( साधू और भिखारी ) लघू कथा
यारपुर की पुरानी बस्ती की एक गली में एक दिन एक साधू और भिखारी आमने सामने हो गये। साधू ने एक नज़र भिखारी की कमज़ोर काया को देखा, फिर पता नहीं उसके मन में क्या भाव पैदा हुआ कि वह पांच रुपिये का सिक्का निकालकर उसे देने लगा । ये देख भिखारी को अच्छा नहीं लगा वह ज़रा पीछे हटकर कहने लगा कि एक भिखारी कभी भी आपके जैसे किसी गरीब साधू या किसी और भी गरीब भिखारी से दान या भीख़ नहीं लेता । ये मेरे आत्मसम्मान की भी बात है। वैसे भी मैं किसी मुहल्ले के हर घर के आगे मैं हाथ नहीं फ़ैलाता । हर मुहल्ले में 2 से 4 घर के सामने ही मैं भिक्षा के लिए खड़े होता हूं .। वे लोग ख़ुशी ख़ुशी मुझे भीख़ देते भी हैं । तब साधू ने पूछा , इस मुहल्ले में किस किस घर से तुम्हें भिक्षा मिलती है । जवाब में भिखारी ने कहा वह बायें हाथ में जो चौथा गुलाबी घर है । वहां से मुझे लगभग रोज़ भिक्षा मिलती है । वह घर किसी शिवशंकर गुप्ता जी का है । मैं इस मुहल्ले में केवल उसी घर में अपनी झोली फ़ैलाता हूं । तब उस साधू ने कहा ऐ भिक्षुक तुम्हें शायद पता नहीं है कि वह मेरा ही घर है । वहां मेरे तीन पुत्र अपने अपने परिवार के साथ रहते हैं । आज से साल भर पूर्व मैं वहां का मुखिया था । लगभग उसी समय उन तीनों भाइयों ने न जाने किस कारण से मुझे घर से निकाल दिया । तब से मैं साधू बन गया हूं । अब सारा संसार मेरा घर बन गया है । इस मुहल्ले में मै कभी कभी अपने नाती पोतों को देखने आता हूं और वे कभी घर के बाहर मिल जाते हैं तो उन्हें खिलौने भेंट कर देता हूं । इससे मुझे बहुत ख़ुशी मिलती है ।
इतना सुनते ही न जाने क्यूं उस भिक्षुक के आंखों में आंसू की धारा बहने लगीं । वह साधू से बिना कुछ कहे मुड़कर वापस कहीं चला गया । उस दिन के बाद से न जाने क्यूं उस भिखारी को उस मुहल्ले के लोगों कभी भी न देखा ।
( समाप्त )