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पुस्तक समीक्षा: चीखती टिटहरी हाँफता अलाव, नवगीत संग्रह -डॉ. रामसनेहीलाल शर्मा 'यायावर

10 अगस्त 2015

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featured imageकृति-चर्चा: चीखती टिटहरी हाँफता अलाव : नवगीत का अनूठा रचाव संजीव * [कृति-विवरण: चीखती टिटहरी हाँफता अलाव, नवगीत संग्रह, डॉ. रामसनेहीलाल शर्मा 'यायावर', आकार डिमाई, आवरण बहुरंगी सजिल्द जैकेट सहित, पृष्ठ १३१, १८०/-, वर्ष २०११, अयन प्रकाशन महरौली नई दिल्ली, नवगीतकार संपर्क: ८६ तिलक नगर, बाई पास मार्ग फीरोजाबाद २८३२०३, चलभाष ९४१२३ १६७७९, ई मेल: dr.yayavar@yahoo.co.in] * डॉ. रामसनेहीलाल शर्मा 'यायावर' ने मन पलाशवन, गलियारे गंध के तथा अँधा हुआ समय का दर्पण के पश्चात चीखती टिटहरी हाँफता अलाव शीर्षक से चौथा नवगीत संग्रह लेकर माँ शारदा के चरणों में समर्पित किया है. नवगीत दरबार पूरी दबंगता के साथ अपनी बात शिष्ट-शालीन-संस्कारिक शब्दावली में कहने में यायावर जी का सानी नहीं है. ठेठ भदेसी शब्दावली की अबूझता, शब्दकोशी क्लिष्ट शब्दों की बोझिलता तथा अंग्रेजी शब्दों की अनावश्यक घुसपैठ की जो प्रवृत्ति समकालीन नवगीतों में वैशिष्ट्य कहकर आरोपित की गयी है, डॉ. यायावर के नवगीत उससे दूर रहते हुए हिंदी भाषा की जीवंतता, सहजता, सटीकता, सरसता तथा छान्दसिकता बनाये रखते हुए पाठक-श्रोता का मर्म छू पाते हैं. कवि पिंगल की मर्यादानुसार प्रथम नवगीत 'मातरम् मातरम्' वंदना में भी युगीन विसंगतियों को समाहित करते हुए शांति की कामना करता है: 'झूठ ही झूठ है / पूर्ण वातावरण / खो गया है कहीं / आज सत्याचरण / बाँटते विष सभी / आप, वे और मैं / बंधु बांधव सखा / भ्रातरम् भ्रातरम्' तथा 'हो चतुर्दिक / तेरे हंस की धवलिमा / जाय मिट / हर दिशा की / गहन कालिमा / बाँसुरीi में / नये स्वर / बजें प्रीति के / / शांति, संतोष, सुख / मंगलम् मंगलम्' . 'कालिमा' की तर्ज पर 'धवलिमा' शब्द को गढ़ना और उसका सार्थक प्रयोग करना यायावर जी की प्रयोगशील वृत्ति का परिचायक है. श्रेष्ठ-ज्येष्ठ नवगीतकार डॉ. महेंद्र भटनागर ने ठीक ही परिलक्षित किया है: 'डॉ. यायावर के नवगीतों की सबसे बड़ी विशेषता है कि उनमें जीवन के प्रति सकारात्मक दृष्टि अपनायी गयी है. ये वातावरण की रिक्तता, मूल्यहीनता के घटाटोप अन्धकार के दुर्दमनीय फैलाव और निराशा के अछोर विस्तार से भले ही गीत का प्रारंभ करते हों परन्तु अंत सदैव आशावाद और आशावादी संदेश के साथ करते हैं.' डॉ. यायावर हिंदी के असाधारण विद्वान, छंद शास्त्री, प्राध्यापक, शोध निदेशक होने के साथ-साथ नवदृष्टि परकता के लिये ख्यात हैं. वे नवगीत के संदर्भ में प्रचलित से हटकर कहते हैं: 'नवगीत खौलाती संवेदनाओं की वर्ण-व्यंजना है, दर्द की बाँसुरी पर धधकते परिवेश में भुनती ज़िंदगी का स्वर संधान है, वह पछुआ के अंधड़ में तिनके से उड़ते स्वस्तिक की विवशता है, अपशकुनी टिटहरियों की भुतहा चीखों को ललकारने का हौसला है, गिरगिटों की दुनिया में प्रथम प्रगीत के स्वर गुंजाने का भगीरथ प्रयास है, शर-शैया पर भीष्म के स्थान पर पार्थ को धार देनेवाली व्यवस्था का सर्जनात्मक प्रतिवाद है, अंगुलिमालों की दुनिया में बुद्ध के अवतरण की ज्योतिगाथा है, लाफ्टर चैनल के पंजे में कराहती चौपाई को स्वतंत्र करने का प्रयास है, 'मूल्यहन्ता' और 'हृदयहन्ता' समय की छाती पर कील गाड़ने की चेष्टा है, बुधिया के आँचल में डर-डर कर आते हुए सपनों को झूठी आज़ादी से आज़ाद करने का गुरुमंत्र है, ट्रेक्टर के नीचे रौंदे हुए सपनों के चकरोड की चीख है, झूठ के कहकहों को सुनकर लचर खड़े सच को दिया गया आश्वासन है और रचनाकार द्वारा किसी भी नहुष की पालकी न ढोने का सर्जनात्मक संकल्प है. वस्तुत: नवगीत समय का सच है.' विवेच्य संग्रह के नवगीत सच की अभ्यर्थना ही नहीं करते, सच को जीवन में उतारने का आव्हान भी करते हैं: 'भ्रम ही भ्रम लिखती रही उमर आओ! अब प्रथम प्रगीत लिखें मन का अनहद संगीत लिखें' (संस्कारी छंद) जनहित की पक्षधरता नवगीत का वैशिष्ट्य नहीं, उद्देश्य है. आम जन की आवाज़ बनकर नवगीत आसमान नहीं छूता, जमीन से अँकुराता और जमीन में जड़ें जमाता है. आपातकाल में दुष्यंत कुमार ने लिखा था: 'कैसे मंज़र सामने आने लगे हैं / गाते-गाते लोग चिल्लाने लगे हैं'. यायावर का स्वर दुष्यंत से भिन्न नहीं है. वे विसंगति, किंकर्तव्यविमूढ़ता तथा आक्रोश तीनों मन:स्थितियों को नवगीतों में ढालते हैं: विसंगति: बुढ़िया के आँचल में / सपने आते डरे-डरे. भकुआ बना हुआ / अपनापन / हँसती है चालाकी पंच नहीं परमेश्वर / हारी / पंचायत में काकी तुलसीचौरे पर दियना अब / जले न साँझ ढरे.' (महाभागवतजातीय छंद) . पैरों में जलता मरुथल है (संस्कारी छंद) और पीठ पर चिथड़ा व्योम हम सच के हो गए विलोम (तैथिक जातीय छंद) . आँगन तक आ पहुँची / रक्त की नदी सूली पर लटकी है / बीसवीं सदी (महादेशिक जातीय छंद) . किंकर्तव्यविमूढ़ता: हो गया गंदा / नदी का जल / यहाँ पर डाँटती चौकस निगाहें / अब कहाँ पर? (त्रैलोक जातीय छंद) घुन गयी वह / घाटवाली नाव / कोई क्या करे? (महाभागवतजातीय छंद) . चाँदनी में / जल रहे हैं पाँव / कोई क्या करे? कट गया वट / कटा पीपल / कटी तुलसी थी यहाँ / छतनार इमली / बात कल सी (त्रैलोक जातीय छंद) अब हुई गायब / यहां की छाँव / कोई क्या करे? (महाभागवतजातीय छंद) . आव्हान : भ्रम ही भ्रम / लिखती रही उमर आओ! अब / प्रथम प्रगीत लिखें मन का अनहद संगीत लिखें। . अर्थहीन कोलाहल में / हम वंशी नाद भरें चलो, चलें प्रिय! इस मौसम में / कुछ तो नया करें . यायावर जी रचित ' ऊर्ध्वगामी चिंतन से संपृक्त इन गीतों में जीवन अपनी पूर्ण इयत्ता के साथ जीवंत हो उठा है. ये गीत लोक जीवन के अनुभवों-अनुभूतियों एवं आवेगों-संवेगों के गीतात्मक अभिलेख हैं. ये गीत मानवीय संवेदनाओं की ऐसी अभिव्यंजना हैं जो मन के अत्यंत समीप आकर कोमल स्पर्श की अनुभूति कराते हैं.सहजता इन गीतों की विशिष्ट है और मर्मस्पर्शिता इनकी पहचान. प्राय: सभी गीत सहज अनुभूति के ताने-बाने से बने हुए हैं. वे कब साकार होकर हमसे बतियाते हुए मर्मस्थल को बेध जाते हैं, पता ही नहीं चलता।' वरिष्ठ समीक्षक दिवाकर वर्मा का यह मत नव नवगीतकारों के लिये संकेत है की नवगीत का प्राण कहाँ बसता है? डॉ. यायावर के ये नवगीत लक्षणा शक्ति से लबालब भरे हैं. जीवंत बिम्ब विधान तथा सरस प्रतीकों की आधारशिला पर निर्मित नवगीत भवन में छांदस वैविध्य के बेल बूटों की मनोहर कलाकारी हृदयहारी है. यायावर जी का शब्द भण्डार समृद्ध होना स्वाभाविक है. असाधारण साधारणता से संपन्न ये नवगीत भाषिक संस्कार का अनुपम उदाहरण हैं. यायावर जी की विशेषता मिथकीय प्रयोगों के माध्यम से युगीन विसंगतियों को इंगित करने के साथ-साथ उनके प्रतिकार की चेतना उत्पन्न करना है. कितने चक्रव्यूह / तोड़ेगा? / यह अभिमन्यु अकेला? यह कुरुक्षेत्र / अधर्म क्षेत्र है / कलियुग का महाभारत यहाँ स्वार्थ के / चक्रोंवाले / दौड़ रहे सबके रथ छल, प्रपंच, दुर्बुद्धि / क्रोध का लगा हुआ है मेला (यौगिक जातीय छंद) . डलहौजी की हड़पनीति / मौसम ने अपनायी अपने खाली हाथों में यह ख़ामोशी आयी (महाभागवत जातीय छंद) . एक मान्यता यह रही है कि किसी घटना विशेष पर प्रतिक्रियास्वरूप नवगीत नहीं रचा जाता। यायावर जी ने इस मिथ को तोडा है. इस संकलन में बहुचर्चित निठारी कांड, २००९ में मुंबई पर आतंकी हमले आदि पर रचे गये नवगीत मर्मस्पर्शी हैं. काँप रहे हैं / गोली कंचे इधर कटारी / उधर तमंचे क्यों रोता है? / बोल कबीरा कोमल कलियाँ / बनी नसैनी नर कंकाल / कुल्हाड़ी पैनी भोले सपने / हँसी दूधिया अट्टहास कर / हँसता बनिया आँख जलाकर / बना ममीरा (वासव जातीय छंद) . अर्थहीन / शब्दों की तोपें / लिए बिजूके शब्दबेध चौहानी धनु के / चूके-चूके शांति कपोत / बंद आँख से करें प्रतीक्षा रक्त पियें मार्जार / उड़े / सतर्क प्रतिहिंसक (महावतारी जातीय छंद) ( यहाँ 'आँख' में वचन दोष है, 'आँखों' होना चाहिए) . चंद्रपाल शर्मा 'शीलेश' के अनुसार 'संगीत से सराबोर इन गीतों का हर चरण भारतीय संस्कृति और लोक रस का सरस प्रक्षेपण करता है. नई प्रयोगधर्मिता, लक्षणा से भरपूर विचलन, जीवंत बिम्बात्मकता, रसात्मक प्रतीकात्मकता तथा राग-रागिनियों से हाथ मिलाता हुआ छंद विधान इन गीतों की साँसों का सञ्चालन करते हैं.'' यायावर जी ने दोहा नवगीत का भी प्रयोग किया है. इसमें वे मुखड़ा दैशिक जातीय छंद का रखते हैं जबकि अंतरे एक दोहा रखकर, पदांत में मुखड़े की समतुकान्ती देशिक जातीय गीत-पंक्ति रखते हैं: न युद्ध विराम है / सतत संग्राम है (दैशिक जातीय छंद) बाहर-बाहर कुटिल रास, भीतर कुटिल प्रहार मिला ज़िंदगी से हमें, बस इतना उपहार (दोहा) न खनिक विराम है / सतत संग्राम है (दैशिक जातीय छंद) . यायावर जी का शब्द-भण्डार समृद्ध है. इन नवगीतों में तत्सम शब्द: चीनांशुक, अभीत, वातायन, मधुयामिनी, पिपिलिकाएँ, अंगराग, भग्न चक्र, प्रत्यंचा, कंटकों, कुम्भज, पोष्य, परिचर्या, स्वयं आदि, तद्भव शब्द: सांस, दूध, सांप, गाँव, घर, आग आदि, देशज शब्द: सुअना, मछुआरिन, कित्ता, रचाव, समंदर, चूनर, मछरी, फोटू, बुड़बक, जनम, बबरीवन, पीपरपांती, सतिया, कबिरा, ढूह, ढैया, मड़ैया, तलैया आदि शब्द-युग्म: छप्पर-छानी, शब्द-साधना, ऐरों-गैरों, नाम-निशान, मंदिर-मस्जिद, गत-आगत, चमक-दमक, काक-राग, सृजन-मंत्र, ताने-बाने, रवि-शशि, खिले-खिलाये, ताता-थैया, लय-ताल, धूल-धूसरित, भूखी-प्यासी, छल-बल आदि उर्दू शब्द: अमीन, ऐरे-गैरे-नत्थू खैरे, काबिज़, परचम, फ़िज़ाओं, मजबूरी, तेज़ाबी, सड़के, ममीरा, फ़क़ीरा, रोज़, दफ्तर, फौजी, निजाम आदि, अंग्रेजी शब्द: बैंक-लॉकर, ओवरब्रिज, बूट, पेंटिंग, लिपस्टिक, ट्रैक्टर, बायो गैस, आदि पूरी स्वाभाविकता से प्रयोग हुए हैं. एक शब्द की दो आवृत्तियाँ सहज द्रष्टव्य हैं. जैसे: डरे-डरे, राम-राम, पर्वत-पर्वत, घाटी-घाटी, चूके-चूके, चुप-चुप, प्यासी-प्यासी, पकड़े-पकड़े, मारा-मारा, अकड़े-अकड़े, जंगल-जंगल, बित्ता-बित्ता, सांस-सांस आदि. यायावर जी ने पारम्परिक गीत और छंद के शिल्प और कलेवर में प्रयोग किये हैं किन्तु मनमानी नहीं की है. वे गीत और छंद की गहरी समझ रखते हैं इसलिए इन नवगीतों का रसास्वादन करते हुए सोने में सुगंध की प्रतीति होती रहती है. ***

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रचनाएँ
sanjivsalil
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साहित्य की सभी विधाओं में चिंतनपरक रचनाएँ.
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मुक्तिका: हँसो भी

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मुक्तिका संजीव *मापनी: १२२११ -१२२११ -१२११ मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन फ़ऊलुन*करेंगे कुछ न तो कुदरत न दे कुछ किसी की कब नहीं हसरत रही कुछहँसो भी, हँस पड़ो कसरत नहीं यह हमीं हैं खुद खुदा, किस्मत नहीं कुछतजेंगे हम नहीं ये दल न संसद करेंगे नित तमाशे, गम नहीं कुछबनेगे हम नहीं शंकर, न कंकर न सोये हम, न सोओ तुम, जगो क

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नवगीत: संसद की दीवार पर

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संजीव *संसद की दीवार पर दलबन्दी की धूल राजनीति की पौध पर अहंकार के शूल *राष्ट्रीय सरकार की है सचमुच दरकार स्वार्थ नदी में लोभ की नाव बिना पतवारहिचकोले कहती विवश नाव दूर है कूल लोकतंत्र की हिलाते हाय! पहरुए चूल *गोली खा, सिर कटाकर तोड़े थे कानून क्या सोचा था लोक का तंत्र करेगा खून?जनप्रतिनिधि करते रहे

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पुस्तक समीक्षा: चीखती टिटहरी हाँफता अलाव, नवगीत संग्रह -डॉ. रामसनेहीलाल शर्मा 'यायावर

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कृति-चर्चा:चीखती टिटहरी हाँफता अलाव : नवगीत का अनूठा रचावसंजीव*[कृति-विवरण: चीखती टिटहरी हाँफता अलाव, नवगीत संग्रह, डॉ. रामसनेहीलाल शर्मा 'यायावर', आकार डिमाई, आवरण बहुरंगी सजिल्द जैकेट सहित, पृष्ठ १३१, १८०/-, वर्ष २०११, अयन प्रकाशन महरौली नई दिल्ली, नवगीतकार संपर्क: ८६ तिलक नगर, बाई पास मार्ग फीरोज

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