बिगाड़ के डर से ईमान की बात ना कहोगे लाला. " जब पंचायत में जुम्मन की खाला ने पंच के लिए जुम्मन के दोस्त अलगू का नाम लिया तो सबने कहा अब खाला हार गई, खाला ने इस पर सिर्फ एक जवाब दिया " पंच ना तो किसी का दुशमन होता है और ना ही दोस्त, पंच की ज़ुबान पर ख़ुदा का वास होता है. शायद ऐसा ही कुछ हज़ारों साल पहले भगवान् कृष्ण ने भी कर्ण से कहा था, " एहसान चुकाने के लिए क्या तुम धर्म का साथ ना दोगे?" आज किससे कहे यह बात और कौन सुनेगा यह बात? हरिशंकर परसाई ने भी बहुत खूब लिखा है " हमारे देश में सबसे आसान काम आदर्शवाद बघारना है, और फिर घटिया से घटिया उपयोगितावादी की तरह व्यवाहर करना है. " हमारे आस-पास कितने भ्र्ष्टाचारी है, हम सब जानते है लेकिन बिगाड़ के डर से बोलते नहीं. समस्या ना तो पहले की सरकारें थीं ना ही अब की, समस्या हम खुद हैख़ुद रिश्वत लेना अच्छा लगता है पर दूसरा ले तो भ्र्ष्टाचारी? फिर भी हम विकास की बात करते है, यह दर्शाता है कि हम कितने आशावादी है ?जब राजनेता ही अपने कार्यकर्ताओं को झूठ बोलने के लिए कहे तो लगता है हम जल्दी झूठ बोलने, सुनने, और सहने के विश्वगुरु ज़रूर बन जायँगे? (आलिम)