"प्रेम दिवस" काव्य संग्रह "प्रतीक्षा" से
इज़हार-ए-मोहब्बत का होना
उस दिन शायद मुमकिन था,
वैलेंटाइन डे अर्थात
प्रेम दिवस का दिन था,
कई वर्षों की मेहनत का फल।
एक कन्या मित्र हमारी थी,
जैसे सावन को बादल
वैसे वो हमको प्यारी थी,
आज सुना दूँ उसको जाकर
अपने दिल की हर धड़कन,
खामोशी में चुपके से
बोला था ये पागल मन।
मन ही मन अरमानों की
मनभावन मुस्कान लिए,
पहुँचे प्रेम पार्क में हम
पल्लव पुष्प प्रतान लिए,
सरपत की सर में सर सर
सरकी समीर की सरिता में,
कई प्रेमी युगल लीन थे
अपने प्रेम ग्रंथ की कविता में।
कुछ बाँट रहे थे ग़म अपने
कुछ खुशियों के संग आए थे,
कुछ मेरे जैसे भी थे जो
इंतजार में वक़्त बिताए थे।
कहीं मनाना, कहीं रूठना,
कहीं संवरना, कहीं टूटना,
हर रूप में प्रेम छिपा था
भले कोई प्रियतम से पिटा था।
इंतज़ार की राह में
मैं भटक रहा था इधर-उधर,
इतने में पहुँची इठलाती
इतराती वो सज धज कर।
प्रेम सुधा अतिरति मनोहर
नव बसंत की नव आशा,
मुझ पर मेरा अधिकार नहीं
जागी कैसी ये अभिलाषा।
हे रूप नगर की शहजादी
क्यों न कर लें हम तुम शादी,
मैं प्रेम तुम्हीं से करता हूँ
तुम्हे देख के आहें भरता हूँ।
वर्षानुवर्ष व्यतीत हुए
पीड़ा के कण-कण गीत हुए,
कुछ याद रहे कुछ भूल गए
मायूस बगीचे फूल गए।
आज प्रेम की इन घड़ियों में
हृदय स्वयं गुलदस्ता है,
अति विनीत हो मधुमती
यह प्रणय निवेदन करता है।
सुनकर वह कुछ न बोली
चाहत आँखों में थी भोली,
पलकों में हया नज़र आई
जब नज़र मिली वह मुस्काई।
झूम उठा दिल हर्षगान कर
शब्दों के शुचि सुमन दान कर,
नाम मेरा लो अब कैसे भी
हाथ थाम लो अब जैसे भी।
दिल खुद पर इतराया जब
हौले से हाथ बढ़ाया जब,
एक कोलाहल उपवन में गूँजा
भागो मोहन, भागो राधा।
भारत माँ की जय बोलकर
संस्कृति के रक्षक गण बनकर,
कुछ लोगों ने धावा बोला
मंजर भय से थर-थर डोला।
प्रेमी युगल को ढूँढ-ढूँढकर
पीट रहे थे केश खींचकर,
उन लोगों को नज़र न आओ
प्रियतम जल्दी से छुप जाओ।
साथ हमारा छूटे ना
बंधन जुड़कर टूटे ना,
जैसे वह नींद से जाग गई
हाथ छुड़ा कर भाग गई,
रुक जाओ राधा चिल्लाया
हाय अभागा मोहन,
तांडव को अपनी ओर बुलाया।
अब उपवन में मैं केवल था
और उनका पूरा दल था,
बोले बालक मोहन प्यारे
आओ प्रेम का भूत उतारें।
ईलू-ईलू खूब करते हो
देखे कितना तुम मरते हो।
एक ने अपनी पादुका निकाली,
दूजे ने हवा में टोपी उछाली,
तीसरा मुँह में पान दबाए
चौथा हाथों में कड़ा घुमाए।
गर्दन फँसी देख घबराया
पर कोई हल समझ न आया,
आँख मूंदकर खड़ा रहा
जड़ अद्भुत सा अड़ा रहा।
फिर क्या बीती क्या बतलाऊँ,
आँख खुली तो अस्पताल के
बेड पर खुद को लेटा पाऊँ,
विस्मय से आँखें थी चौंकी
सिरहाने राधा थी बैठी,
बाबा गुस्से में बेकाबू
माँ की आँखों में थे आँसू।
यूँ छुप-छुप कर मिलना क्या
प्रेम अगर है डरना क्या,
हमको जो तू बतलाता
घर अपना उपवन हो जाता।
तेरी ओर से मैं भी आती
तू क्या है उसको समझाती,
तेरे प्रणय निवेदन के
हम सब साक्षी हो जाते,
एक उत्सव सा होता घर में
जब तुम दोनों मिल जाते।
माँ खामोश हुई तो फिर
बाबा का नंबर आया,
मैं शर्मिंदा था खुद पर
नज़र नहीं मिला पाया।
बोले तू किस आफत में पड़ा
अपनी हालत देख ज़रा,
सहज प्रकृति से दूर गया
अपनी संस्कृति को भूल गया।
अच्छा होता फ़ाग राग में
तू प्रेम के रंग मिलाता,
फागुन की पावन बेला में
प्रीत की पावन प्रथा निभाता।
फ़ाग प्रेम का ऋतु बसंत है
अद्भुत अतुलित मूलमंत्र है,
प्रेम की कथा सुनाऊँ तुझको
सच्ची राह दिखाऊँ तुझको।
प्रेम सकल सर्वत्र व्याप्त है
हर प्राणी को स्वतः प्राप्त है,
सुन बात हमारी बेचारे
हर दिवस प्रेम का है प्यारे।
एक दिवस में बाँध इसे मत
लक्ष्य समझ कर साध इसे मत,
यह तो जीवन की धारा है
इसमे बहता जग सारा है।
पर तू यह सब समझ न पाया
पड़ा हुआ है पिटा पिटाया,
सुनकर बातें बाबा की
अश्रु पलक से छूट गए,
भ्रम के सारे बंधन मानो
क्षणभर में ही टूट गए।
हृदय प्रेम से भर आया
अदभुत सौंदर्य उभर आया,
नैनों ने बातें की निश्छल
राधा मोहन अविरल अविचल,
प्रेम सफल साकार हुआ
बिन शब्दों के इज़हार हुआ।