सावन सूना पनघट सूना
सूना घर का अंगना ।
बहना गई तू कहाँ छोड़ के।।
दिन चुभते हैं काटों जैसे
आग लगाए रैना।
बहना गई तू कहाँ छोड़ के।।
बचपन के सब खेल खिलौने
यादों की फुलवारी
खुशियों की छोटी साइकिल
पर करती थी तू सवारी ।
विरह,पीर के पलछिन देकर
हमें रुलाए बिधना ।
बहना गई तू कहाँ छोड़ के।।
बाग बगीचे अमराई में
पपीहा कोयल कूके
सखियों के संग हंसी ठिठोली
करती तू मन मोहे ।
दे तुझको आशीष सभी
तू ऐसे हंसती रहना।
बहना गई तू कहाँ छोड़ के।।
इंद्रधनुष सी रंग बिरंगी
सपनो की तस्वीरें
अरमानो की चूनर ओढ़े
बुनती है तदबीरें।
जब तक आस न हो पूरी
अब नही है दिल मे चैना।
बहना गई तू कहाँ छोड़ के ।।
ग़म के बादल गरज बरस कर
रोज भिगोते दामन
पीर पहाड़ सी बांधे तन को
ब्याकुल मन का मधुबन ।
कहाँ छिपाऊँ तुझको कोई
जुगत है बाकी अब ना ।
बहना गई तू कहाँ छोड़ के।।
गुजरे कितने दिन राखी के
कितने बांधे धागे
फिर भी साथ तुम्हारा छूटा
हम है बड़े अभागे ।
हाय ! तुम्हारी सौ टूटी
अब अश्रु पलक पर हैं ना
बहना गई तू कहाँ छोड़ के।।
(छोटी बहन सीमा वर्मा की स्मृति मे आज रक्षा बंधन के दिन हृदय से उठते उद्गार ।)
-देवेंद्र प्रताप वर्मा"विनीत"