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पंडित दीनदयाल उपाध्याय जी

25 सितम्बर 2016

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किसी ने सच ही कहा है कि कुछ लोग सिर्फ समाज बदलने के लिए जन्म लेते हैं और समाज का भला करते हुए ही खुशी से मौत को गले लगा लेते हैं. उन्हीं में से एक हैं दीनदयाल उपाध्याय जिन्होंने अपनी पूरी जिन्दगी समाज के लोगों को ही समर्पित कर दी।


आज पंडित दीनदयाल उपाध्याय जी की 100वी जयंती है!!!

दीनदयाल उपाध्याय बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी थे. इस महान व्यक्तित्व में कुशल अर्थचिन्तक, संगठनशास्त्री, शिक्षाविद्, राजनीति ज्ञ, वक्ता, लेख क व पत्रकार आदि जैसी प्रतिभाएं छुपी थीं।

पं० दीनदयाल उपाध्‍याय का जन्‍म 25 सितम्‍बर 1916 ई० को मथुरा जिले के छोटे से गाँव नगला चन्द्रभान में हुआ था इनके पिता का नाम भगवती प्रसाद उपाध्याय और माता का नाम रामप्यारी था इनके पिता रेलवे में कार्यरत थेे और उनका अधिक समय बाहर ही व्‍यतीत होता था इसलिए दीनदयाल जी का बचपन अपने नाना चुन्नीलाल शुक्ल जी के यहाॅॅ व्‍य‍तीत हुुआ जो धनकिया में स्टेशन मास्टर थे जब दीनदयाल जी की आयु मात्र तीन वर्ष की थी तब उनके पिता का देहान्‍त हो गया था इनके पिता केे देहान्‍त के बाद इनकी माता भी बीमार रहने लगी और 8 अगस्‍त 1924 ई० को इनका भी देहान्‍त हो गया सात वर्ष की कोमल अ‍वस्‍था में दीनदयाल जी माता पिता के प्यार से वंचित हो गये.

दीनदयाल जी परीक्षा में हमेशा प्रथम स्‍थान पर आते थे उन्‍हेंने मैट्रिक और इण्टरमीडिएट-दोनों ही परीक्षाओं में गोल्ड मैडल प्राप्‍त किया था इन परीक्षाआें को पास करने के बाद वे आगे की पढाई करने के लिए एस.डी. कॉलेज, कानपुर में प्रवेश लिया वहॉ उनकी मुलाकात श्री सुन्दरसिंह भण्डारी, बलवंत महासिंघे जैसे कई लोगों से हुआ इन लोंगोंं से मुलाकात होने के बाद दीनदयाल जी राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के कार्यक्रमों में रुचि लेने लगे दीनदयाल जी ने वर्ष 1939 में प्रथम श्रेणी में बी.ए. की परीक्षा पास की बी.ए पास करनेे के पश्‍चात दीनदयाल जी एम.ए की पढाई करने के लिए आगरा चले गयेे लेकिन उनकी चचेरी बहन रमा देवी की मृत्‍यु हो जाने के कारण वे एम.ए की परीक्षा न दे सके |

एक बार पं० दीन दयाला उपाध्‍याय जी ने सरकार द्वारा संचालित प्रतियोगी परीक्षा दी वे इस परीक्षा मेंं धोती कुर्ता और सर पर टोपी लगाकर गये जब‍कि अन्‍य परीक्षार्थी पश्चिमी सूट पहनकर आये थे तो उनका काफी मजाक उडाया गया और उन्‍हें पंडित कहकर पुकारा गया यह एक उपनाम था जिसे लाखों लोग बाद के वर्षों में उनके लिए सम्मान और प्यार से इस्तेमाल किया करते थे इस परीक्षा में दीनदयाल जी चयनित उम्मीदवारों में सबसे ऊपर रहे |

इसके बाद दीनदयाल जी ने लखनऊ जाकर राष्ट्र धर्म प्रकाशन नामक प्रकाशन संस्थान की स्थापना की और एक मासिक पत्रिका राष्ट्र धर्म शुरू की उन्‍होने एक साप्ताहिक समाचार पत्र ‘पांचजन्य’ और एक दैनिक समाचार पत्र ‘स्वदेश’ शुरू किया था. उन्होंने नाटक ‘चंद्रगुप्त मौर्य’ और हिन्दी में शंकराचार्य की जीवनी लिखी |

डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी भारतीय जनसंघ की स्थापना 1951 में की और दीनदयाल अपने उत्तर प्रदेश शाखा के पहले महासचिव बने इसके बाद दीनदयाल जी 15 साल के लिए, वह संगठन के महासचिव बने |

पण्डित दीनदयाल उपाध्याय महान चिन्तक और संगठनकर्ता थे। वे भारतीय जनसंघ के अध्यक्ष भी रहे। उन्होंने भारत की सनातन विचारधारा को युगानुकूल रूप में प्रस्तुत करते हुए देश को एकात्म मानववाद जैसी प्रगतिशील विचारधारा दी। उपाध्यायजी नितान्त सरल और सौम्य स्वभाव के व्यक्ति थे। राजनीति के अतिरिक्त साहित्य में भी उनकी गहरी अभिरुचि थी। उनके हिंदी और अंग्रेजी के लेख विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहते थे। केवल एक बैठक में ही उन्होंने चन्द्रगुप्त नाटक लिख डाला था।

सन 1951 ई० में अखिल भारतीय जनसंघ का निर्माण होने पर वे उसके संगठन मन्त्री बनाये गये। दो वर्ष बाद सन् 1953 ई० में उपाध्यायजी अखिल भारतीय जनसंघ के महामन्त्री निर्वाचित हुए और लगभग 15 वर्ष तक इस पद पर रहकर उन्होंने अपने दल की अमूल्य सेवा की। कालीकट अधिवेशन (दिसम्बर 1967) में वे अखिल भारतीय जनसंघ के अध्यक्ष निर्वाचित हुए। 11 फरवरी1968 की रात में रेल यात्रा के दौरान मुगलसराय के आसपास उनकी हत्या कर दी गयी।

विलक्षण बुद्धि, सरल व्यक्तित्व एवं नेतृत्व के अनगिनत गुणों के स्वामी भारतीय राजनीतिक क्षितिज के इस प्रकाशमान सूर्य ने भारतवर्ष में समतामूलक राजनीतिक विचारधारा का प्रचार एवं प्रोत्साहन करते हुए सिर्फ 52 साल क उम्र में अपने प्राण राष्ट्र को समर्पित कर दिए। अनाकर्षक व्यक्तित्व के स्वामी दीनदयालजी उच्च-कोटि के दार्शनिक थे किसी प्रकार का भौतिक माया-मोह उन्हें छू तक नहीं सका।


एक दृष्टि में :--

1. मैट्रिक और इण्टरमीडिएट-दोनों ही परीक्षाओं में गोल्ड मैडल।

2. कानपुर विश्वविद्यालय से आपने बी० ए० किया।

3. सिविल सेवा परीक्षा में भी उतीर्ण हुए लेकिन ज्वाइन नहीं किया।

4. 1937 में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़ गये।

5. राष्ट्रधर्म, पाञ्चजन्य और स्वदेश जैसी पत्र-पत्रिकाएँ प्रारम्भ की।

6. 1952 में श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने जनसंघ की स्थापना के समय उत्तर-प्रदेश का महासचिव बनाया गया ।


उपाध्यायजी की कृतियाँ:---

जनसंघ के राष्ट्रजीवन दर्शन के निर्माता दीनदयालजी का उद्देश्य स्वतंत्रता की पुर्नरचना के प्रयासों के लिए विशुद्ध भारतीय तत्व-दृष्टी प्रदान करना था . उन्होंने भारत की सनातन विचारधारा को युगानुकूल रूप में प्रस्तुत करते हुए देश को एकात्म मानववाद जैसी प्रगतिशील विचारधारा दी.दीनदयालजी को जनसंघ के आर्थिक नीति के रचनाकार बताया जाता है . आर्थिक विकास का मुख्य उद्देश्य समान्य मानव का सुख है या उनका विचार था . विचार –स्वातंत्रय के इस युग में मानव कल्याण के लिए अनेक विचारधारा को पनपने का अवसर मिला है . इसमें साम्यवाद, पूंजीवाद , अन्त्योदय, सर्वोदय आदि मुख्य हैं . किन्तु चराचर जगत को सन्तुलित , स्वस्थ व सुंदर बनाकर मनुष्य मात्र पूर्णता की ओर ले जा सकने वाला एकमात्र प्रक्रम सनातन धर्म द्वारा प्रतिपादित जीवन – वि ज्ञान , जीवन –कला व जीवन–दर्शन है.

संस्कृतिनिष्ठा दीनदयाल जी के द्वारा निर्मित राजनैतिक जीवनदर्शन का पहला सुत्र है उनके शब्दों में- “ भारत में रहनेवाला और इसके प्रति ममत्व की भावना रखने वाला मानव समूह एक जन हैं . उनकी जीवन प्रणाली ,कला , साहित्य , दर्शन सब भारतीय संस्कृति है . इसलिए भारतीय राष्ट्रवाद का आधार यह संस्कृति है . इस संस्कृतिमें निष्ठा रहे तभी भारत एकात्म रहेगा .

“वसुधैव कुटुम्बकम” हमारी सभ्यता से प्रचलित है . इसी के अनुसार भारत में सभी धर्मो को समान अधिकार प्राप्त हैं . संस्कृति से किसी व्यक्ति ,वर्ग , राष्ट्र आदि की वे बातें जो उनके मन,रुचि, आचार, विचार, कला-कौशल और सभ्यता का सूचक होता है पर विचार होता है . दो शब्दों में कहें तो यह जीवन जीने की शैली है . भारतीय सरकारी राज्य पत्र (गज़ट) इतिहास व संस्कृति संस्करण मे यह स्पष्ट वर्णन है की हिन्दुत्व और हिंदूइज़्म एक ही शब्द हैं तथा यह भारत के संस्कृति और सभ्यता का सूचक है .

उपाध्यायजी पत्रकार तो थे ही चिन्तक और लेखक भी थे। उनकी असामयिक मृत्यु से एक बात तो स्पष्ट हो जाती है कि जिस धारा में वह भारतीय राजनीति को ले जाना चाहते थे वह धारा हिन्दुत्व की थी जिसका संकेत उन्होंने अपनी कुछ कृतियों में ही दे दिया था। तभी तो कालीकट अधिवेशन के बाद विश्व भर के मीडिया का ध्यान उनकी ओर गया। उनकी कुछ प्रमुख पुस्तकों के नाम नीचे दिये गये हैं-

दो योजनाएँ ,

राजनीतिक डायरी,

भारतीय अर्थनीति का अवमूल्यन ,

सम्राट चन्द्रगुप्त ,

जगद्गुरु शंकराचार्य,

और एकात्म मानववाद (अंग्रेजी: Integral Humanism) राष्ट्र जीवन की दिशा

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