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साक्षात्कार

1 मार्च 2017

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रात्रि का प्रथम पहर

टिमटिमाते प्रकाश पुंजों से आलोकित अंबर,

मानो भागीरथी की लहरों पे,

असंख्य दीपों का समूह,

पवन वेग से संघर्ष कर रहा हो।

दिन भर की थकान गहन निद्रा मे परिणत हो

स्वप्न लोक की सैर करा रही थी,

और नव कल्पित आम्र-फूलों की सुगंध लिए

हवा धीमे धीमे गा रही थी ।

कुछ विस्मृत कुछ अपरिचित सा,

किन्तु फिर भी परिचित सा,

कहीं से उठा वेदना का करुण स्वर,

निद्रा को आहत कर के चला गया;

सुप्त हृदय के अंतस मे

मानो पीड़ा का दीपक जला गया ।

नेत्र खुले तो दृश्य का दर्शन विचित्र था !

स्वप्न नही किन्तु स्वप्न सा चित्र था ।

सुलक्षिणी ओजस्विनी ममतामयी तेजस्विनी,

परम पुनीत सम्पूर्ण किन्तु क्यों अश्रुपूर्ण ?

संवेदनाओं का पुष्प प्रश्नों के झंझावात मे हिलोरें खा रहा था

और उस विरहणी की व्यथा मे हृदय विदीर्ण हुआ जा रहा था ।

चित्त की जिज्ञासा ने जब, अपनी दृष्टि खोली;

तो वेदना की मारी, वो विलापिनी बोली।

सृष्टि के अस्तित्व की पवित्र आत्मा हूँ,

मै एक माँ हूँ.. मै एक माँ हूँ ।

मै एक माँ हूँ ! जिसने जीवन को दिया है जीवन,

और जिया है गौरव पूर्ण जीवन।

नही छू सकी कभी मुझे, दुख की दैवीय बयार।

लाल मेरे खड़े थे सम्मुख, प्रतिक्षण तत्पर रहे तैयार।

किन्तु कालगति की कुटिल कृपा से

वैभव मेरा क्षीण हुआ,

स्वछंद विचरता मन मयूर जब जंजीरों मे धीर हुआ।

तब उपवन के प्रत्येक सुमन से,

खेतों की हरियाली तक;

पनघट की पगडंडी से, चूल्हे की रखवाली तक;

बचपन की चंचल चितवन से,

धुँधलाते चक्षु प्रखर तक;

हुए समर्पित जीवन कितने,

मातृ-ऋण की पूर्ण पहर तक।

मन मयूर को मिली मुक्ति,

सपुष्प सुमन उपवन महका।

लाल लहू के छींटो से लथपथ,

माँ का आंचल चमका ।

कैसी थी वह भक्ति भावना !

कैसा था वह स्नेह समर्पण,

व्योम पुंज भी निस्तेजित थे

जिनके आभा की लौ पर ।

स्मृति के पन्नो पर जब वे, बीते अक्स उभरते हैं;

अंतस की पीड़ा के प्रहरी, आँसू झर झर बहते हैं ।

स्नेह सुधा का साज़ नहीं क्यों अश्रु-धार से अलंकृत हूँ?

है सकल साकार प्रतिष्ठा, किन्तु हृदय से वंचित हूँ।

यदि शैल-सिंधु,सरोवर-सरिता,

के अंतस की अनुपम कविता ;

निष्काषित होगी अपने ही,

हृदय पुष्प के चित्त सुधा से।

ममता क्यों न लज्जित होगी,

संस्कारों की ऐसी विधा से।

हे वीर सपूतों अब तो सुन लो ..

ममता के अश्रु पुकार रहे।

यह कहकर वह करुण क्रंदिनी

दृष्टि पटल से दूर हुई ।

प्रश्नों का साम्राज्य लिए,

फिर मानो उजली भोर हुई।

उस करुण वेदना के तम मे

जब हृदय विकल हो जाता है

तीन रंग का किरण पुंज तब,

मार्ग प्रशस्त कर जाता है।

तीन रंग का किरण पुंज,

तब मार्ग प्रशस्त कर जाता है।

…………………देवेंद्र प्रताप वर्मा”विनीत”

दीपक श्रीवास्तव

दीपक श्रीवास्तव

अति सुन्दर !

1 मार्च 2017

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तत त्वम् असि

21 जनवरी 2017
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तत त्वं असि रोज की तरह सब काम काज समेट ऑफिस से घर पहुचा कि चलो भाई इस व्यस्त भागदौड़ की जिंदगी का एक और दिन गुजर गया,अब श्रीमती जी के साथ एक कप चाय हो जाये तो जिंदगी और श्रीमती जी दोनों पर एहसान हो जाये।खैर ख्यालों से बाहर भी नही आ पाया था कि श्रीमती जी का मधुर स्वर अचानक

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राष्ट्र भक्त - बाल कविता

6 फरवरी 2017
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जब मै छोटा सा था,तो मेरी यह अभिलाषा थी,हँसता हुआ देखूँ,भारत को मन मे छोटी सी एक आशा थी।मन की पावन आँखों ने,कुछ देखे ख्वाब सुनहरे थे;उन सारे ख्वाबों की अपनीपहचानी सी भाषा थी।अपने कोमल ख्वाबों मे,मै भारत को एक

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साक्षात्कार

1 मार्च 2017
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पीड़ा(अपराजिता)

29 मार्च 2018
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टूट चुका है कोना कोना खंड हृदय के जोड़ सकूं ना अरसा बीता सुख को छोड़े मुस्कानों ने नाते तोड़े सुबह बुझी सी बोझिल बेमन निशा विषैली चीखे उर नम पर तुम क्या ठुकराओगी नही पीड़ा क्या तुम जाओगी नही!! युग युग से हो साक्षी मन की तुम हृदयों की पाती त

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अपराजिता

30 मार्च 2018
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गुरु दक्षिणा

27 जुलाई 2018
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गई तू कहाँ छोड़ के

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बात छोटी सी

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"प्रेम दिवस" काव्य संग्रह "प्रतीक्षा" से इज़हार-ए-मोहब्बत का होनाउस दिन शायद मुमकिन था,वैलेंटाइन डे अर्थातप्रेम दिवस का दिन था,कई वर्षों की मेहनत का फल। एक कन्या मित्र हमारी थी,जैसे सावन को ब

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तुम लिखते रहनाउनके मुताबिकउनके लिएजिन्हें पसंद हैतुम्हें पढ़ना तुम्हें सुनना।तुम लिखना जरूरअपने लिए भीऔर अपने अंतर्मन सेउपजी कविताओं का एक बाग लगानाजिसमें बैठ तुम मिल सकोपढ़ सको खुद कोगा सको अ

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जो राह दिखाने वाला हैवह शिक्षक है तुम जानो तो,जो भाव जगाने वाला हैवह शिक्षक है पहचानो तो।युगों-युगों टिक सकता हैवह पर्वत भी हो सकता है,ग़म की नदियाँ पी सकता हैवह सागर भी हो सकता है।सबसे निचले हिस्से मे

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हे माँ शक्ति माँ जगदम्बेपार करो भवसागर अम्बे।मुझमें असुर महिष से लाखोंदुष्ट दलन कर मुझे प्रतापो।ज्योतिर्मय हो निर्मल पावनअंतर्मन में आके बिराजो।शक्ति मुझे दो शक्ति बनूँ मैंमात तुम्हारी भक्ति करूँ मैंद

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